कुँअर बेचैन की कहानी उनकी जुबानी-
" मेरा जन्म सन् 1 जुलाई 1942 को हुआ था। मुरादाबाद के पास उमरी नाम का गाँव है वहाँ मेरा जन्म हुआ था। मेरे पिता वहाँ पटवारी थे और हमारे खानदान में पटवारी रहते चले जा रहे थे।अच्छा खानदान था...खूब संपन्न लोग थे हम।जब मैं दो महीने का था, तभी मेरे पिताजी का देहांत हो गया था | पिता के देहांत के पाँच महीने बाद मैं मेरी माँ के पास लेटा हुआ था हमारे घर में डकैती पड़ गयी। तो उन्होने मुझ पर चाकू रख दिया और मां से बोला कि कहाँ कहाँ पैसा गड़ा है, दे दो नहीं तो हम इसको मार देंगे । मेरी माँ ने कहा इसे छोड़ दो मैं बता देती हूँ । लगभग 27 कलश सोने चांदी के जेवरात से भरे हुए जमीन में गढ़े थे जिसे वो खोद कर ले कर चले गए । इस घटना से माँ डर गयी। मेरी बड़ी बहन को लेकर माँ अपनी माँ के गाँव आ गयी और अपना गाँव छोड़ दिया। तब मैं डेढ़ वर्ष तक अपनी नानी के पास रहा।उसके बाद अपने मौसा- मौसी के पास रहा।जब मैं दो वर्ष का था उनके साथ मुरादाबाद आ गया। मेरा पालन पोषण उन्होंने सात महीने किया।उसके बाद मेरी बड़ी बहन की शादी कर दी गई। बहन की विदाई के समय मैं दरवाजे पर खडा था तो कोई चोर मुझे उठाकर लेकर भाग गया। बाराती चोरों से छुड़ा कर लेकर आये।उसके बाद दो वर्ष तक के लिए बहन- बहनोई के साथ मुरादाबाद चला गया|जब मैं सात वर्ष का था, तब माँ का देहांत हो गया और जब नौ वर्ष का था, मेरी बहन का भी देहांत हो गया। मैं और जीजाजी घर में अब अकेले रह गए।
बहन के देहांत के बाद घर की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी।हम कच्चे घर में रहते थे।घर में बिजली नहीं थी। मैं स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ता था।जीजाजी खाना बनाना नहीं जानते थे।हम दोनों लोगों ने सबसे पहले खिचडी बनाना सीखा।बाजरी की रोटी तवा उल्टा करके चूल्हे पर बनाते थे।उस रोटी के टुकडे़ टुकड़े होते तो भी मैं खाता था ।वो ऐसा दिन था जिसकी रोटी की महक बहुत भारी रही।"
बाजरे की रोटी का जिक्र माँ और बहन से जोड़ कर उन्होंने लिखा-
"हजारों खुशबुएँ दुनियाँ में है पर उससे छोटी है
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है"
अपने संघर्ष की कहानी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा-
"मैं अपने दर्द को व्यक्त करने के लिए गाने लगा।जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था ।तब कक्षा अध्यापक ने जो खुद भी कविता लिखते थे, उन्होंने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया और तुलसीदास पर कविता लिखने के लिए कहा। मैं लिख नहीं पाया। उन्होंने मेरा कवि रूप पहचान लिया था इसलिए उन्होंने वापस बोला कल तुलसी जयंती पर तुझे सब बच्चों के सामने कविता बोलना है।सैकड़ों छात्रों के सामने मैंने कविता सुनाई। जिसे सुनकर बहुत वाहवाही हुई,तब से मेरी कविता की यात्रा का प्रारंभ हुआ।
