‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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बुधवार, 21 जून 2023

डॉ. धर्मवीर भारती: माधवराव सप्रे संग्रहालय

इतिहास-पुरुषों के कक्षों में बोल रहा इतिहास

      धीरे-धीरे पर सधे कदमों से जब आप संग्रहालय की आत्मा से जुड़ते हैं, तो लगता है ज्ञान की संपदा और धड़कता इतिहास आपके पीछे पीछे गुपचुप,गुमसुम टहल रहा है। यहाँ की खामोशी आपको बोझिल नहीं करती,वह आपको बहुत कुछ जानने की ताकत देती है।

        विजयदत्त श्रीधर कहते हैं,'यहाँ संग्रहीत पुराने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की इबारतों में इतिहास को रूबरू देखने का रोमांच अनुभव किया जा सकता है।' यह सच तब बड़ी शिद्दत से सामने आता है जब इतिहास-पुरुषों के नाम से बने कक्षों में रचा बसा इतिहास स्तब्ध भी करता है,रोमांचित भी।

       कालजयी लेखक,संपादक 'डॉ धर्मवीर भारती साहित्य प्रभाग' के अंर्तगत भारती जी के अतिरिक्त इस कक्ष में कवि प्रदीप,जहूर बक्श, कमलेश्वर, दुष्यंत कुमार, चित्रा मुदगल,गोविंद मिश्र, पुष्पा भारती, कृष्णबिहारी मिश्र, रमेशचन्द्र शाह, सत्येन कुमार, धनंजय वर्मा, राजेश जोशी की व्यक्तिगत लाइब्रेरी की पुस्तकें,उनकी पांडुलिपिपाँ, उन पर हुए शोध, लघु शोध प्रबंध व उन पर आईं पुस्तकें संगृहीत हैं।

        डॉ. भारती कक्ष में भारती जी की किताबें, उनकी पांडुलिपि,उन पर किए शोध,उन पर आईं पुस्तकों के अलावा वह कुर्सी व वह जाकिट भी सुरक्षित रखी है, घर में वे जिस कुर्सी पर बैठते थे और जो जाकिट वे पहनते थे। भारती जी की पद्मश्री, मुक्ति संग्राम में इस्तेमाल किये बम के खोखे (जो भारती जी अपने साथ लाए थे) के अलावा 200 निबों से बनी वह माला भी यहाँ रखी है, जिसे उनके मुम्बई आने पर हुए एक सार्वजनिक अभिनंदन के वक्त पहनाई गई थी। गले में कारतूस रखने वाली पट्टी के डिज़ाइन की यह माला बेजोड़ है।

       इसके अतिरिक्त 'बनारसीदास चतुर्वेदी जनपदीय अध्ययन प्रभाग' में लोकभाषा (बुंदेली,मालवी,बघेली), लोकगीत, लोकगाथा, मागधी,भोजपुरी, मैथिली, अवधी, गढ़वाली, कुमायूंनी, ब्रज, हिमाचली और राजस्थानी भाषा से जुड़ी दुर्लभ सामग्री उपलब्ध है। 

       'निरंजन महावर प्रभाग' में 5,206 किताबें मौजूद हैं। भारत की जनजातियाँ, छतीसगढ़ की भाषा, साहित्य, लोकजीवन, मूर्तिकला, मंदिरकला, चित्रकला, हस्तशिल्प, चित्रकला का इतिहास आदि से जुड़ी दुर्लभतम सामग्री उपलब्ध है।

        'गणेशशंकर विद्यार्थी कक्ष' में 10,000 पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिनमें विज्ञान और अंग्रेजी की किताबों के साथ 5600 संदर्भ फाइलें हैं। 'माखनलाल चतुर्वेदी कक्ष ' में मनीषियों को समर्पित अभिनन्दन ग्रंथ हैं, जिनकी सँख्या 3000 है।

          शब्दकोश, विश्वकोष, गजेटियर के अलावा सरस्वती, विशाल भारत,हंस(प्रेमचंद),जागरण(प्रेमचंद), मधुकर, मर्यादा, महारथी, माधुरी(प्रेमचंद), चाँद, सुधा, वीणा, विक्रम आदि के वे अंक सुरक्षित हैं, जो इतिहास कथाओं का ज़रूरी हिस्सा रहे हैं।

      यही नहीं दुर्लभ पांडुलिपियों में श्रीमद्गभगवतगीता, श्रीराम गीतावली, प्रागन गीता,वेदार्थ प्रकाश, तिथि दर्पण सहित कई दुर्लभ पांडुलिपियाँ यहाँ मौजूद हैं।

    मेरे गुरु कमलेश्वर के शब्द उधार ले लूँ तो यह 'यह संग्रहालय शब्दों और विचारों की विपुल संपदा का रक्षक है। यहाँ आ कर मैं अपने अतीत से नहीं, बल्कि भविष्य से मिलने की नई ऊर्जा और शक्ति ले कर जा रहा हूँ। यह एक अदभुत उपक्रम है- अपने इतिहास,परंपरा और विरासत को पहचान कर आगे देख सकने का एक शक्तिपुंज।'

सच यहीं पर कहीं ठहरा है। अपनी साफ़गोई, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, लगन, समर्पण और सरोकारों के संग-साथ।

      बहुत मुश्किल है इस दौर में विजयदत्त श्रीधर बनना और बने रहना।

      

-हरीश पाठक की वॉल से तथा संतोष श्रीवास्तव के सौजन्य से


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बुधवार, 17 मई 2023

और हमारा चन्दर चला गया

  (  संस्मरण  भारती जी  )


वो भी क्या दिन थे जब पठन पाठन का इतना शौक़ था कि साहित्यिक पत्रिकाओं " धर्मयुग " कहानियों की पत्रिका सारिका की प्रसार संख्या लाखों में थी उन दिनों आज की तरह विज़ुअल मीडिया तो था नहीं इसलिए घटिया मनोरंजन के बज़ाय अच्छा कथा साहित्य उपन्यास खोज खोज कर पढ़ने की रुचि होती थी कोई भी कहानी या उपन्यास पढ़ने का एक जबरदस्त फ़ायदा तो यह होता था कि पाठक की कल्पना शक्ति का जागरण होता था हम उपन्यास और कहानियों के पात्रों की छवि अपने अनुरूप बना लेते थे ऐसा रंग होगा ऐसा रूप होगा ऐसे बाल होंगे ऐसी लम्बाई होगी हर पाठक अपनी कल्पना के अनुसार पात्रों के रंग रूप गढ़ लेते थे जितने पाठक उतने रूप 

