इस सोच में हैं कि सुप्रसिद्ध साहित्यकारा सुश्री चित्रा मुद्गल के व्यक्तित्व को किस दृष्टिकोण से प्रस्तुत करें,
एक नौ साल की बच्ची की दृष्टि से, जो पहली भेंट में ही उस विदुषी महिला को अपलक देखती रह गई थी। वह कौनसा आकर्षण था, जिसने उसे प्रथम दृष्टि से ही बाँध लिया लिया था! या उस युवती के दृष्टिकोण से जिसने उन्हें बहुत ही करीब से देखा, उनके सुख-दुख में उनके साथ रही, उनकी खूबियों से बहुत कुछ सीखा! देखा कि वास्तव में फलों से लदे पेड़, झुके होते हैं, यह केवल उक्ति नहीं है।
एक नौ साल की बच्ची की दृष्टि से, जो पहली भेंट में ही उस विदुषी महिला को अपलक देखती रह गई थी। वह कौनसा आकर्षण था, जिसने उसे प्रथम दृष्टि से ही बाँध लिया लिया था! या उस युवती के दृष्टिकोण से जिसने उन्हें बहुत ही करीब से देखा, उनके सुख-दुख में उनके साथ रही, उनकी खूबियों से बहुत कुछ सीखा! देखा कि वास्तव में फलों से लदे पेड़, झुके होते हैं, यह केवल उक्ति नहीं है।
आदरणीया चित्रा जी भी ऐसा ही एक वृक्ष हैं, जो सब पर अपनी ममता खुलकर बाँटती हैं। उनके घर से कभी कोई व्यक्ति भूखा नहीं गया। तब भी, जब महीने की पंद्रह तारीख के बाद सामान चुकने लगता था; तब भी जब घर में समृद्धि थी।
बचपन की ओर ही चलते हैं। बचपन, जीवन का वह अविस्मरणीय दौर होता है, जब दुनिया बहुत खूबसूरत लगती है। जब चिंताएँ नहीं होती, जब गुल्लक-भर खुशियाँ होती हैं, जेब-भर दोस्त, और अंजुरी-भर सहेलियाँ। सारी शैतानियों में बराबर की साझेदार। फिर चाहे वह छत पर पढ़ाई के बहाने जाकर सूखने के लिए रखी इमली चुराकर खाना हो, या फिर पड़ोस के दीदी और भैया लोगों के आँख मटकके के चर्चे चटखारे ले एक दूसरे को सुनाना हो। इस उम्र में दोस्त ही जीवन की धुरी होते हैं।
ऐसे में जब अचानक एक दिन वे सारे बचपन के दोस्त, सहेलियाँ छिन जाएँ, तो कभी सोचा है, 'उस' बच्ची पर क्या बीतेगी? 'उसके' बड़ों ने भी नहीं सोचा, बस एक दिन फ़रमान सुना दिया, कि अब हम लोग यहाँ नहीं रहेंगे। हम लोग बांद्रा शिफ्ट हो रहे हैं। 'उसे' लगा जैसे सारी खुशियाँ किसी ने एक झटके में छीन लीं। नया स्कूल, अजनबी दोस्त, सब कुछ पराया। रह-रहकर पुराने घर की, दोस्तों की, मस्तियों की याद आती और मायूसी छा जाती, जो उसके पिता से छिपी न थी। ऐसे में एक दिन उन्होंने कहा चलो तुम्हें एक आंटी से मिलाएँ, तो 'वह' बेमन से अपना दुख ढोकर चल दी। घर से कोई पाँच-दस मिनट की दूरी पर पत्रकार नगर था, जहाँ सभी पत्रकार रहा करते थे। वहीं नीचे गेट पर कुछ लोग खड़े थे। कुछ देर बातें होती रहीं। फिर अचानक जैसे पिताजी को कुछ याद आया, उन्होंने मिलवाया, ये हैं चित्रा आंटी। वही तो थीं, जिन्हें वह बड़ी देर से सम्मोहित-सी, ताक रही थी। वे उसे देखकर मुस्कुरा दीं। वह अचानक झेंप गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो। झेंप से उबरकर उसने नमस्ते किया और उन्होंने प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरा। उसी क्षण उस विदुषी मुस्कुराहट ने, उन खूबसूरत आँखों ने, उस स्नेहिल स्पर्श की ऊष्मा ने 'उसे' एक कभी न टूटने वाले पाश में बाँध लिया।
"बहुत प्यारी बिटिया है। क्या नाम है बेटा?"
