और नवंबर के आखिरी दिनों में श्रीलाल शुक्ल हमारे घर आ गए। उन दिनों हम वार्डेन रोड के पास बोमन जी बाट 'रोड पर छह मंजिला 'सीतामहल' के टैरेस फ़्लैट में रहते थे। सुखद संयोग था कि दूसरी मंज़िल पर उर्दू के बहुत बड़े लेखक सरदार जाफ़री रहते थे। उस हमारे घर की टैरेस तो बहुत बड़ी थी ही, घर का ड्रॉइंग रूम भी खासा बड़ा था। एक दिन सरदार जाफ़री ने कहा, “पुष्पा बीबी, बेटी की शादी करनी है और पता लगाया तो मालूम हुआ है कि शादी के लिए हॉल बेहद महँगे मिल रहे हैं। तो अपने प्यारे खाविंद से कहो कि बेटी की शादी हम तुम्हारे घर के हॉल में करेंगे, दावत तुम्हारी टैरेस पर हो जाएगी !"
ज़ाहिर है, 'न' का सवाल ही नहीं था। अच्छा भी लगा कि इसी बहाने उर्दू के तमाम नामी लेखक और कवि हमारे घर आएँगे। ये दूसरी बात है कि दूसरे दिन माथा ठोक लिया, जब बड़े शौक से लगाए पच्चीसियों गमले उस फुलबगिया के पीकदान जैसे बने देखे। जिस टैरेस पर कभी पु.ल. देशपांडे का आठ-दस लेखक मित्रों के साथ 'कथाकथन' हुआ था। एक लेखक कोई कहानी शुरू कर देता और बारी-बारी से वहीं बैठे-बैठे दूसरा व्यक्ति उसे आगे बढ़ा देता, कई बार तरह-तरह के ट्विस्ट आते और कहानी आगे बढ़ती रहती। कितना आकर्षक और मजेदार था यह आयोजन ! यह वही जानता है, जिसने ऐसा होते देखा और सुना हो। वहाँ बच्चन का शरद पूनो की रात में खुली छत पर चाँदनी में भीगते हुए भोर फूटने तक हुआ कविता पाठ श्रोताओं को दिव्य अनुभव दे गया।
संयुक्ता पाणिग्रही ने जिस दिन उस छत पर नृत्य किया था, वह अपने भीतर डूबी- डूबी-सी बहुत देर तक नाचती ही रहीं, बहुत-बहुत देर तक नाचीं और फिर प्रणाम करके वहीं आँखें मूँदकर बैठी रहीं। फिर खड़े होकर बोलीं, "बड़े-बड़े प्रेक्षागृहों में सैकड़ों-हजारों दर्शकों के सामने प्रोग्राम हुए हैं, पर विश्वास कीजिए कि आज स्वयं मुझे जो आनंद मिला है, वह अनुभव पहले कभी नहीं मिला। मेरा हार्दिक प्रणाम है भारती जी को!" मंत्रमुग्ध से सभी दर्शक खड़े होकर करतल ध्वनि करते रहे।
अरे यादों की भूलभुलैया में मैं भूल ही गई कि मुझे तो श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास 'राग दरबारी' से जुड़ा संस्मरण लिखना है। तो लीजिए, इस भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता मिल गया। खुद 'राग दरबारी' पर कुछ लिखूँ, इसके बजाय ओम निश्चल के लिखे एक विस्तृत लेख से कुछ पंक्तियाँ उधार लेकर आपका परिचय 'राग दरबारी' से करा देती हूँ। उन्होंने लिखा है : "हिंदी के समृद्ध लेखकीय परिदृश्य में बहुत कम ऐसे लेखक होंगे, जिन्हें श्रीलाल शुक्ल जैसी ख्याति मिली हो। हिंदी में उपन्यास भी बहुतेरे लिखे गए हैं, किंतु 'राग दरबारी' अपने आप में अनूठा है। किस्सागोई की ऐसी विरल शैली किसी अन्य कथाकार के यहाँ देखने को नहीं मिलती। एक बड़े आख्यान को व्यंग्य की अटूट शैली में पेश करना आसान नहीं।
