‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शनिवार, 2 दिसंबर 2023

विजय वर्मा की स्मृति में

 


राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार "विजय वर्मा कथा सम्मान" जिनकी स्मृति में हर वर्ष दिया जाता है, ऐसे अपने भाई विजय वर्मा की जयंती पर उन्हें याद करते हुए........


लेखक ,चित्रकार ,छायाचित्रकार, पत्रकार, संपादक, अभिनेता और आवाज की दुनिया के जादूगर जिनकी आवाज रेडियो पर जिंगल्स में विज्ञापन में फिल्मों की डबिंग में लगातार गूंजती रहती थी।

जबलपुर से उन दिनों प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी उनकी कहानी "सफर "उनकी गहरी पीड़ा का बयान है ।वह आजन्म पत्रकारिता और मीडिया में संघर्षरत रहे खुद को भूल कर और अपने अंदर के रंगकर्मी और चित्रकार को खफा कर ।मानो उनके दिल का एक कोना दुखों के लिए था जिसमें किसी को प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी और दूसरा उनकी कला से जुड़ा जो सबका था, सबके लिए था ।

अगर इसमें किसी का प्रवेश था तो उनके परम मित्र दूधनाथ सिंह, मलय, ज्ञानरंजन, मदन बावरिया, ललित सुरजन, इंद्रमणि चोपड़ा,विजय चौहान और दिलीप राजपूत ।

जबलपुर में वे ज्यां पाल सात्र का नाटक मैन विदाउट शैडोज का मंचन करने वाले थे। जिसमें उन्हें सौरवियर का किरदार निभाना था। मानो एक यज्ञ संपन्न करना था और उस यज्ञ के लिए विजय भाई को तप करना था। रिहर्सल की कठिन शामें, रातें और मंचन का वह  ऐतिहासिक दिन ।शहीद स्मारक हॉल में सन्नाटा छाया था ।विजय भाई की थरथराती  आवाज -"मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है ।हमने जिंदगी को मायने देने की कोशिश की। नाकामयाब रहे इसीलिए हम मर रहे हैं।"

संवाद के संग संग चेहरे पर तैरती खौफ की परछाइयां और जब सौरवियर को मौत की सजा होती है, रॉबर्टसन कॉलेज की स्तब्ध छात्रा की सिसकी आज भी मुझे रोमांचित करती है। इस नाटक के बाद कई दिन लगे थे विजय भाई को संभलने में लेकिन उन्हीं दिनों उन्होंने डी एच लॉरेंस और टी एस इलियट की कविताओं का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया था। और जापानी काव्य शैली हाइकु लिख रहे थे ।उनके हाइकु गहरा सन्नाटा खींच देते थे ।उन्होंने क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम को संगठित ही नहीं किया बल्कि अपने कार्य क्षेत्र में स्थानीय भाषा द्वारा शिक्षार्थियों को भी तैयार किया ।उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए उपयुक्त भाषा परीक्षा के भी अनुभव थे।

वैसे विजय भाई ने अपने कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी ।वे नवभारत के जबलपुर शहर संवाददाता और बाद में समाचार संपादक हुए। अनुवादक और संचालक की भूमिका बखूबी निभाते हुए उन्होंने शहर विकास निगम में काम किया साथ ही भोपाल एवं नागपुर से प्रकाशित हितवाद के लिए न्यूज़ बुलेटिन भी तैयार किए ।फिर भी बेचैनी.....  जाने किस आसमान को छूने की चाह थी उनमें ।

मैं समूचा आकाश /इस भुजा पर ताबीज की तरह/ बांध लेना चाहता हूँ/   समूचा विश्व होना चाहता हूँ।

चाह बलवती थी। वे शोध सहायक के रूप में बीड़ी मजदूरों के जीवन सामाजिक-आर्थिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर एम ए के शोध प्रबंध पर अनुसंधान करते रहे। बाद के दिनों में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी अमेरिका के भी शोध सहायक (कोऑर्डिनेटर) के रूप में काम करते रहे। भारत में इस संस्था का नाम अमेरिकन पीस कोर था जिसके अंतर्गत वे सघन ग्रामीण क्षेत्रों में हिल टेक्नोलॉजी के द्वारा मौखिक प्रशिक्षण भी देते थे

बेहद गरीब पिछड़े गाँव से लौटे थे वे। बेहद उदास। बताने लगे किसी घुटन्ना नामक गाँव के बारे में ।गरीबी इतनी कि मिट्टी के घड़ों के छेद ,दरारें कपड़ों की थिगलियों से भरी जातीं क्योंकि उनके पास नए घड़े खरीदने के पैसे नहीं थे। विजय भाई ने 25 झोंपड़ों वाले उस गाँव में हर एक के घर नए घड़े भिजवाए। कृषि क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा सुन मैं कांप उठी थी ।उस रात मैंने डायरी में लिखा 

"कौन है इस दुर्दशा का जिम्मेदार!! आजाद भारत की यह कैसी परिभाषा!!"

आज सोचती हूँ कि एक व्यक्ति की छोटी सी जिंदगी के इतने आयाम भी हो सकते हैं?

वे अमेरिकन पीस कोर में कोऑर्डिनेटर भी थे।जिसकी अवधि समाप्त होते ही इमरजेंसी लग गई ।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।

चूँकि बाबूजी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन हम लोगों ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं।

लिहाजा विजय भाई पर चारों ओर से दबाव था। क्योंकि जबलपुर के उनके मित्रों का समूह उनके कोलकाता या मुंबई के फैसले से नाखुश था। अपने त्याग और प्रेम से उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे तमाम अव्यवस्थाओं से दुखी रहते थे ।अन्याय उन्हें बर्दाश्त न था ।संपादकीय विभाग में यदि मालिक ने किसी अन्य को प्रताड़ित किया है तो पहला त्यागपत्र उनका होता था। हर सहयोगी का दुख उनका अपना दुख था।

अपनी रचनात्मक बेचैनी सहित आखिर वे मुम्बई आ ही गए ।फिर कितना कुछ घटा। मुंबई में थिएटर से जुड़े ,आवाज़ की दुनिया से जुड़े ,रेडियो और दूरदर्शन से जुड़े। रेडियो में उन दिनों विनोद शर्मा थे। जिन्होंने उनसे रामायण के एपिसोड लिखवाए। मनोहर महाजन ने सेंटोजन की महफिल.......और अन्य रेडियो निदेशकों से जुड़कर उन्होंने प्रगति की कहानी यूनियन बैंक की जवानी ,

पत्थर बोल उठे ,एवरेडी के हम सफर, महाराष्ट्र राज्य लॉटरी का पहला पन्ना और भी जाने क्या-क्या ........टेली फिल्म "राजा " में मुख्य भूमिका की। अमीन सयानी के संग जिंगल लिखे ।इतना कुछ होने के बावजूद आर्थिक संकट ज्यों का  त्यों बना रहा। मुंबई के उनके 8 वर्षों का जीवनकाल संघर्ष करते ही बीता ।उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। 

आम आदमी से जुड़ना उनकी फितरत थी। एक रात मुंबई लैब में डबिंग करके जब वे अपनी जेब के चंद सिक्कों को टटोलते इरला ब्रिज से गुजर रहे थे फुटपाथ पर मैली कथडी में लिपटी एक बुढ़िया अपना कटोरा लिए काँपती बैठी थी। उन्होंने उस के कटोरे में अपनी जेब उलट दी और घर आकर खूब रोए । वे सही अर्थों में मार्क्सवादी विचारधारा के थे ।कभी-कभी मुझे लगता देशकाल के परे लेखक सब जगह एक जैसा होता है ।अगर ऐसा न होता तो विजय भाई को सोचते हुए मुझे चेक लेखक मिलान कुंडेरा क्यों याद आते जिन्होंने अपने शहर प्राहा में रहते हुए कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपता को लिखा।

