कभी आपने देखा है कि चारा-पानी भरपूर ले लेने के बाद गाय अपना बदन चारों और समेटकर बैठ जाती है, सो नहीं रही होती, पर आँखें उसकी मुँदी रहती हैं और मुँह चलता रहता है, मानो धीरे-धीरे कुछ चबा रही है। इसे कहा जाता है कि गाय जुगाली कर रही है। हम मनुष्य भी कभी-कभी यादों की जुगाली करते रहते हैं और इस जुगाली को यदि लिपिबद्ध कर दें तो वह संस्मरण बन जाता है।
बच्चनजी की एक कविता है-
"जीवन की आपा धापी में कब
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह
जो किया, कहा, माना, उसमें क्या
वक्त मिला
सोच सकूँ बुरा-भला ।"
इस कविता में आगे एक पंक्ति आती है, 'अनवरत समय की चक्की चलती जाती है' और फिर कहते हैं, 'मैं जहाँ खड़ा था, कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह फिर पाना मुझको मुश्किल है। '
बिल्कुल सच लिखा है, हमारे वर्तमान का प्रत्येक क्षण भविष्य की ओर उन्मुख होकर समय की अनवरत चलती चक्की में चलता रहता और बदलता रहता है, किंतु यादों की जुगाली करते समय हमारे भीतरी मन में वह समय केवल उसी कालखंड में सिमटकर अनवरत चलते हुए भी स्थिर हो जाता है। मेरे जीवन की शाम भी अब गहराने
• लगी है और यादों की जुगाली इस समय सिमट आई है जीवन के उस कालखंड में, जब मैं उन्नीस बरस की थी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए. फाइनल की विद्यार्थी थी। बात कर रही हूँ आज से आधी सदी से भी पहले की, यानी सन् १९५४ की। वह ज़माना हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का स्वर्ण युग कहा जाता है। विभाग के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. धीरेंद्र वर्मा, उपाध्यक्ष थे एकांकी नाटकों के जनक और कवि डॉ. रामकुमार वर्मा। प्रमुख अध्यापकों में थे डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. बृजेश्वर वर्मा, डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. माताप्रसाद, डॉ. चंद्रावती त्रिपाठी. डॉ. शैल कुमारी और कनिष्ठ अध्यापक थे डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. माता बदल जायसवाल ।
केवल विभाग का ही स्वर्ण युग नहीं, वरन् हिंदी साहित्य जगत् के इतिहास का भी वह स्वर्ण युग था, जो अपनी छटा सबसे ज्यादा इलाहाबाद में ही बिखेर रहा था। गद्य और पद्य दोनों के ही शीर्षस्थ लोग उन दिनों इलाहाबाद में ही सक्रिय थे। काव्य के क्षेत्र की जो बृहदत्रयी मानी जाती है- प्रसाद, पंत और महादेवी, उनमें से केवल प्रसादजी इलाहाबाद में नहीं, वरन् काशी में रहते थे, लेकिन इस त्रयी के बाद जो चौथा नाम लिया जाता है, वह निरालाजी इलाहाबाद के ही थे। उस समय हिंदी में चतुर्दिक बड़े ऊँचे दरजे का रचनात्मक लेखन हो रहा था, साथ ही साथ समालोचनात्मक साहित्य भी बहुत अच्छा लिखा जा रहा था और बड़ी गंभीरता से पढ़ा जाता था। उन दिनों कुछ ही समय पहले डॉ. नगेंद्र का एक लेख छपा था, जिसमें महादेवीजी की दीपशिखा पर समालोचना करते हुए उन्होंने 'विशाल भारत' नामक पत्रिका में लिखा था, 'महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Subli- mation संस्कार का आधार लेकर चली हैं। अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुँकार उठी है। "
