‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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मंगलवार, 20 जून 2023

पुष्पा भारती...कल -कल बहती एक 'नेह' नदी

भौगोलिक रूप से हर नदी का एक नाम होता है पर संबंधों की कुछ नदियाँ हमारे भीतर भी तो बहती हैं न! शीतल जल से हमारी ज़मीन को गीला कर उर्वर बनाती हैं।भीतर कुछ सूखा है तो नेह जल का छिड़काव कर देती हैं। कुछ खो गया तो थपकी दे ढूंढ लाने को कहती हैं...

     जुलाई 2014 का दिन नहीं भूल पाती। बाहर सावन की घनघोर बारिश। मुंबई की बरसात मुझे बेहद पसंद है पर उस दिन जो भीतर बरस रहा था वह थम ही नहीं रहा था। कविताओं की पुरानी हरी डायरी सामने रखी थी।पीले पड़ते पन्ने...यूँ ही उड़ जाएंगे...बिब्बी को गये चार साल बीत गए पर अवसाद भीतर पैठ कर गया।उनका पर्स,चश्मा छूते- छूते और कविताएँ पढ़ते हुए जैसे भीतर एक भूचाल आ गया था। कभी भी कविताएँ कहीं छपने नहीं भेजी। वे नितांत अकेली यात्रा की सहभागी थी, बस अपवाद के रूप में अजित कुमार जी के कहने पर एक संयुक्त कविता संग्रह के लिए दी थी।एक प्रश्न ने सिर उठाया -'क्या बच्चे मुझे जानते हैं?' वह तो सिर्फ माँ से परिचित हैं।परिवार की धुरी संभाले स्तम्भ से लिपटते हैं पर कितना कुछ है जो संदुकों में बंद है! इस मन को क्यों न साझा किया जाए।मेरे जाने पर शायद वे भी मुझे ऐसे ही याद करें।उनके लिए विरासत में क्या छोड़कर जाऊं? यहाँ भौतिक ज़मीन की बात नहीं है पर जो नितांत अपना है उसे ही तो विरासत में दे सकती हूँ न! सब कविताओं को एक संग्रह में सहेज लूँ तो शायद वह किताब ही मेरी असली विरासत होगी।सिर्फ और सिर्फ यही सोच कर कविताएँ प्रकाशित करने की सोची। ये भी सोचा कि जब मैं ना रहूँ तो बच्चे उस किताब को पकड़ कर मुझे छुने का अहसास कर सकते हैं।यहीं से प्रकाशन की शुरुआत हुई।

      अगला सवाल कौंधा कि इस की राह तो पता नहीं।किस डगर जाऊँ? एक नाम जो सबसे पहले याद आया वह था - 'धर्मवीर भारती'।उनकी 'कनुप्रिया' और 'अंधा युग' सिराहने रहती थी।जानती थी कि वे अब नहीं है। पर उसी क्षण सोचा पुष्पा भारती जी तो हैं। उन्होंनें अपना जीवन भारती जी के साथ बिताया है।उनके लेख और साक्षात्कार धर्मयुग में पढ़े थे।उन्हें चौपाल में कई बार देखा और सुना था पर संकोचवश व्यक्तिगत रूप से मिली नहीं थी। कौन गली से जाऊँ!

        फिर वकील युग याद किया।डेस्क टाॅप पर धर्मवीर भारती जी की वेबसाइट पर गयी।घर का नम्बर कागज़ पर लिखा और फोन लगा दिया। वह संवाद शब्दश याद है- 

   ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ...'हैलो'

' नमस्कार।मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ। मुझे पुष्पा भारती जी से बात करनी है '।

' मैं पुष्पा भारती ही बोल रही हूँ।कहिए '।

' जी नमस्कार। मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ।व्यवसायिक रूप से वकील हूँ और कविताएँ लिखती हूँ'।

' अरे बेटा बहुत अच्छा लगा कि तुम वकील हो।आजकल लड़किया हर जगह कितना कुछ काम करती हैं'।

' जी। लेकिन मैंने अलग कारण से फोन किया है।यदि आज भारती जी होते तो मैं यह फोन उन्हें करती। क्योंकि अब वे नहीं है इसीलिए आपको कर रही हूँ।मैं कविताएँ लिखती हूँ और उन्हें प्रकाशित करवाना चाह रही हूँ लेकिन मुझे ये नहीं मालूम कि वे प्रकाशन के लायक हैं या नहीं। अगर आप कुछ समय निकाल कर मेरी कुछ कविताएँ सुन कर अपनी राय दे तो मैं किसी निर्णय पर पहुँच पाऊँगी।मैं कब आ सकती हूँ?'

'अरे बिटिया कल आ जाऔ'

' जी। कितने बजे?'

' ग्यारह बजे। और आने से पहले फोन कर लेना।मैं भूल जाती या कोई कार्यक्रम बदला तो बता दूंगी '।

' जी बिल्कुल ' कह कर फोन रख दिया।

अगली सुबह निकलने से पहले 10 बजे फोन किया।हामी सुन कर पहुँच गयी। बांद्रा ईस्ट में बसे साहित्य सहवास प्रांगण की शाकुंतलम बिल्डिंग में।सीढ़ियाँ चढ़ते हुए कितनी बार भारती जी को सोचा, महसूस किया। 39 साल पहले दौलतराम काॅलेज की लाइब्रेरी से शुरू हुई यात्रा यहाँ मुंबई में उनके घर की देहरी पर ले आई! उनकी किताबों और धर्मयुग ने एक अलग दुनियाँ से जोड़ा। घंटी बजाई और सामने पुष्पा जी! चौपाल में देखा,सुना था। लेख, साक्षात्कार, संस्मरण पढ़े थे और अब उनके सामने उनकी देहरी पर खड़ी थी! उन्हें याद दिलाया कि कविताएँ सुनाने आई हूँ। उन्होंनें वहीं खड़े हुए कहा - ' बिटिया कविताएँ तो मैं सुनूँगी पर मैं बहुत मुँहफट हूँ।अगर कविताएँ मुझे अच्छी नहीं लगी तो साफ कह दूँगी कि छपवाने की आवश्यकता नहीं है।अगर तुम में 'ना' सुनने की हिम्मत है तो सुनाना वरना तुम घर आई हो तो साथ में चाय पियेंगे और बस...'

' जी बिल्कुल।आपसे ज्यादा निष्पक्ष कौन हो सकता है? अगर मुझे हाँ ही सुननी होती तो मैं अपनी मित्र मंडली को ही सुना देती। मुझे बिल्कुल ईमानदार प्रतिक्रिया चाहिए'।

' चलो अंदर आऔ'- उनके ड्राइंगरूम में भारती जी की कुर्सी देख कर अजीब सी सिहरन हुई। सबसे मजबूत रिश्ता - लेखक और पाठक का है।

पुष्पा जी ने कविताएँ सुननी शुरू की।उनके भीतर होती प्रतिक्रिया चेहरे पर...खंड दर खंड। 

    'चैती सरसो', 'बैसाखी कचनार ',' जेठ का बंजर' ,'सावनी तीज', 'फाल्गुनी मन'...