प्यार उन्होंने डूबकर किया था और अपनी प्रेमिका को अपने हाथों दुल्हन बनाकर अमेरिका विदा किया था। कहते हैं प्रेम में आदमी पड़ता है। अंग्रेजी में फॉल इन लव ।तो क्या प्रेम एक ऐसी फिसलन भरी घाटी है जिसमें फिसलते चले जाओ और जिसका कोई अंत नहीं। विजय भाई ने भी प्रेम किया। अपनी प्रेमिका से, अम्मा- बाबूजी से ,मुझसे। मुझसे बहुत ज्यादा प्रेम किया उन्होंने ।मेरे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उन्हें बर्दाश्त न थी। वे मुझे फूल की तरह सहेज कर रखते। उन्होंने प्रेम किया अपने मित्रों से, अपने परिवेश से और अपने हालात से। जिससे उन्हें उम्र भर छुटकारा नहीं मिला ।

30 जनवरी 1984 की सुबह सूरज ने निकलने से मना कर दिया था। चिड़ियों ने चहचहाने से और फूलों ने खिलने से ....... एंटॉप हिल का चौथी मंजिल का विजय भाई का फ्लैट आगन्तुकों से खचाखच भरा था । 29 जनवरी की रात सेंटूर होटल से फ़िल्म की डबिंग करके वे लौट रहे थे ।उन्होंने टैक्सी में बैठ कर सभी भाई बहनों को पोस्टकार्ड लिखे कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में सब मुम्बई आएं ताकि जमकर मस्ती की जाए ,घूमा जाए। और उनकी इच्छा तत्काल फलित। लेकिन सबकी आँखों में आँसू और घर में मौत का सन्नाटा।

30 जनवरी की सुबह 5:45 बजे यह सितारा ऐसे टूटा की आँखें चोंधिया गईं।किसी को समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या ?डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही थी कि अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया।

विजय भाई का शव फूलों से सजाया जा रहा था ।उनके पथराए होठों पर मुस्कुराहट अंकित थी कि हम तो चले, आबाद रहो दुनिया वालों ।

मैं देख रही थी अपने बेहद हैंडसम भाई को उनकी अंतिम यात्रा में और भी खूबसूरत होते। मानो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारा गरल खुद में समाहित कर मृत्युंजय हो अनंत यात्रा पर निकला उनका काफिला...... जिसमें उनके रंगमंच की नायिकाएं हैं। माशा, उर्वशी, वसंतसेना, शकुंतला, एंटीगनी, जूलियट ,डेसडीमोना,सस्सी, लूसी। ऐसी विदाई जैसे इजिप्ट का कोई सम्राट हो।

विजय भाई के निधन से जबलपुर का सारा मित्र वर्ग स्तब्ध था। उनके चित्रकार दोस्त दिलीप राजपूत ने शहीद स्मारक भवन में उनके लिए रखी शोकसभा के दौरान वहीं स्टेज पर आधे घंटे में विजय भाई का चित्र बनाया था जो हाथों हाथ बिका और वह धनराशि विजय भाई पर आश्रित अम्मा को भेंट की गई। केसरवानी महाविद्यालय में जहाँ विजय भाई अंग्रेजी के लेक्चरर थे ,अवकाश रखा गया और मुंबई में सेंटोजन की महफिल का एक एपिसोड मनोहर महाजन ने श्रद्धांजलि स्वरुप रखा...अभी भी जब कभी यह एपिसोड सुनती हूँ जिसमें विजय भाई द्वारा अभिनीत छोटे-छोटे प्रहसन,उनकी हँसी और मनोहर महाजन की शोक संतप्त आवाज..... इस हंसी के इन प्रहसनों के नायक हम सब के लाडले विजय वर्मा अब नहीं रहे...... फिर सन्नाटा और धीमे-धीमे बजता गीत "दिन जो पखेरु होते पिजड़े में मैं रख लेता "तो जीवन की हताशा पर रो पड़ती हूँ ।

दूसरे दिन अखबारों ने प्रमुखता से खबर छापी। मौन हो गया छोटा मुक्तिबोध, तमाम संघर्षों के बीच अलविदा कह गया और एक सपना छोड़ गया हमारी दुनिया बदलने के लिए ।लगभग 2 महीने तक मुंबई की विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं, थिएटर विज्ञापन केंद्र और डबिंग लैब मैं उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं।

 जिसने न परिवार बसाया, न दुनियादारी के गुर सीखे ,पर सबका होने  का कमाल कर दिखाया ।


संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से




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शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

मिलना वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी से

 पिशाच मोचन में हिंदी प्रचारक संस्थान की विशाल इमारत के गेट से जैसे ही अंदर प्रवेश किया किताबों की खुशबू ने मन मोह लिया। वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी के बेटे विजय प्रकाश बेरी मुझे किताबों के रैक से भरे लंबे लंबे गलियारों से पहली मंजिल में ले गए। जहाँ बड़े से कमरे में व्हील चेयर में महान रचनाकार कृष्ण चंद्र बेरी बैठे थे ।बनारस के प्रकाशन पुरुष कहे जाने वाले वयोवृद्ध बेरी जी के मैंने चरण स्पर्श किए और दीवान पर बैठ गई ।बनारस ही नहीं बल्कि देश भर में हिंदी प्रचारक संस्थान का विशेष महत्व है। प्रचारक बुक क्लब, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना जैसी योजनाओं को इस संस्थान ने प्रारंभ कर एक नए युग का सूत्रपात किया है। जबलपुर में थी तो विजय जी से खतो किताबत के दौरान मेरी किताब हिंदी प्रचारक पब्लीकेशन से प्रकाशित करने की चर्चा भी होती थी ।लेकिन वे पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में मशगूल थे और बात आई गई हो गई थी। कृष्ण चंद्र बेरी से काफी देर तक संस्थान के विषय में चर्चा होती रही। जलपान भी आत्मीयता भरा था। चलने लगी तो उन्होंने अपना विशिष्ट ग्रंथ" पुस्तक प्रकाशन संदर्भ और दृष्टि" तथा "आत्मकथा प्रकाशकनामा" मुझे भेंट की ।दोनों ही किताबें काफी मोटी और ग्रंथनुमा थीं। बाद में हिंदी प्रचारक पत्रिका में हर साल मेरे जन्मदिन की बधाई ,हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कारों और मेरी पुस्तकों के लोकार्पण, पुरस्कारों के समाचार छपते रहते थे। बल्कि छपते रहते हैं ।इस पत्रिका से कहीं भी रहते हुए मेरा जुड़ा रहना मानो हिंदी प्रचारक संस्थान से जुड़े रहना है। अब कृष्णचंद बेरी जी नहीं है लेकिन इस संस्थान से जुड़ना कुछ ऐसा हुआ कि जब भी बनारस जाती हूँ हिंदी प्रचारक संस्थान जाए बिना मन नहीं मानता।

-संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से अविस्मरणीय भेंट

दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका साहित्य अमृत में पंडित विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध पढ़कर मैं उनकी फैन हो गई। मन में इच्छा जागी मैं भी ललित निबंध लिखूँ। 

 स्कूल में अध्यापन  करते हुए अपने खाली पीरियड में मैं ललित निबंध लिखने लगी ।इसी बीच दीपावली की छुट्टियों में बनारस जाना हुआ। पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से मिलने की इच्छा बलवती थी। ललित निबंध परंपरा में वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर त्रयी के रूप में लोकप्रिय थे। फोन पर उनसे मिलने की रजामंदी लेकर मैं उनके घर पहुंची।भव्य घर लेकिन भारतीय संस्कृति का प्रतीक..... पीतल के गिलास और लोटे में हमारे लिए पानी लेकर उनका सेवक आया ।थोड़ी देर में बेहद सौम्य व्यक्तित्व के मिश्र जी धोती, कुर्ता और कंधे पर शॉल, माथे पर तिलक लगाए मुस्कुराते हुए आए। इतने महान लेखक, संपादक ,पत्रकार, भूतपूर्व कुलपति को सामने देख मैं थोड़ी नर्वस हो रही थी। बात उन्हीं ने शुरू की। पूछने लगे "क्या करती हो, किस विधा में लिखती हो, कुछ प्रकाशित हुआ है क्या?"