"सरस", उसने झिझकते हुए कहा।
"घर आना। कुमार दा, इसे अपने साथ ज़रूर लाइएगा। आना बेटा", कहकर वे सभी चले गए।
"बहुत प्यारी बिटिया है। क्या नाम है बेटा?"
"सरस", उसने झिझकते हुए कहा।
"घर आना। कुमार दा, इसे अपने साथ ज़रूर लाइएगा। आना बेटा", कहकर वे सभी चले गए।
यह थी उस बच्ची की उनसे पहली मुलाकात। 'वह' अपना दुख भूल गई। घर लौटते हुए उसके पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे।
इस बात को करीब ५२ वर्ष बीत चुके होंगें। पर स्मृतियों की तो कोई उम्र नहीं होती। आज भी ऐसे याद है जैसे कल ही की घटना हो। एक चुंबकीय आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। उनसे बार-बार मिलने को जी करता। और हर बार वे उतने ही स्नेह, उतने ही अपनेपन से मिलतीं। उनके इसी अपनेपन ने उस ग्यारह-बारह साल की बच्ची के मन का ख़ालीपन भर दिया। पुरानी यादें धूमिल होने लगीं, दोस्तों की कमी भी अब नहीं खलती थी। चित्रा आंटी का सम्मोहन समय के साथ बढ़ता गया और दोनों परिवारों में घनिष्ठता भी।
फिर एक दिन 'उसने' एक कविता लिखी और उन्हें पढ़ाई। उसे आज भी याद है वह दिन। दिल धुकपुका रहा था। उन्होंने पढ़ी, बार-बार पढ़ी और चौंककर उसकी तरफ़ देखा। "अरे सरस, बहुत बढ़िया लिखा है, लिखा करो।" उस दिन भीतर कहीं आत्मविश्वास का पहला अंकुर फूटा और धीरे-धीरे उनके लगातार प्रोत्साहन से उसकी जड़ें और मजबूत होतीं गईं।
समय बीतता गया। उम्र के साथ घनिष्ठता भी बढ़ती गई। अब वे दोनों दोस्त थे। हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान दोनों मिलकर खोजते। उन्हीं दिनों वह कुछ कठिन परिस्थितियों से गुज़र रही थीं। वह एक मुश्किल दौर था। उन्होंने अनुवाद करना शुरू कर दिया। उसके रहते बहुत व्यस्त रहतीं। फिर फ्री-लांसिंग शुरू की। उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया पब्लिकेशन से माधुरी नाम से एक फिल्मी पत्रिका छपा करती थी। उसमें वे एक नियमित कॉलोमिस्ट थीं। उसमें उनके द्वारा लिए फिल्मी हस्तियों के साक्षात्कार नियमित छपा करते। उन्हें अकेले जाने में संकोच होता और बोरियत भी। तो 'उसे' भी साथ ले जातीं। महीने में दो बार उन्हें इंटरव्यू के लिए जाना होता। उसी दौरान कुछ मीठे, कुछ कड़वे अनुभव हुए। अच्छे अनुभव तो जहाँ चेहरे पर एक स्मितहास बिखेर देते, वहीं कड़वे अनुभव एक कसैलापन छोड़ जाते। कई बार बुलाकर भी लोग कहला देते, कह दो घर पर नहीं है। परीक्षित साहनी ने ऐसा ही किया। उसने समय तै किया और जब जुहू पहुँचकर उसके घर फोन किया कि हम पहुँच गए हैं, तो उसने कहला दिया घर पर नहीं हैं। वे दोनों बिल्डिंग के नीचे भुन्नाए हुए खड़े थे कि उसकी