भौगोलिक रूप से हर नदी का एक नाम होता है पर संबंधों की कुछ नदियाँ हमारे भीतर भी तो बहती हैं न! शीतल जल से हमारी ज़मीन को गीला कर उर्वर बनाती हैं।भीतर कुछ सूखा है तो नेह जल का छिड़काव कर देती हैं। कुछ खो गया तो थपकी दे ढूंढ लाने को कहती हैं...
जुलाई 2014 का दिन नहीं भूल पाती। बाहर सावन की घनघोर बारिश। मुंबई की बरसात मुझे बेहद पसंद है पर उस दिन जो भीतर बरस रहा था वह थम ही नहीं रहा था। कविताओं की पुरानी हरी डायरी सामने रखी थी।पीले पड़ते पन्ने...यूँ ही उड़ जाएंगे...बिब्बी को गये चार साल बीत गए पर अवसाद भीतर पैठ कर गया।उनका पर्स,चश्मा छूते- छूते और कविताएँ पढ़ते हुए जैसे भीतर एक भूचाल आ गया था। कभी भी कविताएँ कहीं छपने नहीं भेजी। वे नितांत अकेली यात्रा की सहभागी थी, बस अपवाद के रूप में अजित कुमार जी के कहने पर एक संयुक्त कविता संग्रह के लिए दी थी।एक प्रश्न ने सिर उठाया -'क्या बच्चे मुझे जानते हैं?' वह तो सिर्फ माँ से परिचित हैं।परिवार की धुरी संभाले स्तम्भ से लिपटते हैं पर कितना कुछ है जो संदुकों में बंद है! इस मन को क्यों न साझा किया जाए।मेरे जाने पर शायद वे भी मुझे ऐसे ही याद करें।उनके लिए विरासत में क्या छोड़कर जाऊं? यहाँ भौतिक ज़मीन की बात नहीं है पर जो नितांत अपना है उसे ही तो विरासत में दे सकती हूँ न! सब कविताओं को एक संग्रह में सहेज लूँ तो शायद वह किताब ही मेरी असली विरासत होगी।सिर्फ और सिर्फ यही सोच कर कविताएँ प्रकाशित करने की सोची। ये भी सोचा कि जब मैं ना रहूँ तो बच्चे उस किताब को पकड़ कर मुझे छुने का अहसास कर सकते हैं।यहीं से प्रकाशन की शुरुआत हुई।
अगला सवाल कौंधा कि इस की राह तो पता नहीं।किस डगर जाऊँ? एक नाम जो सबसे पहले याद आया वह था - 'धर्मवीर भारती'।उनकी 'कनुप्रिया' और 'अंधा युग' सिराहने रहती थी।जानती थी कि वे अब नहीं है। पर उसी क्षण सोचा पुष्पा भारती जी तो हैं। उन्होंनें अपना जीवन भारती जी के साथ बिताया है।उनके लेख और साक्षात्कार धर्मयुग में पढ़े थे।उन्हें चौपाल में कई बार देखा और सुना था पर संकोचवश व्यक्तिगत रूप से मिली नहीं थी। कौन गली से जाऊँ!
फिर वकील युग याद किया।डेस्क टाॅप पर धर्मवीर भारती जी की वेबसाइट पर गयी।घर का नम्बर कागज़ पर लिखा और फोन लगा दिया। वह संवाद शब्दश याद है-
ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ...'हैलो'
' नमस्कार।मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ। मुझे पुष्पा भारती जी से बात करनी है '।
' मैं पुष्पा भारती ही बोल रही हूँ।कहिए '।
' जी नमस्कार। मैं चित्रा देसाई बोल रही हूँ।व्यवसायिक रूप से वकील हूँ और कविताएँ लिखती हूँ'।
' अरे बेटा बहुत अच्छा लगा कि तुम वकील हो।आजकल लड़किया हर जगह कितना कुछ काम करती हैं'।
' जी। लेकिन मैंने अलग कारण से फोन किया है।यदि आज भारती जी होते तो मैं यह फोन उन्हें करती। क्योंकि अब वे नहीं है इसीलिए आपको कर रही हूँ।मैं कविताएँ लिखती हूँ और उन्हें प्रकाशित करवाना चाह रही हूँ लेकिन मुझे ये नहीं मालूम कि वे प्रकाशन के लायक हैं या नहीं। अगर आप कुछ समय निकाल कर मेरी कुछ कविताएँ सुन कर अपनी राय दे तो मैं किसी निर्णय पर पहुँच पाऊँगी।मैं कब आ सकती हूँ?'
