बात 1999 की है। सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ,हिमांशु जोशी और कई अन्य विशिष्ट साहित्यकारों के साथ मैं उपराष्ट्रपति भवन में तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकांतजी द्वारा नार्वे से प्रकाशित एक पत्रिका के लोकार्पण समारोह में था। हम अगली पंक्ति में बैठे थे।जबतक महामहिम नहीं पधारे थे, मेरे मन में आया क्यों न कमलेश्वर जी से मोहन राकेश एक के बारे में एक अनौपचारिक चर्चा कर कुछ जानकर हासिल की जाए। जिज्ञासावश कमलेश्वर के अखाड़े की एक कड़ी (मोहन राकेश) केन्द्र में रखकर चर्चा की शुरुआत की तो कमलेश्वर जी कहने लगे, छठें- सातवें दशक में राजेंद्र यादव, मोहन राकेश और मेरी 'तिक्कड़ी' थी। पत्र-पत्रिकाओं में हमारे कहानियां/लेख छपती थीं, हम बड़ी बेबाकी से एक-दूसरे की समीक्षा करते थे।
हमारी टीका-टिप्पणियां सकारात्मक-नकारात्मक--दोनों प्रकार की होती थीं। हम आजकल की तरह नकार की दशा में भी बुरा नहीं मारते थे। बल्कि नकारात्मक टीमें प्रबुद्ध लोग और भी ध्यान से पढ़ते थे, चर्चा करते थे। इससे एक विशेष लाभ हुआ कि हम जल्द ही केन्द्र में आ गए। एक लेख जो 'सारिका' में छपा था पढ़कर मोहन राकेश ने थोड़ा तल्ख शब्दों में कहा, कभी कुछ अधिक लिखा करो। इस पर यादव ने मुस्कुराते हुए कटाक्ष किया- ये कम+लेश्वर (कमलेश्वर) हैं।इनका कम लिखा ही अधिक समझो। फिर हम तीनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
राजेंद्र यादव के सम्बन्ध में उन्होंने बताया कि मोहन राकेश के नाम को उन्होंने ही प्रतिष्ठित किया। मोहन राकेश का मूल नाम था मदन मोहन गुगलानी। उनके पिता करमचंद गुगलानी पेशे से वकील थे। साहित्य और संगीत में उनकी विशेष दिलचस्पी थी। मोहन राकेश के प्रारम्भिक लेखन पर उनका प्रभाव परिलक्षित होता है। राजेंद्र यादव ने कहा था कि उनके पिता के 'चन्द' को राकेश बदलकर "मोहन राकेश" नाम दे दिया। इस बात को जब मोहन राकेश ने कमलेश्वर से कहा तो वह हंसते हुए बोल पड़े--राजेन्द्र को कौन काट सकता है!
मोहन राकेश लम्बा जीवन नहीं पाए। कुल 47 साल। इस अल्पावधि में उन्होंने तीन नाटक--आषाढ़ का एक दिन, 'लहरों का राजहंस' और आधे- अधूरे। अंडे के छिलके: अन्य एकांकी तथा बीज नाटक लिखे जो उनकी मृत्यु के एक साल बाद प्रकाशित हुआ। इनकी अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, निबन्ध, यात्रा-वृत्तान्त आदि।अंधेरे बन्द कमरे उनका बहुचर्चित उपन्यास है। उनकी नाट्य-कृतियां हों या कथात्मक रचनाएं, उनमें उनके व्यक्तित्व की छाप साफ नज़र आती है।
मोहन राकेश का जीवन दुखों से भरा हुआ था।आर्थिक परेशानियां थीं। कर्म के महत्व को एक सीमा तक ही स्वीकारा जा सकता है। जीवन में सुख-दुख रिलेटेड हैं। यह समयचक्र है। सामान्य जीवन के घात-प्रतिघात एवं समस्याएं उनकी कृतियों में बिम्बित-प्रतिबिंबित होते हैं। 'आषाढ़ का एक दिन' एवं 'लहरों के राजहंस' आरंभिक दिनों के नाटकों के पारंपरिक मूल्यों से काफी प्रेरित- प्रभावित है। रंगमंच की दृष्टि से ये नाटक प्रसाद के "चन्द्रगुप्त" नाटक की भांति मंचीयता की कसौटी पर सफल नहीं कहे जा सकते।पर इनमें उनकी स्वच्छन्दतावादी प्रवृत्ति की साफ झलक मिलती है। उनके समीक्षात्मक संस्मरण को' आगे बढ़ाते हुए मैंने अपनी विवेचनात्मक दृष्टि से आगे बढ़ाते हुए अपनी बात कही- मगर आधे-अधूरे' नाटक में नारी की स्थिति एक आइरनी (दुर्भाग्य) से जुड़ी है। इसे संयोग नहीं,कुतर्क के 'मूड' में कहा जा सकता है। नारी- पात्रों का रोल नाटक की कथावस्तु की 'पताका'बनकर फहराती है।
'लहरों केराजहंस'में भी नारी का कोई स्वस्थ सामाजिक स्वरूप नहीं उभरा है। ऐसा लगता है, जैसी को दोयम दर्जे के रूप में चित्रित किया गया है। संभवतः उनके पक्षकार और शोधार्थी इस दिशा में विचार करेंगे।
इसी बीच महामहिम उपराष्ट्रपति पधारे और पत्रिका का लोकार्पण हुआ। लेकिन इस बीच मोहन राकेश पर एक सार्थक संस्मरणात्मक चर्चा का 'फ्रेमवर्क' हो चुका था। कुछ अन्य प्रसंग/संस्मरण भी हैं जिन्हें फिर कभी-कहीं अन्यत्र। अस्तु।
डॉ. राहुल की स्मृति से
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