बात उन दिनों की है जब राकेश जी 'सारिका' के संपादक होकर आए थे और बोमनजी पैटिट रोड पर सीतामहल के ठीक पीछे उन्हें भी टाइम्स से घर मिला था।
भारतीजी अपनी गाड़ी खुद ड्राइव करके जाते थे। मोहन राकेश अकेले ही रहते थे सो तय हुआ कि सुबह हमारे घर आ जाया करेंगे और भारतीजी के साथ नाश्ता करके दोनो साथ ही ऑफ़िस चले जाएँगे। मुझे बड़ा अच्छा लगता था उस समय दोनो की बातें और खिलखिलाती हँसी सुन कर।
एक दिन की बात सुनिए- उन दिनों 'ज्ञानोदय' शरद देवड़ा के संपादन में कलकत्ता से निकलता था। मैं उसमें महान लेखकों कवियों की निजी प्रेम कहानियाँ लिखती थी। उस बार मुझे अपनी किश्त भेजने में देर हो गई और अरजैंट टैलीग्राम आ गया। मैं रात भर बिना एक पल सोए लिखती रही। तीन बरस की बेटी केका मेरे ही साथ सोती थी पर वह भी हज़ार कहने पर भी पूरी रात यों ही जागी पड़ी रही।
ख़ैर, मुझे तो काम करना ही था। कथा पूरी करके केका को गोद में चिपका कर सो गई।
सुबह उठ कर जो देखा कि होश उड़ गए। केका महारानी चैन से सोई पड़ी थीं और मेरे लिखे कागज़ों के फटे टुकड़े चारों ओर फैले थे। मैं सिर पकड़े ज़ार ज़ार रो रही थी। रोज़ की तरह राकेश जी आए। सब समाचार सुनकर भारतीजी से बोले आप जाइए और मेरी केबिन में जाकर बता दीजिएगा कि मैं देर से आऊँगा।
और मित्रों एक-एक चिंदी बीन कर उन्होंने एक कागज़ पर पज़ल की तरह टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ कर इतना लंबा लेख जोड़ दिया।और मैं विस्फारित आँखों से देखती रह गई। वे बोले बातें बाद में, अब मैं टैक्सी पकड़ कर टाइम्स भागता हूँ। वहाँ से शरद को तुरंत भेज सकूँगा।
और वह तो ये जा वह जा!!!! बिना नाश्ता पानी के भाग गए।
क्या आखिरी साँस तक आजीवन भुला सकूँगी यह किस्सा " साहित्कार" का ........🙏🏻
......पुष्पा भारती जी की कलम से
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