गाड़ी तेज़ी से सामने से निकल गई। वह क्षण उनके लिए बहुत भारी था, पीड़ा दायक था। इंटरव्यू न हुआ तो लेख तैयार नहीं हो पाएगा। और लेख नहीं तो मेहनताना नहीं। किराए के पैसे जो खर्च हुए सो अलग, समय का भी इतना नुकसान। समय जो बहुत ज़रूरी था उस वक़्त। देर रात तक लिखा करतीं, अनुवाद किया करतीं। कई बार पूरा-पूरा उपन्यास, सिर्फ इसीलिए दोबारा लिखना पड़ा क्योंकि लेखक की शिकायत थी कि "यह हमारी शैली नहीं है। आपने तो हमारा पूरा स्टाइल ही बदल दिया। इसे दोबारा लिखिए।" ऐसे में उनपर क्या गुज़रती होगी, इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता था। महीनों का परिश्रम मिट्टी में मिल जाता। खून का घूँट पीकर रह जातीं, पर कोई चारा भी नहीं था। फिर पूरा उपन्यास लेकर बैठ जातीं।
यह उनके जीवन का वह कठिन समय था, जब कोई औसत व्यक्ति हार मान जाता, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कमर कसकर जूझती रहीं। दोनों बच्चे छोटे थे, रात-दिन कड़ी मेहनत कर उन्होंने उस तूफ़ान को भी मात दे दी।
'वह' उस पूरे दौर की गवाह रही। मुफ़लिसी के दिनों में भी आंटी के हाथ का खाना बहुत अच्छा लगता। बगैर छुंकी अरहर की दाल, रोटी और लहसुन और हरी मिर्च की चटनी। 'वह' कॉलेज से लौटते हुए सीधे उनके घर जाती, आंटी बगैर पूछे ही खाना परोस देतीं। उस खाने का स्वाद कभी नहीं भूला। उनके स्नेह के स्वाद से भरपूर... ! वह कहा करतीं, "महीने के शुरू के पंद्रह दिन जब राशन भरा रहता हैं, हम अपना शौक पूरा कर लेते हैं, बाकी पंद्रह दिन आशा को माथा-पच्ची करनी पड़ती हैं। कभी तेल खत्म, तो कभी मसाले। बेचारी झेलती है, उसी के बस का है, हम तो फिर चौके में झाँकते भी नहीं", कहकर खिलखिलाकर हँस पड़तीं। वह हँसी उस वेदना को ढाँप देती, जिससे वे हर दिन, हर पल गुज़र रही थीं। शायद यह ज़िंदादिली ही उनकी ताक़त थी। आम तौर पर जिन परिस्थितियों में लोग सेल्फ पिटी, और दुखों में सराबोर रहते हैं, वहाँ हँसकर उन बातों को उड़ा देना, उनमें भी खुश रहने के बहाने खोज लेना, अपनी वेदना को निजी रखना ही उनका संबल था।
उनकी खूबियों की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। रिश्तों का उनके जीवन में सदा ही विशेष महत्व रहा है। उन्होंने रिश्तों का सदा मान रखा, जीवनभर उन्हें निभाया और आज भी निभा रही हैं। बचपन से ही उनके घर एक लड़की रहा करती थी, आशा। उसकी माँ उनके मायके में काम किया करती थी। उसी ने कहा था, "ताई, इसे अपने पास रख लो, ज़िंदगी सुधर जाएगी इसकी, वहाँ झोपड़-पट्टी में नहीं रखना चाहती उसे।" आंटी ने उसे रख लिया। धीरे-धीरे आशा बड़ी होती गई, काम सीखती गई। एक समय आया, जब उसने पूरा घर संभाल लिया। खाना बनाना, बच्चों का टिफ़िन बनाना, उन्हें नाश्ता करवाकर स्कूल भेजना, सारे काम करती। वे बस अपने लेखन में व्यस्त रहतीं। आशा थी, तो वे निश्चिंत थीं। वे साक्षात्कार करतीं रहीं, अनुवाद करती रहीं, इस बीच उनका अपना लेखन भी जारी रहा।
