‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शनिवार, 4 मई 2024

इस सदी में उस सदी का इंसान

दादा माहेश्वर तिवारी का जाना हिंदी साहित्य की ऐसी क्षति है जिसका पूर्ण होना मुमकिन नहीं।उनके जाने से एक युग का समापन हो गया ।नवगीत उनकी शनाख़्त बना और ऐसी शनाख़्त कि दादा का नाम आते ही नवगीत की तरफ़  ध्यान जाना और नवगीत की बात होते ही तिवारी जी का नाम ज़हन में आना लाज़िमऔर मलज़ूम हो गए हैं।उनके बाद की नस्लों, विशेष कर मुरादाबाद के कवियों को नवगीत के लिए सदैव डॉक्टर माहेश्वर तिवारी की काव्य शैली से मार्गदर्शन मिलता रहेगा। उनके साहित्यक कार्यों पर गंभीर विशलेषण, साहित्यक विशेषज्ञों और आलोचकों का काम है लेकिन उन्होंने एक बुजुर्ग साहित्यकार के रूप में जो छाप छोड़ी है वह भी नई पीढ़ी के लिए एक नमूना है। उनका स्वभाव ,उनका रख - रखाव, मिलना जुलना ,शालीनता से गुफ़्तगू और होठों पर सदा सजी रहने वाली मुस्कुराहट पतझड़ के मौसम में भी बहार का एहसास दिलाने के लिए काफ़ी थी। यही कारण था कि उनसे उम्र में बहुत छोटे साहित्यकार भी उनसे मिलकर अपनेपन का भाव लिए लौटते थे ।उन्होंने खुद को धर्म, जाति और भाषाई बंधनों से सदैव आज़ाद रखा ।इसी लिए सारे जीवन हिंदी साहित्य को समर्पित होने के बाद भी मेरे जैसे उर्दू के शायर भी उनसे मिलकर ,उनके व्यक्तित्व ,प्रेम और स्नेह से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे ।शोहरत की बुलन्दियों पर होते हुए भी ग़ुरूर और अहंकार उन्हें छूकर भी नहीं गुज़रा था ।यही कारण है कि वह मंच पर नए कलाकारों को न सिर्फ तवज्जोह से सुनते बल्कि उनका हौसला भी बढ़ाते थे ।

             संक्षेप में कहा जा सकता है कि वह इस सदी में जीने वाले उस सदी के इंसान थे ,जो अब सिर्फ़, किताबों में मिलते हैं। वह एक बड़े फ़नकार ज़रूर थे, लेकिन शायद उस से भी बड़े व्यक्तित्व के मालिक ।

दूसरी कई बातों के साथ- साथ,आसमान पर ईद का चांद नज़र आते ही दादा का सबसे पहले ईद की मुबारकबाद देने के लिए फ़ोन करना हिंदुस्तानी तहज़ीब का वह हिस्सा है जो सदा उनकी याद दिलाता रहेगा।           

- डॉ० मुजाहिद " फ़राज़ " (मुरादाबाद)

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डॉ० मनोज रस्तोगी के सौजन्य से 


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माहेश्वर तिवारी : यादें शेष रह गई हैं

बात काफ़ी पुरानी है , सन 75 की रही होगी, तब माहेश्वर जी नए-नए मुरादाबाद आये थे, जहाँ तक मुझे याद पड़ता है वे गोकुल दास गर्ल्स डिग्री कॉलेज के पास रहते थे, बसंत पंचमी को उनके घर सरस्वती पूजा और कवि गोष्ठी आयोजित होती थी। बड़ा आत्मीय वातावरण होता। बालसुंदरी जी सरस्वती वंदना प्रस्तुत करतीं और माहेश्वर भाई सभी को रचना पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते। उसी दौरान स्टेट बैंक में एक कवि सम्मेलन आयोजित करने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी। हुल्लड़ भाई के हास-परिहास कवि सम्मेलन के लिए जो कवि आए थे उनमें से चुनिंदा कवियों को अगले ही दिन इस आयोजन में निमंत्रित कर लिया था। हमने संचालन की ज़िम्मेदारी माहेश्वर जी को दी थी। कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ, माहेश्वर जी ने सबसे पहले मुझे कविता पाठ के लिए बुला लिया, न तो मुझे मंच पर कविता पढ़ने के लटके-झटके आते थे न ही कोई इतने बड़े ऑडियंस के सामने पढ़ने का अनुभव, नतीजा, अपने ही साथियों ने हूट कर दिया और इस तरह से पहला ही कवि शहीद हो गया। माहेश्वर जी ने यह जो पहला अवसर दिया था, उससे मुझे अपना niche खोजने और बेहतर से बेहतर करने की प्रेरणा मिली।
उसके कुछ ही महीनों के बाद स्थानांतरण का दौर शुरू हुआ, एक शहर से दूसरे, दूसरे से तीसरे, यही नहीं इस क्रम में राज्य दर राज्य भी बदले। इसी कारण माहेश्वर जी से मिलने का सिलसिला कम होता गया।

हाल की के वर्षों में मुरादाबाद आने-जाने का क्रम बढ़ गया, फिर से माहेश्वर जी को सुनने और उन्हें सुनाने का अवसर हर साल मिलने लगा।

दिसंबर 2022 में स्कॉलर डेन में मेरे पुत्रवत विवेक ठाकुर के सौजन्य से भाई मनोज रस्तोगी ने मुरादाबाद के सभी प्रमुख कवियों को आमंत्रित किया, इस अवसर पर माहेश्वर जी के साथ काफ़ी समय बिताने का और उनको सुनने का अवसर मिला। उनके गीतों में प्रेम की कोमल अभिव्यक्ति तो है साथ ही समय के प्रामाणिक दस्तावेज भी हैं। देखिए-

मुड़ गए जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ़,
ले गए वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ़‌।

आहटें होने लगीं सब
चीख़ में तब्दील,
हैं टँगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील,
मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुए कल की तरफ़।

लेकिन माहेश्वर जी की कविताओं और गीतों की ख़ुशबू बहुत दूर-दूर तक फैली है, अभी चार दिन पहले यहाँ मुंबई में नजमा हेप्तुल्ला हाल में ज़हीर क़ुरैशी व्याख्यान माला के लिए डॉ० नंदलाल पाठक, प्रो० हूबनाथ पांडेय, हरीश पाठक, यश मालवीय सरीखे रचनाकार इकट्ठे हुए, सभी ने एक-एक करके माहेश्वर जी को बड़ी शिद्दत से याद किया। ख़ास बात यह थी कि सभी को माहेश्वर जी की कविताएँ कंठस्थ थीं और बिना किसी काग़ज़ की मदद के मंच पर पाठ किया। उनकी रचना-

याद तुम्हारी जैसे कोई
कंचन-कलश भरे।
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे।
लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग 
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आँगन में उतरे।

को यश मालवीय और विनीता टण्डन ने अपने अपने अन्दाज़ में प्रस्तुत किया। यही माहेश्वर जी के नव गीतों की ताक़त और स्वीकार्यता का सबूत है। 
श्रद्धांजलि।

प्रदीप गुप्ता।
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साभार - डॉ० मनोज रस्तोगी।

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