' अरे बिटिया तुम कहाँ थी? भारती जी होते तो तुम्हें लपक कर छापते।तुम सीधे प्रकाशन के लिए जाऔ...

     पुष्पा जी यदि कविता सुन कर आपने स्वीकृति की मोहर नहीं लगाई होती तो 'सरसो से अमलतास' हरी डायरी में ही सिमटी रहती। छपवाने की महत्वकांक्षा थी ही नहीं, बस विरासत छोड़ने की बात थी। आपने मुझे हिम्मत दी,साहस दिया,आत्मविश्वास दिया। घंटो उस घर में बैठकर आपको सुना। 2014 से उस देहरी को नमन करती हूँ। समय बहता है वहाँ पर एक बहती हुई नदी ठहरी है...

  - चित्रा देसाई की स्मृति से


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बुधवार, 3 मई 2023

याद है वो किस्सा: मोहन राकेश

     बात उन दिनों की है जब राकेश जी 'सारिका' के संपादक होकर आए थे और बोमनजी पैटिट रोड पर सीतामहल के ठीक पीछे उन्हें भी टाइम्स से घर मिला था।

भारतीजी अपनी गाड़ी खुद ड्राइव करके जाते थे। मोहन राकेश अकेले ही रहते थे सो तय हुआ कि सुबह हमारे घर आ जाया करेंगे और भारतीजी के साथ नाश्ता करके दोनो साथ ही ऑफ़िस चले जाएँगे। मुझे बड़ा अच्छा लगता था उस समय दोनो की बातें और खिलखिलाती हँसी सुन कर।

एक दिन की बात सुनिए- उन दिनों 'ज्ञानोदय' शरद देवड़ा के संपादन में कलकत्ता से निकलता था। मैं उसमें महान लेखकों कवियों की निजी प्रेम कहानियाँ लिखती थी। उस बार मुझे अपनी किश्त भेजने में देर हो गई और अरजैंट टैलीग्राम आ गया। मैं रात भर बिना एक पल सोए लिखती रही। तीन बरस की बेटी केका मेरे ही साथ सोती थी पर वह भी हज़ार कहने पर भी पूरी रात यों ही जागी पड़ी रही।

ख़ैर, मुझे तो काम करना ही था। कथा पूरी करके केका को गोद में चिपका कर सो गई।

सुबह उठ कर जो देखा कि होश उड़ गए। केका महारानी चैन से सोई पड़ी थीं और मेरे लिखे कागज़ों के फटे टुकड़े चारों ओर फैले थे। मैं सिर पकड़े ज़ार ज़ार रो रही थी। रोज़ की तरह राकेश जी आए। सब समाचार सुनकर भारतीजी से बोले आप जाइए और मेरी केबिन में जाकर बता दीजिएगा कि मैं देर से आऊँगा।

       और मित्रों एक-एक चिंदी बीन कर उन्होंने एक कागज़ पर पज़ल की तरह टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ कर इतना लंबा लेख जोड़ दिया।और मैं विस्फारित आँखों से देखती रह गई। वे बोले बातें बाद में, अब मैं टैक्सी पकड़ कर टाइम्स भागता हूँ।  वहाँ से शरद को तुरंत भेज सकूँगा।

और वह तो ये जा वह जा!!!! बिना नाश्ता पानी के भाग गए।

क्या आखिरी साँस तक आजीवन भुला सकूँगी यह किस्सा " साहित्कार" का ........🙏🏻

                                 ......पुष्पा भारती जी की कलम से


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रविवार, 9 अप्रैल 2023

'राग दरबारी' का पहला आलाप

 मैंने  जब पहली बार पुत्र को जन्म दिया तो लगा कि मुझे ईश्वर ने वरदान दिया है। मातृत्व की जो अभूतपूर्व अविस्मरणीय अनुभूति हुई थी, उसे शब्दों में व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। भले ही अक्सर उसे गोद में लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान की लाइनें याद कर लूँ कि 'मेरी गोदी की शोभा, सुख सुहाग की लाली' या उसे घुटनों के बल चलते देख पुलकित हो याद कर लूँ कि 'घुटुरन चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये', पर आज तक उस सुख को शब्द नहीं दे सकी। उन दिनों हर पल उसी सुख को जीने में बीत रहा था। ऐसे में एक दिन लखनऊ से भारती जी के पास उनके परमप्रिय मित्र श्रीलाल शुक्ल का फोन आया कि “यहाँ सरकारी सूचना विभाग के निदेशक के रूप में हर समय सूट-बूट से लैस मैं सारे दिन जिस तरह व्यस्त रहता हूँ, उसकी भीषण यंत्रणा जिस तरह झेलता रहता हूँ, वह मैं ही जानता हूँ। ऐसे में मित्र, मुझे एक उपन्यास लिखने की सूझी है। उसके पात्र रात-दिन मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, पर यहाँ के वातावरण में लिखना संभव नहीं। क्या कुछ दिन तुम्हारे घर आकर इसे लिखना शुरू कर सकता हूँ?" स्वाभाविक है कि भारती जी ने कहा, "यह भी कुछ पूछने की बात है! तुम्हारा स्वागत है मित्र!"

और नवंबर के आखिरी दिनों में श्रीलाल शुक्ल हमारे घर आ गए। उन दिनों हम वार्डेन रोड के पास बोमन जी बाट 'रोड पर छह मंजिला 'सीतामहल' के टैरेस फ़्लैट में रहते थे। सुखद संयोग था कि दूसरी मंज़िल पर उर्दू के बहुत बड़े लेखक सरदार जाफ़री रहते थे। उस हमारे घर की टैरेस तो बहुत बड़ी थी ही, घर का ड्रॉइंग रूम भी खासा बड़ा था। एक दिन सरदार जाफ़री ने कहा, “पुष्पा बीबी, बेटी की शादी करनी है और पता लगाया तो मालूम हुआ है कि शादी के लिए हॉल बेहद महँगे मिल रहे हैं। तो अपने प्यारे खाविंद से कहो कि बेटी की शादी हम तुम्हारे घर के हॉल में करेंगे, दावत तुम्हारी टैरेस पर हो जाएगी !"