अब क्या है जो टेलीविजन ने परोसा वो देख लिया मज़ाल है जो आप अपने तरह से पात्रों के रंग रूप को गढ़ सकें

हमने तो बीस वर्ष की आयु होते होते लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनाएं पढ़ लीं थीं 

और इसी कारण पच्चीस वर्ष की आयु होते होते लिखने भी लगे पहली कहानी 

" अगिहाने " सन 1975 में सारिका में प्रकाशित हो गई थी इस कहानी पर एक स्थानीय ज़मीदार ने मानहानि का मुक़दमा दायर कर दिया। पार्टी बनाया हमें सम्पादक होने के नाते श्री कमलेश्वर जी और टाइम्स ऑफ इंडिया के मुद्रक प्रकाशक श्री कृष्ण गोविंद जोशी को ये लोग तो एक वर्ष के बाद सारिका में खेद प्रकाशित करके मुक़दमे से अलग हो गए हम लड़ते रहे खैर यह एक अलग प्रसंग होते हुए भी धर्मयुग से अलग नहीं है क्योंकि हमारी दूसरी कहानी " अपने जैसे लोग " धर्मयुग में स्वीकृत हुई पर प्रकाशित होने से पूर्व हमारे पास धर्मयुग से  " एक शपथ पत्र " आया जिसे भर कर हस्ताक्षर करके हमें भेजना था वो इस आशय का था इस कहानी का सम्पादक प्रकाशक का कोई लेना देना नहीं है समस्त जिम्मेदारी लेखक की है "

उन्हीं दिनों हम पर सारिका की कहनी पर मुक़दमा चल रहा था यह तभी लेखकों से शपथपत्र लेने की परंपरा तभी से प्रारंभ हुई

हमारी बड़ी जिज्जी की शादी कोटा में हो चुकी थी उन्होंने एम ए हिंदी से किया था बाद में उन्होंने पी एच डी की फिर गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवक्ता बन गई थीं 

उन्हें पढ़ने का बेहद शौक़ था जब हम कक्षा 8 में थे तभी से जिज्जी जो उपन्यास पढ़ लेती थीं हमें पढ़ने को दे देती थीं 

इस तरह हमने कक्षा 8 से लेकर कक्षा 10 तक हिंदी में प्रकाशित अधिकतर उपन्यास पढ़ लिए थे जिनमें देवकीनंदन खत्री , मुंशी प्रेमचंद , 

शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय , बंकिमचंद्र चटर्जी , ताराशंकर बंधोपाध्याय , भगवती चरण वर्मा, बृन्दावन लाल वर्मा , आचार्य चतुरसेन , कुशवाहा कांत , को समग्र पढ़ लिया था

जब हम कक्षा 11 में 

पटियाली ( एटा ) आए तो हमारे क्लॉस में एक लड़का था सुरेन्द्र मोहन मिश्र उपन्यासों का बहुत पढ़ाकू था क्लॉस रूम में भी छुप छुप कर पढ़ता रहता था हमने उससे दोस्ती कर ली और कहा यार हमें भी कुछ पढ़वाओ तो उसने पूछा कि इससे पहले भी कुछ पढ़ा है क्या हमने बता दिया तो बोला ये तो कुछ भी नहीं है मैं कल लाकर देता हूँ

अगले दिन उसने आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास 

" वयम रक्षामि " दिया ये तो बहुत ही कठिन भाषा में था पढ़ कर हमने उससे कहा कि यह तो बहुत ही कठिन भाषा में है तो बोला यह क्या कठिन भाषा में है कठिन भाषा का तो हम कल तुम्हें लाकर देंगे  डिक्शनरी लेकर बैठोगे तब भी समझ में नहीं आएगा

अगले दिन वो हमें

हजारीप्रसाद द्ववेदी का उपन्यास 

" बाणभट्ट की आत्मकथा " दे गया

अरे बाप रे बाप क्या भाषा थी पढ़ने में आनंद तो आ गया पर बहुत से शब्द समझ में नहीं आए हमने कहा यार ये तो जानलेवा है तो उसने कहा कि

हजारीप्रसाद द्ववेदी ने केवल तीन उपन्यास लिखे हैं

एक तुमने पढ़ लिया 

दूसरा है " चारु चन्द्र लेख " और तीसरा है

" अथ रैक्य पुराण " तो हम कह रहे थे कि बड़ी जिज्जी कोटा से आईं थीं हमारी छोटी जिज्जी की शादी होने वाली थी तो वो हमारे लिए

धर्मवीर भारती का उपन्यास " गुनाहों के देवता " साथ लेकर आईं थीं हमसे बोलीं इसे पढ़ बहुत अच्छा उपन्यास है

हम ऊपर वाले कमरे में जाकर पढ़ने लगे कुछ देर बाद ही हम फफक फफक कर हिचकियों से बहुत जोर से रोने लगे जिज्जी दौड़ कर ऊपर आईं हमें चुपटा कर चुप कराने लगीं " पगले ये कोई सच्ची बातें थोड़े ही हैं ये तो सब काल्पनिक होता है

अबतक कितने उपन्यास तूने पढ़े हैं सब क्या सच्चे होते हैं चुप होजा चल नीचे चल अब बाद में पढ़ना पर हमारे मन में तो यह कीड़ा घुस गया था कि भारती ही " चंदर " हैं

और हमारे मन में यह ख़्याल आया कि काश अपने "चंदर" ( भारती जी ) को कभी दूर से ही देख सकें

