‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

मुम्बई की हवाओं में अब भी उनकी हँसी गूँजती है- निदा फ़ाज़ली

घर से मस्जिद है बड़ी दूर चलो यों कर लें 
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए 
बच्चों में प्रभु मूर्ति देखने वाले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली को किसी कौम या संप्रदाय में नहीं बांटा जा सकता। वैसे भी शायर शायर होता है।जाति न पूछो साधु की...... लेखक साधु ही तो होता है। क्योंकि वह खुद को भूल कर दुनिया की सोचता है ।
राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित विजय वर्मा  कथा सम्मान की शुरूआत निदा फाजली की अध्यक्षता में हुई थी।सर्वविदित है यह पुरस्कार मैं और डॉ प्रमिला वर्मा अपने बड़े भाई( 48 वर्षीय )स्वर्गीय विजय वर्मा पत्रकार ,लेखक ,संपादक,नाट्यकर्मी आवाज़ की दुनिया के जाने माने कलाकार की स्मृति में पिछले 1998 से हर साल आयोजित करते हैं । कार्यक्रम के पश्चात गेट-टुगैदर के दौरान उन्होंने अपने शेर को सुनाते हुए कहा था कि जब उन्होंने पाकिस्तान में एक मुशायरे में यह शेर सुनाया तो कट्टरपंथी मुल्लाओं ने हंगामा खड़ा कर दिया कि क्या आप बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं। मैंने कहा-" मैं तो बस इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान बनाता है और बच्चे अल्लाह बनाता है।"
निदा फ़ाज़ली जी से मेरी वह पहली मुलाकात कब अंतरंगता में बदल गई पता ही नहीं चला ।
बेहद खुश मिजाज, हमेशा मुस्कुराते हुए नजर आने वाले निदा साहब पान के बहुत शौकीन थे ।पान के बिना उनकी शख्सियत अधूरी सी लगती थी ।अंतर्राष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच के कवि सम्मेलन का वाकया है ,जहां वे मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित थे ।उनके आते ही स्वागत के लिए मीडिया अलर्ट हुआ ।अभी कार्यक्रम शुरू होने में देर थी ।उन्हें मेहमानों के कमरे में बिठाया गया और मेहमाननवाजी का जिम्मा मुझे सौंपा गया। उन्हें बैठाकर मैं चाय नाश्ते का ऑर्डर देने बाहर गई ।लौटी तो देखा वे गायब .....कहां गए .....तलाश जारी ......सब ने उन्हें आते देखा पर आते किसी ने नहीं। कहां गए ....और सब की तलाश के बावजूद उनकी अनुपस्थिति में कार्यक्रम संपन्न हुआ। दूसरे दिन अखबार में प्रकाशित न्यूज़ देखकर उन्होंने मुझे फोन किया-" मुआफ़ी चाहता हूं संतोष, कल पान की तलाश में भटकते भटकते जाने कहां पहुंच गया। और दिमाग से एक दम ही निकल गया कि मैं तो कार्यक्रम के लिए आया था।" फिर देर तक उनके ठहाके फोन पर गूंजते रहे।
उन दिनों मुम्बई में मैं एक आशियाने की तलाश में थी। निदा साहब ने सुना तो बोले -"परेशान क्यों हो रही हो ,मीरा रोड के मेरे फ्लैट में रहो जा कर ,खाली पड़ा है ।"फिर उदास हो गए " जानता हूं नहीं रहोगी तुम मीरा रोड में ।"
हां मीरा रोड अब मेरी यादो की किताब में महज़ एक काला पन्ना बन कर रह गया है ।कितने अरमानों से हेमन्त की पसंद का फ्लैट खरीदा था वहां। मैं सपने बुनने लगी थी। ये वाला बेड रूम हेमन्त की शादी के बाद उसे दूंगी। वह चित्रकार है अपनी पसंद से सजाएगा ।पर ऐसा हो न सका और मेरा इकलौता बेटा हेमंत असमय काल कवलित हो गया। ओने पौने दामों में फ्लैट बेच दिया था मैंने ।मान लिया था हेमन्त के साथ मैं भी दफन हो गई हूं ।निदा साहब ने समझाया "कलम को सच्चा साथी समझो संतोष, तुम्हें पता है मेरी माशूका की मौत ने मुझे शायर बनाया "।चौक पड़ी थी मैं ।वे बताने लगे-" कॉलेज में मेरे आगे की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी ।बहुत अच्छी लगती थी वह मुझे। मुझे उससे इकतरफ़ा इश्क हो गया ।एक दिन नोटिस बोर्ड पर लिखा देखा "मिस टंडन का निधन रोड एक्सीडेंट में हो गया। "