परिस्थितियाँ सुधर रहीं थीं। समय बीत रहा था। जब आशा विवाह योग्य हुई, तो उन्हें उसकी चिंता सताने लगी। आशा उनका दाहिना हाथ थी, उसके जाने से उन्हें सबसे ज़्यादा असुविधा होती, उनके लेखन पर भी असर पड़ता। कोई और उनकी जगह होता तो अपने स्वार्थ की सोचता, पर वे यहीं तो सबसे अलग थीं। उन्हें आशा के भविष्य की चिंता थी। सबने कहा, उसके जाने से तुम्हें बहुत असुविधा हो जाएगी। उनका एक ही उत्तर था। "जो होगा देखा जाएगा, अपनी ज़रूरत के पीछे, उसे बिठाए रखेंगे क्या।" उन्होंने किसी की एक न सुनी, और वे ज़ोर-शोर से उसके विवाह की तैयारियों में लग गईं।
नंदन जी के यहाँ कार्यरत एक घरेलू नौकर से उसका विवाह तै हो गया। बहुत ही धूमधाम से उन्होंने उसका विवाह किया। अपनी तरफ़ से व्यवहार में कोई कोर कसर नहीं छोडी। कोई कह नहीं सकता था, कि एक नौकरानी की शादी हो रही है। पर जो उन्हें जानते थे, उनके लिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। बारात का भव्य स्वागत हुआ। पूरी कॉलोनी, सभी परिचितों को न्योता गया। वे पूरी तरह विवाह में लिप्त रहीं। जब विदाई की बेला आई तो उनका दिल हौलने लगा। विदा होकर आशा को दिल्ली जाना था। उसे विदा करने सब स्टेशन गए थे। आशा गाड़ी में बैठ चुकी थी। उनका रो-रोकर बुरा हाल था। ट्रेन चली तो वे खिड़की की रेलिंग पकड़कर साथ-साथ चलने लगीं।ज़बरदस्ती उनका हाथ छुड़ाया गया। उस दिन उन्हें बड़ी मुश्किल से सबने संभाला था। उनका हाल देखकर सभी चिंतित थे, कैसे संभलेंगी वे? कई दिन लग गए थे उन्हें उबरने में।
उसके पश्चात उसका(सरस का) विवाह हो गया। चित्रा आंटी भी अपना पत्रकार कॉलोनी का घर बेचकर दिल्ली शिफ्ट हो गईं। मिलना ही नहीं हो पाता। फोन की भी इतनी सुविधा न थी। फिर एक बार किसी काम से दिल्ली जाना हुआ। चित्रा आंटी के घर ही ठहरना हुआ। उस दिन उनके घर कुछ मेहमान आए थे। पता चला आशा के ससुर और पतिदेव थे। वे बड़ी तन्मयता से उनकी आवभगत में लगी थी। खुद खड़े होकर खाना बनाया था और बहुत आग्रह से खिला रही थीं। उनकी पूरी खातिर करने के बाद, जाते-जाते सास के लिए साड़ी, बच्चों और आशा के लिए कपड़े दिए। जब वे चलने लगे तो आंटी ने दोनों के पैर छूए। यह सब देखकर 'वह' अवाक रह गई। उसने पूछा, यह क्यों आंटी? बोलीं, "अरे भाई, बेटी ब्याही है उस घर में। रिश्तों का मान नहीं रखेंगे..!"
