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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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गुरुवार, 4 मई 2023

नाटक का राजहंस मोहन राकेश

मोहन राकेश एक अप्रतिम साहित्यकार थे जिन्हें 'नई कहानी' आंदोलन का प्रणेता भी कहा जाता है और 'आधुनिक नाटक का मसीहा' भी। मेरा सौभाग्य कि मुझे उनका साथ और सहयोग मिला। उनके नाटकों का में प्रथम शोधार्थी था। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. लिट्. की उपाधि हेतु मुझे उनके नाटकों पर शोध का विषय आसानी से नहीं मिला। बात 1970 की है, एम.ए. के परीक्षाफल के आधार पर प्रथम तीस विद्यार्थियों को दो वर्षीय एम. लिट्. में प्रवेश प्राप्त होता था। इन तीस में से उस वर्ष में भी एक था। विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोध विषय आबंटन हेतु चयन समिति की बैठक हुई, जिसकी अध्यक्षता 31. नगेन्द्र कर रहे थे। सदस्यों में डॉ. विजयेन्द्र स्नातक, डॉ० सावित्री सिन्हा, डॉ. दशरथ ओझा और डॉ. उदयभानु सिंह भी थे। ये सभी हिंदी के जाने-माने विद्वान् थे और एम.ए. में हमारे शिक्षक भी।

मेरा क्रम आया, मेैं तनिक घबराहट के साथ भीतर गया, डॉ० नगेन्द्र ने मुझसे पूछा कि मैं किस विधा पर विषय चाहता हूँ। मैंने उत्तर दिया, 'नाटक पर'। डॉ० नगेन्द्र ने। पूछा कि क्या मैंने कोई विषय सोचा है। जैसे ही मैंने उत्तर दिया, 'मोहन राकेश के नाटकों का विवेचन', वे भड़क उठे, 'मोहन राकेश के नाटक? नहीं नहीं इस पर नहीं हो सकता। प्रसाद पर ले लो भारतेंदु पर ले लो। मोहन राकेश पर क्यों लेना चाहते हो वो तो अभी नए हैं!" मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, 'श्रीमन्! वे आज के सर्वश्रेष्ठ नाटककार माने जाते हैं उनके नाटकों ने हमारी पीढ़ी को बहुत प्रभावित किया है।"

डॉ. नगेन्द्र को मेरा उत्तर उपयुक्त नहीं लगा। उनके सामने विद्यार्थी तो क्या अध्यापक भी अपनी असहमति व्यक्त नहीं कर पाते थे। नगेन्द्र जी ने कहा, 'मोहन राकेश ने अभी लिखे ही कितने नाटक हैं?" मेरे मुख से फूट पड़ा, जी जितने कालिदास ने।' डॉ. नगेन्द्र को इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी। सावित्री सिन्हा जी ने स्थिति को अनुकूल बनाते हुए बड़े प्रेम से कहा, हरीश, डॉ. साहब ठीक कह रहे हैं तुम भारतेंदु या प्रसाद पर विषय ले लो" मैंने निवेदन किया, श्रीमन मोहन राकेश के नाटक उनसे आगे की सोच के नाटक हैं, मुझे उन पर ही विषय दे दीजिए। डॉ. सावित्री सिन्हा ने नगेन्द्र जी की ओर देखा। नगेन्द्र जी बोले, 'देखो, मोहन राकेश अभी युवा लेखक हैं और वैसे भी हम प्रायः जीवित साहित्यकारों पर शोध नहीं करवाते।'