व्यंग्य के सिरमौर लेखक हरिशंकर परसाई के पास भी व्यंग्य, निबंध और कहानियाँ तो हैं, पर मौजूदा समाज, जड़ता से ग्रस्त ग्राम जीवन, अफसरशाही और राजनीति के गठजोड़ को इतनी पैनी व्यंग्यात्मकता से प्रस्तुत करने वाला कोई बड़ा आख्यान नहीं है। व्यंग्य को ही किस्सागोई की शैली में बरतने में माहिर ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास 'बारामासी' में भी वह बात नहीं, जो 'राग दरबारी' में श्रीलाल शुक्ल ने संभव की।
'राग दरबारी' में आज़ादी के बाद के लोकतांत्रिक प्रहसन के संजीदा तंत्र को विनोदपूर्ण शैली में आदि से अंत तक उद्घाटित किया गया है। आज़ादी के बाद राजनीति, संस्कृति, सभ्यता और जीवन मूल्यों के गिरते हुए ग्राफ का जीवंत दस्तावेज है 'राग दरबारी'। सच तो यह है कि हल्की-फुल्की समझी जाने वाली व्यंग्य विधा को परसाई के बाद श्रीलाल शुक्ल ने एक क्लासिक ऊँचाई दी है।"
पुस्तक में क्या है, इसकी झलक ओम निश्चल की इन लिखी पंक्तियों से बखूबी मिल ही गई होगी। अब आइए, आपको उस एक घटना के बारे में बताती हूँ, जिसने श्रीलाल शुक्ल की सबसे विचित्र समस्या हल कर दी थी। अपने अनलिखे उपन्यास का ताना-बाना तो वे मन ही मन बन चुके थे, लेकिन कई नामी पुस्तकों के लेखक इस उपन्यास को शुरू कैसे करे, यह सोच और समझ ही नहीं पा रहे थे। खुद अपने आप से आजिज़ होकर वे भारती जी के पास उनके घर आए थे कि यहाँ के वातावरण में ज़रूर मुझे उपन्यास की शुरुआत कैसे करूँ, यह सूझ जाएगा और बस एक बार शुरू हो जाए तो पूरा होने में देर नहीं लगेगी।
उन्होंने जो भी सोचा हो, पर मैं देखती तो यह थी कि वे घर की चारदीवारी में ही पड़े रहते थे। कभी घंटों बड़ी-सी टैरेस पर घूमते रहते, कभी छत की मुँडेर से सटे कुछ ही दूरी पर लहराते ब्रीच कैंडी के समुद्र को देखते रहते। अपने कमरे में रखी मेज पर कागज-कलम लिये मुझे कभी एक पल को भी उनके दर्शन नहीं हुए। अपने मातृत्व के प्रति निहाल मैं बेटे के लालन-पालन में कुछ अनचाहे व्यवधानों से परेशानी भी अनुभव करने लगी थी
ये कैसे अतिथि मिले हैं मुझे, जब पूछें, “भाईसाहब, खाना लगाऊँ ?" तो कहते, "तुम्हारे घर खाना खाने आया हूँ क्या ? अरे पुष्पा, मैं यहाँ उपन्यास शुरू करने आया हूँ!” कभी कहते, “जब भूख लगेगी, खा लूँगा। अभी नहीं।"
सुबह पूछें, “चाय लाऊँ!” वही जवाब, “यहाँ चाय पीने आया हूँ क्या ? उपन्यास शुरू करना है मुझे।"
उन्हें छाछ पसंद थी। शाम को जब पूछँ, "चाय लेंगे या छाछ !" तो उत्तर मिलता, "चाय, छाछ, शर्बत ही नहीं, लंबी लिस्ट सुना दो भई! मैं यहाँ यह सब पीने नहीं आया, मैं ‘राग दरबारी' का पहला आलाप खोजने आया हूँ। ऐसी स्थिति धीरे-धीरे मुझे नागवार गुज़रने लगी थी तो तंग आकर भारती जी से सारी स्थिति बताई और कहा, "छोटे बच्चे के साथ अकेले ऐसा बेढब आतिथ्य झेलना अब ज़रा मुश्किल लग रहा है। कभी समय पर कुछ नहीं करते और दिन भर कभी कुछ, कभी कुछ फ़रमाइशें करते रहते