बात काफ़ी पुरानी है , सन 75 की रही होगी, तब माहेश्वर जी नए-नए मुरादाबाद आये थे, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है वे गोकुल दास गर्ल्स डिग्री कॉलेज के पास रहते थे, बसंत पंचमी को उनके घर सरस्वती पूजा और कवि गोष्ठी आयोजित होती थी। बड़ा आत्मीय वातावरण होता। बालसुंदरी जी सरस्वती वंदना प्रस्तुत करतीं और माहेश्वर भाई सभी को रचना पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते। उसी दौरान स्टेट बैंक में एक कवि सम्मेलन आयोजित करने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी। हुल्लड़ भाई के हास-परिहास कवि सम्मेलन के लिए जो कवि आए थे उनमें से चुनिंदा कवियों को अगले ही दिन इस आयोजन में निमंत्रित कर लिया था। हमने संचालन की ज़िम्मेदारी माहेश्वर जी को दी थी। कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ, माहेश्वर जी ने सबसे पहले मुझे कविता पाठ के लिए बुला लिया, न तो मुझे मंच पर कविता पढ़ने के लटके-झटके आते थे न ही कोई इतने बड़े ऑडियंस के सामने पढ़ने का अनुभव, नतीजा, अपने ही साथियों ने हूट कर दिया और इस तरह से पहला ही कवि शहीद हो गया। माहेश्वर जी ने यह जो पहला अवसर दिया था, उससे मुझे अपना niche खोजने और बेहतर से बेहतर करने की प्रेरणा मिली।
उसके कुछ ही महीनों के बाद स्थानांतरण का दौर शुरू हुआ, एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे, यही नहीं इस क्रम में राज्य दर राज्य भी बदले। इसी कारण माहेश्वर जी से मिलने का सिलसिला कम होता गया।
उसके कुछ ही महीनों के बाद स्थानांतरण का दौर शुरू हुआ, एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे, यही नहीं इस क्रम में राज्य दर राज्य भी बदले। इसी कारण माहेश्वर जी से मिलने का सिलसिला कम होता गया।
हाल की के वर्षों में मुरादाबाद आने-जाने का क्रम बढ़ गया, फिर से माहेश्वर जी को सुनने और उन्हें सुनाने का अवसर हर साल मिलने लगा।
दिसंबर 2022 में स्कॉलर डेन में मेरे पुत्रवत विवेक ठाकुर के सौजन्य से भाई मनोज रस्तोगी ने मुरादाबाद के सभी प्रमुख कवियों को आमंत्रित किया, इस अवसर पर माहेश्वर जी के साथ काफ़ी समय बिताने का और उनको सुनने का अवसर मिला। उनके गीतों में प्रेम की कोमल अभिव्यक्ति तो है साथ ही समय के प्रामाणिक दस्तावेज भी हैं। देखिए-
मुड़ गए जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ़,
ले गए वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ़।
आहटें होने लगीं सब
चीख़ में तब्दील,
हैं टँगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील,
मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुए कल की तरफ़।
लेकिन माहेश्वर जी की कविताओं और गीतों की ख़ुशबू बहुत दूर-दूर तक फैली है, अभी चार दिन पहले यहाँ मुंबई में नजमा हेप्तुल्ला हाल में ज़हीर क़ुरैशी व्याख्यान माला के लिए डॉ० नंदलाल पाठक, प्रो० हूबनाथ पांडेय, हरीश पाठक, यश मालवीय सरीखे रचनाकार इकट्ठे हुए, सभी ने एक-एक करके माहेश्वर जी को बड़ी शिद्दत से याद किया। ख़ास बात यह थी कि सभी को माहेश्वर जी की कविताएँ कंठस्थ थीं और बिना किसी काग़ज़ की मदद के मंच पर पाठ किया। उनकी रचना-
याद तुम्हारी जैसे कोई
कंचन-कलश भरे।
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे।
लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आँगन में उतरे।
कंचन-कलश भरे।
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे।
लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आँगन में उतरे।
को यश मालवीय और विनीता टण्डन ने अपने अपने अन्दाज़ में प्रस्तुत किया। यही माहेश्वर जी के नव गीतों की ताक़त और स्वीकार्यता का सबूत है।
श्रद्धांजलि।
- प्रदीप गुप्ता।
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साभार - डॉ० मनोज रस्तोगी।
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