ज़ाहिर है, 'न' का सवाल ही नहीं था। अच्छा भी लगा कि इसी बहाने उर्दू के तमाम नामी लेखक और कवि हमारे घर आएँगे। ये दूसरी बात है कि दूसरे दिन माथा ठोक लिया, जब बड़े शौक से लगाए पच्चीसियों गमले उस फुलबगिया के पीकदान जैसे बने देखे। जिस टैरेस पर कभी पु.ल. देशपांडे का आठ-दस लेखक मित्रों के साथ 'कथाकथन' हुआ था। एक लेखक कोई कहानी शुरू कर देता और बारी-बारी से वहीं बैठे-बैठे दूसरा व्यक्ति उसे आगे बढ़ा देता, कई बार तरह-तरह के ट्विस्ट आते और कहानी आगे बढ़ती रहती। कितना आकर्षक और मजेदार था यह आयोजन ! यह वही जानता है, जिसने ऐसा होते देखा और सुना हो। वहाँ बच्चन का शरद पूनो की रात में खुली छत पर चाँदनी में भीगते हुए भोर फूटने तक हुआ कविता पाठ श्रोताओं को दिव्य अनुभव दे गया।

संयुक्ता पाणिग्रही ने जिस दिन उस छत पर नृत्य किया था, वह अपने भीतर डूबी- डूबी-सी बहुत देर तक नाचती ही रहीं, बहुत-बहुत देर तक नाचीं और फिर प्रणाम करके वहीं आँखें मूँदकर बैठी रहीं। फिर खड़े होकर बोलीं, "बड़े-बड़े प्रेक्षागृहों में सैकड़ों-हजारों दर्शकों के सामने प्रोग्राम हुए हैं, पर विश्वास कीजिए कि आज स्वयं मुझे जो आनंद मिला है, वह अनुभव पहले कभी नहीं मिला। मेरा हार्दिक प्रणाम है भारती जी को!" मंत्रमुग्ध से सभी दर्शक खड़े होकर करतल ध्वनि करते रहे।

अरे यादों की भूलभुलैया में मैं भूल ही गई कि मुझे तो श्रीलाल शुक्ल के कालजयी उपन्यास 'राग दरबारी' से जुड़ा संस्मरण लिखना है। तो लीजिए, इस भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता मिल गया। खुद 'राग दरबारी' पर कुछ लिखूँ, इसके बजाय ओम निश्चल के लिखे एक विस्तृत लेख से कुछ पंक्तियाँ उधार लेकर आपका परिचय 'राग दरबारी' से करा देती हूँ। उन्होंने लिखा है : "हिंदी के समृद्ध लेखकीय परिदृश्य में बहुत कम ऐसे लेखक होंगे, जिन्हें श्रीलाल शुक्ल जैसी ख्याति मिली हो। हिंदी में उपन्यास भी बहुतेरे लिखे गए हैं, किंतु 'राग दरबारी' अपने आप में अनूठा है। किस्सागोई की ऐसी विरल शैली किसी अन्य कथाकार के यहाँ देखने को नहीं मिलती। एक बड़े आख्यान को व्यंग्य की अटूट शैली में पेश करना आसान नहीं।

व्यंग्य के सिरमौर लेखक हरिशंकर परसाई के पास भी व्यंग्य, निबंध और कहानियाँ तो हैं, पर मौजूदा समाज, जड़ता से ग्रस्त ग्राम जीवन, अफसरशाही और राजनीति के गठजोड़ को इतनी पैनी व्यंग्यात्मकता से प्रस्तुत करने वाला कोई बड़ा आख्यान नहीं है। व्यंग्य को ही किस्सागोई की शैली में बरतने में माहिर ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास 'बारामासी' में भी वह बात नहीं, जो 'राग दरबारी' में श्रीलाल शुक्ल ने संभव की।

'राग दरबारी' में आज़ादी के बाद के लोकतांत्रिक प्रहसन के संजीदा तंत्र को विनोदपूर्ण शैली में आदि से अंत तक उद्घाटित किया गया है। आज़ादी के बाद राजनीति, संस्कृति, सभ्यता और जीवन मूल्यों के गिरते हुए ग्राफ का जीवंत दस्तावेज है 'राग दरबारी'। सच तो यह है कि हल्की-फुल्की समझी जाने वाली व्यंग्य विधा को परसाई के बाद श्रीलाल शुक्ल ने एक क्लासिक ऊँचाई दी है।"


पुस्तक में क्या है, इसकी झलक ओम निश्चल की इन लिखी पंक्तियों से बखूबी मिल ही गई होगी। अब आइए, आपको उस एक घटना के बारे में बताती हूँ, जिसने श्रीलाल शुक्ल की सबसे विचित्र समस्या हल कर दी थी। अपने अनलिखे उपन्यास का ताना-बाना तो वे मन ही मन बन चुके थे, लेकिन कई नामी पुस्तकों के लेखक इस उपन्यास को शुरू कैसे करे, यह सोच और समझ ही नहीं पा रहे थे। खुद अपने आप से आजिज़ होकर वे भारती जी के पास उनके घर आए थे कि यहाँ के वातावरण में ज़रूर मुझे उपन्यास की शुरुआत कैसे करूँ, यह सूझ जाएगा और बस एक बार शुरू हो जाए तो पूरा होने में देर नहीं लगेगी।

उन्होंने जो भी सोचा हो, पर मैं देखती तो यह थी कि वे घर की चारदीवारी में ही पड़े रहते थे। कभी घंटों बड़ी-सी टैरेस पर घूमते रहते, कभी छत की मुँडेर से सटे कुछ ही दूरी पर लहराते ब्रीच कैंडी के समुद्र को देखते रहते। अपने कमरे में रखी मेज पर कागज-कलम लिये मुझे कभी एक पल को भी उनके दर्शन नहीं हुए। अपने मातृत्व के प्रति निहाल मैं बेटे के लालन-पालन में कुछ अनचाहे व्यवधानों से परेशानी भी अनुभव करने लगी थी

ये कैसे अतिथि मिले हैं मुझे, जब पूछें, “भाईसाहब, खाना लगाऊँ ?" तो कहते, "तुम्हारे घर खाना खाने आया हूँ क्या ? अरे पुष्पा, मैं यहाँ उपन्यास शुरू करने आया हूँ!” कभी कहते, “जब भूख लगेगी, खा लूँगा। अभी नहीं।"

सुबह पूछें, “चाय लाऊँ!” वही जवाब, “यहाँ चाय पीने आया हूँ क्या ? उपन्यास शुरू करना है मुझे।"