उस समय एम. ए. की परीक्षा में आठ विषय लिये जाते थे, जिनमें से भाषा विज्ञान और निबंध, ये दो विषय डॉ. धीरेंद्र वर्मा स्वयं पढ़ाते थे। निबंध पढ़ाते समय उन्होंने हम सब विद्यार्थियों को डॉ. नगेंद्र का उक्त वक्तव्य पढ़कर सुनाया और कहा आप सब इस पर अपनी प्रतिक्रियास्वरूप निबंध लिखकर लाइए। सबसे अच्छे निबंध को हिंदी परिषद् के वार्षिक उत्सव में बी.ए., एम.ए. के सभी विद्यार्थियों और अध्यापकों के समक्ष पढ़कर सुनाने का अवसर मिलेगा। मुझे क्या मालूम था कि तब मेरा लिखा वह निबंध मेरे जीवन का शिलालेख बन जाएगा। मेरे भविष्य की नींव की सबसे मजबूत पकड़ बना दी उस निबंध ने।
जो स्वयं कवि न हो, उसे कविता पर लिखने या आलोचना करने का हक दिया ही नहीं जाना चाहिए। ऐसा यदि कहूँ तो मेरी बात हास्यास्पद मानी जाएगी। लेकिन क्या करूँ कि “महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Sublimation संस्कार का आधार लेकर चली हैं, अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुंकार उठी है।" ऐसी पंक्तियाँ मुझे हास्यास्पद लग रही हैं। विद्वान् समालोचक ने पढ़ा होगा, जो उनके प्रिय कवि निराला ने लिखा, 'क्या कहूँ आज जो नहीं कही / दुःख ही जीवन की कथा रही' और उनके दूसरे प्रिय कवि प्रसाद ने लिखा, 'दुःख है परदा झीना नील/ छिपाए है जिसमें सुख गात।' क्या उन्होंने नहीं पढ़ा कि महादेवी ने लिखा, 'दुःख के पद छू बहते झर-झर/कण-कण से आँसू के निर्झर/हो उठता जीवन मृदु उर्वर ।'
महादेवी का दुःख जीवन को मृदु और उर्वर बनानेवाला दुःख है। प्रसाद, निराला और महादेवी में वही अंतर है, जो नारी और पुरुष में है । पुरुष है अधिकार चेतना का मूर्तिमान सत्य, नारी है आत्मसमर्पण की साकार प्रतिमा, नारी जीवन का सागर आँसुओं में डूबकर पार करती है, "तरी को ले जाओ मँझधार/ डूबकर हो जाओगे पार/ विसर्जन ही है कर्णधार/वही पहुँचा देगा उस पार।" (महादेवी)
पुरुष जमे हुए अश्रुओं के हिम को पैरों तले कुचलकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर अनंत आकाश के नीचे गर्व से शीश उठाकर जीवन की साधना का प्रारंभ करता है। प्रसाद के मनु की तरह। वे जीवन की अनेकता से कठोर संघर्षकर मनुष्यता के गर्व के द्वारा सामरस्य, अद्वैत और एकता का स्थापन करते हैं, दूसरी ओर महादेवी अपनी नारी सुलभ प्रेम भावनाओं से जीवन के सत्य को, एकता को, अद्वैत को अपने अनेक्य नश्वर ममता के आँचल में ही ढूँढ़ निकालती हैं।