हमें क्या मालूम था कि एक दिन इनको दूर से देखेंगे ही नहीं पास भी बैठने का अवसर भी और भरपूर सान्निध्य और अत्यधिक प्यार के पात्र बनेंगे 

और जब एक दिन हमने उन्हें ये घटना बताई तो बहुत हँसे

हमने उस उपन्यास के पात्रों के बारे में पूछा तो टाल गए 

हमने कहा अच्छी एक बात  बताइए जिनको आपने उपन्यास समर्पित किया है वो पुष्पा दीदी कौन हैं तो बोले जिनके कोर्ट में तुम्हारा मुकदमा चल रहा है एस. के. सक्सेना उनके पति हैं यानि कि हमारे जीजाजी 

भारती जी बेहद अनुसाशन प्रिय थे धर्मयुग के कार्यालय में जब भारती जी अपने कैबिन में बैठे होते थे तब भी बाहर सहायक सम्पादक " मनमोहन सरल " गणेश मंत्री " " योगेन्द्र कुमार लल्ला  " सतीश वर्मा " आदि अपनी अपनी टेबिल पर सर झुकाए काम में लगे रहते थे जो कहीं बाहर निकल आएं तो पिनड्रॉप साइलेंस कोई मुस्कुरा भी नहीं सकता था भारती जी का व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली था 6 फिट 2 इंच लंबे इकहरा वदन छोटे छोटे घुंघराले बाल गम्भीर मुखमण्डल कोई भी लेखक कवि कथाकार पत्रकार बिना अपॉयनमेन्ट के उनसे नहीं मिल सकता था

हम बचपन से ही शरारती रहे हैं तो हम बिना समय लिए 

मिलने की ज़िद करते थे तो लल्ला भाई साहब और बाकी लोग हमें रोकते थे तो हम जबरदस्ती उनके केबिन में घुस जाते थे 

असल में हम मुंबई में कवि सम्मेलनों में जाया करते थे तो कई कई दिन रुकते थे हमारे रुकने का स्थाई अड्डा होता था चित्रा भाभी ( चित्रा मुदगल ) 

का बांद्रा वाला " साहित्य सहवास " का फ्लैट उसी बिल्डिंग में भारती जी का फ्लैट था उसी में शब्द कुमार भाई साहब का फ्लैट था ( जिन्होंने इंसाफ का तराजू ) फ़िल्म की पटकथा और सम्वाद लिखे थे जिस फ़िल्म से राज बब्बर को फिल्मी दुनियाँ में एंट्री मिली थी

सोमेन्द्र बत्रा तो चित्रा भाभी के फ्लैट में ही दूसरे कमरे में रहते थे वो फिल्मों में निदेशक बनने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे और किसी निदेशक के सहायक थे चित्रा भाभी तो ममता की

साकार मूर्ति हैं जब कभी हमको 4 या 5 दिन बाहर के कवि सम्मेलन में हो ही जाते थे एक दिन जब हम 4 दिन बाद कहीं से लौट कर आए तो देखा कि चित्रा भाभी हमारे पेंट शर्ट पर प्रेस कर रही थीं न जाने कब उन्होंने धोकर सुखा लिए थे

हमने कहा " भाभी ये आप क्या कर रही हैं तो बोलीं तुम्हें कल भी तो बिरला मातुश्री में कवि सम्मेलन में जाना है क्या इन्हीं कपड़ों में जाओगे " हमने पैर पकड़ लिए आप क्या क्या करेंगी हमारे लिए हमारी आँखें छलछला आईं थीं

बच्चे भी हमें बहुत प्रेम करते थे गुड्डू बिट्टू दोनों ही बिट्टू तो बेचारी असमय चली गई 

अवध दादा ( अवधानारायण मुदगल ) भी हमें बहुत प्यार करते थे

कभी कभी चित्रा भाभी के फ्लैट पर साहित्यकारों का जमघट लगता था तो 

उसमें भारती जी , शब्द कुमार भाई साहब और उनकी पत्नी सरोज भाभी 

सोमेन्द्र भाई , विश्वनाथ सचदेवा जो अब रीडर्स डाइजेस्ट के सम्पादक हैं तब नव भारत टाइम्स में थे सब जमा हो जाते तो बहुत मौज़ आती थी यहाँ भाई साहब ( भारती जी ) का व्यक्तित्व बिल्कुल भिन्न हो जाता था खूब हंसोड़ मज़ाकिया हो जाते थे

कभी ऐसी ही महफिलें भारती जी के फ्लैट में भी होती थीं उसमें इन सबके साथ श्यामरथी सिंह , राममनोहर त्रिपाठी ( जो उस समय विधायक थे ) अवश्य होते थे

 तो बात ये चल रही थी कि हम भाई साहब ( भारती जी ) के केबिन में यों ही घुस जाते थे तो एक दिन भाई साहब बाहर निकल कर आए और बोले " सुरेन्द्र जब चाहे हमसे मिल सकता है इसे मत रोका करिए " उसके बाद तो हमारे मज़े ही आ गए जब चाहते उनकी केबिन में घुस जाते और वो भी अपना काम निबटा कर आराम से बैठ जाते थे

और बोलते सुनाओ क्या हाल चाल है 

हम उनसे पूछते भाई साहब आपके यहाँ के व्यक्तित्व में और घर के व्यक्तित्व में इतना भारी अंतर कैसे होता है तो कहते कि " अगर हम यहाँ भी घर जैसे ही हो जाएं तो धर्मयुग चार दिन नहीं चल पाए ये लोग भी तो हमारे घर आते हैं ये भी तो हमारा वो रूप देखते हैं पर ये जानते हैं कि घर घर होता है और ऑफिस ऑफिस यहाँ अनुसाशन बहुत ज़रूरी है

अब हमने तुम्हें तो इसलिए छूट देदी है क्योंकि तुमसे बातचीत करके हमें भी अच्छा लगता है