उनका कथन मुझे तीर सा चुभा, मैं खड़ा हो गया और यह कहकर कि, 'मैं फिर उनपर उनके बाद ही शोध करूंगा', कक्ष से बाहर निकल गया। मैं रुआंसा हो गया था और कला संकाय के उत्तरी कॉरीडोर में जाकर मुंडेर पर बैठ गया। चिंतन करने लगा कि मैंने ठीक किया या ग़लत। मुझे लगने लगा कि मैंने ग़लत ही किया, प्राध्यापक पद पाने के लिए एम. लिट्. करना आवश्यक है भले ही शोध का विषय कोई भी हो। मैं यह सोच-सोच भी दुखी होने लगा कि डॉ. नगेन्द्र जैसे सम्मानित और समर्थ विद्वान् गुरु की अवहेलना मैंने कर दी है, इससे मेरा करियर प्रभावित हो सकता है। मुझे पछतावा होने लगा था कि मुझे ऐसा करके अशालीन नहीं होना चाहिए था। मुझे अपने सपने टूटते नज़र आने लगा मुझे लगा कि अब बात बिगड़ गई है, ठीक न हो सकेगी क्योंकि मैंने अभद्रता की। मुझे वॉकआउट नहीं करना चाहिए था....

मैं अभी चिंता निमग्न ही था कि वहाँ हिंदी विभाग का सेवा कर्मचारी ईश्वर चंद आया और मुझसे बोला, 'तुम्हें नगेन्द्र जी बुला रहे हैं।' उसका आना उस समय मुझे सच में सर्वशक्तिमान ईश्वर का आना ही लगा। मैं उसके साथ चल पड़ा और निश्चय कर लिया कि. जो भी जैसा भी विषय मिलेगा वह स्वीकार कर लूंगा।

मैं सिर झुकाए कक्ष में प्रवेश कर गया और डॉ. नगेन्द्र जी की वाणी मेरे कानों में गूंजी, ‘यह कोई तरीका है, चलो जो विषय बोलोगे समिति दे देगी।' इस प्रकार मुझे सौभाग्य मिला कि में मोहन राकेश पर शोध करने वाला प्रथम शोधार्थी बन सका।

मोहन राकेश जी तक यह बात पहुँच गई। मैं जब अपने शोध के सिलसिले में उनसे मिला तब उन्होंने बताया कि उन्हें डॉ. दशरथ ओझा जी ने पूरी घटना बताई थी। इस घटना के कारण भी वे मुझे अपने करीब पाते थे। शोध के सिलसिले में अब मेरा उनसे मिलना अक्सर होने लगा। मैं उनके नाटकों से संबंधित जिज्ञासाओं का ढेर उनके पास लेकर जाता और वे जब उनका शमन करने लगते थे तो प्रायः एक-आध सवालों का जवाब देने में एक- दो घंटे निकल जाते। वे उन पात्रों में खो जाते जिनकी नाट्य सृष्टि उन्होंने ही की थी। वे मल्लिका के बारे में, सावित्री के विषय और सुंदरी के बारे में बताते-बताते भावुक हो जाते।। भावावेश में कही गई उनकी बातों का बहुत सारा प्रतिशत मेरे पल्ले तक नहीं पड़ता था। एक शाम तो हद हो गई. हम रिवोली सिनेमा हॉल की रेस्तरां में बैठे थे। फिल्म चल रही थी। 

इसलिए रेस्तरां में उस समय केवल हम दोनों ही वहाँ थे। मोहन राकेश जी कुछ बताते बताते कहीं खो गए और फिर अत्यंत भावुक होकर कहने लगे, 'मैं ही हूँ, महेन्द्रनाथ, बार-बार घिसा जाने वाला रबर का टुकड़ा में ही हूँ। नंद भी मैं ही हूँ मातुल भी में ही और कालिदास भी और जाने क्या हिंदी में बोलते-बोलते वे अँग्रेज़ी में बोलने लगे। मुझे यह लग रहा था कि वे रो न पड़े। इसके विपरीत जब वे पंजाबी में कभी कोई जालंधर या अमृतसर की घटना सुनाते अथवा मेरी कोई बात उन्हें विनोदप्रिय लगती, वे बहुत ज़ोर से खुलकर हँसते बल्कि ठहाका लगाते। उनका ठहाका दीवार की सफेदी का चूना गिरा सकता था।

