‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शुक्रवार, 31 मार्च 2023

गोपालदास नीरज और असली श्रोता

मेरा किसी भी बड़े साहित्यकार के साथ कोई निजी संस्मरण तो नहीं हैं, किंतु एक सामान्य श्रोता के रूप में मैंने कई महान कवियों को मंच पर कविता पाठ करते प्रत्यक्ष रूप में सुना है, जो आज तक स्मृति पटल पर ज्यों का त्यों अंकित हैं। अपनी टूटी-फूटी भाषा में लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ। 

ये सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक के आरंभ के समय की बात है। हम लोग तब स्कूली छात्र थे।मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड प्रक्षेत्र में छतरपुर ज़िला मुख्यालय में वर्ष में कम से कम दो बार बड़े कवि सम्मेलन निश्चित रूप से हुआ करते थे। एक शारदीय नवरात्रि में दुर्गा जी के पंडाल के समक्ष और दूसरा दशहरा और दीपावली के मध्य कार्तिक मास में जलविहार के मेले में। दोनों ही कवि सम्मेलनों में उस समय देश के मूर्धन्य कविगण जैसे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, ओम प्रकाश आदित्य, सुरेश चक्रधर, सरोजिनी प्रीतम, माया गोविंद, गोपालदास नीरज, शैल चतुर्वेदी, सुरेंद्र शर्मा इत्यादि भाग लिया करते थे। मुझे भी इन कवि सम्मेलनों में इन महान कवियों से उनकी रचनाएँ उनके द्वारा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हल्की गुलाबी ठंड में श्रोता शाम ७ बजे से लेकर प्रातः ५ बजे तक पंडाल के नीचे बिछी दरियों पर जमें रहते, कविताओं के लगभग तीन दौर होते। मुझे याद है, गोपालदास नीरज जी अपनी सर्वश्रेष्ठ व नवीन कविताएँ/गीत अक्सर दूसरे या तीसरे दौर में सुनाया करते थे। पहले दौर में वे फिल्मों में आ चुके गीत व प्रचलित कविताएँ सुनाते थे, जब दूसरे या तीसरे दौर में मंच पर आते तो कहते, "अब दर्शक चले गए, असली श्रोता बचे हैं।" तब वे दर्शकों की नहीं, बल्कि अपनी पसंद की वास्तविक रचनाएँ सुनाते। प्रथम दौर में वे अक्सर चुहलबाज़ी भी किया करते, मंच पर उपस्थित कवियत्री को फ़िल्मी नायिका की उपाधि दी देते और खुद नायक बन जाते। दर्शकों को यह सब देख-सुन कर बड़ा मज़ा आता था। 

उन दिनों फ़िल्मों में परिवर्तन का दौर था। फ़िल्मी गीतों में बोलों के स्थान पर पाश्चात्य वाद्ययंत्रों से निकले कानफाड़ू संगीत को प्राथमिकता दी जाने लगी थी। इस दौर में नीरज जी जैसे गीतकारों को काव्यसृजन में कठिनाई का सामना करना पड़ता था। नीरज जी ने ही मंच से एक बार बताया था, कि फ़िल्म निर्माता गीत की धुन तैयार करके, उस पर बोल लिखे जाने की बात करते हैं, और यह ठीक वैसा ही होता है, जैसे कफ़न पहले तैयार कर लिया जाए और फिर उसके नाप का मुर्दा लाने को कहा जाए। वे कहते थे कि ऐसा वे ही गीतकार कर सकते हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा को मार दिया हो, और ऐसे में जो गीत सृजित होगा वह मृत गीत ही होगा, गीत की आत्मा उसमें हो ही नहीं सकती। एक बार माया गोविंद भी उनके साथ मंच पर थीं, उन्होंने भी अपने फ़िल्मी दुनिया के साथ के संस्मरण साझा करते हुए एक बार बताया था कि उन्हें एक बार एक सिचुएशन पर गीत के बोल लिखने को कहा गया, कि फ़िल्म की नायिका सारी रात नायक की प्रतीक्षा में जागती रही है, भोर की किरण छज्जे की दरार से आकर उसकी बिंदिया पर पड़ती है, और तभी गीत शुरू होता है। उन्होंने बताया कि मैंने कुछ दिन बाद निर्माता को एक मुखड़ा सुनाया, जो कुछ इस प्रकार था,
"रात-रात भर नींद न आए,
तू ही समाया निंदिया में,
सूरज घुस गया बिंदिया में।"

कहना न होगा, निर्माता ने उन से अनुबंध समाप्त ही कर दिया। तो ऐसे थे उस समय के कवि-गीतकार जिन्होंने कभी भी लक्ष्मी उपासना के लिए सरस्वती पूजा को नहीं छोड़ा। वे अपने मूल्यों और आदर्शों पर अडिग रहे, देश की सभ्यता और संस्कृति को अक्षुण्ण रखे रहे। तभी वे रचनाएँ इतनी सच्चीं, इतनी मधुर, इतनी सार्थक होती थीं कि उन्हें सुनकर मन नहीं भरता था।

- अमित खरे की स्मृति से।

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