हैं।" भारती जी सुनते रहे। फिर बड़ी सहजता से बोले, "अरे, आप बिलकुल परेशान मत होइए! बड़ा अनोखा और प्यारा इंसान है यह। कल ही कह रहा था, 'यहाँ इतनी बड़ी छत मिली है, टहल-टहलकर सोचते रहो। ऐसा सुंदर लहरों पर पछाड़ खाता समंदर घर बैठे देखने को मिल रहा है। ऐसा दिव्य आनंद मुझे और कहाँ मिलेगा ?' और यह भी कह रहा था कि 'बहुत सुगढ़ गृहिणी हो तुम, चुपचाप मेरी सुविधाओं का खयाल करती रहती हैं। मेरा कमरा, मेरे कपड़े, सब साफ़-सुथरे कर देती है । मुझे कोई तकलीफ होने ही नहीं देती। बड़े बेलौस आनंद में मैं 'राग दरबारी' की दुनिया में घुसने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा हूँ।' देखो, आप ऐसा करो कि पूछो मत कुछ, चुपचाप सुबह की चाय और नाश्ता उसकी मेज पर रख आओ। विश्वास करो, जब चाय पीनी होगी तो देखेगा भी नहीं कि ठंडी हो गई है, वह मज़े में पी लेगा। ऐसा ही खाने के साथ करना, जब उसे भूख लगेगी, खा लेगा। बड़ा मलंग है मेरा यार, खातिरदारियों के लफड़े में नहीं पड़ता। एक बार उसे समझ लेंगी आप तो परेशान नहीं होंगी। निश्चित रहिए, वह बहुत खुश है यहाँ । बस, उसे अपने उपन्यास की चिंता है, कुछ संशय है, कुछ उलझनें हैं, वह निपट जाएँ और उपन्यास की शुरुआत कैसे हो, इसके सूत्र उसे मिल जाएँ और उसके शब्दों में ‘खुल जा सिमसिम' हो जाए तो कागज-कलम हाथ में लेकर सामान्य जीवन जीने लगेगा तो सहज-सरल आदमी बन जाएगा। थोड़ा-सा सब्र कर लीजिए आप !"
भारती जी की बात सही थी। मैं सचमुच इस परिप्रेक्ष्य में उनके अटपटेपन को समझ नहीं पाई थी। धीरे-धीरे वे बड़े अच्छे और अनोखे लगने लगे।
और लीजिए, एक दिन वह भी आ गया, जब 'राग दरबारी' जैसे चमत्कारी उपन्यास के लेखन के पहले अध्याय की शुरुआत की शुभ घड़ी भी आ पहुँची। दस दिन से भारती जी रोज़ कहते थे, “जब से आए हो, घर की चारदीवारी में ही घुसे हुए हो, हज़ार बार कहा कि चलो, बंबई दिखा कर लाएँ, चलो, खाली ड्राइव पर ही चलें।" पर उन्होंने कभी नहीं सुना। फिर एक दिन खुद ही बोले, "तुम्हारी छत की मुँडेर से टिके-टिके जिस ऐसी मनोहारी छटा देखता रहता हूँ, चलो, उसे निकट से देखने चलते हैं।"
समुद्र की अंधा क्या चाहे, दो आँखें! भारती जी मित्र के साथ सहर्ष निकल लिये। हमारे घर की सड़क को पार कर बोमन जी अस्पताल से लगी हुई एक पतली-सी गली थी, जिसे पार कर समुद्र आ जाता था। इसी शॉर्टकट से भारती जी अपने मित्र को पास से समुद्र दिखाने ले गए। श्रीलाल बहुत पुलकित थे, तट पर घूम-घूमकर देख रहे थे। एक ओर किनारे पर छोटी-सी चट्टान दिखाई दी। दोनों वहीं बैठ गए और बतियाने लगे। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी सिर पर टोकरी रखे हाँक लगा रहा है-हाऽ पुऽऽ स ले लो, हापुस... श्रीलाल कुछ समझ ही नहीं पाए। बोले, “क्या कह रहा है यह ?" भारती जी ने बताया, "आम बेच रहा है
'आम? ये तो कुछ और ही कह रहा है । "