मैं सोच-सोचकर बहुत खुश होता था कि मेरी कुछ बातें उनसे मिलती हैं। मेरा जन्म भी आठ जनवरी को हुआ, पंजाब में ही हुआ, मुझे भी अपनी माँ से अतिशय प्रेम था और मुझे भी दोस्तों के साथ महफिल जुटाने में बहुत आनंद आता है। मैंने सिवाय जन्मदिन के मिलान के बॉकी बातें उनसे साझा नहीं कीं। मोटे चश्मे के पीछे चमकती उनकी आँखें कुछ कह जाती थीं। बहुत उन दिनों उनका नाटक 'आधे-अधूरे' एक युग प्रवर्तक नाटक के रूप में हिंदी साहित्य और हिंदी रंगमंच का सर्वाधिक चर्चित नाटक हो रहा था। मेरे नाट्य शिक्षकों में डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल जैसे प्रख्यात नाटककार भी थे जो मुझसे यदा-कदा उलाहने के स्वर में पूछ चुके थे कि मैं उनके नाटकों की तुलना में, जिनकी संख्या मोहन राकेश के नाटकों से अधिक है, राकेश के नाटकों को क्यों अधिक महत्त्व देता है। इस पर मैंने उन्हें जो बताया वह में राकेश जी को बताकर अच्छा समीक्षक होने का तमगा पा चुका था। मैंने अपनी सीमित बुद्धि से आकलन करते हुए पाया था कि डॉ. लाल यद्यपि अच्छा नाटक लिखते हैं और लिखने से पूर्व योजना बना लेते हैं कि किस शैली या शिल्प और किस प्रकार के मंच के लिए लिखना है। वे चरित्रों को अपने नियंत्रण में अनुशासित करते हैं। जबकि मोहन राकेश कोई बड़ी योजना नहीं बनाते चरित्र सृष्टि के विषय में सोचते हैं और वे चरित्रों को अपने बंधन में नहीं रखते, उनके नाटक उनके चरित्रों के अनुसार गतिवान होते हैं इसलिए वे चाहकर भी पुरुष चरित्रों को स्त्री चरित्रों से अधिक प्रभावी नहीं बना पाए।

- अच्छे समीक्षक का तमगा मिलने से मेरा उत्साहवर्धन हुआ था और में मोहन राकेश के साथ उनकी आली पकड़कर उनके चरित्रों को समझने की कोशिश करता रहा।

सितंबर 1971 में मेरा चयन दिल्ली विश्वविद्यालय के शिवाजी कॉलेज में हुआ। तब मुझे एम. लिट्. करते हुए एक वर्ष हुआ था. प्रीवियस की परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त हुए थे। मैंने राकेश जी को अपने लेक्चर नियुक्त होने की खबर दी। वे बहुत खुश हुए और मुझे पंजाबी में शाबाशी देते हुए कहने लगे, 'हमारा हरीश प्रोफेसर हो गया। अभी तो इसने सिर्फ़ 'मोहन' पढ़ा है जब 'राकेश' पढ़ लेगा तो पता नहीं क्या बनेगा?" उनका संकेत एम. लिट. फाइनल उत्तीर्ण करने का था। फाइनल में ही लघु शोध प्रबंध विभाग में जमा कराना था।

एक दिन मोहन राकेश जी का हमारे घर, शाहदरा में फोन आया। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं चाँदनी चौक जाऊँगा? उन्हें ज्ञात था कि मैं अक्सर अपने दोस्तों के साथ दरीबा चाँदनी चौक में, जहाँ हम पहले रहा करते थे, जाता हूँ। मैंने कहा, 'हाँ बताइये क्या करना है।' वे बोले, 'तुम्हें पार्टी देनी है, तुम प्रोफ़ेसर बन गए हो न!' मुझे थोड़ा संकोच हुआ मैंने कहा, "ऐसा क्या?" उन्होंने कहा, 'हाँ पार्टी देनी है उसके लिए चाँदनी चौक से दरीबा कलां के जलेबी और समोसे ले आना' मैंने कहा, 'अच्छा जी, कितनी ले लूँ? उन्होंने कहा, पार्टी है सोच-समझकर ले आना।"

