सआदत हसन मंटो
उनका लेखन यथार्थवादी और क्रांतिधर्मी है। कहानी-लेखन में उन्होंने कला की अपेक्षा कथ्य को वरीयता दी। वे उसे ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत कर सड़े-गले समाज की आँखें खोलना चाहते थे, उसे बदल देना चाहते थे। उन्होंने अनेक वर्ज्य प्रसंगों को आंदोलनकारी ढंग से उठाया, जो उस समय तक लेखकीय कल्पना से बाहर थे, जैसे— वेश्याओं के जीवन पर कहानियाँ। उन्होंने उनके जीवन में गहरे झाँकने और उन्हें औरत समझते हुए उनकी पीड़ा को मार्मिकता के साथ दिखाने का साहस किया। ‘ठंडा गोश्त' कहानी इसकी मिसाल है। 'टोबा टेक सिंह', मोजेल, 'खोल दो' देश के बँटवारे से उपजी घृणित और हिंसक मानसिकता को सामने लाती दिल दहला देने वाली कहानियाँ हैं। जहाँ आदमी अपनी आदमीयत खोकर शैतानी रूप ग्रहण कर लेता है।
उनकी कहानियों में घृणा, हिंसा और तथाकथित अश्लीलता से भरे दृश्यों के चित्रण से उस समय के समाज के अलम्बरदार और छद्म बुद्धिजीवी बौखला उठे और उन पर अश्लीलता के कई मुकदमे दायर कर दिए। लेकिन मंटो तो मंटो थे, वे डरे नहीं और लगातार बेबाक़ी से लिखते रहे। अधिकतर मुकदमों में सफाई ख़ुद ही सफ़ाई दी। मज़े की बात यह कि अश्लीलता का कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ। अश्लीलता के आरोप पर मंटो का एक ही जवाब था कि अगर आपको उनकी कहानियाँ अश्लील या गंदी लगती हैं, तो जिस समाज में आप रह रहे है, वह अश्लील और गंदा है। मेरी कहानियाँ तो सच दिखलाती हैं. जो बुराइयाँ हैं, वे युग की बुराइयाँ हैं।
‘सियाह हाशिए’ शीर्षक के अंतर्गत छोटी-छोटी 24 कहानियाँ हैं, जिनमें से आज की शैली की कुछ लघुकथाएँ भी हैं। इनमें हिंदू-मुसलिम दंगाइयों के हिंसक कारनामे हैं, नियोजित बलात्कार हैं, शिकारी-दल में शामिल छोटे शिकारियों के भी शिकार हैं, असहाय लोगों की चीखें और मौते हैं और पुलिस के हाथ से कानून छूटा हुआ है। कुछेक सन्न कर देनेवाले चित्र देखिए—
हलाल या झटका
मैंने उसके गले पर छुरी रखी। धीमे-धीमे चलाई और उसको हलाल कर दिया।
- यह तुमने क्या किया?
- क्यों?
- इसको हलाल क्यों किया?
- आनंद आता है इस तरह।
- आनंद आता है के बच्चे! तुझे झटका करना चाहिए था—इस तरह!
और हलाल करने वाले का झटका हो गया।
मिस्टेक
छुरी पेट चाक करती हुई नाक केनीचे तक चली गई। इजारबंद कट गया। छुरी मारने वाले के मुँह से तुरंत अफ़सोस के शब्द निकले, “च, च, च, च! मिस्टेक हो गया।”
इस्लाह
- कौन हो तुम?
- तुम कौन हो?
- हर-हर महादेव— हर-हर महादेव... हर-हर महादेव!
- सबूत क्या है?
- सबूत- मेरा नाम धर्मचंद है।
- यह कोई सबूत नहीं।
- चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।
- हम वेदों को नहीं जानते, सबूत दो।
- क्या?
- पायजामा ढीला करो।
पायजामा ढीला हुआ तो शोर मच गया— मार डालो, मार डालो।
- ठहरो, ठहरो, मैं तुम्हारा भाई हूँ। भगवान की कसम, तुम्हारा भाई हूँ।
- तो यह क्या सिलसिला है?