एक तो तुम कहानियाँ बहुत अच्छी मार्मिक और जनजीवन से जुड़ी हुई लिखते हो और तुम्हारे अनुभव का दायरा बहुत बड़ा है फिर तुम जितने शरारती हो उतने ही बड़ों को सम्मान देते हो फिर तुम्हारी राइटिंग बहुत सुंदर है तुम्हारी कहानियों में हमें कौमा फुलस्टाप भी नहीं बदलना पड़ता है नहीं तो बिहार के कथाकारों की कहानियों में तो लिंग परिवर्तन भी करना पड़ता है

भाई साहब जानते थे कि हम आर . आर . एस से होते हुए सी पी आई फिर सी पी एम से होते हुए नक्सलाइड मूवमेंट से जुड़े रहे और ध्यान से जुड़े हैं

भाई साहब हमसे ओशो के साहित्य के बारे में बहुत बात करते थे जबकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी भी ओशो का खुल कर समर्थन नहीं किया

और महर्षि रमण , जे , कृष्ण मूर्ति के साहित्य और उनकी विचारधारा के बारे में खूब बात करते थे

भाई साहब भी ज्ञान के अक्षय भंडार थे

एक और खास बात थी कि भले ही किसी कहानीकार का कितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ हो पर यदि धर्मयुग में जब उनकी पहली कहानी प्रकाशित हो रही होती तो परिचय के साथ साथ यह अवश्य लिखते थे कि ये कथाकार इतने दिनों से लिख रहे हैं और इतना साहित्य प्रकाशित हो चुका है पर धर्मयुग में यह इनकी पहली कहानी है ( लेखक को उसकी औकात दिखा देते थे ) 

जब हमारी लगभग 30 या 35 कहानियाँ धर्मयुग में प्रकाशित हुई होंगी यदि हमें कहानी भेजने में कुछ अधिक दिन हो जाते थे तो उनका छोटा सा पत्र लिफाफे में आता था कि

 " प्रिय सुरेन्द्र

 तीन चार हजार शब्दों की कोई मार्मिक सी कहानी शीघ्र भेजो प्रतीक्षा रहेगी

तुम्हारा

( अपने हस्ताक्षर )

कई बार तो ऐसा भी होता कि हमारे पास कोई तय्यार कहानी नहीं होती थी  तो हम लिख देते

" आदरणीय भाई साहब 

चरण स्पर्श

कहानी तो तय्यार है पर अभी फेयर नहीं की है फेयर करते ही भेज देंगे तबतक हम दो नवगीत भेज रहे हैं देख लीजिएगा "

तो उनका उत्तर आता 

" प्रिय सुरेन्द्र

तुम्हारे कमजोर गीत भी तुम्हारी कहानी की प्रतीक्षा में स्वीकार कर लिए हैं "

फिर हम जल्दी से कहानी लिखते और भेज देते 

एक बार तो ऐसा हुआ कि हमने एक कहानी " रंडी बहू " शीर्षक से भेजी कुछ समय बाद धर्मयुग के एक अंक में उक्त कहानी उक्त तारीख में प्रकाशित होने की सूचना प्रकाशित हुई  

पर उक्त अंक में वो कहानी प्रकाशित नहीं हुई तो हमने पत्र लिखा

आदरणीय भाई साहब

चरण स्पर्श

आपने हमारी उक्त कहानी को उक्त अंक में प्रकाशित करने की सूचना प्रकाशित की थी पर उक्त अंक में तो प्रकाशित नहीं हुई क्या हुआ ? 

उत्तर लल्ला जी का आया 

प्रिय सुरेन्द्र भाई

भारती जी विदेश यात्रा पर गए हैं उन्हें आपकी उस कहानी के शीर्षक पर ऐतराज है वो जब वापस आएंगे तब कोई निर्णय लिया जाएगा "

थोड़े दिन बाद उनका पत्र आया

" प्रिय सुरेन्द्र 

हमें तुम्हारी कहानी का शीर्षक अच्छा नहीं लगा अब हमने तुम्हारी कहानी का शीर्षक बदल कर  " पातुर बहू " 

कर दिया है तुम्हें कोई ऐतराज हो तो बताओ

अंधा क्या चाहे एक आँख हमने पत्र लिखा 

आदरणीय भाई साहब

चरण स्पर्श 

हमें " पातुर बहू " शीर्षक बहुत ही पसंद आया है असल में हम भी " रंडी बहू " शीर्षक से हम भी संतुष्ट नहीं थे पर हमें कोई अच्छा शीर्षक नहीं मिल पा रहा था आपने बड़ी कृपा की शीर्षक बदल कर

आपका

सुरेन्द्र

जब वो कहानी प्रकाशित होकर आई तो उसकी बेहद चर्चा हुई और कई भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त जापानी और अंग्रेजी में अनुवाद होकर प्रकाशित हुई पंजाबी भाषा में तो इस कहानी का अनुवाद

अमृता प्रीतम ने किया 

क्या थे वो दिन जब श्रेष्ठ पत्रिकाओं के सम्पादक लेखकों की प्रतिभा को पाहचान कर उनको पूर्ण प्लेटफार्म देते थे और उनको स्थापित करने में अपना योगदान देते थे

उन्होंने हमसे अन्य विषयों पर भी लिखवाया 

एक बार हमने एक बहुत बड़ा सर्वेक्षण 

नौटंकियों पर कर " मेले में नौटंकी " शीर्षक से धर्मयुग में भेजा हमारा नौटकियों पर बहुत बड़ा काम है चित्रों सहित भेजा उसकी भी बहुत चर्चा हुई

उसके बाद भाई साहब ने हमें कहा कि तुम्हारे इलाके एटा इटावा मैनपुरी डाकुओं का इलाका है तुम एक सर्वेक्षण डाकुओं पर करके भेजो 

हमने कह दिया कि भाई साहब हमें कहानीकार ही रहने दें

एक बार हमने कुछ गीतकारों को लेकर धर्मयुग के लिए एक परिचर्चा की शीर्षक था " यदि आने वाली हिंदी फिल्मों के गीत हम लिखें तो " इसमें हमने बलवीर सिंह रंग , सोम ठाकुर , भारत भूषण , सुरेन्द्र मोहन मिश्र , कुमार शिव , तारादत्त निर्विरोध , किशन सरोज , आत्मप्रकाश शुक्ल को लिया किशन भाई साहब के गीत पढ़ कर बोले इनके गीत बहुत ही मधुर हैं फिर उन्होंने पत्र लिख कर किशन भाई साहब से गीत मंगवा कर धर्मयुग में प्रकाशित किए फिर उन्हें मुंबई बुला कर सम्मानित किया और अपने आवास पर एक गोष्ठी की और 51 हजार रुपये भेंट किए 