उन्हें छाछ पसंद थी। शाम को जब पूछँ, "चाय लेंगे या छाछ !" तो उत्तर मिलता, "चाय, छाछ, शर्बत ही नहीं, लंबी लिस्ट सुना दो भई! मैं यहाँ यह सब पीने नहीं आया, मैं ‘राग दरबारी' का पहला आलाप खोजने आया हूँ। ऐसी स्थिति धीरे-धीरे मुझे नागवार गुज़रने लगी थी तो तंग आकर भारती जी से सारी स्थिति बताई और कहा, "छोटे बच्चे के साथ अकेले ऐसा बेढब आतिथ्य झेलना अब ज़रा मुश्किल लग रहा है। कभी समय पर कुछ नहीं करते और दिन भर कभी कुछ, कभी कुछ फ़रमाइशें करते रहते हैं।" भारती जी सुनते रहे। फिर बड़ी सहजता से बोले, "अरे, आप बिलकुल परेशान मत होइए! बड़ा अनोखा और प्यारा इंसान है यह। कल ही कह रहा था, 'यहाँ इतनी बड़ी छत मिली है, टहल-टहलकर सोचते रहो। ऐसा सुंदर लहरों पर पछाड़ खाता समंदर घर बैठे देखने को मिल रहा है। ऐसा दिव्य आनंद मुझे और कहाँ मिलेगा ?' और यह भी कह रहा था कि 'बहुत सुगढ़ गृहिणी हो तुम, चुपचाप मेरी सुविधाओं का खयाल करती रहती हैं। मेरा कमरा, मेरे कपड़े, सब साफ़-सुथरे कर देती है । मुझे कोई तकलीफ होने ही नहीं देती। बड़े बेलौस आनंद में मैं 'राग दरबारी' की दुनिया में घुसने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रहा हूँ।' देखो, आप ऐसा करो कि पूछो मत कुछ, चुपचाप सुबह की चाय और नाश्ता उसकी मेज पर रख आओ। विश्वास करो, जब चाय पीनी होगी तो देखेगा भी नहीं कि ठंडी हो गई है, वह मज़े में पी लेगा। ऐसा ही खाने के साथ करना, जब उसे भूख लगेगी, खा लेगा। बड़ा मलंग है मेरा यार, खातिरदारियों के लफड़े में नहीं पड़ता। एक बार उसे समझ लेंगी आप तो परेशान नहीं होंगी। निश्चित रहिए, वह बहुत खुश है यहाँ । बस, उसे अपने उपन्यास की चिंता है, कुछ संशय है, कुछ उलझनें हैं, वह निपट जाएँ और उपन्यास की शुरुआत कैसे हो, इसके सूत्र उसे मिल जाएँ और उसके शब्दों में ‘खुल जा सिमसिम' हो जाए तो कागज-कलम हाथ में लेकर सामान्य जीवन जीने लगेगा तो सहज-सरल आदमी बन जाएगा। थोड़ा-सा सब्र कर लीजिए आप !"

भारती जी की बात सही थी। मैं सचमुच इस परिप्रेक्ष्य में उनके अटपटेपन को समझ नहीं पाई थी। धीरे-धीरे वे बड़े अच्छे और अनोखे लगने लगे।

और लीजिए, एक दिन वह भी आ गया, जब 'राग दरबारी' जैसे चमत्कारी उपन्यास के लेखन के पहले अध्याय की शुरुआत की शुभ घड़ी भी आ पहुँची। दस दिन से भारती जी रोज़ कहते थे, “जब से आए हो, घर की चारदीवारी में ही घुसे हुए हो, हज़ार बार कहा कि चलो, बंबई दिखा कर लाएँ, चलो, खाली ड्राइव पर ही चलें।" पर उन्होंने कभी नहीं सुना। फिर एक दिन खुद ही बोले, "तुम्हारी छत की मुँडेर से टिके-टिके जिस ऐसी मनोहारी छटा देखता रहता हूँ, चलो, उसे निकट से देखने चलते हैं।"

समुद्र की अंधा क्या चाहे, दो आँखें! भारती जी मित्र के साथ सहर्ष निकल लिये। हमारे घर की सड़क को पार कर बोमन जी अस्पताल से लगी हुई एक पतली-सी गली थी, जिसे पार कर समुद्र आ जाता था। इसी शॉर्टकट से भारती जी अपने मित्र को पास से समुद्र दिखाने ले गए। श्रीलाल बहुत पुलकित थे, तट पर घूम-घूमकर देख रहे थे। एक ओर किनारे पर छोटी-सी चट्टान दिखाई दी। दोनों वहीं बैठ गए और बतियाने लगे। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी सिर पर टोकरी रखे हाँक लगा रहा है-हाऽ पुऽऽ स ले लो, हापुस... श्रीलाल कुछ समझ ही नहीं पाए। बोले, “क्या कह रहा है यह ?" भारती जी ने बताया, "आम बेच रहा है


'आम? ये तो कुछ और ही कह रहा है । "

"हाँ, यह हापुस आम बेच रहा है। यहाँ अलफ़ांजो आम को हापुस कहते हैं।" श्रीलाल बोले, “तो बुलाओ उसे, देखें, बंबई का हापुस क्या शै है!" हापुस वाला आया। आम तोलकर प्लास्टिक की थैली में डालकर दे दिए। भारती जी ने थैली को पास में रख लिया और फिर बतियाना शुरू कर दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, तब की बातों का सिलसिला चल रहा था, पर श्रीलाल का ध्यान हापुस आम की ओर था। बोले, “क्या यार, आम यों बगल में रखने के लिए खरीदे हैं क्या ? दो इधर, हम तो यहीं खाएँगे तुम्हारे ये हाऽपुऽऽस।"


भारती जी बोले, “अरे नहीं, ये आम काटकर खाये जाते हैं ! घर चलकर खाएँगे।" 'काटकर खाएँगे ? डॉक्टर ने बोला है काटकर खाने को ? दो हमें, हम तो अभी खाएँगे।" और एक हापुस को उलट-पुलटकर देखा और आराम से उसे मसल-मसलकर पिलपिला कर दिया और चेंपी उँगलियों से पकड़कर मज़े मज़े से आम चूसते रहे।

"हाँ, वाकई है तो मीठा, बढ़िया है", कहकर छिलका हटाकर उसकी गुठली निकाली और बोले, "तुमने नहीं खाया, वरना अभी हम दोनों छिछली खेलते और मैं शर्तिया जीत जाता ! पर चलो, अकेला ही छिछली खेलकर दिखाता हूँ।" कहकर खड़े हो गए और समुद्र तट पर किनारे-किनारे पानी में पैर जमा दिए और हाथ-पैर साधकर पूरा जोर लगाकर आम की गुठली को निशाना साधकर फेंका। और जब वह लहरों पर उछलती-उछलती दूर चली गई और आँखों से ओझल हो गई तो भारती जी की पीठ पर प्यारा-सा धौल जमाकर बोले, 'धत्/तुम्हारी बंबई की... चलो, अब घर चलते हैं। पुष्पा मेज़ पर खाना सजाये हमारी राह देख रही होंगी।"