मैंने दादा जी और बीजी को बताया कि आज मुझे मोहन राकेश जी पार्टी दे रहे हैं। दोनों खुश हुए। बीजी ने हिदायत दी कि ज़रा अच्छे कपड़े पहनकर जाना और जलेबी समोसे रखने के लिए थैला जरूर ले जाना। तब मेरे पास कोई वाहन नहीं था, शाहदरा से चाँदनी चौक तक फोर-सीटर चलते थे जिन्हें फटफटिया कहा जाता था में फटाफट तैयार होकर फोर-सीटर से दरीबा पहुँचा और पार्टी का सोचकर मैंने अनुमान लगाया कि दस- बारह व्यक्ति तो जरूर होंगे। मैंने उसी हिसाब से समोसे और जलेबियाँ खरीद लिये और वहाँ से एक थ्री व्हीलर (तब उसे स्कूटर कहते थे) लेकर राकेश जी के घर पहुँच गया।

राकेश जी के यहाँ उनके मित्र (संभवतः) राजिन्दर पाल बैठे हुए थे। सिगार चल रही थी। मैंने थैला रखा। राकेश जी के पैर छुए और कहा कि आप मुझे इतना सम्मान दे रहे हैं, अभी पार्टी में सब लोग आएंगे उशसे पहले ही अपना आशीर्वाद दे दीजिए। उन्होंने एक जोरदार ठहाका लगाया और कहा, 'लोग' जितने आने थे वो तो आ चुके। तू थैले भर के ले आया हम हफ्ता भर खाएँगे!' और फिर उनके ठहाके गूंजने लगे। उस पार्टी में उस दिन हम तीनों ने गला भर-भरकर जलेबी और समोसे खाए और तीन बार गिलास भर-भरकर चाय पी। हाँ उस दिन मैं भी उनके साथ ठहाके लगा सका और उनसे खुल सका, जिसका लाभ मुझे तब तक वे रहे मिलता रहा।

मैं शोध हेतु जो लिखता था. दरियागंज में राधाकृष्ण प्रकाशन के ऑफिस में अक्सर मोहन राकेश जी को दिखाता था। मोहन राकेश और राधाकृष्ण प्रकाशन के स्वामी ओमप्रकाश जी की गहरी मित्रता थी। मेरे परिवार का भी संबंध ओमप्रकाश जी के परिवार से था। उनकी पत्नी को में बुआ जी संबोधित करता था। मैंने बुआजी के ही घर में मोहन राकेश जी को पहले-पहल देखा था तब में हिंदू कॉलेज का विद्यार्थी था। कभी-कभी मैं और मेरे भाई हरेन्द्र जी बुआ जी को मिलने जाते थे। उनके बेटे अरविन्द के साथ मेरे भाई हरेन्द्र जी की अच्छी जमती थी। अरविन्द भाई कालांतर में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) के निदेशक भी रहे। राकेश जी ने ओमप्रकाश जी को मेरा लघु शोध-प्रबंध स्वीकृत होने के बाद उसे प्रकाशित करने को कहा था। वे मेरा लिखा पढ़ते नहीं, कहीं कहीं से सुनते थे और कहते थे कि यह डिग्री के लिए लिखा जा रहा है, जब प्रकाशित करना होगा, तब मैं पूरा पढ़ेगा और संपादन करूंगा। वे प्रोफेसरी कर चुके थे, उन्हें पूरा अंदाज़ा था कि शोध- प्रबंधों में कितना कुछ अनावश्यक लिखा जाता है जिसे वे 'पेज भराऊ' कहते थे। जब तक मेरा लघु शोध प्रबंध पूरा होता उससे पूर्व तीन जनवरी 1972 को सैंतालिस वर्ष की अल्पायु में मोहन राकेश का निधन हो गया।

वे नहीं रहे लेकिन उनका साहित्य, विशेष कर नाटक जिंदा रहेंगे। जिंदा रहेंगी उनकी यादें, उनकी बातें, उनके ठहाके । 'शब्द' की सार्थकता पर कार्य करने वाले राकेश जी के शब्दों से सार्थक हुआ उनका साहित्य सदा जिंदा रहेगा।