मैंने उन्हें बहके बसन्त तुम की प्रति भेंट की ।कहा "ललित निबंध में मार्गदर्शन चाहती हूँ।"

"तुमने लिखा है कोई निबन्ध?"

"जी सुनेंगे?"

" हां सुनाओ ।"इसी बीच कांसे की चमचमाती थाली में तरह-तरह की मिठाइयां नमकीन और गरमा गरम दूध के गिलास आ गए।

" अरे भाई दूध ढाँक दो ।अभी बिटिया निबंध सुना रही है। "

सेवक ने दूध पर तश्तरियां  ढंक दी। मैंने फागुन का मन निबंध पढ़कर सुनाया ।वे भावविभोर होकर बोले "अपार संभावनाएं हैं।  तुम इसके दो तीन ड्राफ्ट लिखो। अपने आप निखार आएगा। साहित्य अमृत में प्रकाशन के लिए भेजो।"

उन्होंने मुझे अपनी लोकप्रिय किताब "मेरे राम का मुकुट भीग रहा है" भेंट की। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। उस शाम ललित निबंध लेखन में मैं विश्वास लेकर लौटी।

विभिन्न विषयों पर 16 ललित निबंध लिखकर मैंने

यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को  ललित निबंध संग्रह की पांडुलिपि भेज दी। इनमें से दो निबंध पंडित विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य अमृत में प्रकाशित किए थे। बाकी इंदौर, उज्जैन, भोपाल और मुंबई के अखबारों में छप चुके थे।

मैंने ललित निबंध संग्रह का नाम रखा फागुन का मन।

फागुन का मन पुस्तक प्रकाशित होकर आई तो पहली प्रति विद्यानिवास मिश्र जी को बनारस भेजी। उनका पत्र आया "मैंने कहा था न, अपार संभावनाएं हैं तुममें। महिला लेखकों में ललित निबंध लेखन में तुम सर्वोपरि हो ।"

मुझे लगा जैसे मैं चौपाटी सागर तट पर खड़ी हूँ और सामने ज्वार की ऊंची ऊंची लहरे डूबते सूरज और उगते पूर्णमासी के चांद के संग अठखेलियां कर रही हैं ।वे सड़क के किनारे की दीवार से टकरातीं, उछलकर सड़क की ओर जाती मानो आमंत्रण दे रही हों कि जिंदगी भी ज्वार भाटे की तरह है।अभी तुम्हारा ज्वार है। थाम लो इस ज्वार को ।मगर मैं ज्वार के बहकावे में कभी नहीं आई। मैंने खुद को शांत बहने दिया।

सूचना मिली पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के निधन की। एक समारोह में जाते हुए उनकी कार पेड़ से टकरा जाने के कारण घटनास्थल पर ही उनका निधन हो गया। मैं भीतर तक व्यथित हो गई थी। ललित निबंधों के लिखने के लिए उनका आग्रह और मार्गदर्शन अब कभी नहीं मिलेगा।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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गुरुवार, 3 अगस्त 2023

अधूरे ख्वाब की शहादत - सुरेंद्र प्रताप सिंह की पुण्यतिथि पर(27 जून)

जब भी मैं टेलीविजन पर समाचार चैनल “आज तक “देखती हूँ, कान खबरें सुनने से इंकार कर देती हैं , मन भर आता है?  एक ज़िद्द सी माहौल में कि उस आवाज को ढूंढ लाऊँ जिससे बिछड़े बरसों बीत गए लेकिन जो अब भी मेरे कानों में गूंजती है।सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी सबके एस पी और मेरे सुरेंद्र भाई। क्रूर काल ने यह छल क्यों किया हमारे साथ? वैसे सुना है अच्छे इंसानों की ईश्वर को भी ज़रूरत होती है। शायद इसीलिए वे अल्प आयु में ही चले गए।

विरले ही होते हैं जो किवदंती बन जाते हैं। जैसे कि एस पी ।इन दो अक्षरों में एक ऐसे शख्स का अनुभव कराता है जिनका नाम पत्रकारिता के दुर्लभ व्यक्तित्व में आसानी से शुमार किया जा सकता है। सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी धर्मयुग के उपसंपादक, रविवार के संपादक ,नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक से टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक और उसके बाद समाचार चैनल आज तक के प्रस्तोता एस पी यानी खांटी ग्रामीण परिवेश को अपने भीतर संजो कर रखे हुए एक जेंटलमैन। जिनकी खिचड़ी होती दाढ़ी में जैसे जीवन के विविध अनुभव अपना रंग दिखा रहे हो ।गोल चश्मे के भीतर आंखे इतनी सजग चौकन्नी कि खबरों के प्रस्तुतीकरण में बोलती महसूस हो। जमाने की आंखों में पूरी तरह हंसती हुई ।मुंबई की पत्रकार बिरादरी के लोग ,शायर ,साहित्यकार उन्हें इसी रुप में जानते हैं और उन्हें भरपूर याद करते हैं

मन पहुंच जाता है उस दिन को टकोरने जब मैं पहली बार जबलपुर से मुंबई आई थी और सुरेंद्र भाई विजय भाई(मेरे बड़े भाई विजय वर्मा) के साथ स्टेशन मुझे लेने आए थे।।यूँ खतों से मैं सुरेंद्र भाई के व्यक्तित्व से परिचित थी लेकिन देखा उन्हें पहली बार। बेहद सौम्य व्यक्तित्व ,मिलनसार ।टैक्सी चल पड़ी मुंबई स्वप्न नगरी की राहों पर ।सुरेंद्र भाई ने बताया "ये विजय दो महीने से चप्पलें घिसता रहा तुम्हारे लिए मकान तलाशने में ,क्योंकि यह तो रमता जोगी है जहां शाम वही बसेरा।"

हम हंस पड़े थे। विजय भाई ने अंधेरी में वन रूम किचन का फ्लैट किराए पर लिया था। सुरेंद्र भाई अक्सर वहां आते विजय भाई के सभी पत्रकार ,साहित्यकार और आवाज की दुनिया से जुड़े दोस्त भी आते ।विजय भाई जबलपुर के नवभारत में समाचार संपादक थे और बेहद अच्छे कवि, कथाकार थे। और अपने दोस्त ज्ञानरंजन के साथ जनवादी आंदोलन के दौरान चर्चित हुए थे ।लेकिन जबलपुर उन्हें रास नहीं आया। सुरेंद्र भाई की जिद थी कि विजय भाई मुंबई आ जाएं और अपने टैलेंट को यहां प्रकाशित करें ।मैं भी प्रकाशित होना चाहती थी अपनी रचनाओं के द्वारा। लेखन का नशा चढ़ा था मुझ पर ।धर्मयुग में बदस्तूर रचनाएं छप रही थी मेरी ।मेरी हर कहानी की कमियों को सुरेंद्र भाई बताते थे मैं बुझती जाती तो कहते "यह तो सुनना ही पड़ेगा तुम्हें। मैं तुम्हारा पाठक हूं कहने का हक है मुझे ।"