लौटते समय भारती जी ने सोचा कि इतने दिन हो गए, इसे यहाँ आए हुए और ये एक दिन भी घर से बाहर नहीं निकला। शॉर्टकट वाली गली से न निकलकर सड़कों पर निकल कर ज़रा यहाँ की रौनक दिखाते हुए चला जाए। श्रीलाल भी खुशी-खुशी खरामा -खरामा सड़क के दोनों ओर देखते हुए फुटपाथ पर चलते चले आ रहे थे कि भारती जी ने अचानक देखा कि वह एक जगह खड़े होकर सामने की इमारत को घूरकर देख रहे हैं- भौंहें तनी हुईं और नथुने फूले हुए। भारती जी बोले, “क्यों, थक गए क्या ?" श्रीलाल भन्नाई आवाज़ में बोले, “हाँ, थक गया हूँ! तुम्हारे जैसे लोगों की दुर्दशा देखकर थक गया हूँ।" भारती जी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। भौंचक से बोले, "अरे, क्या हुआ है मेरी दशा को, जो दुर्दशा हो गई ?" दन्न से उनका जवाब आया, "दुर्दशा नहीं तो क्या है यह! इतने बड़े साप्ताहिक 'धर्मयुग' के संपादक हो। देश में चारों ओर अनगिनत पाठक हैं तुम्हारे। मैंने सुन रखा है कि बड़े-बड़े मिनिस्टर और नेता लोग भी तुम्हारे हाथ जोड़ते हैं, सम्मान करते हैं तुम्हारा। यह मत समझना कि मैं तुम्हारी लल्लो-चप्पो कर रहा हूँ! नहीं, असलियत से वाकिफ़ हूँ कि तुम्हारी यहाँ क्या हैसियत बन गई है, पर तुम हो कि तुमने खुद अपनी दुर्दशा कर रखी है। यह देखो, सामने क्या है ?"

कुछ झल्लाये से भारती जी बोले, “क्या है भई ! अरे कोई ऐतिहासिक मॉन्यूमेंट नहीं है । अंग्रेजों का बनाया एक क्लब है, बस!" जिस टोन में भारती जी बोले, उसी की नकल करते हुए श्रीलाल बोले, “एक क्लब है, बस्स... अरे, इसी दुर्दशा की बात कही थी मैंने। थक गया हूँ मैं! हाँ, थक गया हूँ। आँख के अंधे हो क्या ! तुम्हारी दुर्दशा नहीं तो क्या है यह कि तुम्हें दिखाई ही नहीं देता कि सामने क्या लिखा है! दीदे फाड़कर देखो - लिखा है 'डॉग्स एंड इंडियंस आर नॉट एलाउड'। आज़ाद हैं हम, सत्रह बरस की जवान हो गई है हमारी आजादी और अभी तक यह जिल्लत झेल रहे हैं हम! सरकारी तंत्र अंधा है, बस, वोट की जोड़-तोड़ में लगा रहता है। न कुशासन है, न सुशासन, बस, लफ्फाजी चलती रहती है। राजनीति के नाम पर ! तुम तो ऐसे नहीं थे ! तुमने अपनी काबिलियत प्रूव भी कर दी है। क्या तुम एक बार भी अपने प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की आँख नहीं खोल सकते कि यह गलीज़ बोर्ड ही यहाँ से हटवा दें!" और बड़बड़ाते हुए श्रीलाल ने चारों ओर देखा। कुछ दिखाई नहीं दिया तो सामने रखे गमले से मिट्टी उठाई और बोर्ड पर पोत दी और ऊपर से थूक दिया, बोले, “घर चलो, सिर चकरा रहा है।" भारती जी चुपचाप चल दिए। फ़ुटपाथ पर दोनों साथ चल रहे थे, लेकिन श्रीलाल अकस्मात् भारती जी की चाल से ज्यादा तेज चलने लगे और आगे निकल गए। दूर से भारती जी ने देखा कि उन्हें ये रास्ते तो मालूम नहीं थे। सो, गलत मोड़ पर मुड़ गए हैं। फुटपाथ पर लगभग दौड़कर भारती जी ने उन्हें पकड़ा और बोले, “अब क्या तुम्हारा हाथ पकड़कर चलना पड़ेगा! माफ़ कर दो यार, गलती हो गई मुझसे ! कुछ तो करना था मुझे, पर दोस्त! भला अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है क्या ?"

"वाह-वाह, क्या कहने आपके !" बोले श्रीलाल, " 'अंधायुग' और 'मुनादी' का लेखक कह रहा है यह! वाह, वाह!"

"ठीक है यार, अब देखना, मैं जो लिखने जा रहा हूँ, वह अकेला चना भाड़ फोड़ तो नहीं सकेगा, पर उसमें इतनी दरारें ज़रूर डाल देगा कि प्रबुद्ध लोग सोचने को मजबूर हो जाएँगे, चूलें कुछ तो हिलेंगी।"

बस, फिर सामान्य चाल से चलकर वे लोग घर पहुँच गए। छठी मंज़िल पर घर था हमारा। भारती जी लिफ़्ट की ओर बढ़े तो श्रीलाल बोले, "तुम लिफ्ट से जाओ। मैं सीढ़ियाँ  चढ़कर पहुँच जाऊँगा।" बहस करना बेकार था। भारती जी ऊपर पहुंचकर बाल, पुष्पा जी, झटपट दो प्याले गरमागरम चाय बना दीजिए, वह दो मिनट में आ जाएगा।" पर कुछ ही देर बाद श्रीलाल आ पहुँचे और लगभग हाँफते हुए बोले, "पुष्पा, तुम जैसी छाछ बनाती हो न, वो पुदीने वाली, झट से बना दो प्लीज़! आज तुम्हारी बंबई देखी हमने, क्या कहने महानगर के, वाह-वाह, क्या कहने! अब ज़रा छाछ पी लें तो ठंड पड़े।" कहकर अपने 'अरे, ऐसा तो नहीं है कि कमरे की ओर चले गए, पर ज़रा देर में ही लौट पड़े और बोले, दही-वही न हो और लिहाज़ में तुम नीचे बाज़ार से दही लाने दौड़ पड़ो। खबरदार, जो इस समय गई ! "

मैं बोली, “दही-वही सब है, आपका प्रिय पुदीना भी है।" तो आश्वस्त हो गुनगुनाते हुए अपने कमरे में चले गए।

इत्तफाक की बात थी कि दही तो घर में सचमुच नहीं था। मैंने सोचा, कोई बात नहीं। मैं नीचे बाज़ार से लाने जा सकती हूँ, क्योंकि दोनों इतनी देर बाद घूम-घामकर लौटे हैं तो ज़रूर थक गए होंगे। एक तो आते ही बाथरूम में घुस गए हैं और दूसरे भी ज़रूर अपने कमरे में घुस जाएँगे और पैंट-शर्ट उतारकर लुँगी-बनियान पहनकर तरोताज़ा हो जाएँगे। उसमें कुछ देर तो लगेगी ही, तब तक मैं वापस भी आ जाऊँगी और अतिथि देव की फ़रमाइश पूरी कर दूँगी। वही हुआ... और मैं लस्सी का गिलास लेकर पहुँची तो यह क्या ? देखती हूँ कि कैसी लुँगी, कैसी बनियान और कैसी बाथरूम की शावर की फुहार ! उन्होंने तो जूते तक नहीं उतारे थे और दत्तचित्त मेज़ पर कुहनी टिकाये और हथेली पर सिर धरे कागज़ों पर सर्र-सर्र लिखे जा रहे थे! हाय! इन्हीं क्षणों का तो इतंजार था मुझे ! सोचा, चुपचाप लौट जाऊँ, पर लस्सी तो देनी चाहिए ना ! सो, चुपचाप गिलास आगे कर दिया। मेरी ओर एक क्षण चुपचाप देखकर बोले, “अरे मुक्ता राजे जी 'सत्यकथा' तो यह है कि मैंने तो चाय माँगी थी और आप 'रोमांचक' लस्सी ले आयीं।" मैं समझ तो गई थी, पर उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा, इसलिए सॉरी बोलकर चुपचाप चली आयी और झटपट अदरक डालकर चाय बना लायी। और बिना कुछ बोले चाय मेज़ पर रखकर जाने लगी तो बोले, "अरे सुगढ़ गृहिणी जी, अपनी एक झलक दिखाकर कहाँ चलीं, थैंक यू तो ले लें !"