- जिस इलाके से आ रहा हूँ, हमारे दुश्मनों का था। इसलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए... एक यही चीज गलत हो गई है, बाकी बिलकुल ठीक हूँ।
- उड़ा दो गलती को।
गलती उड़ा दी गई। धर्मचंद भी साथ उड़ गया।
घाटे का सौदा
दो दोस्तों ने दस-बीस लड़कियों में से एक चुनी और 42 रुपये देकर उसे खरीद लिया। राज गुजारकर एक दोस्त ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”
लड़की ने नाम बताया तो वह भन्ना गया, “हमसे तो कहा गया था कि तुम दूसरे मजहब की हो।”
लड़की ने जवाब दिया, “उसने झूठ बोला था।”
यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा अपने दोस्त के पास गया और कहने लगा, “उस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा किया है। हमारे ही मजहब की लड़की थमा दी। चलो, वापस कर आएँ।“
* * **
मंटो को दुनिया से गए क़रीब सत्तर साल होने को आए, लेकिन सामाजिक स्थितियाँ नहीं बदलीं— वे चाहे इधर की हों या उधर की। आज भी साम्प्रदायिक मुद्दों पर गंदी राजनीति हो रही है, आए दिन दंगे हो रहे हैं, स्त्रियों की इज़्ज़त लूटी जा रही है, आदमी की अधोगति बनी हुई है। पुलिस प्रशासन नाकारा बना हुआ है। न्यायालय कुछ लोगों के लिए ही बने हुए दिखते हैं। ऐसे में मंटो का लेखन आज भी प्रासंगिक बना हुआ है। दुनिया की मूल समस्याएँ आज भी पहले ही की तरह मुँह बाए खड़ी हैं, मसलन— भूखे को रोटी की ज़रूरत, स्त्री की इज़्ज़त, मज़हब का इनसानी रूप का न होना, पत्रकारिता का अपने उद्देश्य से डिगना, या फिर भाषा की लड़ाई। उनका लेखन हमें व्यक्ति और सामाजिक प्रतिनिधि के रूप में न केवल अपने भीतर झाँकने पर मजबूर करता है, बल्कि कुछ हद तक जिम्मेदार ठहराते हुए कटघरे में भी खड़ा करता है। उनकी कुछ बातें आज भी हमारे जेह्न पर तारी हैं, जैसे—
• दुनिया की जितनी लानते हैं, भूख उनकी माँ है।
• आदमी या तो आदमी है वर्ना आदमी नहीं है, गधा है, मकान है, मेज़ है या और कोई चीज़ है।
• हर औरत वेश्या नहीं होती, लेकिन हर वेश्या औरत होती है।
• मैं अदब और फ़िल्म को एक ऐसा मयख़ाना समझता हूँ, जिसकी बोतलों पर कोई लेबल नहीं होता।
• हिन्दुस्तान में सैकड़ों की तादाद में अख़्बारात-ओ-रसाइल छपते हैं, मगर हक़ीक़त ये है कि सहाफ़त (पत्रकारिता) इस सरज़मीन (मुल्क) में अभी तक पैदा ही नहीं हुई है।
• हिन्दी के हक़ में हिंदू क्यों अपना वक़्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं? ज़बान बनाई नहीं जाती। वह ख़ुद बनती है और न इनसानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।
• राजनीति में धर्म के इस्तेमाल पर उनका कहना था कि पहले मज़हब सीनों में होता था, आजकल टोपियों में होता है।
कहना न होगा कि आज की सामाजिक तस्वीर की कल्पना दोनों देश के निर्माताओं ने कदापि न की होगी। भोगवादी प्रवृत्ति में रमते-रमते हमारी संवेदना भोथरी हो चुकी है। हम ख़ुद को इनसान समझें और देश-दुनिया को सही दिशा से जा सकें— इसके लिए हमें मंटो के क़लम की ज़रूरत है। उनकी सोच को लेखन में उसी धार के साथ उतारने की ज़रूरत है कि कुछ सकारात्मक बदलाव दिखे। कलावादी लेखकों को आईना दिखाते और बुनियादी मसलों को क़लम के औजार से हल करने की कोशिश करनेवाले हर दिल अजीज़ अफ़सानानिगार को नमन!
- राजेन्द्र वर्मा की स्मृति से
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