अपनी तंग हाली को बताते हुए कहा "स्कूल के दिनों में मेरे पास दो जोड़ी कपड़े थे। एकबार बरसात होने से गंदे कपड़े नही धोये थे ,तो गंदे कपडे़ पहन कर ही स्कूल चला गया | मेरे टीचर ने देखा और मुझे क्लास से बाहर निकाला। उसी कक्षा में मेरा मित्र था उसने मेरी आपबीती सर को सुना कर कहा कि बहुत गलत किया आपने उसके साथ। सर ने उसी समय कक्षा छोड़ी और मेरे पास आये।मेरे पैरों में पड़कर माफ़ी मांगी। कृष्ण कुमारजी नाम था उनका। फिर वो अपने घर ले गए और मुझे खाना खिलाया।वो लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। सन् 1659 में 16 वर्ष की आयु में सुरेन्द्र मिश्र और हिंदी प्रभाग के अध्यक्ष गंगाधर राय ने मुझे कविता, ग़ज़ल और गीत लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया। वे अपने साथ कवि सम्मेलन और मुशायरें में मुझे ले जाते थे। "
इतने दर्द भरे जिंदगी के सफ़र में भी वो आशावादी बने रहे और ग़ज़ल- गीतों के जरिये आशा का संचार लोगों के दिलों में करते रहे -
"जिंदगी भोर है सूरज से निकलते
एक ही ठाँव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे धीरे ही सही राह पे चलते रहिये"
सन् 1965 से 2002 तक हिंदी विभाग में अपनी सेवाएं देते हुए। कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी शिरकत से लोगों के दिल में घर बनाते रहे।उनके गीत और ग़ज़लों की महक सिर्फ देश में ही नहीं सात समंदर पार भी महकी। उनको अनेक देशों ने आमंत्रित किया। रूस, सिंगापुर, दुबई, हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी और पाकिस्तान की यात्राएँ की। जहाँ उनके गीतों और ग़ज़लों को बहुत सराहा और उनको कई सम्मानों से नवाजा।
कुँअर बेचैन की साहित्य साधना-
9 गीत संग्रह, 15 ग़ज़ल संग्रह ,2कविता संग्रह,1 दोहा संग्रह,हाइकु संग्रह, 2 उपन्यास,1 महाकाव्य, 1 सैद्धांतिक पुस्तक,नवगीत,
बाल गीत, यात्रा वृतांत.. कुल उनकी 150 पुस्तकें एक अलग ही दुनिया में ले जाती है।
अनेक महाविद्यालयों और विद्यालयों के 16 पाठ्यक्रमों में आपकी कविताएँ बेहतरीन मार्ग दर्शक रही। आपके द्वारा लिखी पुस्तकों पर 20 से ज्यादा रिसर्च स्कॉलर ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से PhD की डिग्री हासिल की।डॉ. कुँअर बेचैन को उनकी साहित्य सेवाओं के लिए देश के नामी साहित्य संस्थाओं, कई अकादमी ने उन्हें सम्मानित किया, उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार और महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और डॉ. शंकर दयाल शर्मा द्वारा उनको सम्मानित किया गया।
आपके गीत टीवी सीरियलों के अलावा फिल्मों में भी सुनने को मिले।आकाशवाणी और टीवी सीरियलों में उनके द्वारा लिखे गीत काफी लोकप्रिय हुए।
फ़िल्म 'कोख' में रवींद्र जैन के संगीत और हेमलता जी के स्वर में गाया गीत लोगों में बहुत मशहूर हुआ।
"जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना"
निखिल कौशिक नेत्र विशेषज्ञ,कवि और फिल्म निर्माता ने उनकी फिल्म 'भविष्य दी फ्यूचर में कुँअर बेचैन के गीत को लिया।
"नदी बोली समंदर से, मैं तेरे पास आई हूँ"
और
"बदरी बाबुल के अंगना जइयो"
जो फिल्म टशन में भी लिया था लेकिन उनके नाम का कही भी जिक्र नही किया था।
कौशिक ने उनसे पूछा " मैं प्रायः सोचता और पूछता हूँ आपने आप से केवल मुस्कराते क्यों है ?..आपको कभी क्रोध क्यों नही आता ?.."