और बिना मेरी ओर देखे ‘थैंक यू' कहा और उसी गति से लिखते रहे, जिस तरह अब तक लिख रहे थे। मैंने भी उसी तरह 'वैलकम' कहा और चली आयी, पर कमरे से बाहर आकर धड़ाम से ड्रॉइंग रूम में रखे सोफ़ा में धँस गई और घंटों बैठी सोचती रह गई कि मुझसे बीच- बीच में इतनी बातें करते रहे थे, पर उनकी लेखनी तो पल भर के लिए भी कभी रुकी नहीं। ऐसा अजूबा न मैंने कभी किया था, न देखा था। वैसे मैंने भारती जी को कहानी लिखते समय कभी-कभी आँसू पोंछते या मुस्कराते या हँसते ज़रूर देखा था या कभी कविता लिखते समय कुछ गुनगुनाते भी देखा था, पर ऐसा करते हुए उनकी कलम नहीं चलती थी। श्रीलाल भाई साहब का बतियाने और साथ-साथ लिखते रहने का ऐसा करिश्मा ज़िंदगी में पहली बार देखा ।

एक लेखक जो हर समय सूट-बूट पहने सरकारी दंद-फंद के कामों में लगे रहने की यंत्रणा से तंग आकर अपने मित्र के घर के शांत घरेलू वातावरण में बैठकर उपन्यास लिखने की कामना लेकर आया था, पर यहाँ घर पर तो वह टैरेस पर घंटों टहलता रहता था या छत की मुँडेर से टिके-टिके बड़ी देर-देर तक समुद्र को देखता रहता था। न कभी नियमित सामान्य रूप से खाते-पीते, उठते-बैठते देखा था। कभी कुछ हाल-चाल पूछने या बात करने की जुर्रत करो तो ऊल-जलूल जवाब सुनने पड़ते। थक-हारकर उनके हाल पर उन्हें छोड़ दिया था मैंने । मुझे क्या मालूम था कि धन्य भाग्य थे मेरे कि मैंने 'राग दरबारी' के सुर, तान और ताल को यों सुर साधते देखा और सुना ।

वह 'राग दरबारी', जो सन् 1968 में छपा और अगले ही बरस उसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया। फिर तो झड़ी लग गई पुरस्कारों और सम्मानों की - पद्मभूषण, साहित्य भूषण, लोहिया अति विशिष्ट सम्मान, व्यास सम्मान और मैथिलीशरण गुप्त सम्मान आदि-आदि से लेकर भारत का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान भी उन्हें अलंकृत किया गया।

व्यंग्य लेखन का मानक और मील का पत्थर बना उपन्यास कहा है 'राग दरबारी' को सूर्यबाला ने। इस पर मिले सम्मान पुरस्कार अभिनंदनों और प्रशस्तियों के बारे में कुछ कहने को सूर्यबाला ने गहरे कुतूहल के साथ जब उनसे पूछा तो उनका जवाब एकदम छोटा-सा था। बोले, 'पुस्तक का भाग्य' यानी कि सारे यश, प्रसिद्धि और लोकप्रियता से निस्पृह यह सरस्वती पुत्र सारा का सारा श्रेय भाग्य को दे देता है। वह भी अपने भाग्य को नहीं, पुस्तक के भाग्य को !

मन होता है कि सूर्यबाला से पूछें, “क्या ऐसे ही वाक्यों को ब्रह्म वाक्य कहते हैं ? क्या यही होते हैं : 'देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर!"

और यह भी पूछूं कि क्या कहोगी मेरे भाग्य को, जिसने 'राग दरबारी' के पहले आलाप को अपने कानों से सुना ही नहीं, देखा भी। छठी मंज़िल पर बने मेरे घर की बड़ी- सी छत पर टहल-टहलकर जिस उपन्यास का ताना-बाना बुना जाता रहा। छत की मुँडेर पर टिके-टिके दूर तक फैले ब्रीच कैंडी के विशाल समुद्र को अपलक एकटक देखते हुए जिस उपन्यास के चरित्रों को गढ़ा गया और अंततः एक दिन उस समुद्र की उत्ताल तरंगों के निकट बैठकर हापुस आम चूसकर उसकी गुठली से छिछली खेली और उसका वंदन किया यह कहकर कि 'धत् तेरे की, तुम्हारी बंबई की!'

और फिर उस दिन यशस्वी लेखक श्रीलाल शुक्ल ने हमारे घर के कमरे में बैठकर 'राग दरबारी' की पहली पंक्ति लिखी : "शहर का किनारा ! उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।" और इस तरह हो गई थी 'राग दरबारी' की अथ कथा !


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पुष्पा भारती की स्मृति से
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शनिवार, 8 अप्रैल 2023

प्रणाम महादेवी

 कभी आपने देखा है कि चारा-पानी भरपूर ले लेने के बाद गाय अपना बदन चारों और समेटकर बैठ जाती है, सो नहीं रही होती, पर आँखें उसकी मुँदी रहती हैं और मुँह चलता रहता है, मानो धीरे-धीरे कुछ चबा रही है। इसे कहा जाता है कि गाय जुगाली कर रही है। हम मनुष्य भी कभी-कभी यादों की जुगाली करते रहते हैं और इस जुगाली को यदि लिपिबद्ध कर दें तो वह संस्मरण बन जाता है।

बच्चनजी की एक कविता है-

"जीवन की आपा धापी में कब

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह

जो किया, कहा, माना, उसमें क्या

वक्त मिला

सोच सकूँ बुरा-भला ।"

इस कविता में आगे एक पंक्ति आती है, 'अनवरत समय की चक्की चलती जाती है' और फिर कहते हैं, 'मैं जहाँ खड़ा था, कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह फिर पाना मुझको मुश्किल है। '

बिल्कुल सच लिखा है, हमारे वर्तमान का प्रत्येक क्षण भविष्य की ओर उन्मुख होकर समय की अनवरत चलती चक्की में चलता रहता और बदलता रहता है, किंतु यादों की जुगाली करते समय हमारे भीतरी मन में वह समय केवल उसी कालखंड में सिमटकर अनवरत चलते हुए भी स्थिर हो जाता है। मेरे जीवन की शाम भी अब गहराने