यह सिर्फ़ चित्रा आंटी ही कर सकती थीं। उस दिन उनके जीवन में रिश्तों की अहमियत को 'उसने' जाना। उनके व्यक्तिव की भव्यता को पहचाना। उनकी सदाशयता के आगे वह नत-मस्तक हो गई।
जब वह मुंबई में फ्री लांसिंग करतीं थीं, तब कई बार बड़े कटु अनुभव हुए थे। उसने खुद देखा था, जब आंटी को किसी से काम होता तो वह घंटों अपने ऑफिस में बिठाए रखता। इस पर भी कई बार काम हो पाता, कभी नहीं भी। पर जैसे ही वे प्रसार भारती की एक महत्वपूर्ण पोस्ट पर आसीन हुईं, वही लोग दिल्ली जा-जाकर उनके आगे-पीछे घूमने लगे। वही लोग अब बहुमूल्य उपहार लाकर, अपना काम निकालने की कोशिश करते। वे व्यस्त होतीं, तो घंटों प्रतीक्षा करते। ऐसे में कोई और होता तो अपनी इस पोज़ीशन का पूरा लाभ उठाता। पर उन्होंने ऐसा कभी नहीं किया। लोग अपना काम करवाने के एवज में उनके लिए बहुमूल्य उपहार लाते, पर उनका यह उसूल था कि किसी भी किस्म की भेंट किसी से नहीं लेनी है। लोग उनके पास पहुँचते और वे बहुत ही शालीनता से उन उपहारों को यह कहकर लौटा देतीं, कि "योग्यता उपहारों की मोहताज नहीं। आपके पक्ष में आपकी कृति स्वयम बोलेगी। आप डिज़र्व करते हैं, तो आपका काम ऐसे ही हो जाएगा। कृपया इस तरह की भेंट आगे से मत लाइएगा। सादर लौटा दी जाऐंगी।"
उनका यह रूप देख, उनके लिए श्रद्धा और बढ़ जाती। उन्होंने अपने बच्चों, अपने पोते-पोतियों को भी यही संस्कार दिए।
जब तक वे मुंबई में थीं, हमने जीवन के अनगिनत वर्ष उनके सानिध्य में बिताए। न जाने कितने संस्मरण उनसे जुड़े हैं। होली-दिवाली का तो बड़ी बेसबरी से इंतज़ार रहता। होली पर माँ, कांजी और दही-बड़े बनातीं। पत्रकार के पास साहित्य सहवास था, जहाँ कई साहित्यकार रहते थे। सबकी टोलियाँ आतीं। चित्रा आंटी, अवध अंकल, मनमोहन सरल जी, डॉ० धरमवीर भारती जी, पुष्पा जी, और भी कई लोग आया करते। खूब रंग होता, फिर सब बगिया में बैठते, गाना-बजाना होता, फाग गाया जाता, जैंट्स बीयर पीतें और लेडिज़ कांजी का लुत्फ उठातीं।
दिवाली पर अवध अंकल और चित्रा आंटी घर की पूजा निबटाकर आ जाते। उस दौरान अवध अंकल, सारिका के उप-संपादक थे, तो टाइम्स ऑफ इंडिया में कार्यरत कई पत्रकारों का आना-जाना था। कभी-कभी वे भी दिवाली पर आ जाते। ताश भी होता। चित्रा आंटी को तीन पत्ती बिलकुल नहीं आती थी। हर साल उन्हें ज़बरदस्ती बैठाया जाता और खेल शुरू होने से पहले उन्हें पंद्रह मिनिट तक खेल के नियम समझाए जाते। जब खेलने बैठतीं, और अगर अच्छे पत्ते आ जाते, तो उनसे अपनी खुशी छिपाए न छिपती, सब जान जाते इस बार तो बढ़िया हाथ है। बस मुसकुराती रहतीं। आधे लोग तो ऐसे ही फेंक जाते। एक दिन लगातार जीत रहीं थीं। पत्ते फिर बटें। छूटते ही उन्होंने चाल चल दी। जब वह तीन-चार चालें चल गईं तो सभी की हिम्मत जवाब दे गई। "लगता है, बहुत ही ज़ोरदार पत्ते हैं। वह खेल रहीं हैं, तो पैक हो जाओ भाई।" जवाब में वे हर बार बस मुस्कुरा देतीं। धीरे-धीरे सब पत्ते फेंक गए। हमने आंटी के पत्ते देखे, दुक्की का पेअर लेकर खेल रहीं थीं। और लोग बड़े बड़े पत्ते फेंक गए थे। सबने माथा पीट लिया। उस दिन अपनी रेपुटेशन की वजह से वे जीत गईं। लेकिन ताश खेलने से अधिक उन्हें बैठकर खेल देखने में मज़ा आता था।
चित्रा आंटी से जुड़ी न जाने कितनी बातें हैं। उनके घर लोगों का जमावड़ा लगा रहता। और जो कोई आता, बिना भोजन किए नहीं जाता। उन हालातों में कितना मुश्किल रहा होगा उनके लिए, पर उनके चेहरे पर शिकन...!