'अरे बिटिया कल आ जाऔ'
' जी। कितने बजे?'
' ग्यारह बजे। और आने से पहले फोन कर लेना।मैं भूल जाती या कोई कार्यक्रम बदला तो बता दूंगी '।
' जी बिल्कुल ' कह कर फोन रख दिया।
अगली सुबह निकलने से पहले 10 बजे फोन किया।हामी सुन कर पहुँच गयी। बांद्रा ईस्ट में बसे साहित्य सहवास प्रांगण की शाकुंतलम बिल्डिंग में।सीढ़ियाँ चढ़ते हुए कितनी बार भारती जी को सोचा, महसूस किया। 39 साल पहले दौलतराम काॅलेज की लाइब्रेरी से शुरू हुई यात्रा यहाँ मुंबई में उनके घर की देहरी पर ले आई! उनकी किताबों और धर्मयुग ने एक अलग दुनियाँ से जोड़ा। घंटी बजाई और सामने पुष्पा जी! चौपाल में देखा,सुना था। लेख, साक्षात्कार, संस्मरण पढ़े थे और अब उनके सामने उनकी देहरी पर खड़ी थी! उन्हें याद दिलाया कि कविताएँ सुनाने आई हूँ। उन्होंनें वहीं खड़े हुए कहा - ' बिटिया कविताएँ तो मैं सुनूँगी पर मैं बहुत मुँहफट हूँ।अगर कविताएँ मुझे अच्छी नहीं लगी तो साफ कह दूँगी कि छपवाने की आवश्यकता नहीं है।अगर तुम में 'ना' सुनने की हिम्मत है तो सुनाना वरना तुम घर आई हो तो साथ में चाय पियेंगे और बस...'
' जी बिल्कुल।आपसे ज्यादा निष्पक्ष कौन हो सकता है? अगर मुझे हाँ ही सुननी होती तो मैं अपनी मित्र मंडली को ही सुना देती। मुझे बिल्कुल ईमानदार प्रतिक्रिया चाहिए'।
' चलो अंदर आऔ'- उनके ड्राइंगरूम में भारती जी की कुर्सी देख कर अजीब सी सिहरन हुई। सबसे मजबूत रिश्ता - लेखक और पाठक का है।
पुष्पा जी ने कविताएँ सुननी शुरू की।उनके भीतर होती प्रतिक्रिया चेहरे पर...खंड दर खंड।
'चैती सरसो', 'बैसाखी कचनार ',' जेठ का बंजर' ,'सावनी तीज', 'फाल्गुनी मन'...
' अरे बिटिया तुम कहाँ थी? भारती जी होते तो तुम्हें लपक कर छापते।तुम सीधे प्रकाशन के लिए जाऔ...
पुष्पा जी यदि कविता सुन कर आपने स्वीकृति की मोहर नहीं लगाई होती तो 'सरसो से अमलतास' हरी डायरी में ही सिमटी रहती। छपवाने की महत्वकांक्षा थी ही नहीं, बस विरासत छोड़ने की बात थी। आपने मुझे हिम्मत दी,साहस दिया,आत्मविश्वास दिया। घंटो उस घर में बैठकर आपको सुना। 2014 से उस देहरी को नमन करती हूँ। समय बहता है वहाँ पर एक बहती हुई नदी ठहरी है...
- चित्रा देसाई की स्मृति से
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