मैंने गमजदा हो कलम उठाई और उस कलम को पुख्ता किया। सूरदास के भजन ने" मधुबन तुम क्यों रहत हरे विरह वियोग श्याम सुंदर के हारे क्यों न जरे "ने मेरी कलम में आग भर दी और आज तुम्हारे सामने हूं। तुम भी कलम को अपनी ताकत बनाओ। "
उनके शब्दों ने जादू जैसा असर किया मुझ पर और अपनी कलम का सहारा ले मैंने हेमंत की मां की राख बटोरी और लेखिका संतोष को पूरे हौसले से खड़ा कर लिया।
निदा फ़ाज़ली यारों के यार थे। दोस्ती निभाना जानते थे। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर पर इतने सीधे सरल कि उनसे मुलाकात यादगार बन जाती। वे दोस्तों के चेहरे के हर भाव पढ़ लेते थे इसीलिए वे हर दिल अजीज थे। वैसे तो वे फाजिला के थे जो कश्मीर का एक इलाका है पर ग्वालियर में रहने के बाद मुंबई आ कर बस गए थे ।उनके माता-पिता जो सांप्रदायिक दंगों से तंग आकर पाकिस्तान चले गए थे उनका नाम रखा मुक्तदा हसन लेकिन उन्होंने निदा और अपने इलाके के फाजिला से खुद को निदा फ़ाज़ली कहलाना ज्यादा पसंद किया। निदा का अर्थ है स्वर, आवाज ।अद्भुत शख्सियत थी उनकी। उनके पिता की मृत्यु हुई तो वे उनके जनाजे में शामिल नहीं हुए और उन्हें काव्यात्मक श्रद्धांजलि दी।
तुम्हारी कब्र पर
मैं फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
 मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
 तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
 वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता,
 हवा में गिर के टूटा था ।
मेरी आँखे तुम्हारी मंज़रो मे कैद है
 अब तक मैं जो भी देखता हूँ,
 सोचता हूँ वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी
और बद-नामी की दुनिया थी ।
 कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में
 सांस लेते हैं,
 मैं लिखने के लिये
 जब भी कागज कलम उठाता हूं,
 तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
 बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
 मेरी आवाज में छुपकर
तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम |
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
 वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
 तुम्हारी कब्र में मैं दफन
तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना | 
फिल्मों में एक से बढ़कर एक लाजवाब ,चुटीले गीत जैसे कि 
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता 
होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है 
तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है 
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए 
लिखने वाले निदा साहब मेरा फोन उठाते ही अपनी ताजा गजल ,कोई गीत या दोहा सुनाकर कहते -"देखो तुम्हारे लिए लिखा है।"
मैं भी सहजता से कहती-" और किस-किस से ऐसा कहा आपने ?"
फिर वही ठहाका -'जासूस हो क्या "
उन्होंने गायिका मालती जी से विवाह किया था और सालों बाद उनके घर उनकी बिटिया तहरीर ने जन्म लिया था। मैं बधाई देने घर पहुंची तो मालती जी से बोले-' "पंडिताइन आई है इसके लिए चाय के साथ घास फूस ले आओ ।"और खुद ही ठहाका लगाने लगे।
8 फरवरी 2016 की वह मनहूस दोपहर ,मैं एक मुशायरे में भाग लेने ट्रेन से चेंबूर जा रही थी तभी मालती जी का मैसेज आया --"निदा साहब नहीं रहे ।दिल का दौरा पड़ने से ....आगे के शब्द धुआँ धुआँ हो गए ।खबर बेतार के तार सी सब ओर फैल गई। "निदा साहब ,आपके जाने से मुम्बई सूनी हो गई। लगता है जैसे मुंबई में अब कुछ रह नहीं गया ।
उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम ना था 
सारा घर ले गया घर छोड़ कर जाने वाला
संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से

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