बेशक मेरे लेखन के निखार से सुरेंद्र भाई कहीं ना कहीं गहरे जुड़े हैं।

सुरेंद्र भाई को मैं अक्सर उचाट सा पाती ।वे पत्रकारिता के लिए बेहद चिंतित थे सारी व्यवस्थाओं में अव्यवस्था नजर आती उन्हें। हमेशा नई राहों की तलाश थी जिन्हें वे आने वाली पीढ़ी के लिए बनाना चाहते थे। धर्मयुग कार्यालय से लौट कर हम प्रायः मिला करते। उस रात लगभग 3:00 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही देखा सुरेंद्र भाई विजय भाई को कंधों का सहारा दिए ला रहे हैं। विजय भाई की जींस घुटने पर से फट चुकी थी और खून के काले पड़ चुके धब्बे थे वहां। माथे पर भी चोट के निशान थे।" क्या हुआ" घबरा गई मैं ।सुरेंद्र भाई ने उन्हें बिस्तर पर लेटाया। "घबराने की जरूरत नहीं संतोष, बस मै घंटे दो घंटे में पैसों का इंतजाम करके लौटता हूं तब तक तुम कॉफी बना कर पिलाओ विजय को।' सुरेंद्र भाई तेजी से चले गए सारा शहर रात के सन्नाटे में डूबा था लेकिन सुरेंद्र भाई दौड़ रहे थे अपने घायल दोस्त की खातिर उन सूनी सड़कों का सन्नाटा चीरते। किंग सर्कल में सड़क पर डिवाइडर पर कमर तक ऊंची दीवार सी है। ये लोग ट्रेन पकड़ने की जल्दी में दीवार फलांग रहे थे कि विजय भाई गिर पड़े। उनका घुटना पत्थर से जा टकराया और घुटने की केप चूर चूर हो गई ।

पैर सूजकर डबल हो गया। विजय भाई फ्री लांसर थे। जेब हमेशा मुंह बाए रहती ।मैं भी बेरोजगार थी। सो इस बात से चिंतित थी कि अब क्या होगा ।सिर्फ सुरेंद्र भाई पर भरोसा था ।एक फरिश्ते की तरह उन्होंने हमें संभाला। उनके आते ही हम सब नानावती अस्पताल गए। जहां विजय भाई का 3 घंटों का लंबा ऑपरेशन हुआ। सुरेंद्र भाई लगातार 3 घंटे बेचैनी से अस्पताल के गलियारे में टहलते रहे ।ऑपरेशन के बाद विजय भाई को पलंग पर सुला दिया गया और सुरेंद्र भाई फिर दौड़े ।लौटे तो हाथ में दोसे का पार्सल और थरमस में चाय थी ।मेरे हाथों पर कुछ नोट रखकर उन्होंने मुट्ठी बंद कर दी ।

"बिल्कुल परेशान मत होना। तुमने सुबह से कुछ खाया नहीं है ।पहले दोसा खा लो फिर घर जाकर थोड़ा आराम कर लेना।यहां सब मैं देख लूंगा ।"

मेरे सब्र का बांध टूट गया मैं उनसे लिपटकर रो पड़ी ।इतनी बड़ी मुंबई में कोई भी तो सगा संबंधी नहीं था। लेकिन सुरेंद्र भाई थे सगे-संबंधियों से बढ़कर।

' मैं हूं ना संतोष ,पगली... मुझ पर विश्वास नहीं।" मेरी रुलाई ने सारे बाँध तोड़ डाले ।विजय भाई के घुटने से तलवे तक प्लास्टर बंधा था। अचेतन अवस्था में अपने उस प्रिय दोस्त को देख और मुझे रोता देख सुरेंद्र भाई की आंखे भर आई। विजय भाई की दुर्घटना के बाद कितनी बार इस लौह पुरुष की आंखों में मैंने पनीली परते तैरती देखी थी ।विजय भाई के घुटने को सहलाते उनका हाथ कितनी बार काँपा था ।

'यार विजय, तुम बिना नी कैप के चलोगे कैसे? चांदी का कैप कहां से जुटाया जाए। हजारों का खर्चा है ।"

"हम आदत डाल लेंगे सुरेंद्र, बिना नी कैप के चलने की।"

विजय भाई ने जितनी वीरता से यह बात कही शायद उतनी ही हार सुरेंद्र भाई को महसूस हुई। मैंने उस दिन से पहले कभी सुरेंद्र भाई को रोते या हारते नहीं देखा था। मेरी नजरों में वे पूर्ण पुरुष थे। उनका फक्कड़ी मस्तमौलापन ,काम का लबादा ओढे ज़िंदगी की राहे नापना। पत्रकारिता की कठिन राहों को सुगम करने का प्रयास और गहरी जिजीविषा ।सुरेंद्र भाई भरपूर व्यक्तित्व के धनी थे ।ताउम्र वे पत्रकारिता के लिए जूझते रहे ।वही उनका लक्ष्य था और वहीं तक उन्हें पहुंचना था।

मैं पूर्णतया मुंबई में सैटल हो चुकी थी ।तब सुरेंद्र भाई मुंबई में नहीं थे। मैं उन्हें पत्रों से सारी सूचनाएं देती रहती। सुरेंद्र भाई और विजय भाई की दोस्ती के दसियों वर्ष की गवाह हूँ मैं। वे विजय भाई के दोस्त ही नहीं सलाहकार, सहकर्मी और साथ साथ एक दूसरे के दुखों से पीड़ित होने वाले दोस्त भी थे ।उनके अंदर संवेदनाओ का गहरा सागर था ।मैं उनसे जिरह करती प्रकाशकों के रवैये की, बरसो बरस छप कर भी बिना रूपये के किताब छापने को कोई तैयार नहीं।एक पैसे की रॉयल्टी नहीं।साहित्य में राजनीति की घुसपैठ है। पूंजीवाद की घुसपैठ है। लेखक आवाज उठाता है पूंजीवाद के खिलाफ लेकिन स्वयं चाकरी करता है पूंजी पतियों की। अपनी किताब के प्रकाशन की । लोकार्पण के लिए वह मुंह जोहता है उनका। साहित्य का क ख ग भी नहीं जानने वाले पूंजीपति आज पूजे जा रहे हैं साहित्य में। सुरेंद्र भाई ......ये कैसे पत्रकार है जो रिश्वतखोरी के खिलाफ कलम तो उठाते हैं परंतु चाहते हैं मुफ्त इलाज, मुफ्त दवाएं, मुफ्त रेलयात्रा, मुफ्त किताबें ,और मुफ्त विज्ञापन का माल ।शराब की दुर्गति पर लिखने वाला पत्रकार शराब की एवज लेख छापता है ।यह कैसी पत्रकारिता है ? वे समझाते "यह तो तूफान के पूर्व की स्थिति है ।तूफान गुजर जाए फिर सब ठीक हो जाएगा।' सुरेंद्र भाई ने मेरी कहानी "इंतसाब" रविवार में छापी। लिखा "तुमने बेमिसाल लिखा है ।अब तुम्हारी रचनाएं प्रौढ हो गई ।अब तुम पूर्ण कथाकार बन गई ।"

वे महान शिल्पी थे ।न जाने कितनों को बना गए। विजय भाई से कहते थे ....."मेरे मन में पत्रकारिता को लेकर एक सागर उफ़नता रहता है ।"