ऐसे थे हमारे भाई साहब

एक बार हमने दस गर्मी के दोहे भेजे उन्होंने पूरे पेज पर वो दोहे प्रकाशित किए और हमें लिखा 

इन गर्मियों में जितने भी दोहे आए हैं उनमें सबसे अच्छे दोहे तुम्हारे हैं इसलिए इन्हें पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित कर रहे हैं

धर्मयुग अपने विशेषांकों के लिए भी चर्चित रहता जैसे दिवाली विशेषांक , होली विशेषांक , दशहरा विशेषांक , 

ग्रामकथा विशेषांक  ऐसे ही एक बार ग्रामकथा विशेषांक में

हमारी कहानी " उऋण " प्रकाशित हुई उसकी भी बहुत चर्चा हुई उस कहानी का इलाहाबाद रेडियोस्टेशन के उस समय के निदेशक दिनेश रस्तोगी के निर्देशन में राधेश्याम उपाध्याय द्वारा रूपांतरित नाटक " उऋण " नाम से ही प्रसारित किया फिर उसको अखिल भारतीय रेडियो

नाट्य प्रतियोगिता में भेजा गया जिसमें उसने प्रथम स्थान पाया उसके बाद वो नाटक पूरे भारत में सभी रेडियोस्टेशन से

प्रसारित हुआ जिसके फलस्वरूप हमें सालों हर रेडियोस्टेशन से रुपए आते रहे 

अभी कुछ महीने पहले हमारे पास एक सूचना आई कि अब वो नाटक गूगल पर आ गया है

उस कहानी के नाट्य रूपांतरण के मंचन बिहार में बहुत हुए उसी कहानी पर हमारे मित्र दिनेश आकुल के शिफ़ार्शी पत्र के साथ कला फ़िल्म निदेशक मदन बाबरिया 

का पत्र आया कि वो उक्त कहानी पर एक कला फ़िल्म बनाना चाहते हैं पर बात नहीं बन पाई 

हम सदैव यही सोचते रहे कि हमारा काम लिखना है प्रकाशकों काम पुस्तक प्रकाशित करना है और समीक्षकों का काम उस पुस्तक की समीक्षा करना है इसीलिए हम कभी भी अपनी ओर से किसी भी प्रकाशक के पास नहीं गए 

हम ग़लत थे हम नहीं गए तो 

हमसे भी किसी ने संपर्क नहीं किया लगभग 100 कहानियाँ 

धर्मयुग, सारिका , साप्ताहिक हिंदुस्तान , इंडिया टुडे , रविवार और बड़े बड़े दैनिक समाचार पत्रों के रविवासरीय अंकों में प्रकाशित होने के बाद भी किसी बड़े प्रकाशक ने हमसे संपर्क नहीं साधा वो तो भला हो हमारे दो मित्रों का एक तो डॉक्टर राजेन्द्र गढ़वालिया ( उस समय के श्री  वाष्णेय कॉलेज ) उन्होंने केवल हमारा कहानी संग्रह प्रकाशित करने के लिए जाग्रति प्रकाशन 

खोला और हमारा पहला संग्रह 

" नाग वंशी " आया दूसरा संग्रह हमारे हापुड़ के मित्र

पूजन प्रियदर्शी ने अपने तिरपुति प्रकाशन से " ग़लत व्याकरण " प्रकाशित किया इस तरह से दो कहानी संग्रह आए पर न हम किसी समीक्षक के पास गए न हमसे किसी ने सम्पर्क साधा इसलिए कोई चर्चा भी नहीं हो पाई 

धीरे धीरे बड़ी पत्रिकाएं बंद होती गईं हमारा लिखना कम होता गया इधर हम कवि सम्मेलनों में व्यस्त होते गए पैसा और प्रचार प्रचुर मात्रा में

मिलता गया कहानी लेखन पीछे छूट गया

अंतिम बार भाई साहब ( डॉक्टर धर्मवीर भारती ) से मुलाक़ात मुंबई के चकल्लस के मंच पर हुई थी कवि सम्मेलन में बाद पास में आकर खड़े हो गए थे हम तो पाहचान ही नहीं पाए एक बेहद दुबला पतला आदमी हमारे पास खड़ा 

था बोला ° सुरेन्द्र " 

अरे भाई साहब आप हमने झुक कर पैर छुए आपको क्या हुआ भाई साहब हम तो पाहचान भी नहीं पाए तो 

मुस्कुरा कर बोले " अब तुम्हारे

चंदर की जाने की तैयारी है " 

हमारी आँखें भर आईं 

और उसके कुछ ही दिन बाद 

हमारा " चंदर " चला गया हमेशा के लिए।

सुरेन्द्र सुकुमार की स्मृति से


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गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

वह शाम मेरी यादों में अक्स है


जब मैं जबलपुर से मुंबई पहुँची तो मुंबई की हवाओं में कला और साहित्य का नशा था। निश्चय ही वह साहित्य का मुंबई के लिए स्वर्ण युग था। एक ओर प्रगतिशील आंदोलन, इप्टा और ट्रेड यूनियन आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था ,तो दूसरी ओर कई नामी-गिरामी लेखक फिल्मों में गीत और संवाद लिखने को विभिन्न प्रदेशों से जुट आए थे। यहाँ टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप अपने चरम पर था। जहाँ से निकलने वाली पत्रिकाएँ धर्मयुग , सारिका ,माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली, पराग ,चंदामामा ,नंदन से मुंबई की एक अलग पहचान बनती थी ।पृथ्वी थियेटर ,तेजपाल थिएटर, रंगशारदा में खेले गए तुगलक हयवदन, सखाराम बाईंडर, मी नाथूराम गोडसे बोलतो जैसे नाटक शो पे शो किए जा रहे थे।  मुझे इन सब के बीच अपनी जगह बनानी थी।             मैं टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग में बिना किसी अपॉइंटमेंट के संपादक धर्मवीर भारती से मिलने गई। अपने नाम की स्लिप केबिन में भिजवा कर बाहर इंतजार करने लगी। ऑफिस का माहौल शांत था। मनमोहन सरल, शशि कपूर , रूमा भादुड़ी, सुमन सरीन सब अपने-अपने कामों में व्यस्त। लकड़ी के पार्टीशन से लगा माधुरी का ऑफिस ,सामने सारिका का। थोड़ा हटकर नंदन ,पराग बाल पत्रिकाओं का। ऑफिस में मुझे बैठे 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि भारती जी के केबिन से बुलावा आ गया। सिगार सुलगाती हुई भव्य आकृति ।