"हाँ, यह हापुस आम बेच रहा है। यहाँ अलफ़ांजो आम को हापुस कहते हैं।" श्रीलाल बोले, “तो बुलाओ उसे, देखें, बंबई का हापुस क्या शै है!" हापुस वाला आया। आम तोलकर प्लास्टिक की थैली में डालकर दे दिए। भारती जी ने थैली को पास में रख लिया और फिर बतियाना शुरू कर दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, तब की बातों का सिलसिला चल रहा था, पर श्रीलाल का ध्यान हापुस आम की ओर था। बोले, “क्या यार, आम यों बगल में रखने के लिए खरीदे हैं क्या ? दो इधर, हम तो यहीं खाएँगे तुम्हारे ये हाऽपुऽऽस।"
भारती जी बोले, “अरे नहीं, ये आम काटकर खाये जाते हैं ! घर चलकर खाएँगे।" 'काटकर खाएँगे ? डॉक्टर ने बोला है काटकर खाने को ? दो हमें, हम तो अभी खाएँगे।" और एक हापुस को उलट-पुलटकर देखा और आराम से उसे मसल-मसलकर पिलपिला कर दिया और चेंपी उँगलियों से पकड़कर मज़े मज़े से आम चूसते रहे।
"हाँ, वाकई है तो मीठा, बढ़िया है", कहकर छिलका हटाकर उसकी गुठली निकाली और बोले, "तुमने नहीं खाया, वरना अभी हम दोनों छिछली खेलते और मैं शर्तिया जीत जाता ! पर चलो, अकेला ही छिछली खेलकर दिखाता हूँ।" कहकर खड़े हो गए और समुद्र तट पर किनारे-किनारे पानी में पैर जमा दिए और हाथ-पैर साधकर पूरा जोर लगाकर आम की गुठली को निशाना साधकर फेंका। और जब वह लहरों पर उछलती-उछलती दूर चली गई और आँखों से ओझल हो गई तो भारती जी की पीठ पर प्यारा-सा धौल जमाकर बोले, 'धत्/तुम्हारी बंबई की... चलो, अब घर चलते हैं। पुष्पा मेज़ पर खाना सजाये हमारी राह देख रही होंगी।"
लौटते समय भारती जी ने सोचा कि इतने दिन हो गए, इसे यहाँ आए हुए और ये एक दिन भी घर से बाहर नहीं निकला। शॉर्टकट वाली गली से न निकलकर सड़कों पर निकल कर ज़रा यहाँ की रौनक दिखाते हुए चला जाए। श्रीलाल भी खुशी-खुशी खरामा -खरामा सड़क के दोनों ओर देखते हुए फुटपाथ पर चलते चले आ रहे थे कि भारती जी ने अचानक देखा कि वह एक जगह खड़े होकर सामने की इमारत को घूरकर देख रहे हैं- भौंहें तनी हुईं और नथुने फूले हुए। भारती जी बोले, “क्यों, थक गए क्या ?" श्रीलाल भन्नाई आवाज़ में बोले, “हाँ, थक गया हूँ! तुम्हारे जैसे लोगों की दुर्दशा देखकर थक गया हूँ।" भारती जी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। भौंचक से बोले, "अरे, क्या हुआ है मेरी दशा को, जो दुर्दशा हो गई ?" दन्न से उनका जवाब आया, "दुर्दशा नहीं तो क्या है यह! इतने बड़े साप्ताहिक 'धर्मयुग' के संपादक हो। देश में चारों ओर अनगिनत पाठक हैं तुम्हारे। मैंने सुन रखा है कि बड़े-बड़े मिनिस्टर और नेता लोग भी तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं, सम्मान करते हैं तुम्हारा। यह मत समझना कि मैं तुम्हारी लल्लो-चप्पो कर रहा हूँ! नहीं, असलियत से वाकिफ़ हूँ कि तुम्हारी यहाँ क्या हैसियत बन गई है, पर तुम हो कि तुमने खुद अपनी दुर्दशा कर रखी है। यह देखो, सामने क्या है ?"