हां उनके अंदर एक सागर उफनता रहता था । यह सागर उस दिन छलक पड़ा था जब विजय भाई मात्र 44 वर्ष की अवस्था में हार्टफेल हो जाने से चल बसे थे।

सुरेंद्र भाई अंदर ही अंदर रोए होंगे ।टूटे होंगे ।लेकिन हमें तसल्ली दी ।फोन आया.... "हौसला रखो ,हम मुंबई पहुंच रहे हैं।"

 वे आए और आते ही रोती बिलखती अम्मा के आंसू पोंछ भर्राये गले से बोले...." मैं हूं ना ,विजय की प्रतिकृति....।" लेकिन क्रूर काल ने यह प्रतिकृति भी हमसे छीन ली। उपहार थिएटर में आग लगने की दुर्घटना के बाद उनके दिमाग की नसें फट गई और फट गया सागर का विस्तार, उफ़न आये ज्वालामुखी, आंसुओं के सोते ।उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर सुन मैंने दिल्ली जाने की तैयारी कर ली। पर उन्होंने मौका ही नहीं दिया। चंद घंटों में ही चल बसे। मैं थर्रा उठी हूं और थर्रा उठे है वे दिन, वे यादें ,.....क्या भूलूं.... किसे याद करूं..... कलकत्ते के सुरेंद्र भाई को जिन्होंने रविवार में मेरी रचनाएं छापकर मुझे प्रौढ़ लेखिका का दर्जा दिया या मुंबई के सुरेंद्र भाई को जो व्हील चेयर से टैक्सी तक विजय भाई को लाते हुए चिंतित थे कि विजय बिना नी कैप के चलेगा कैसे ? या दिल्ली के सुरेंद्र भाई को जो भीष्म पितामह की तरह पत्रकारिता के हस्तिनापुर को बचाने के लिए कटिबद्ध थे।समाचार चैनल "आज तक "का आकर्षक कार्यक्रम देखने को रोज की हमारी प्रतीक्षा..... फोन पर हमारी शिकायत ....."सुरेन्द्र भाई आप भाभी को लेकर एक बार भी यहां नहीं आए "और उनका वादा "आएंगे संतोष जल्दी ही आएंगे"

कब आएंगे सुरेंद्र भाई आप? आप तो उस राह चल पड़े जहां से वापसी असंभव है।......... जाइए मेरे प्यारे सुरेंद्र भाई आप को विदा दे रहे हैं वे तमाम पत्रकार जिन्हें आपने राह सुझाई ,रोती सिसकती मै ,भरभरा कर टूटी भाभी और दूरदर्शन की वो पूरी टीम जो आज तक से लोकप्रिय हुई। अलविदा ....सुरेंद्र भाई..... अलविदा ।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

मुम्बई की हवाओं में अब भी उनकी हँसी गूँजती है- निदा फ़ाज़ली

घर से मस्जिद है बड़ी दूर चलो यों कर लें 
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए 
बच्चों में प्रभु मूर्ति देखने वाले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली को किसी कौम या संप्रदाय में नहीं बांटा जा सकता। वैसे भी शायर शायर होता है।जाति न पूछो साधु की...... लेखक साधु ही तो होता है। क्योंकि वह खुद को भूल कर दुनिया की सोचता है ।
राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित विजय वर्मा  कथा सम्मान की शुरूआत निदा फाजली की अध्यक्षता में हुई थी।सर्वविदित है यह पुरस्कार मैं और डॉ प्रमिला वर्मा अपने बड़े भाई( 48 वर्षीय )स्वर्गीय विजय वर्मा पत्रकार ,लेखक ,संपादक,नाट्यकर्मी आवाज़ की दुनिया के जाने माने कलाकार की स्मृति में पिछले 1998 से हर साल आयोजित करते हैं । कार्यक्रम के पश्चात गेट-टुगैदर के दौरान उन्होंने अपने शेर को सुनाते हुए कहा था कि जब उन्होंने पाकिस्तान में एक मुशायरे में यह शेर सुनाया तो कट्टरपंथी मुल्लाओं ने हंगामा खड़ा कर दिया कि क्या आप बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं। मैंने कहा-" मैं तो बस इतना जानता हूं कि मस्जिद इंसान बनाता है और बच्चे अल्लाह बनाता है।"
निदा फ़ाज़ली जी से मेरी वह पहली मुलाकात कब अंतरंगता में बदल गई पता ही नहीं चला ।
बेहद खुश मिजाज, हमेशा मुस्कुराते हुए नजर आने वाले निदा साहब पान के बहुत शौकीन थे ।पान के बिना उनकी शख्सियत अधूरी सी लगती थी ।अंतर्राष्ट्रीय विश्व मैत्री मंच के कवि सम्मेलन का वाकया है ,जहां वे मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित थे ।उनके आते ही स्वागत के लिए मीडिया अलर्ट हुआ ।अभी कार्यक्रम शुरू होने में देर थी ।उन्हें मेहमानों के कमरे में बिठाया गया और मेहमाननवाजी का जिम्मा मुझे सौंपा गया। उन्हें बैठाकर मैं चाय नाश्ते का ऑर्डर देने बाहर गई ।लौटी तो देखा वे गायब .....कहां गए .....तलाश जारी ......सब ने उन्हें आते देखा पर आते किसी ने नहीं। कहां गए ....और सब की तलाश के बावजूद उनकी अनुपस्थिति में कार्यक्रम संपन्न हुआ। दूसरे दिन अखबार में प्रकाशित न्यूज़ देखकर उन्होंने मुझे फोन किया-" मुआफ़ी चाहता हूं संतोष, कल पान की तलाश में भटकते भटकते जाने कहां पहुंच गया। और दिमाग से एक दम ही निकल गया कि मैं तो कार्यक्रम के लिए आया था।" फिर देर तक उनके ठहाके फोन पर गूंजते रहे।
उन दिनों मुम्बई में मैं एक आशियाने की तलाश में थी। निदा साहब ने सुना तो बोले -"परेशान क्यों हो रही हो ,मीरा रोड के मेरे फ्लैट में रहो जा कर ,खाली पड़ा है ।"फिर उदास हो गए " जानता हूं नहीं रहोगी तुम मीरा रोड में ।"
हां मीरा रोड अब मेरी यादो की किताब में महज़ एक काला पन्ना बन कर रह गया है ।कितने अरमानों से हेमन्त की पसंद का फ्लैट खरीदा था वहां। मैं सपने बुनने लगी थी। ये वाला बेड रूम हेमन्त की शादी के बाद उसे दूंगी। वह चित्रकार है अपनी पसंद से सजाएगा ।पर ऐसा हो न सका और मेरा इकलौता बेटा हेमंत असमय काल कवलित हो गया। ओने पौने दामों में फ्लैट बेच दिया था मैंने ।मान लिया था हेमन्त के साथ मैं भी दफन हो गई हूं ।निदा साहब ने समझाया "कलम को सच्चा साथी समझो संतोष, तुम्हें पता है मेरी माशूका की मौत ने मुझे शायर बनाया "।चौक पड़ी थी मैं ।वे बताने लगे-" कॉलेज में मेरे आगे की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी ।बहुत अच्छी लगती थी वह मुझे। मुझे उससे इकतरफ़ा इश्क हो गया ।एक दिन नोटिस बोर्ड पर लिखा देखा "मिस टंडन का निधन रोड एक्सीडेंट में हो गया। "
मैंने गमजदा हो कलम उठाई और उस कलम को पुख्ता किया। सूरदास के भजन ने" मधुबन तुम क्यों रहत हरे विरह वियोग श्याम सुंदर के हारे क्यों न जरे "ने मेरी कलम में आग भर दी और आज तुम्हारे सामने हूं। तुम भी कलम को अपनी ताकत बनाओ। "
उनके शब्दों ने जादू जैसा असर किया मुझ पर और अपनी कलम का सहारा ले मैंने हेमंत की मां की राख बटोरी और लेखिका संतोष को पूरे हौसले से खड़ा कर लिया।
निदा फ़ाज़ली यारों के यार थे। दोस्ती निभाना जानते थे। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर पर इतने सीधे सरल कि उनसे मुलाकात यादगार बन जाती। वे दोस्तों के चेहरे के हर भाव पढ़ लेते थे इसीलिए वे हर दिल अजीज थे। वैसे तो वे फाजिला के थे जो कश्मीर का एक इलाका है पर ग्वालियर में रहने के बाद मुंबई आ कर बस गए थे ।उनके माता-पिता जो सांप्रदायिक दंगों से तंग आकर पाकिस्तान चले गए थे उनका नाम रखा मुक्तदा हसन लेकिन उन्होंने निदा और अपने इलाके के फाजिला से खुद को निदा फ़ाज़ली कहलाना ज्यादा पसंद किया। निदा का अर्थ है स्वर, आवाज ।अद्भुत शख्सियत थी उनकी। उनके पिता की मृत्यु हुई तो वे उनके जनाजे में शामिल नहीं हुए और उन्हें काव्यात्मक श्रद्धांजलि दी।
तुम्हारी कब्र पर
मैं फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
 मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
 तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
 वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता,
 हवा में गिर के टूटा था ।
मेरी आँखे तुम्हारी मंज़रो मे कैद है
 अब तक मैं जो भी देखता हूँ,
 सोचता हूँ वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी
और बद-नामी की दुनिया थी ।
 कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में
 सांस लेते हैं,
 मैं लिखने के लिये
 जब भी कागज कलम उठाता हूं,
 तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
 बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
 मेरी आवाज में छुपकर
तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम |
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
 वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
 तुम्हारी कब्र में मैं दफन
तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना | 
फिल्मों में एक से बढ़कर एक लाजवाब ,चुटीले गीत जैसे कि 
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता 
होश वालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज है 
तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है 
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए 
लिखने वाले निदा साहब मेरा फोन उठाते ही अपनी ताजा गजल ,कोई गीत या दोहा सुनाकर कहते -"देखो तुम्हारे लिए लिखा है।"
मैं भी सहजता से कहती-" और किस-किस से ऐसा कहा आपने ?"
फिर वही ठहाका -'जासूस हो क्या "
उन्होंने गायिका मालती जी से विवाह किया था और सालों बाद उनके घर उनकी बिटिया तहरीर ने जन्म लिया था। मैं बधाई देने घर पहुंची तो मालती जी से बोले-' "पंडिताइन आई है इसके लिए चाय के साथ घास फूस ले आओ ।"और खुद ही ठहाका लगाने लगे।
8 फरवरी 2016 की वह मनहूस दोपहर ,मैं एक मुशायरे में भाग लेने ट्रेन से चेंबूर जा रही थी तभी मालती जी का मैसेज आया --"निदा साहब नहीं रहे ।दिल का दौरा पड़ने से ....आगे के शब्द धुआँ धुआँ हो गए ।खबर बेतार के तार सी सब ओर फैल गई। "निदा साहब ,आपके जाने से मुम्बई सूनी हो गई। लगता है जैसे मुंबई में अब कुछ रह नहीं गया ।
उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम ना था 
सारा घर ले गया घर छोड़ कर जाने वाला
संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से