" आईए संतोष जी ,बैठिए ।"

"जी मैं जबलपुर से अब यहीं रहने आ गई हूँ।"

"अच्छा किसी नौकरी के सिलसिले में?"

तभी चपरासी चाय और पानी लाकर रख गया ।

"चाय लीजिए, छापा है हमने आपको।"

" जी नौकरी नहीं पत्रकारिता करने आई हूँ। "मैंने झिझकते हुए कहा।

" बड़ी कठिन राह है पत्रकारिता की। बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"

मुझे लगा कि वह समझ रहे हैं मैं उनसे काम माँगने आई हूँ।

" जी पहले समझ तो लूँ। अभी तो पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी पत्रकारिता की।"

वे मुस्कुराए फिर सूरज का सातवाँ घोड़ा पुस्तक मुझे भेंट की। मैंने इजाज़त चाही। वे उठकर केबिन के बाहर तक मुझे छोड़ने आए।

भारतीजी जितने अच्छे साहित्यकार थे उतने ही अच्छे संपादक भी थे। मैं यह बात निजी अनुभव से कह सकती हूँ कि उन्होंने देश भर में हजारों लेखकों को मांजा है, संवारा है, और पहचान दी है। उनके लिखे पोस्टकार्ड आज भी मेरी धरोहर है।

धीरे - धीरे मेरे दोस्तों की सूची में संपादक ,पत्रकार जुड़ते गए। मनमोहन सरल, सुमंत मिश्र, विमल मिश्र, आलोक श्रीवास्तव, आलोक भट्टाचार्य ,कैलाश सेंगर ,सुमन सरीन, रूमा भादुरी, शशि कपूर एक ऐसा समूह तैयार होता गया जिससे एक दिन भी न मिलना बड़ा शून्य रच देता।

अभिभूत थी मैं। मुम्बई अजनबी नहीं लग रही थी। कितने अपनों से भरी है मुम्बई।

नवभारत टाइम्स में मैं लगातार लिखने लगी। पहले छिटपुट लेख फिर विश्वनाथ जी ने मुझसे मानुषी कॉलम लिखवाना शुरू किया। डेस्कवर्क मैं करना नहीं चाहती थी, मेरा मन फ्रीलांस में ही लगता था । दूसरे हेमंत भी बहुत छोटा था और उसको मैं अधिक समय तक अकेला नहीं छोड़ सकती थी। 

फिर न जाने क्या सनक चढ़ी संतोष वर्मा नाम बदलकर शादी के बाद का सरनेम संतोष श्रीवास्तव लिखना शुरू किया। इस खबर को भारती जी ने धर्मयुग में छापा। शुभचिंतकों ने इस बात पर विरोध प्रकट किया" यह क्या किया सरनेम बदलने की क्या जरूरत थी? अपनी पहचान खुद मिटा रही हो।"

"पहचान बरकरार रहेगी, मैं संतोष वर्मा को मिटने नहीं दूंगी ।" 


भारती जी ने धर्मयुग में कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा। इस कॉलम में मनोरोग से पीड़ित बच्चों की केस हिस्ट्री ,चिकित्सकों से पूछ कर उसका बाल मनोरोग व्रत और निदान भी लिखना था। तब धर्मयुग साप्ताहिक था और यह कॉलम हर पखवाड़े प्रकाशित करने की उनकी योजना थी।

इस कॉलम के लिए जानकारी जुटाना बहुत भागदौड़ से संभव हुआ। मुझे मनश्चिकित्सकों से अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था और फिर उनके संग तीन-चार घंटे बैठकर केस हिस्ट्री आदि जानने की व्यस्तता शुरू हो गई। मेहनत ज़रूर करनी पड़ी लेकिन कॉलम बहुत ज्यादा चर्चित हुआ। बच्चों का यह कॉलम दो साल तक लिखा मैंने। इस कॉलम के बाद भारती जी ने मनोरोगी औरतों के बारे में भी मुझसे अंतरंग नाम से कॉलम लिखवाया। इस कॉलम के लेखन के दौरान मैं आश्चर्यचकित कर देने वाले और मर्मान्तक अनुभवों से गुजरी। मुझे एहसास हुआ कि एक स्त्री को मनोरोगी बनाने में जितना परिवेश ज़िम्मेदार है उससे कहीं अधिक पति, पिता ,भाई, बेटा और अन्य मर्द से संबंधित रिश्ते जिम्मेवार हैं। इस पीड़ा ने भीतर तक मुझे कुरेदा और मैं नारी विषयक लेख यथा 