'हंस' पत्रिका ने रेखाचित्र अंक निकाला था, उसमें डॉ. रामकुमार वर्मा ने महादेवी के निर्मल हास्य पर लिखा था, "वे हँसती हैं। उन्मुक्त हँसी, निर्झर सी, हँसती हैं तो हँसती ही जाती हैं, जैसे अपनी हँसी की प्राचीरों में मन की वेदना को छिपाने का प्रयत्न कर रही हों।' डॉ. साहब की कवि-सुलभ भावना अच्छी तो है, मगर मुझे स्वीकार नहीं। महादेवी निराशावादिनी कभी नहीं रहीं। उनकी वेदना तो उनके आनंद के विकास का साधन है। वे उसे छिपाएँगी क्यों? उनका काव्य आत्म वंचना नहीं, आत्मनिर्माण का काव्य है। महादेवी की कला उनके जीवन की अनंत अनुभूतियों की समष्टि है। प्रत्येक गीत एक सौंदर्य खंड है। दुःख पर उन्हें दुःख नहीं होता। वे तो उसकी उपासिका हैं ऐसा ही है उनका प्रेमलोक, "मिटना था निर्वाण जहाँ/नीरव रोदन था पहरेदार।"
अपनी इस वेदना पर उन्हें तरस नहीं आता, वे तो उस पर असीम श्रद्धा और गौरव का भाव रखती हैं, "मेरी लघुता पर आती/जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा/ उसके प्राणों से पूछो / वे पाल सकेंगे पीड़ा ?" मेरा डॉ. नगेंद्र से पूछने का मन होता है प्रसाद और निराला की कला का उद्दाम वेग और हुंकार तो देखा, किंतु वे वेदना के इस उच्चतम शिखर की "जिसकी विशाल छाया में/जग बालक सा रोता है/मेरी आँखों में वह दु:ख / आसू बन उजास क्यों नहीं देख पाए। महादेवी के आँसुओं का 'उद्दाम वेग' देखना है? सुनिए, कर सोता है।" यह उद्दाम वेग किसी बड़े साम्राज्य की रानी - महारानी में भी आपको देखने को नहीं मिलेगा; जो महिला महीयसी महादेवी की कविता में मिलता है, जब वह कहती हैं, “अपने इस सूनेपन की/मैं रानी हूँ मतवाली/प्राणों का दीप जलाकर/करती रहती दीवाली।'' जिस Sublimation को नगेंद्रजी ने देखा, उसकी प्रकृति देखिए क्या है—महादेवी कहती हैं, “चिंता क्या है है निर्मम / बुझ जाए दीपक मेरा/हो जाएगा तेरा ही/पीड़ा का राज्य अँधेरा।" नगेंद्रजी को इन पंक्तियों की 'हुंकार' नहीं सुनाई दी और न समझ में आई यह 'हुंकार' "पंथ होने दो अपरिचित / प्राण रहने दो अकेला / अन्य होंगे चरण हारे/और हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे/दुःखवृति निर्माण उन्मद/यह अमरता नापते पद/बाँध देंगे अंक, संसृति/से तिमिर में स्वर्ण-वेला । "
हाँ, महादेवी को दुःख से प्रेम है, पीड़ा से प्रेम है, आँसुओं से प्रेम है। उन्हें इन ससीम अनुभूतियों की सीमित चेतना से प्रेम है, क्योंकि इन्हीं की पृष्ठभूमि में उनके इष्ट की व्यापकता का विकास होता है। जिस दिन ये न रहेंगी, उस दिन व्यापकता न रहेगी। जिस दिन दुःख का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा, उस दिन सुख अपने लिए कौन सा नीड़ ढूँढ़ेगा। इसीलिए तो वे कहती हैं, "जब असीम से हो जाएगा/मेरी लघुसीमा का मेल/ देखोगे हे नाथ! अमरता खेलेगी मिटने का खेल।" इसीलिए महादेवी तरह-तरह से इसी बात को व्यक्त करती चलती हैं, कैसी मीठी है उनकी 'हुंकार', "क्या अमरों का लोक मिलेगा/तेरी करुणा का उपहार/रहने दो हे देव !/ अरे यह मेरा मिटने का अधिकार।"