कुछ झल्लाये से भारती जी बोले, “क्या है भई ! अरे कोई ऐतिहासिक मॉन्यूमेंट नहीं है । अंग्रेजों का बनाया एक क्लब है, बस!" जिस टोन में भारती जी बोले, उसी की नकल करते हुए श्रीलाल बोले, “एक क्लब है, बस्स... अरे, इसी दुर्दशा की बात कही थी मैंने। थक गया हूँ मैं! हाँ, थक गया हूँ। आँख के अंधे हो क्या ! तुम्हारी दुर्दशा नहीं तो क्या है यह कि तुम्हें दिखाई ही नहीं देता कि सामने क्या लिखा है! दीदे फाड़कर देखो - लिखा है 'डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट एलाउड'। आज़ाद हैं हम, सत्रह बरस की जवान हो गई है हमारी आजादी और अभी तक यह जिल्लत झेल रहे हैं हम! सरकारी तंत्र अंधा है, बस, वोट की जोड़-तोड़ में लगा रहता है। न कुशासन है, न सुशासन, बस, लफ्फाजी चलती रहती है। राजनीति के नाम पर ! तुम तो ऐसे नहीं थे ! तुमने अपनी काबिलियत प्रूव भी कर दी है। क्या तुम एक बार भी अपने प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की आँख नहीं खोल सकते कि यह गलीज़ बोर्ड ही यहाँ से हटवा दें!" और बड़बड़ाते हुए श्रीलाल ने चारों ओर देखा। कुछ दिखाई नहीं दिया तो सामने रखे गमले से मिट्टी उठाई और बोर्ड पर पोत दी और ऊपर से थूक दिया, बोले, “घर चलो, सिर चकरा रहा है।" भारती जी चुपचाप चल दिए। फ़ुटपाथ पर दोनों साथ चल रहे थे, लेकिन श्रीलाल अकस्मात् भारती जी की चाल से ज्यादा तेज चलने लगे और आगे निकल गए। दूर से भारती जी ने देखा कि उन्हें ये रास्ते तो मालूम नहीं थे। सो, गलत मोड़ पर मुड़ गए हैं। फुटपाथ पर लगभग दौड़कर भारती जी ने उन्हें पकड़ा और बोले, “अब क्या तुम्हारा हाथ पकड़कर चलना पड़ेगा! माफ़ कर दो यार, गलती हो गई मुझसे ! कुछ तो करना था मुझे, पर दोस्त! भला अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है क्या ?"
"वाह-वाह, क्या कहने आपके !" बोले श्रीलाल, " 'अंधायुग' और 'मुनादी' का लेखक कह रहा है यह! वाह, वाह!"