• लगी है और यादों की जुगाली इस समय सिमट आई है जीवन के उस कालखंड में, जब मैं उन्नीस बरस की थी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए. फाइनल की विद्यार्थी थी। बात कर रही हूँ आज से आधी सदी से भी पहले की, यानी सन् १९५४ की। वह ज़माना हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का स्वर्ण युग कहा जाता है। विभाग के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. धीरेंद्र वर्मा, उपाध्यक्ष थे एकांकी नाटकों के जनक और कवि डॉ. रामकुमार वर्मा। प्रमुख अध्यापकों में थे डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. बृजेश्वर वर्मा, डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. माताप्रसाद, डॉ. चंद्रावती त्रिपाठी. डॉ. शैल कुमारी और कनिष्ठ अध्यापक थे डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. माता बदल जायसवाल ।

केवल विभाग का ही स्वर्ण युग नहीं, वरन् हिंदी साहित्य जगत् के इतिहास का भी वह स्वर्ण युग था, जो अपनी छटा सबसे ज्यादा इलाहाबाद में ही बिखेर रहा था। गद्य और पद्य दोनों के ही शीर्षस्थ लोग उन दिनों इलाहाबाद में ही सक्रिय थे। काव्य के क्षेत्र की जो बृहदत्रयी मानी जाती है- प्रसाद, पंत और महादेवी, उनमें से केवल प्रसादजी इलाहाबाद में नहीं, वरन् काशी में रहते थे, लेकिन इस त्रयी के बाद जो चौथा नाम लिया जाता है, वह निरालाजी इलाहाबाद के ही थे। उस समय हिंदी में चतुर्दिक बड़े ऊँचे दरजे का रचनात्मक लेखन हो रहा था, साथ ही साथ समालोचनात्मक साहित्य भी बहुत अच्छा लिखा जा रहा था और बड़ी गंभीरता से पढ़ा जाता था। उन दिनों कुछ ही समय पहले डॉ. नगेंद्र का एक लेख छपा था, जिसमें महादेवीजी की दीपशिखा पर समालोचना करते हुए उन्होंने 'विशाल भारत' नामक पत्रिका में लिखा था, 'महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Subli- mation संस्कार का आधार लेकर चली हैं। अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुँकार उठी है। "

उस समय एम. ए. की परीक्षा में आठ विषय लिये जाते थे, जिनमें से भाषा विज्ञान और निबंध, ये दो विषय डॉ. धीरेंद्र वर्मा स्वयं पढ़ाते थे। निबंध पढ़ाते समय उन्होंने हम सब विद्यार्थियों को डॉ. नगेंद्र का उक्त वक्तव्य पढ़कर सुनाया और कहा आप सब इस पर अपनी प्रतिक्रियास्वरूप निबंध लिखकर लाइए। सबसे अच्छे निबंध को हिंदी परिषद् के वार्षिक उत्सव में बी.ए., एम.ए. के सभी विद्यार्थियों और अध्यापकों के समक्ष पढ़कर सुनाने का अवसर मिलेगा। मुझे क्या मालूम था कि तब मेरा लिखा वह निबंध मेरे जीवन का शिलालेख बन जाएगा। मेरे भविष्य की नींव की सबसे मजबूत पकड़ बना दी उस निबंध ने।

जो स्वयं कवि न हो, उसे कविता पर लिखने या आलोचना करने का हक दिया ही नहीं जाना चाहिए। ऐसा यदि कहूँ तो मेरी बात हास्यास्पद मानी जाएगी। लेकिन क्या करूँ कि “महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Sublimation संस्कार का आधार लेकर चली हैं, अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुंकार उठी है।" ऐसी पंक्तियाँ मुझे हास्यास्पद लग रही हैं। विद्वान् समालोचक ने पढ़ा होगा, जो उनके प्रिय कवि निराला ने लिखा, 'क्या कहूँ आज जो नहीं कही / दुःख ही जीवन की कथा रही' और उनके दूसरे प्रिय कवि प्रसाद ने लिखा, 'दुःख है परदा झीना नील/ छिपाए है जिसमें सुख गात।' क्या उन्होंने नहीं पढ़ा कि महादेवी ने लिखा, 'दुःख के पद छू बहते झर-झर/कण-कण से आँसू के निर्झर/हो उठता जीवन मृदु उर्वर ।'

महादेवी का दुःख जीवन को मृदु और उर्वर बनानेवाला दुःख है। प्रसाद, निराला और महादेवी में वही अंतर है, जो नारी और पुरुष में है । पुरुष है अधिकार चेतना का मूर्तिमान सत्य, नारी है आत्मसमर्पण की साकार प्रतिमा, नारी जीवन का सागर आँसुओं में डूबकर पार करती है, "तरी को ले जाओ मँझधार/ डूबकर हो जाओगे पार/ विसर्जन ही है कर्णधार/वही पहुँचा देगा उस पार।" (महादेवी)

पुरुष जमे हुए अश्रुओं के हिम को पैरों तले कुचलकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर अनंत आकाश के नीचे गर्व से शीश उठाकर जीवन की साधना का प्रारंभ करता है। प्रसाद के मनु की तरह। वे जीवन की अनेकता से कठोर संघर्षकर मनुष्यता के गर्व के द्वारा सामरस्य, अद्वैत और एकता का स्थापन करते हैं, दूसरी ओर महादेवी अपनी नारी सुलभ प्रेम भावनाओं से जीवन के सत्य को, एकता को, अद्वैत को अपने अनेक्य नश्वर ममता के आँचल में ही ढूँढ़ निकालती हैं।

'हंस' पत्रिका ने रेखाचित्र अंक निकाला था, उसमें डॉ. रामकुमार वर्मा ने महादेवी के निर्मल हास्य पर लिखा था, "वे हँसती हैं। उन्मुक्त हँसी, निर्झर सी, हँसती हैं तो हँसती ही जाती हैं, जैसे अपनी हँसी की प्राचीरों में मन की वेदना को छिपाने का प्रयत्न कर रही हों।' डॉ. साहब की कवि-सुलभ भावना अच्छी तो है, मगर मुझे स्वीकार नहीं। महादेवी निराशावादिनी कभी नहीं रहीं। उनकी वेदना तो उनके आनंद के विकास का साधन है। वे उसे छिपाएँगी क्यों? उनका काव्य आत्म वंचना नहीं, आत्मनिर्माण का काव्य है। महादेवी की कला उनके जीवन की अनंत अनुभूतियों की समष्टि है। प्रत्येक गीत एक सौंदर्य खंड है। दुःख पर उन्हें दुःख नहीं होता। वे तो उसकी उपासिका हैं ऐसा ही है उनका प्रेमलोक, "मिटना था निर्वाण जहाँ/नीरव रोदन था पहरेदार।"