अत्याचार को चुनौती समझें 

क्यों सहती है औरत इतने अत्याचार पितृसत्ता को बदलना होगा 

आदि शीर्षकों से लिखने लगी जिन्हें धर्मयुग, नवभारत टाइम्स ने तो खूब छापा ही ।

नई दिल्ली के "भारत भारती" द्वारा तथा "युगवार्ता त्रि साप्ताहिक प्रसंग लेख सेवा" द्वारा देश भर के अखबारों में भी प्रकाशित किए गए ।मानुषी और अंतरंग तथा बाल अंतरंग स्तंभों ने मुझे पत्रकार के रूप में मुंबई में प्रतिष्ठित कर दिया । और इस बात का पूरा श्रेय भारती जी को जाता है। उन्हीं ने मुझसे कहा कि एक बार विश्वनाथ सचदेव से भी मिल लो। विश्वनाथ सचदेव जी से मुलाकात अविस्मरणीय थी। बहुत सरल और भव्य उनका व्यक्तित्व था। नवभारत टाइम्स में मेरी कई कहानियाँ प्रकाशित कीं और नारी विषयक लेख उन्होंने मुझसे लिखवाए। फिर एक कॉलम दिया मानुषी जिसमें मैं हर पखवाड़े लगातार लिखती रही। यह कॉलम भी दो ढाई साल चला।

मुंबई में मुझे स्थायित्व मिल चुका था और मैं लगातार फ्रीलांस पत्रकारिता करने लगी। 


भारती जी के संपादन में धर्मयुग में बहुत महत्वपूर्ण विषयों पर परिचर्चाएं आयोजित की जाती थीं। मुझे याद है एक परिचर्चा का विषय था "अब मैं बता सकती हूँ।" जो केवल महिला लेखकों के लिए था। मेरे विचार भी इस परिचर्चा में मेरी फोटो सहित प्रकाशित किए गए। मुझे लगता है इस परिचर्चा का उद्देश्य बरसों से महिलाओं की खामोशी को तोड़ना था कि वे खुलकर नहीं बता पा रही थीं कि वे किन परिस्थितियों से गुज़री हैं ।

एक और परिचर्चा आयोजित की गई "वह क्षण जिसने जीवन को नया मोड़ दिया "इस परिचर्चा में भी मैंने भाग लिया था। और स्वीकार किया था कि एडवोकेट बनते- बनते मैं साहित्यकार बन बैठी।

"पति पत्नी और वो "इस विषय पर भी धर्मयुग में परिचर्चा आयोजित की गई थी। हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। फिर चाहे वह दूसरी स्त्री ही क्यों न हो ।इस विषय पर बहुत काम हुआ। लेखकों ने कई कहानियां लिखी तथा कई साझा संकलन भी निकले।

धर्मयुग को लोकप्रिय बनाने में ऐसे विषय बहुत सहायक थे।

धर्मयुग में ही यह बात उठाई गई थी कि जब सभी क्षेत्रों में रैंकिंग होती है तो साहित्य में रैंकिंग क्यों नहीं होती और यह कार्य इन दिनों बखूबी निभा रही है राजस्थान की संस्था राही रैंकिंग। हालाँकि साहित्यिक रैंकिंग का यह कार्य भारती जी के निधन के बाद 2014 से आरंभ हुआ लेकिन अब यह खूब लोकप्रिय हो रहा है।

भारती जी के संपादन काल में मेरी 8 कहानियाँ धर्मयुग में छपी।

    मेरे उपन्यास " टेम्स की सरगम" का लोकार्पण पुष्पा भारती जी के हाथों हुआ था। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि इस उपन्यास में जिस प्रेम का संतोष ने वर्णन किया है उस प्रेम से मैं भारती जी को लेकर गुजर चुकी हूँ। संतोष, कैसे लिखा तुमने यह सच्चा ,उदात्त समर्पित प्रेम। पुष्पा जी के इस पूरे वक्तव्य को समीक्षा के नाम से हंस में राजेंद्र यादव जी ने प्रकाशित किया था।

कांता भारती द्वारा लिखित रेत की मछली को पढ़कर कई लेखक भारती जी के विरोधी हो गए थे। लेकिन मैं यह कहना चाहूंगी कि उन्होंने पुष्पा भारती जी से सच्चा प्रेम किया और उसे किसी से  छुपाया नहीं। इस बात के गवाह हैं वे प्रेम पत्र जो उन्होंने पुष्पा भारती के नाम "धर्मवीर भारती के पत्र पुष्पा भारती के नाम "पुस्तक में प्रकाशित कर सरेआम किए हैं।

इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ में लिखा गया है कि ये पत्र एक ऐसे कालजयी रचनाकार के अंतरंग का आलोक है जिसने भारतीय साहित्य को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं ।ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा से आप्लावित हैं। इन पत्रों में प्रेम की अनेकायामिता अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान निर्मित करती है। यही कारण है कि ये पत्र दैनंदिन जीवन का व्यक्तिगत लेखा-जोखा मात्र हैं। "संबोधित "के प्रति समग्र समर्पण और उसके हित चिंतक की प्रेमिल पराकाष्ठा इनकी विशेषता है।

भारती जी न जाने कितने विशेषण से उन्हें पुकारते हैं। मेरी एकमात्र अंतरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि ,मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई -के लिए ये पत्र लिखे गए हैं। इस प्रक्रिया में जीवन , साहित्य ,दर्शन व मनोविज्ञान आदि के अनेकानेक पक्ष इस प्रकार उद्घाटित होते हैं कि पाठक का मन अलौकिक ज्ञान आनंद से भर जाता है ।विलक्षण रचनाकार धर्मवीर भारती के इन पत्रों को जिस प्रीति प्रतीति के साथ पुष्पा भारती ने संजोया है वह भी उल्लेखनीय है। यह भी कहना उचित है कि भारतीय साहित्य को समझने में इन पत्रों से एक नया झरोखा खुल सकेगा। 


भारती जी की उनकी पहली पत्नी का नाम कांता था और उनसे उनके एक बेटी भी थी

लेकिन उनके संबंध अच्छे नहीं थे। भारती जी से अपने संबंधों का हवाला देते हुए कांता भारती ने एक किताब लिखी थी " रेत की मछली" जिसे उनकी आत्मकथा भी कहा जाता है।

“रेत की मछली” पढकर मैं अपने प्रिय रचनाकार को कटघरे में पाती हूं। इतनी प्रेमिल भावनाओं के भारती जी ने कांता भारती के संग क्यों ऐसा व्यवहार किया? क्यों उन्हें टॉर्चर किया ? वे चाहते तो उन्हें तलाक देकर मुक्त हो सकते थे। और कांता जी को भी मुक्त कर सकते थे। पर........ 