हरीश नवल की स्मृति से


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मोहन राकेश पर एक चर्चा

 बात 1999 की है। सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ,हिमांशु जोशी और कई अन्य विशिष्ट साहित्यकारों के साथ मैं उपराष्ट्रपति भवन में तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकांतजी द्वारा नार्वे से प्रकाशित एक पत्रिका के लोकार्पण समारोह में था। हम अगली पंक्ति में बैठे थे।जबतक महामहिम नहीं पधारे थे, मेरे मन में आया क्यों न कमलेश्वर जी से मोहन राकेश एक के बारे में एक अनौपचारिक चर्चा कर कुछ जानकर हासिल की जाए। जिज्ञासावश कमलेश्वर के अखाड़े की एक कड़ी (मोहन राकेश) केन्द्र में रखकर चर्चा की शुरुआत की तो कमलेश्वर जी कहने लगे, छठें- सातवें  दशक में राजेंद्र यादव, मोहन राकेश और मेरी 'तिक्कड़ी' थी। पत्र-पत्रिकाओं में हमारे कहानियां/लेख छपती थीं, हम बड़ी बेबाकी से एक-दूसरे की समीक्षा करते थे। 

हमारी टीका-टिप्पणियां सकारात्मक-नकारात्मक--दोनों प्रकार की होती थीं। हम आजकल की तरह नकार की दशा में भी बुरा नहीं मारते थे। बल्कि नकारात्मक टीमें प्रबुद्ध लोग और भी ध्यान से पढ़ते थे, चर्चा  करते थे। इससे एक विशेष  लाभ हुआ कि हम जल्द ही केन्द्र में आ गए। एक लेख जो 'सारिका' में छपा था पढ़कर मोहन राकेश ने थोड़ा तल्ख शब्दों में  कहा, कभी  कुछ अधिक  लिखा  करो। इस पर यादव ने मुस्कुराते हुए कटाक्ष  किया- ये कम+लेश्वर (कमलेश्वर) हैं।इनका कम लिखा ही अधिक समझो। फिर हम तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े।

राजेंद्र यादव के सम्बन्ध में उन्होंने बताया कि मोहन राकेश के नाम को उन्होंने ही प्रतिष्ठित किया। मोहन राकेश का मूल नाम था मदन मोहन गुगलानी। उनके पिता करमचंद गुगलानी पेशे से वकील थे। साहित्य और संगीत में उनकी विशेष  दिलचस्पी थी। मोहन राकेश के प्रारम्भिक लेखन पर उनका प्रभाव  परिलक्षित होता है। राजेंद्र यादव ने कहा था कि उनके पिता के 'चन्द' को राकेश बदलकर "मोहन राकेश"  नाम दे दिया। इस बात को जब मोहन राकेश ने कमलेश्वर से कहा तो वह हंसते हुए  बोल पड़े--राजेन्द्र को कौन काट सकता है!

मोहन राकेश लम्बा जीवन नहीं पाए। कुल 47 साल। इस अल्पावधि में उन्होंने तीन नाटक--आषाढ़ का एक दिन, 'लहरों  का राजहंस' और आधे- अधूरे। अंडे के छिलके: अन्य एकांकी तथा बीज नाटक  लिखे जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद प्रकाशित हुआ। इनकी अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्तान्त आदि।अंधेरे बन्द कमरे उनका बहुचर्चित  उपन्यास है। उनकी नाट्य-कृतियां हों या कथात्मक रचनाएं, उनमें उनके व्यक्तित्व की छाप  साफ नज़र आती है। 

मोहन राकेश का जीवन दुखों से भरा हुआ था।आर्थिक परेशानियां थीं। कर्म के महत्व  को एक सीमा तक ही स्वीकारा जा सकता है। जीवन में सुख-दुख रिलेटेड हैं। यह समयचक्र है। सामान्य जीवन के घात-प्रतिघात एवं समस्याएं उनकी कृतियों में बिम्बित-प्रतिबिंबित होते हैं। 'आषाढ़ का एक दिन' एवं 'लहरों के राजहंस' आरंभिक  दिनों के नाटकों के पारंपरिक मूल्यों से काफी प्रेरित- प्रभावित है। रंगमंच की दृष्टि से ये नाटक प्रसाद  के "चन्द्रगुप्त" नाटक की भांति मंचीयता की कसौटी पर सफल नहीं कहे जा सकते।पर इनमें उनकी स्वच्छन्दतावादी  प्रवृत्ति  की साफ  झलक मिलती  है। उनके समीक्षात्मक संस्मरण को' आगे बढ़ाते हुए मैंने अपनी विवेचनात्मक  दृष्टि  से आगे बढ़ाते  हुए  अपनी बात कही- मगर आधे-अधूरे' नाटक में नारी की स्थिति एक आइरनी (दुर्भाग्य) से जुड़ी है। इसे संयोग नहीं,कुतर्क  के 'मूड' में कहा जा सकता है। नारी- पात्रों का रोल नाटक की कथावस्तु की 'पताका'बनकर फहराती है। 