तब डॉ.बेचैन उनको बताते है कि वे किसी आलोचना को भी मान का अधिकारी मानते है।
बेचैन कहा करते थे
"सिकती रोटी की महक मेरा संघर्ष था जितना दुःख सिखाता उतना कोई नही दुःख ही मेरा गुरु है।
उन्होंने पत्नी का जिक्र करते बताया कि शादी के बाद पत्नी मेरी गुरु रही।
ग़ज़ल की तमीज़ के बिना उन्होंने पत्नी के लिए पहली बार ग़ज़ल नुमा एक रचना लिखी थी
"मेरे पास तू नही तो मेरे पास तेरा ग़म है
तेरी याद संग है मेरे , क्या मेरे लिए ये कम है।"
सन् 1963-64 में रामधारी सिंह दिनकर ने एक कवि सम्मेलन में उनके गीत की प्रतिक्रिया में बेचैन की प्यार से पीठ थपथपाई।
डॉ .अशोक चक्रधर ने कहा " डॉ. कुँअर बेचैन ने कितनी किताबें लिखी उनमें से कितने ग़ज़ल संकलन हैं,उनमें कितनी अतुकांत कविताओं की किताबें हैं, कितने ही गीत,कितने उपन्यास हैं,कहानियाँ हैं ये तो सब जानते हैं लेकिन कुँअर बेचैन का व्यक्तित्व क्या है उसे कितने लोगो ने पढ़ा हैं लेकिन उनको पढ़ना आसान नहीं ।वे समंदर से गहरे इंसान है पेड़ से ऊँचे व्यक्तित्व है"
राज कौशिक पत्रकार- "मेरा सौभाग्य कि मैं उनका स्टूडेंट की रहा।शायरी में छह सात साल में पहली भैरवी डॉ .कुँअर ने बतायी।" डॉ. बेचैन के लिए कौशिक ने लिखा-
"न तुम हो चांद ना सूरज ना दीप या जुगनू"
फिर आस पास तुम्हारे ये रोशनी क्यूँ है"
प्रगीत कुँअर ( पुत्र) ने पिता के लिए अपने उद्गार व्यक्त किये *"डॉ कुँअर बेचैन जी को पिता के रूप में पाना अपने आप में वरदान से ज्यादा कुछ नहीं । जहाँ तक उनकी रचनाओं का सवाल है उनकी रचनाएँ इतनी मौलिक है उसे किसी भी परिवेश में आप नाप तोल सकते है और वे लोगों को प्रेरणा देती है।"
हमारे देश के गंगा जमुनी तहज़ीब के लिए बेचैन के विचार है ," मनुष्यता सबसे बड़ी चीज है। मुझे तो तमाम शायरों के साथ वसीम बरेलवी साहब का बहुत बहुत प्यार मिला।
हिंदू मुस्लिम एकता पर उन्होने लिखा-
"भले ही हममें तुममें कुछ रूप रंग का भेद हो
कि खुशबुओं में फर्क क्या गुलाब हम गुलाब तुम"
"कुछ तुम बदल के देखो, कुछ हम बदल के देखे
जैसे भी हो दिलो का मौसम बदल के देखो"
साहित्य साधना में लीन डॉ.बेचैन आज की पीढी़ के साथ साथ आने वाली पीढी़ के लिए बेहतरीन उदाहरण है कि संघर्ष से शख़्सियतें सदा निखरती हैं।
नये कवियों और लेखकों को संदेश देते हुए कहा, "नये लेखकों से मैं यहीं कहना चाहता हूँ जिस भी विधा में वो लिख रहे कहानी लिखे तो कहानी की, कविता लिखे तो कविता की। कविता में कई विधाएँ हैं..गीत है, ग़ज़ल है ..अलग अलग विधाएँ है..उन विधाओं की पूरी जानकारी हासिल करें।..जल्दबाजी नहीं करे। कला का कोई शॉर्ट कट नहीं हैं।कला में तपस्या करनी पड़ती हैं।इंतजार करता पड़ता । "
"तुम भी बहार से आगे निकल गए
तुम मेरे इंतज़ार से आगे निकल गए
पीछे तुम्हारे वो तो बडी़ दूर तक गयी
कभी मेरी पुकार से आगे निकल गए"
डॉ. कुँअर का अंतिम सफ़र- डॉ. कुँअर बेचैन को कोरोना ने हमसे छीन लिया। कोरोना होने की जानकारी कुमार विश्वास के ट्वीट से हुई।15 अप्रेल 2021,9.29 पर
कुमार विश्वास ने डॉ. कुँअर बेचैन के लिए ट्वीट कर वेंटिलेटर की माँग की थी।