मैंने धर्मयुग में उनका एक संस्मरण पढ़ा था जो उन्होंने लोहिया जी पर लिखा था। इस संस्मरण में उन्होंने लिखा था कि पुष्पा जी से अपने दूसरे विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने लगभग समस्त परिचितों और आदरणीयों से सलाह चाही थी किंतु किसी ने भी खुल कर उनका समर्थन नहीं किया था। किंतु जब उन्होंने लोहिया जी से इस विषय में

सलाह मांगी तब उनकी सहमति ने उन्हें बल दिया था और वे पुष्पा जी से विवाह के लिए तैयार हो गए थे।

कहा जाता है कि ‘कनुप्रिया’ रचने की प्रेरणा भारती जी को अपने निजी जीवन में उठे द्वन्द और उसे हल करने के प्रयासों से प्राप्त जीवन अनुभवों से मिली। मुम्बई आने से पहले वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे और पुष्पा भारती उनकी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़कियों में से एक थीं। पूर्व विवाहित भारती जी को उनके रूप और इस आकर्षण को मिले प्रतिदान ने द्वन्द में डाल दिया था।

पुष्पा भारती से विवाह करने के विचार पर नैतिकतावादी भारती गहरे द्वन्द से घिरे रहे पर अंततः उनका प्रेम जीता और उन्होंने अपनी छात्रा पुष्पा जी से विवाह कर लिया।

उनसे प्रथम मुलाक़ात में मुझे जो अपना उपन्यास  सूरज का सातवाँ घोड़ा भेंट किया था उसे कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी। अंधायुग उनका प्रसिद्ध नाटक है। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।

कनुप्रिया और अंधायुग उनकी कालजयी कृतियां हैं जिन्हें भारती जी के जाने के बाद उनके जन्मदिन पर मुम्बई के नाट्यकर्मी पुष्पा भारती जी के निर्देशन में हर वर्ष 25 दिसंबर को मंचित करते हैं।

कनुप्रिया की मेरी सबसे पसंदीदा पंक्तियां हैं

मेरे हर बावलेपन पर

कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस कर

तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर

बेसुध कर देते हो

उस सुख को मैं छोड़ूँ क्यों?

करूँगी!

बार-बार नादानी करूँगी

तुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो हूँ न!

1971 में बांग्ला देश में  भारत पाकिस्तान युद्ध की रोमांचक एवं लोमहर्षक दास्तान भारती जी की कलम से रिपोर्ताज के रूप में लिखी गई जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित की गई। ऐसा माना जाता है कि युद्ध का आँखों देखा वर्णन रिपोर्ताज के रूप में विश्व साहित्य में पहली बार भारती जी ने लिखा। इस किताब का नाम है युद्ध यात्रा (बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और भारत पाक युद्ध की आंखों देखी रिपोर्ट)

युद्ध के मैदान में वीर सैनिकों तथा सैनिक अफसरों के साथ स्वयं  भारती जी उपस्थित रहे हैं। भारती जी जब बांग्लादेश से मुम्बई लौटे तो मैं उनसे मिलने उनके घर गई। इच्छुक थी उनसे आंखों देखा हाल सुनने। उनकी खूबसूरत साज सज्जा वाली बैठक में पुष्पा भारती जी के सान्निध्य में युद्ध का वर्णन सुनकर मैं विचलित हो गई थी बड़ी देर तक हम बांग्लादेश के बारे में बात करते रहे। फिर भारती जी ने मुझे बांग्लादेश की स्पेशल चाय पिलाई। बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण चाय उत्पादक देश है। आज यह दुनिया का 10 वां सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है ।

वह शाम मेरी यादों में अक्स है।

उन दिनों मैं मुम्बई के सांध्य दैनिक संझा लोकस्वामी में साहित्य संपादक थी। 4 सितंबर की सुबह अखबार के संपादक रजनी कांत वर्मा जी का फोन आया कि भारती जी का निधन हो गया है और मैं उन्हें भारती जी के विषय में संपादकीय लिखकर तुरन्त भेजूँ। वैसे तो वे लंबे समय से बीमार थे लेकिन इस तरह दुनिया से रुखसत हो जाएंगे सोचा न था। मैं काफी अपसेट हो गई। लेकिन फिर अखबार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए मैंने लिखा-

कलम के सिपाही का भौतिक संसार से परलोक गमन

हिंदी साहित्य के प्रतिभाशाली कवि, कथाकार व नाटककार डॉ० धर्मवीर भारती अब हमारे बीच नहीं रहे। वे लंबे समय से बीमार थे। उनके जाने से एक बड़ा शून्य साहित्य जगत में उत्पन्न हो गया है। लेकिन वे अपनी कविताओं अपनी रचनाओं से हमारे बीच हमेशा जिंदा रहेंगे। भारती जी की कविताओं में रागतत्व की रमणीयता के साथ बौद्धिक उत्कर्ष की आभा दर्शनीय है। कहानियों और उपन्यासों में इन्होंने सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को उठाते हुए बड़े ही जीवन्त चरित्र प्रस्तुत किए हैं| साथ ही हमारे समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करने की विलक्षण क्षमता भारती जी में रही। कहानी, निबन्ध, उपन्यास, एकांकी, नाटक, आलोचना, सम्पादन व काव्य-सृजन के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण सृजन प्रतिभा का परिचय दिया। वस्तुतः साहित्य की जिस विधा का भी भारती जी ने स्पर्श किया, वही विधा इनका स्पर्श पाकर धन्य हो उठी। 'गुनाहों का देवता' जैसा सशक्त उपन्यास लिखकर भारती जी अमर हो गये। इस उपन्यास पर बनी फिल्म भारतीय दर्शकों में अत्यन्त लोकप्रिय हुई| 

ऐसे प्रतिभाशाली साहित्यकार का निधन साहित्य की एक बड़ी क्षति है।

4 सितंबर 1997 का वह दिन जब भारती जी हमसे विदा हुए......

                   ......….संतोष श्रीवास्तव जी की कलम से


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