अपनी इस वेदना पर उन्हें तरस नहीं आता, वे तो उस पर असीम श्रद्धा और गौरव का भाव रखती हैं, "मेरी लघुता पर आती/जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा/ उसके प्राणों से पूछो / वे पाल सकेंगे पीड़ा ?" मेरा डॉ. नगेंद्र से पूछने का मन होता है प्रसाद और निराला की कला का उद्दाम वेग और हुंकार तो देखा, किंतु वे वेदना के इस उच्चतम शिखर की "जिसकी विशाल छाया में/जग बालक सा रोता है/मेरी आँखों में वह दु:ख / आसू बन उजास क्यों नहीं देख पाए। महादेवी के आँसुओं का 'उद्दाम वेग' देखना है? सुनिए, कर सोता है।" यह उद्दाम वेग किसी बड़े साम्राज्य की रानी - महारानी में भी आपको देखने को नहीं मिलेगा; जो महिला महीयसी महादेवी की कविता में मिलता है, जब वह कहती हैं, “अपने इस सूनेपन की/मैं रानी हूँ मतवाली/प्राणों का दीप जलाकर/करती रहती दीवाली।'' जिस Sublimation को नगेंद्रजी ने देखा, उसकी प्रकृति देखिए क्या है—महादेवी कहती हैं, “चिंता क्या है है निर्मम / बुझ जाए दीपक मेरा/हो जाएगा तेरा ही/पीड़ा का राज्य अँधेरा।" नगेंद्रजी को इन पंक्तियों की 'हुंकार' नहीं सुनाई दी और न समझ में आई यह 'हुंकार' "पंथ होने दो अपरिचित / प्राण रहने दो अकेला / अन्य होंगे चरण हारे/और हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे/दुःखवृति निर्माण उन्मद/यह अमरता नापते पद/बाँध देंगे अंक, संसृति/से तिमिर में स्वर्ण-वेला । "

हाँ, महादेवी को दुःख से प्रेम है, पीड़ा से प्रेम है, आँसुओं से प्रेम है। उन्हें इन ससीम अनुभूतियों की सीमित चेतना से प्रेम है, क्योंकि इन्हीं की पृष्ठभूमि में उनके इष्ट की व्यापकता का विकास होता है। जिस दिन ये न रहेंगी, उस दिन व्यापकता न रहेगी। जिस दिन दुःख का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा, उस दिन सुख अपने लिए कौन सा नीड़ ढूँढ़ेगा। इसीलिए तो वे कहती हैं, "जब असीम से हो जाएगा/मेरी लघुसीमा का मेल/ देखोगे हे नाथ! अमरता खेलेगी मिटने का खेल।" इसीलिए महादेवी तरह-तरह से इसी बात को व्यक्त करती चलती हैं, कैसी मीठी है उनकी 'हुंकार', "क्या अमरों का लोक मिलेगा/तेरी करुणा का उपहार/रहने दो हे देव !/ अरे यह मेरा मिटने का अधिकार।"


प्रसाद, पंत, निराला तीनों ही महादेवी के समकालीन रहे हैं, सभी एक बढ़कर हैं, अद्वितीय, अप्रतिम हैं, किंतु पुरुष के सृजन पर आधारित मानदंडों से नारी की कला को मापना नारीत्व की विशिष्टता का अपमान है। नगेंद्र कहते हैं- महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। मैं कहूँगी गुरुदेव ! नारी को जीवन से संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं, जिस सत्य को रीतिकालीन महाकवि देव जीवन भर विलास के पश्चात् समझ पाए, जिस सत्य को तुलसी ने रत्ना की उपेक्षा पाकर सीखा, जिस सत्य की अकस्मात चमक उठनेवाली ज्योति ने सूर की आँखों में चकाचौंध पैदा कर दी, उस सत्य को सीखने के लिए मीरा को जीवन के अनुभवों की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। उसने शैशव में ही 'गिरधर गोपाल' को पा लिया था। तर्क-वितर्क से नहीं, संघर्ष से नहीं, चिंतन से नहीं, केवल मन की श्रद्धा से, हृदय की भावना से, आँसुओं की धारा से। स्वयं प्रसाद ने स्वीकार किया है, नारी तुम केवल श्रद्धा हो, महादेवी के काव्य में निराला को ढूँढ़ना या प्रसाद के काव्य में महादेवी की छाया की खोज हास्यास्पद है, किंतु नारी हो या पुरुष प्रसाद हों या महादेवी-काव्य के आदर्श चिरंतन हैं। काव्य का साध्य अमर । चाहे नारी हो या पुरुष, दोनों के साहित्य सृजन की मूल चेतना एक ही है और वह है सत्य की खोज।

काव्य का साधन सत्य है । वह सत्य, जो एक है, चिरंतन है। अपरिवर्तनीय है, खंड नहीं है, पूर्ण है। यही सत्य इन सभी की कविताओं का साधन है, सौंदर्य है।

किसी कवि की कविता या कलाकार की कला को प्रेम करो और कोई उसके लिए कुछ ऐसा कह दे, जो आपको अप्रिय लगे तो प्रतिक्रिया का जो बवंडर आपके मन में उठता है, उस वेग को रोकना कठिन होता है। यही हुआ था उस दिन मेरे साथ । लगभग पचास बरस पहले के रखे कागज़ पीले पड़ चुके हैं, जर्जर हो चुके हैं । जहाँ- तहाँ से स्याही भी धुल गई है। इस सबमें से बीन-बटोरकर यह सब आपके सामने प्रस्तुत किया, लेकिन इस समय मुझे तो याद आ रहा है, वह दिन, जब मेरे गुरु डॉ. रामकुमार वर्मा मुझे महादेवीजी के घर ले गए थे और मैंने महादेवीजी को यह लेख पढ़कर सुनाया था। शांत और निर्वेद भाव से सुनती रही थीं महादेवीजी। सुनने के बाद बिना कुछ बोले बाहर अपने बाग की ओर गई थीं और अपने हाथों से लगाए एक अमरूद के पेड़ में से दो गद्दर अमरूद तोड़कर एक तश्तरी में चाकू के साथ रखकर लाई थीं। खुद अपने हाथ से तराश कर तश्तरी मेरे हाथ में देते हुए एक फाँक मुझे अपने हाथ से खिलाई थी। मूर्तिमंत आशीर्वाद बन गई थीं उस समय वे मेरे लिए । प्रशंसा में कुछ शब्द बोलतीं तो शायद वे शब्द मेरे भीतरी मन तक इस तरह न धँस गए होते। शब्दों की अपेक्षा इस तरह दिया गया यह आशीर्वाद मेरे जीवन की अमूल्यतम निधियों में से एक है। इस समय भी उनके हाथों से तराशे गए उस गदराए अमरूद की वह भीनी सुगंध और वह मधुर स्वाद मेरे मुँह में ही नहीं, वरन पूरे शरीर के रोम-रोम में घुल रहा है और मेरा मनप्राण उनकी पावन स्मृति को प्रणाम कर रहा है-प्रणाम महादेवी।


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पुष्पा भारती की स्मृति से

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