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बुधवार, 21 जून 2023

शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार (कृष्णा सोबती)


बात उन दिनों की है जब मैं दिल्ली में कृष्णा सोबती जी से मिली थी। उनसे मिलना एक आत्मीयता में बंध जाना था। वे पूछ रही थीं-" क्या लिख रही हो आजकल?" मन हुआ कहूं ,पीछे छूट गए रास्तों को ढूंढ रही हूं ।

अतीत ही तो है जो परछाई की तरह पीछा करता है। जब उस अतीत को याद कर कलम उठाती हूँ तो कभी मित्रो, कभी बालो ,कभी जया ,कभी रतिका...... उनकी रचनाओं के पात्र मेरे मन को  झंझोड़ते रहते हैं।

उनका उपन्यास "मित्रो मरजानी" एक ऐसा उपन्यास है जिसने प्रकाशित होते ही कई सवाल खड़े कर दिए ।नायिका मित्रो ने एक विवादास्पद नारी चरित्र की तरह हिंदी साहित्य में प्रवेश किया कि पूरे शिक्षित समाज में इसके प्रति एक जिज्ञासा जागृत हो गई ।यह न टैगोर की ओस जैसी नारी थी न शरतचन्द्र या जैनेंद्र कुमार की विद्रोहिणी नारी ।इसे आदर्श का कोई मोह न था ।न समाज का भय न ईश्वर का ।इसीलिए मित्रो हमें चौकाती है, डराती है क्योंकि वह खुलकर वह सब कहती है जिसे आम और खास लड़कियां कहते डरती हैं।

"सूरजमुखी अंधेरे के "उपन्यास एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसके फटे बचपन ने उसके सहज भोलेपन को असमय चाक कर दिया और उसके तन मन के गिर्द दुश्मनी की कटीली बाड़ खेंच दी। अंदर और बाहर की दोहरी लड़ाई लड़ती नायिका रत्ती का जीवन वृत्त चाहत और जीवट भरे संघर्ष का दस्तावेज है ।बचपन में रत्ती यानी  रतिका बलात्कार की शिकार होती है ।यह घटना एक गांठ की तरह उसके मन में जड़ जाती है। बड़ी होते-होते यह गांठ उसके भीतर चल रहे युद्ध में उसे कई मोर्चों पर तैनात कर देती है । पुरुष के प्रति वह हीन भावना से ग्रसित है।

वह पुरुष के द्वारा ही तो समाज में लांछित की गई ।शारीरिक अत्याचार के कटु अनुभव से गुजरी रतिका अपनी आंखों में दाम्पत्य जीवन की मधुर तस्वीर भी सँजोए  है ।वह मां बनने को भी आतुर है। रीमा के घर परिवार का भरापूरा ऊष्मा से भरा माहौल उसे बेचैन कर देता है ।आखिर वह भी तो एक स्त्री है। ये कामनाएं पालना स्वाभाविक ही है ।एक खास उम्र के बाद औरत इस अकेलेपन को महसूस करती है ।वह अकेलापन रतिका को भी परेशान करता है।

इन दोनों उपन्यासों का जिक्र करते हुए मैं कह सकती हूं कि उनकी लेखनी शब्दों की मानसिकता से नहीं खेलती शब्दों की आत्मा से साक्षात्कार करती चलती है और इसीलिए असीमित प्रभाव की सृष्टि करने में सक्षम है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।अपनी रचना यात्रा के दौरान उन्होंने लगभग हर मोड़ पर कोई न कोई सुखद विस्मय  दिया है। "डार से बिछुड़ी "से लेकर "सूरजमुखी अंधेरे के" तक एक से एक सधी कृतियाँ ।

"हम हशमत "के जीवंत आलेख और औपन्यासिक संरचना शिल्प का नया प्रतिमान "जिंदगीनामा।" जिंदगीनामा तक आते-आते उनकी रचना बगिया के अंकुरित बीज जमीन से सिर उठा विशाल वृक्ष बन गए हैं।