कभी नहीं...!
कभी नहीं...!
सन २००० में, जब हमारी माँ का देहांत हुआ तब वे उन्हीं के घर ठहरी हुईं थीं। मम्मी उनकी समधन थीं, पर चित्रा आंटी ने उन्हें हमेशा बड़ी बहन का दर्जा दिया और आखिर तक निभाया। मम्मी के देहावसान की खबर सुनकर, हमारा पूरा ददिहाल और ननिहाल वहाँ पहुँचा हुआ था। घर रिशतेदारों से भरा पड़ा था। मम्मी को ले जाने का समय हो रहा था। जब घाट पर जाने की बात हुई, तो चित्रा आंटी बोलीं "हम तो घाट पर जाऐंगे। जीजी के साथ सारी उम्र रहे अब उनकी अंतिम यात्रा में भी हम उनके साथ रहेंगे।" रिश्तेदारों के बीच खुसुर-पुसुर शुरू हो गई, कि औरतें घाट पर नहीं जातीं। कुछ बुज़ुर्गों ने कहा भी कि घर की स्त्रियाँ घाट पर नहीं जातीं। पर वे अपने निश्चय पर अटल थीं। उन्होंने कहा, "हम तो जा रहे हैं, हमारे साथ जो चलना चाहे चले।" अंततः चित्रा आंटी, हमारी भाभी, छोटी बहन शैली जो उनकी बहू है, और हम मम्मी की अंतिम यात्रा में उनके साथ थे। ढकोसलों से उन्हें हरदम से सख्त चिढ़ रही है। उन्होंने सदा अपने मन की सुनी और की। उनके अपने नियम, अपनी सोच, अपनी इच्छाशक्ति है, वे वही करतीं हैं जो उन्हें सही लगता है। और वे जब कुछ ठान लें तो उन्हें अपने निश्चय से डिगा पाना संभव नहीं। घाट पर जाने के पहले, उनको यह भी चिंता थी, कि वहाँ से लौटकर जो रिश्तेदार घर पर रुके हैं, उनके खाने का इंतजाम करना होगा। घर में चूल्हा नहीं जलना था। उनकी भांजी रंजू ने, जिसे ९ महीने का गर्भ था, अपने घर से इतने लोगों का खाना बनवाकर भेजा। सबने खाया। उनमें एक-दो ऐसे भी रिश्तेदार थे जिन्होंने सब्जी में मीन-मेख निकालकर खाना प्लेट में छोड़ दिया। आंटी को बहुत बुरा लगा पर चुप रहीं। सब के खाने के बाद बची खुची सब्जी से उन्होंने भोजन किया, पर इस बात की उनके चेहरे पर कोई शिकन न थी। बस जीजी का अंतिम कार्य, ठीक से हो गया, इस बात से तृप्त थीं। उनका यह रूप देखकर लगा कहाँ छिपा रखी है उन्होंने इतनी सहनशीलता। मन में उनके लिए इज्ज़त और भी बढ़ गई थी।
दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में पहली बार उन्हीं के साथ जाना हुआ। वहाँ उनका वैभव और लोकप्रियता देखकर बहुत खुशी हुई। लोग उन्हें हाथों-हाथ ले रहे थे। इत्तिफाक़ से उन्हें जिस काव्य-संग्रह का लोकार्पण करना था, उसमें हमारी भी कुछ कविताएँ संग्रहीत थीं। अद्भुत अनुभव था वह। जैसे ही लोगों को खबर हुई कि वे आई हैं, उन्हें सबने घेर लिया। हर तरफ़ से खींचा-तानी मची हुई थी। सबमें होड़ लगी थी, कि उनकी किताब का लोकार्पण वे करें। हर कोई चाह रहा था, कि वे उनके स्टॉल पर आएँ। उनका व्यक्तित्व है ही ऐसा। नवोदित पीढ़ी में तो वे अत्यधिक लोकप्रिय हैं। युवा रचनाकार अक्सर यह शिकायत करते हैं कि बड़े साहित्यकार नए लेखकों को नहीं सेठते। उनकी कृतियों