मैं भी ममता जी से जुड़ी एक याद साझा करना चाहती हूँ, जो शायद उन्हें याद भी न हो।
बात सन १९९८ के आसपास की है। कुछ समय पहले ही मैंने अपने विवाहित जीवन में प्रवेश किया था। इलाहाबाद में अपनी गृहस्थी की शुरुआत के लिए मकान की तलाश में हम ममता जी के घर की तरफ़ भी गए।
उन दिनों मुझे पढ़ने के महत्व, चयन या उसके व्यापक रूप की जानकारी के बगैर सिर्फ पढ़ने से प्रेम था।
प्रतिष्ठित अख़बार में कार्यरत मेरे पति 'शहर के विशिष्ट परिचय' पर एक शृंखला कर रहे थे, उन्होंने मुझे इस शानदार दंपत्ति से मिलवाया।
उन दिनों मुझे पढ़ने के महत्व, चयन या उसके व्यापक रूप की जानकारी के बगैर सिर्फ पढ़ने से प्रेम था।
प्रतिष्ठित अख़बार में कार्यरत मेरे पति 'शहर के विशिष्ट परिचय' पर एक शृंखला कर रहे थे, उन्होंने मुझे इस शानदार दंपत्ति से मिलवाया।
बहुत अफ़सोस के साथ इसे मेरी अज्ञानता ही कहूँगी कि इन दोनों के सुंदर व्यक्तिव से प्रभावित होते हुए भी मेरा सारा उत्साह सिर्फ इस बात पर था कि मेरी मम्मी ममता जी की छात्रा रही हैं। उनके लेखन, उनकी विशिष्टता, किसी भी बात को मैं एक प्रशंसक, पाठक या अमूल्य निधि पाने वाले व्यक्ति की तरह नहीं निभा पाई।
आज बार-बार लगता है कि उस समय को जाकर पकड़ लाऊँ और पूरी तरह से अपने लिए जी लूँ, जब मेरे सामने हँसते-मुस्कुराते हुए रवींद्र जी और उनकी ढेर सारी बातें थीं।
उनके स्नेह में भीगी ममता जी की वह दृष्टि और भाव मुझे अभी तक याद हैं जब उन्होंने रविंद्र जी के लेखन की तारीफ़ करते हुए कहा था कि ये इतना अद्भुत लिख कर भी उसे जिस सरलता में छुपा लेते हैं, उसके लिए शिकायत करूँ या सराहना पता नहीं।
मेरे कहने पर भी ममता जी ने बिना मेरी मदद लिए ज़िंदगी के भरपूर स्वाद से भरी चाय तो पिलाई ही, साथ ही हमारी नई ज़िंदगी की समझ के लिए दोनों ने मिलकर अपने बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभव और सीख बाँटी।
खिलखिलाते हुए उन कुछ घंटो की सभी बातें तो नहीं याद है लेकिन उन दोनों के स्नेह की उस छाप को मैं कभी भुला नहीं पाई हूँ।
खिलखिलाते हुए उन कुछ घंटो की सभी बातें तो नहीं याद है लेकिन उन दोनों के स्नेह की उस छाप को मैं कभी भुला नहीं पाई हूँ।
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