 विद्रोही तेवर, खुले आसमान में अपने परों को पसारने ,आंधियो  से लड़ने की ताकत रखने वाली उनकी कहानियों के महिला चरित्र आज समाज के सामने चुनौती हैं। जो घर की चौखट पार न कर सकने की मजबूरी को धता बता रहे हैं।

उनसे मेरी पहली और आखिरी मुलाकात में चाय पीते हुए वे कहती हैं -" तुम्हारा लेखन जैसे मेरी लेखनी का वारिस है। "

मैं कहती हूं -"कृष्णा दी, मैं हर बार अपनी लेखनी के जरिए आपके लेखन ही से तो रूबरू होती हूँ।" 

- संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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मंगलवार, 20 जून 2023

पद्मश्री रमेश चंद्र शाह से मुलाकात

मुंबई में 38 वर्ष के मेरे निवास के दौरान दिव्या जैन से दोस्ती बहुत मायने रखती है दिव्या का पूरा परिवार ही साहित्य से जुड़ा रहा। पिता वीरेंद्र कुमार जैन पहले भारती और फिर नवनीत पत्रिका के संपादक रहे ।दिव्या स्वयं पत्रकार है। अंतरंग संगिनी नामक महिला पत्रिका की संपादक और उसकी कवयित्री, कथाकार बड़ी बहन ज्योत्सना मिलन और क्योंकि बाद में यह परिवार रमेश चंद्र शाह का ससुराल हुआ तो मुलाकातें प्रगाढ़ता में बदलती गईं।
जेजेटी यूनिवर्सिटी मुंबई में शोध प्रबंधक के पद से सेवानिवृत होकर मैंने भोपाल को शेष जीवन निवास के लिए चुना लेकिन तब तक ज्योत्सना दी दुनिया से विदा हो गई थीं।
बहुत समय तक तो दादा रमेश चंद्र शाह  से मिलने की हिम्मत ही नहीं हुई। उनके लिए ज्योत्स्ना दी एक रोमांटिक जुनून था जो उन्हें प्रथम मिलन में ही नितांत उनकी अपनी कृति ,कल्पना सृष्टि सी लगती रही ।हर दृश्य और यथार्थ को लांघ कर उस पर अंततः हावी हो जाती कल्पना सृष्टि मानो कल्पना ही एकमात्र स्थायी सच हो बाकी  यथार्थ नियंत्रण से बाहर।
बातों बातों में बताया दादा ने कि पहली मुलाकात ही उसकी कविता के ज़रिए हुई । यदि वह कविता सामने न पड़ी होती तो हम दोनों एक दूसरे के अस्तित्व से बेखबर कोई दूसरा ही जीवन जी रहे होते।"
"यानी कविता मेघदूत बनकर आई और आपका मन लुभा लिया।  दादा , वह कविता हमें भी सुनाइए।"
"ज्ञानोदय के नवोदित लेखिका विशेषांक में छपी थी वह कविता। सभी  कवयित्रियों की कविता पठनीय। मगर मेरी नजर ज्योत्सना की कविता पर ही जाकर ठहरी।"
अब स्मृति साथ नहीं देती उनका। लेकिन वह कविता तो उनकी स्मृति की शिलालेख हो गई
जब हर दिशा में /अंधकार गहराये थे/ तब मेरी पुतलियों के/ कंदील जल उठे थे/ मूक आलोक छिटक गया था /क्योंकि तुम जा रहे थे/ आज/ अनंत के हर कोने में/ दीप जल उठे हैं /आंखों से छलकते ताल में/ पुतलियों के दो कमल/ काँपकर खिल गए हैं/ क्या/ सच ही तुम लौट आए हो /
और कविता के अंत में छपे पते को देख मैं विस्मय से अवाक रह गया। इस पते पर तो जाने कितनी चिट्ठियां वीरेंद्र जी को लिख चुका हूं। यह कैसा संयोग था कि वयस्क जीवन में जिस पहले साहित्यकार को मैंने अपने इतने निकट पाया ज्योत्सना उन्हीं की पुत्री थी।"
" फिर कैसे उन्हें आप अपनी डिस्कवरी,अपनी खोज बता पाए ?"
"यह काम तो हमारे भाग्य ने किया ।संयोग ने किया ।बड़े विस्मय और उल्लास से बता दिया न अपनी डिस्कवरी को। रहा सहा काम ज्योत्सना के द्वारा मुझे लिखे पत्र ने किया।" और यह बताते हुए उनके चेहरे की खुशी मैं साफ महसूस कर रही थी।
जल्द ही वे ज्योत्स्ना दी से मिले। बार-बार मिलते रहे। उन अक्षर कुंजों में जहां उन दोनों की लेखनी के फूल खिले थे ।उस सुवासित कुंज में मिलते हुए ही उनके जीवन की किताब के कोरे पन्ने भरते गए। विवाह उपरांत रमेश दादा जब ज्योत्सना दी को लेकर अपने पैतृक निवास अल्मोड़ा गए तो यह सोच कर कि उनका परिवार खासकर उनकी माँ  इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं वे ज्योत्सना दी को लेकर चिंतित हो उठे। जानते थे ज्योत्सना दी को बहुत कुछ अनभ्यस्त और विचित्र लगेगा और ऐसा होना लाजमी भी है ।
"मुझे तो मां और ज्योत्सना को एक दूसरे की पसंद का बनाना था ।दोनों ही स्त्रियां, शक्ति का स्वरुप। 3 वर्ष लगे मुझे मां का क्रोध शांत करने में। ज्योत्सना के पक्ष में लाने में। ज्योत्स्ना को भी उनकी अनुकूलता में ढालना था और ऐसा करने में मैं सफल हुआ। मां के लिए नई बहू के तेवर अनपेक्षित थे। धीरे-धीरे उन पर ज्योत्सना का जादू चल गया और देखते ही देखते वह क्या छोटे ,क्या बड़े सबके स्नेह का पात्र बन गई ।यहां तक कि उस बड़े परिवार के रसोई घर में भी उसका प्रवेश हो गया ।"
रमेश दादा ने कभी भी ज्योत्सना दी के किसी भी गुण को दबाया नहीं ।यह वह जमाना था जब स्त्री पितृसत्ता की आंच से पूरी तरह उबर नहीं पाई थी ।घरों में सामंती आदेशों का पालन करते हुए वह अपने मन को घोटते  हुए खत्म तक हो जाती थी। पर रमेश दादा ने ज्योत्सना दी के साथ ऐसा होने नहीं दिया।
रमेश दादा ज्योत्सना दी की यादों में खोए रहते हैं ।जैसे दिन के 24 घंटे आसपास ही हो कहीं ।उनका घर भी ज्योत्सना दी की उपस्थिति दर्ज कराता है। उनसे जिस दिन मिलने का तय था मैं नहीं जा सकी। मेरा ब्लड प्रेशर हाई हो गया था। दूसरे दिन गई तो रास्ता भटक गई ।जब पहुंची तो वे दीवान पर बैठे मेरे लिए चिंतित थे
" एक तो तुम्हारा ब्लड प्रेशर ठीक नहीं फिर भटकती रहीं जाने कहां-कहां" मैं अभिभूत थी उनकी मेरे प्रति आत्मीयता से। मैंने देखा एक साहित्यकार दंपति का ड्राइंग रूम
सादगी भरा......किताबों की खुशबू वाला....... एहसास हो रहा था जैसे अभी ज्योत्सना दी आएंगी..... लेकिन .....बिटिया शंपा तुलसी अदरक की चाय और बिस्किट रख गई ।पिता की देखभाल वही करती है ।सुबह 4:30 बजे उठा कर घुमाने ले जाती है ।चढ़ाई तक गाड़ी से फिर पैदल 2 किलोमीटर आना जाना, 85 की उम्र में। मैंने उन्हें प्रणाम किया