"ठीक है यार, अब देखना, मैं जो लिखने जा रहा हूँ, वह अकेला चना भाड़ फोड़ तो नहीं सकेगा, पर उसमें इतनी दरारें ज़रूर डाल देगा कि प्रबुद्ध लोग सोचने को मजबूर हो जाएँगे, चूलें कुछ तो हिलेंगी।"
बस, फिर सामान्य चाल से चलकर वे लोग घर पहुँच गए। छठी मंज़िल पर घर था हमारा। भारती जी लिफ़्ट की ओर बढ़े तो श्रीलाल बोले, "तुम लिफ्ट से जाओ। मैं सीढ़ियाँ चढ़कर पहुँच जाऊँगा।" बहस करना बेकार था। भारती जी ऊपर पहुंचकर बाल, पुष्पा जी, झटपट दो प्याले गरमागरम चाय बना दीजिए, वह दो मिनट में आ जाएगा।" पर कुछ ही देर बाद श्रीलाल आ पहुँचे और लगभग हाँफते हुए बोले, "पुष्पा, तुम जैसी छाछ बनाती हो न, वो पुदीने वाली, झट से बना दो प्लीज़! आज तुम्हारी बंबई देखी हमने, क्या कहने महानगर के, वाह-वाह, क्या कहने! अब ज़रा छाछ पी लें तो ठंड पड़े।" कहकर अपने 'अरे, ऐसा तो नहीं है कि कमरे की ओर चले गए, पर ज़रा देर में ही लौट पड़े और बोले, दही-वही न हो और लिहाज़ में तुम नीचे बाज़ार से दही लाने दौड़ पड़ो। खबरदार, जो इस समय गई ! "
मैं बोली, “दही-वही सब है, आपका प्रिय पुदीना भी है।" तो आश्वस्त हो गुनगुनाते हुए अपने कमरे में चले गए।
इत्तफाक की बात थी कि दही तो घर में सचमुच नहीं था। मैंने सोचा, कोई बात नहीं। मैं नीचे बाज़ार से लाने जा सकती हूँ, क्योंकि दोनों इतनी देर बाद घूम-घामकर लौटे हैं तो ज़रूर थक गए होंगे। एक तो आते ही बाथरूम में घुस गए हैं और दूसरे भी ज़रूर अपने कमरे में घुस जाएँगे और पैंट-शर्ट उतारकर लुँगी-बनियान पहनकर तरोताज़ा हो जाएँगे। उसमें कुछ देर तो लगेगी ही, तब तक मैं वापस भी आ जाऊँगी और अतिथि देव की फ़रमाइश पूरी कर दूँगी। वही हुआ... और मैं लस्सी का गिलास लेकर पहुँची तो यह क्या ? देखती हूँ कि कैसी लुँगी, कैसी बनियान और कैसी बाथरूम की शावर की फुहार ! उन्होंने तो जूते तक नहीं उतारे थे और दत्तचित्त मेज़ पर कुहनी टिकाये और हथेली पर सिर धरे कागज़ों पर सर्र-सर्र लिखे जा रहे थे! हाय! इन्हीं क्षणों का तो इतंजार था मुझे ! सोचा, चुपचाप लौट जाऊँ, पर लस्सी तो देनी चाहिए ना ! सो, चुपचाप गिलास आगे कर दिया। मेरी ओर एक क्षण चुपचाप देखकर बोले, “अरे मुक्ता राजे जी 'सत्यकथा' तो यह है कि मैंने तो चाय माँगी थी और आप 'रोमांचक' लस्सी ले आयीं।" मैं समझ तो गई थी, पर उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा, इसलिए सॉरी बोलकर चुपचाप चली आयी और झटपट अदरक डालकर चाय बना लायी। और बिना कुछ बोले चाय मेज़ पर रखकर जाने लगी तो बोले, "अरे सुगढ़ गृहिणी जी, अपनी एक झलक दिखाकर कहाँ चलीं, थैंक यू तो ले लें !"