प्रसाद, पंत, निराला तीनों ही महादेवी के समकालीन रहे हैं, सभी एक बढ़कर हैं, अद्वितीय, अप्रतिम हैं, किंतु पुरुष के सृजन पर आधारित मानदंडों से नारी की कला को मापना नारीत्व की विशिष्टता का अपमान है। नगेंद्र कहते हैं- महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। मैं कहूँगी गुरुदेव ! नारी को जीवन से संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं, जिस सत्य को रीतिकालीन महाकवि देव जीवन भर विलास के पश्चात् समझ पाए, जिस सत्य को तुलसी ने रत्ना की उपेक्षा पाकर सीखा, जिस सत्य की अकस्मात चमक उठनेवाली ज्योति ने सूर की आँखों में चकाचौंध पैदा कर दी, उस सत्य को सीखने के लिए मीरा को जीवन के अनुभवों की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। उसने शैशव में ही 'गिरधर गोपाल' को पा लिया था। तर्क-वितर्क से नहीं, संघर्ष से नहीं, चिंतन से नहीं, केवल मन की श्रद्धा से, हृदय की भावना से, आँसुओं की धारा से। स्वयं प्रसाद ने स्वीकार किया है, नारी तुम केवल श्रद्धा हो, महादेवी के काव्य में निराला को ढूँढ़ना या प्रसाद के काव्य में महादेवी की छाया की खोज हास्यास्पद है, किंतु नारी हो या पुरुष प्रसाद हों या महादेवी-काव्य के आदर्श चिरंतन हैं। काव्य का साध्य अमर । चाहे नारी हो या पुरुष, दोनों के साहित्य सृजन की मूल चेतना एक ही है और वह है सत्य की खोज।
काव्य का साधन सत्य है । वह सत्य, जो एक है, चिरंतन है। अपरिवर्तनीय है, खंड नहीं है, पूर्ण है। यही सत्य इन सभी की कविताओं का साधन है, सौंदर्य है।
किसी कवि की कविता या कलाकार की कला को प्रेम करो और कोई उसके लिए कुछ ऐसा कह दे, जो आपको अप्रिय लगे तो प्रतिक्रिया का जो बवंडर आपके मन में उठता है, उस वेग को रोकना कठिन होता है। यही हुआ था उस दिन मेरे साथ । लगभग पचास बरस पहले के रखे कागज़ पीले पड़ चुके हैं, जर्जर हो चुके हैं । जहाँ- तहाँ से स्याही भी धुल गई है। इस सबमें से बीन-बटोरकर यह सब आपके सामने प्रस्तुत किया, लेकिन इस समय मुझे तो याद आ रहा है, वह दिन, जब मेरे गुरु डॉ. रामकुमार वर्मा मुझे महादेवीजी के घर ले गए थे और मैंने महादेवीजी को यह लेख पढ़कर सुनाया था। शांत और निर्वेद भाव से सुनती रही थीं महादेवीजी। सुनने के बाद बिना कुछ बोले बाहर अपने बाग की ओर गई थीं और अपने हाथों से लगाए एक अमरूद के पेड़ में से दो गद्दर अमरूद तोड़कर एक तश्तरी में चाकू के साथ रखकर लाई थीं। खुद अपने हाथ से तराश कर तश्तरी मेरे हाथ में देते हुए एक फाँक मुझे अपने हाथ से खिलाई थी। मूर्तिमंत आशीर्वाद बन गई थीं उस समय वे मेरे लिए । प्रशंसा में कुछ शब्द बोलतीं तो शायद वे शब्द मेरे भीतरी मन तक इस तरह न धँस गए होते। शब्दों की अपेक्षा इस तरह दिया गया यह आशीर्वाद मेरे जीवन की अमूल्यतम निधियों में से एक है। इस समय भी उनके हाथों से तराशे गए उस गदराए अमरूद की वह भीनी सुगंध और वह मधुर स्वाद मेरे मुँह में ही नहीं, वरन पूरे शरीर के रोम-रोम में घुल रहा है और मेरा मनप्राण उनकी पावन स्मृति को प्रणाम कर रहा है-प्रणाम महादेवी।
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पुष्पा भारती की स्मृति से
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