को यह कहकर एक सिरे से खारिज कर देते हैं कि अभी तुम्हें लिखना नहीं आता, पहले बड़े लेखकों को पढ़ो, तब कुछ लिख पाओगे। पर चित्राजी, उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करती हैं। वे साधारण से साधारण व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण खोजकर उसकी इतनी प्रशंसा करती हैं, कि वह व्यक्ति अपनी ही नजर में और ऊँचा उठ जाता है। अपने व्यक्तित्व के आगे दूसरे की लकीर को बड़ा बनाना उनके स्वभाव की विशिष्टता है। इसलिए जो कोई भी उनसे एक बार मिल लेता है, पुनः पुनः मिलने को लालायित रहता है। उस दिन पुस्तक मेला में दिनभर उनके साथ रहने पर हमने जाना कि लोग उन्हें कितना चाहते हैं...! एक अद्भुत अनुभव था वह। न जाने कितने छात्र उनपर पीएचडी कर रहे थे। हर छात्र से उतनी ही आत्मीयता से मिलतीं रहीं। कोई उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं। सतत घिरी हुई, थककर चूर होतीं हुईं, फिर मुस्कुराकर सबका मन रखतीं हुईं।
अभी पिछले माह, जब वे कोरोना से ग्रस्त हो एम्स में भरती थीं, तो सोश्ल नेटवर्किंग साइट्स पर सभी उनकी सलामती की दुआ माँग रहे थे, उनके लिए प्रार्थना कर रहे थे। जब वे स्वस्थ होकर लौटीं, तो बधाइयों की जैसे बाढ़ आ गई। शैली बताया करती कि "दीदी, दिनभर फोन आते हैं, उन्हें आराम की ज़रूरत है, पर वह किसी को मायूस भी नहीं करना चाहतीं, कहतीं हैं, लोगों को चिंता है,तभी तो फोन करते हैं, एक मिनट बात कर लेते हैं। और फिर थक कर निढाल हो जाती हैं।"
मना न कर पाने की उनकी आदत अब उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। अभी भी देश-विदेश के कार्यक्रमों में उन्हें आमंत्रित किया जाता है और वह हिम्मत जुटाकर पहुँचने का प्रयास करतीं हैं। फिर वही बात, "इतने आत्मीय मनुहारों को मना कैसे करें।" उनकी इस हिम्मत के सब कायल हैं।
सन २०१५ में अवध अंकल के निधन के बाद, जीवन के खालीपन को उन्होंने अपने लेखन से पूरा किया है। सन २०१८ का साहित्य अकादमी सम्मान उन्हें अपने उपन्यास पोस्ट बॉक्स न० २०३ नालासोपारा के लिए प्राप्त हुआ। उन्होंने लेखन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को कायम रखा है। कोविड के बाद वे काफ़ी अशक्त हो गई हैं, पर अपने उपन्यास नकटौरा के समापन की ओर प्रतिबद्ध रहीं और कमजोरी के बावजूद उसे पूरा किया। कुछ रोज़ पहले उनसे फोन पर बात हो रही थी, "बोलीं बताओ ७९ साल की आयु में सिर्फ ६० ही किताबें लिखीं हैं। जल्दी-जल्दी लिखना चाहती हूँ, पता नहीं कब बुलावा आ जाए," कहकर हँस दीं।
उनका यही स्वभाव, उनकी उपलब्धियाँ सदा प्रेरित करतीं रही है, करती रहेंगी। उनकी यह जीवटता सदा बनी रहे ईश्वर से यही प्रार्थना है।
- सरस दरबारी की स्मृति से।
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