'लहरों केराजहंस'में भी नारी का कोई स्वस्थ सामाजिक  स्वरूप नहीं उभरा है। ऐसा लगता है, जैसी को दोयम  दर्जे के रूप में चित्रित  किया गया है। संभवतः उनके  पक्षकार और शोधार्थी इस दिशा में विचार करेंगे। 

इसी बीच महामहिम उपराष्ट्रपति पधारे और पत्रिका का लोकार्पण  हुआ।  लेकिन इस बीच मोहन राकेश पर एक सार्थक संस्मरणात्मक चर्चा का 'फ्रेमवर्क' हो चुका था। कुछ अन्य प्रसंग/संस्मरण भी हैं जिन्हें फिर कभी-कहीं अन्यत्र। अस्तु।

डॉ. राहुल की स्मृति से


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बुधवार, 3 मई 2023

याद है वो किस्सा: मोहन राकेश

     बात उन दिनों की है जब राकेश जी 'सारिका' के संपादक होकर आए थे और बोमनजी पैटिट रोड पर सीतामहल के ठीक पीछे उन्हें भी टाइम्स से घर मिला था।

भारतीजी अपनी गाड़ी खुद ड्राइव करके जाते थे। मोहन राकेश अकेले ही रहते थे सो तय हुआ कि सुबह हमारे घर आ जाया करेंगे और भारतीजी के साथ नाश्ता करके दोनो साथ ही ऑफ़िस चले जाएँगे। मुझे बड़ा अच्छा लगता था उस समय दोनो की बातें और खिलखिलाती हँसी सुन कर।

एक दिन की बात सुनिए- उन दिनों 'ज्ञानोदय' शरद देवड़ा के संपादन में कलकत्ता से निकलता था। मैं उसमें महान लेखकों कवियों की निजी प्रेम कहानियाँ लिखती थी। उस बार मुझे अपनी किश्त भेजने में देर हो गई और अरजैंट टैलीग्राम आ गया। मैं रात भर बिना एक पल सोए लिखती रही। तीन बरस की बेटी केका मेरे ही साथ सोती थी पर वह भी हज़ार कहने पर भी पूरी रात यों ही जागी पड़ी रही।

ख़ैर, मुझे तो काम करना ही था। कथा पूरी करके केका को गोद में चिपका कर सो गई।

सुबह उठ कर जो देखा कि होश उड़ गए। केका महारानी चैन से सोई पड़ी थीं और मेरे लिखे कागज़ों के फटे टुकड़े चारों ओर फैले थे। मैं सिर पकड़े ज़ार ज़ार रो रही थी। रोज़ की तरह राकेश जी आए। सब समाचार सुनकर भारतीजी से बोले आप जाइए और मेरी केबिन में जाकर बता दीजिएगा कि मैं देर से आऊँगा।

       और मित्रों एक-एक चिंदी बीन कर उन्होंने एक कागज़ पर पज़ल की तरह टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ कर इतना लंबा लेख जोड़ दिया।और मैं विस्फारित आँखों से देखती रह गई। वे बोले बातें बाद में, अब मैं टैक्सी पकड़ कर टाइम्स भागता हूँ।  वहाँ से शरद को तुरंत भेज सकूँगा।

और वह तो ये जा वह जा!!!! बिना नाश्ता पानी के भाग गए।

क्या आखिरी साँस तक आजीवन भुला सकूँगी यह किस्सा " साहित्कार" का ........🙏🏻

                                 ......पुष्पा भारती जी की कलम से


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