कुमार विश्वास के ट्वीट के बाद गौतम नगर के सांसद डॉ. महेश शर्मा ने मदद लिए हाथ बढ़ाया | कैलाश अस्पताल में शिफ्ट कराने की बात की थी।
@डॉ. कुमार विश्वास, "रात को 12 बजे तक प्रयास करता रहा, सुबह से प्रत्येक परिचित डॉक्टर को कॉल कर चुका हूँ। हिंदी के वरिष्ठ गीतकार गुरु प्रवर डॉ. कुँअर बेचैन कॉस्मोस हॉस्पिटल, आनंद विहार, दिल्ली में कोविड उपचार में है। ऑक्सीजन लेवल सत्तर तक पहुँच गया, तुरंत वेंटिलेटर की आवश्यकता है। कहीं कोई बेड नही मिल रहा।"
उसके बाद उनके लिए जीवन और मौत के बीच संघर्ष चलता रहा। तब भी वे आशा से और खुशी से भरे हुए थे।
29 अप्रेल 2021 को काव्य साहित्य का एक और सूरज कोरोना के चलते अस्त हो गया । गुरुवार को कुंअर बेचैन का निधन हो गया , वह लंबे समय से संक्रमण से लड़ रहे थे उस जंग में जिंदगी को हार गए। लेकिन साहित्य जगत में उनकी आज भी मौजूदगी है।
गीतों व ग़ज़लों दोनों में उनके काफिये- रदीफ़ चुस्त दुरुस्त होते रहे ।ग़ज़लों का व्याकरण उनका इतना सटीक था कि लोग तुकांतों की खोज के लिए उनकी ग़ज़लों को आज भी पढा करते है और आगे भी पढ़ते रहेंगे। आम आदमी अक्सर मृत्यु से घबराता है । पर कवियों में ही यह साहस है कि वे न केवल मृत्यु का सामना करते हैं बल्कि मृत्यु पर लिखते भी सर्वाधिक हैं। यों तो वे मूलत : आशावादी कवि रहे हैं फिर भी देखिए मृत्यु को भी वे किस दिलेरी से स्वीकार करते हुए लिखते हैं
"मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूं जिन्दगी आ , तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूं"
" चाहता हूं मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूं ..कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े...सोचता हूं हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूं"
और देखिए कि किस घड़ी में उन्हें यहां से जाना पड़ा जैसे कि वे इस घड़ी के लिए तैयार बैठे हों।
काव्य कवियों में शोक की लहर फैल गयी। उनके निधन पर उनकी समकालीन गीतकार डॉ . मधु चतुर्वेदी ने दुख प्रकट किया है । उन्होंने कहा कि "कुंअर जी का जाना बहुत दुखद है । हिंदी गीतों की वाचिक परंपरा के हस्ताक्षर के जाने से आए अवकाश को भरा नहीं जा सकता । लंदन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में दो भारतीय गीतकारों के सम्मान हुआ था । मेरा सौभाग्य है कि वह मैं और कुंअर जी थे । उनके साथ अनेक कार्यक्रम और यात्राएं की , जो अब यादों में हैं ।"
गीत और ग़ज़ल का सितारा आज के ही दिन एक वर्ष पूर्व पंच तत्व में विलीन हो गया हो भले लेकिन ग़ज़ल और गीत का अध्याय उनको पढ़े बिना पूरा नही हो सकता। ऐसी शख़्सियत को नमन ...जो जमीन से उठकर साहित्य के आकाश की ऊँचाईयों का कोना कोना छान आये और समंदर सी गहराई अपने व्यक्तित्व में समेट कर अपनी कलम की पैनी धार से कागज़ के पन्नों पर उकेर दी हो मानो। ऐसे सरल मना व्यक्तित्व को हार्दिक नमन
मीनाक्षी कुमावत 'मीरा' की प्रस्तुति
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