और बिना मेरी ओर देखे ‘थैंक यू' कहा और उसी गति से लिखते रहे, जिस तरह अब तक लिख रहे थे। मैंने भी उसी तरह 'वैलकम' कहा और चली आयी, पर कमरे से बाहर आकर धड़ाम से ड्रॉइंग रूम में रखे सोफ़ा में धँस गई और घंटों बैठी सोचती रह गई कि मुझसे बीच- बीच में इतनी बातें करते रहे थे, पर उनकी लेखनी तो पल भर के लिए भी कभी रुकी नहीं। ऐसा अजूबा न मैंने कभी किया था, न देखा था। वैसे मैंने भारती जी को कहानी लिखते समय कभी-कभी आँसू पोंछते या मुस्कराते या हँसते ज़रूर देखा था या कभी कविता लिखते समय कुछ गुनगुनाते भी देखा था, पर ऐसा करते हुए उनकी कलम नहीं चलती थी। श्रीलाल भाई साहब का बतियाने और साथ-साथ लिखते रहने का ऐसा करिश्मा ज़िंदगी में पहली बार देखा ।
एक लेखक जो हर समय सूट-बूट पहने सरकारी दंद-फंद के कामों में लगे रहने की यंत्रणा से तंग आकर अपने मित्र के घर के शांत घरेलू वातावरण में बैठकर उपन्यास लिखने की कामना लेकर आया था, पर यहाँ घर पर तो वह टैरेस पर घंटों टहलता रहता था या छत की मुँडेर से टिके-टिके बड़ी देर-देर तक समुद्र को देखता रहता था। न कभी नियमित सामान्य रूप से खाते-पीते, उठते-बैठते देखा था। कभी कुछ हाल-चाल पूछने या बात करने की जुर्रत करो तो ऊल-जलूल जवाब सुनने पड़ते। थक-हारकर उनके हाल पर उन्हें छोड़ दिया था मैंने । मुझे क्या मालूम था कि धन्य भाग्य थे मेरे कि मैंने 'राग दरबारी' के सुर, तान और ताल को यों सुर साधते देखा और सुना ।
वह 'राग दरबारी', जो सन् 1968 में छपा और अगले ही बरस उसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया। फिर तो झड़ी लग गई पुरस्कारों और सम्मानों की - पद्मभूषण, साहित्य भूषण, लोहिया अति विशिष्ट सम्मान, व्यास सम्मान और मैथिलीशरण गुप्त सम्मान आदि-आदि से लेकर भारत का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान भी उन्हें अलंकृत किया गया।
व्यंग्य लेखन का मानक और मील का पत्थर बना उपन्यास कहा है 'राग दरबारी' को सूर्यबाला ने। इस पर मिले सम्मान पुरस्कार अभिनंदनों और प्रशस्तियों के बारे में कुछ कहने को सूर्यबाला ने गहरे कुतूहल के साथ जब उनसे पूछा तो उनका जवाब एकदम छोटा-सा था। बोले, 'पुस्तक का भाग्य' यानी कि सारे यश, प्रसिद्धि और लोकप्रियता से निस्पृह यह सरस्वती पुत्र सारा का सारा श्रेय भाग्य को दे देता है। वह भी अपने भाग्य को नहीं, पुस्तक के भाग्य को !
मन होता है कि सूर्यबाला से पूछें, “क्या ऐसे ही वाक्यों को ब्रह्म वाक्य कहते हैं ? क्या यही होते हैं : 'देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर!"
और यह भी पूछूं कि क्या कहोगी मेरे भाग्य को, जिसने 'राग दरबारी' के पहले आलाप को अपने कानों से सुना ही नहीं, देखा भी। छठी मंज़िल पर बने मेरे घर की बड़ी- सी छत पर टहल-टहलकर जिस उपन्यास का ताना-बाना बुना जाता रहा। छत की मुँडेर पर टिके-टिके दूर तक फैले ब्रीच कैंडी के विशाल समुद्र को अपलक एकटक देखते हुए जिस उपन्यास के चरित्रों को गढ़ा गया और अंततः एक दिन उस समुद्र की उत्ताल तरंगों के निकट बैठकर हापुस आम चूसकर उसकी गुठली से छिछली खेली और उसका वंदन किया यह कहकर कि 'धत् तेरे की, तुम्हारी बंबई की!'
और फिर उस दिन यशस्वी लेखक श्रीलाल शुक्ल ने हमारे घर के कमरे में बैठकर 'राग दरबारी' की पहली पंक्ति लिखी : "शहर का किनारा ! उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।" और इस तरह हो गई थी 'राग दरबारी' की अथ कथा !
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पुष्पा भारती की स्मृति से
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