दादा माहेश्वर तिवारी का जाना हिंदी साहित्य की ऐसी क्षति है जिसका पूर्ण होना मुमकिन नहीं।उनके जाने से एक युग का समापन हो गया ।नवगीत उनकी शनाख़्त बना और ऐसी शनाख़्त कि दादा का नाम आते ही नवगीत की तरफ़ ध्यान जाना और नवगीत की बात होते ही तिवारी जी का नाम ज़हन में आना लाज़िमऔर मलज़ूम हो गए हैं।उनके बाद की नस्लों, विशेष कर मुरादाबाद के कवियों को नवगीत के लिए सदैव डॉक्टर माहेश्वर तिवारी की काव्य शैली से मार्गदर्शन मिलता रहेगा। उनके साहित्यक कार्यों पर गंभीर विशलेषण, साहित्यक विशेषज्ञों और आलोचकों का काम है लेकिन उन्होंने एक बुजुर्ग साहित्यकार के रूप में जो छाप छोड़ी है वह भी नई पीढ़ी के लिए एक नमूना है। उनका स्वभाव ,उनका रख - रखाव, मिलना जुलना ,शालीनता से गुफ़्तगू और होठों पर सदा सजी रहने वाली मुस्कुराहट पतझड़ के मौसम में भी बहार का एहसास दिलाने के लिए काफ़ी थी। यही कारण था कि उनसे उम्र में बहुत छोटे साहित्यकार भी उनसे मिलकर अपनेपन का भाव लिए लौटते थे ।उन्होंने खुद को धर्म, जाति और भाषाई बंधनों से सदैव आज़ाद रखा ।इसी लिए सारे जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित होने के बाद भी मेरे जैसे उर्दू के शायर भी उनसे मिलकर ,उनके व्यक्तित्व ,प्रेम और स्नेह से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे ।शोहरत की बुलन्दियों पर होते हुए भी ग़ुरूर और अहंकार उन्हें छूकर भी नहीं गुज़रा था ।यही कारण है कि वह मंच पर नए कलाकारों को न सिर्फ तवज्जोह से सुनते बल्कि उनका हौसला भी बढ़ाते थे ।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि वह इस सदी में जीने वाले उस सदी के इंसान थे ,जो अब सिर्फ़, किताबों में मिलते हैं। वह एक बड़े फ़नकार ज़रूर थे, लेकिन शायद उस से भी बड़े व्यक्तित्व के मालिक ।
दूसरी कई बातों के साथ- साथ,आसमान पर ईद का चांद नज़र आते ही दादा का सबसे पहले ईद की मुबारकबाद देने के लिए फ़ोन करना हिंदुस्तानी तहज़ीब का वह हिस्सा है जो सदा उनकी याद दिलाता रहेगा।
- डॉ० मुजाहिद " फ़राज़ " (मुरादाबाद)
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डॉ० मनोज रस्तोगी के सौजन्य से
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