" आप की जिजीविषा को प्रणाम।" "तुम भी स्वास्थ्य पर ध्यान दो। स्वस्थ तन, स्वस्थ मन ।तभी तो एकाग्र चित्त लिख सकोगी। ज्योत्सना इस मामले में बहुत मूडी थी ।वह अपने इस पक्ष को भी बगैर किसी संकोच के तुरंत तत्काल अभिव्यक्त होने देती थी। किंतु उसके अंतर्मन में या कहें स्वभाव में एक ऐसी जबरदस्त उछाल थी कि वह पलक मारते ही किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया से उबर जाती थी। बिल्कुल अल्मोड़े के आसमान की तरह ।जो कभी एकदम नीला निरभ्र होता और कभी एकदम बादलों से घिर जाता और मिनटों के अंदर तड़ातड़ बरस कर फिर उसी पारदर्शी निर्मलता से जगमगा उठता ।अन्याय चाहे वह जिसका भी जिसके भी प्रति हो उसे कतई नागवार था ।उसकी अनदेखी करना उसके प्रति तटस्थ भाव ओढ़ जाना नामुमकिन था। स्वभाव मेरा भी ऐसा ही है। अतः हम मिलकर अन्याय का विरोध करते।"
"आपके कवि पक्ष  से वे कितना जुड़ी थीं जबकि वे स्वयं कवयित्री थीं।"
" जब मैं कक्षा नवमी में था तबसे कविताएं लिख रहा हूं। कविता से ही कलम को विस्तार मिला। उन दिनों अल्मोड़ा से निकलने वाला पहला साप्ताहिक पत्र शक्ति में यह कविता छपी थी ।अब यह मत कहने लगना कि सुनाओ कविता। उपन्यास ,कहानी, ललित निबंध सब विधाओं पर कलम चली। तुम्हारे भी ललित निबंध पढ़े हैं। तसल्ली होती है कि कोई महिला साहित्यकार ललित निबंध भी लिख रही है।"
जी, फागुन का मन मेरा ललित निबंध संग्रह है। डॉ विद्यानिवास मिश्र मुझसे हमेशा कहते थे लिखा करो महिला ललित निबंधकार कम ही हैं ।"
मैं तो ललित निबंध को आत्म निबंध कहता हूं ।बड़ा कठिन होता है इसका सृजन। खुद से मुठभेड़ करना कोई मामूली बात नहीं है। बड़ी दर्दनाक प्रक्रिया है यह सृजन की।  ज्योत्सना कहती थी कि "आप मूलतः कवि ही हैं। अन्य विधाओं में आप नाहक उलझे रहते हैं। "
अब क्या करूं ।मन नहीं मानता। मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि भी तो साहित्य अकादमी पुरस्कार का मिलना है। 78 किताबें लिखने के बाद कहीं जाकर विनायक उपन्यास को साहित्य अकादमी के लिए चुना गया । छह बार साहित्य अकादमी के लिए मेरी किताबें शॉर्टलिस्ट की गईं।
38 साल पहले जब मेरा उपन्यास 'गोबर गणेश' प्रकाशित हुआ था, तब पहली बार मुझे साहित्य अकादमी दिये जाने की चर्चा हुई थी। "
"ये 78 किताबें सभी विधाओं में लिखी होंगी आपने ।"
" हाँ संतोष ,मेरी किताबें कम से कम छह अवसरों पर साहित्य अकादमी के लिये शार्टलिस्ट की गईं, लेकिन मुझे सुख केवल इस बात का है कि जिस 'विनायक' उपन्यास के लिये अंतत: मुझे साहित्य अकादमी मिला, वह मेरे पहले उपन्यास  'गोबर गणेश' का ही विस्तार है।"
"तुमने डायरी पढ़ी  है मेरी  'अकेला मेला'  । उसमें १९८० से ८६ तक की घटनाओं का वर्णन है। 
कई लोगों का कहना है कि इस डायरी को पढ़ते हुए सहसा उन्हें मेरा यात्रा-संस्मरण 'एक लम्बी छांह याद' हो आता है। इंग्लैंड और आयरलैंड के छवि-अंकन से बढ़कर वह पुस्तक एक बौद्धिक सहयात्रा का आनंद देती है। इस डायरी में भी अपने पाठकों को वैसी ही यात्रा पर ले जाने का प्रयास है।
ये वर्ष मेरे लेखन के सबसे महत्वपूर्ण वर्ष सिद्ध हुए। मेरा मन जो इतना खुला और समावेशी है, जो लिखे हुए का प्रभाव ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है और उससे जब-तब जिरह कर कृतज्ञ भी होता है।
सच में लेखन का आनंद ही कुछ और है।"
मेरी पुस्तक जो 18वीं सदी से अब तक की मुंबई का महत्वपूर्ण दस्तावेज है "करवट बदलती सदी आमची मुंबई "के लोकार्पण की अध्यक्षता करते हुए रमेश चंद्र शाह दादा ने कहा था कि " मुंबई मेरी ससुराल है ।कई बार मुंबई जाना हुआ , घूमा भी लेकिन तुम्हारी किताब पढ़कर लगता है अब मुंबई फिर से जाना होगा क्योंकि इस रूप में तो मुंबई को मैंने जाना ही नहीं।"
उनके घर पर हुई मुलाकात के दौरान जब मैंने इस किताब और इस पर दिए उनके उद्बोधन की चर्चा की तो कहने लगे
"मुंबई भारत का सर्वाधिक कॉस्मोपॉलिटन महानगर है । वही कॉस्मोपॉलिटन संस्कार ज्योत्सना के भीतर कहीं गहरे बिंधे हुए थे। यह उसकी कविताओं में स्पष्ट झलकता है ।उसकी छोटी सी कविता है
पैदा होने के दिन से/ हरदम कूदने को /झुका शहर /समुद्र पर । स्वभाव की छोटी-छोटी बातें मुंबई से उसको जोड़े रखती थी। जैसे मुझे अल्मोड़ा से। तुम भी महसूस करती हो न ऐसा। तभी तो लिख सकीं आमची मुंबई ।"
अद्भुत बात है। स्मृति भले ही काफी कुछ अतीत का भूलने का कहती है पर सब कुछ को याद रखने की उनकी मजबूरी भी दिखाई देती है।
शायद उसी रौ में वे बताते रहे
"मुंबई के कॉस्मोपोलिटन संस्कारों की वजह से ही वह जीवन की तमाम तरह की परिस्थितियों परिवेशों को सहज अपना लेती थी। विवाह के बाद मैं सीधी जो विंध्य प्रदेश का सर्वाधिक पिछड़ा इलाका है वहां प्राध्यापक नियुक्त हुआ ।
सीधी तो बिल्कुल अंडमान जैसा, न पार्क, न थिएटर, न सिनेमाघर। कायदे का एक बाजार तक नहीं और तो और हमारा निवास भी एक के भीतर एक धँसे तीन डिब्बा नुमा कमरों का था जहां सुबह शाम चूल्हे सुलगते ही पड़ोसी घरों का सारा धुआं घर के अंदर भर जाता था। बुरादे की अंगीठी से ही अक्सर काम चलाना पड़ता था। ऐसे माहौल में गृहस्थी की शुरुआत, आंखों में ढेर सारे सपने और एक-एक करके गुजरते पूरे 8 वर्ष। लेकिन ज्योत्सना ने खूब साथ दिया। किसी भी असुविधा के लिए उफ नहीं किया। हमारे बीसियों सहकर्मी तो एक डेढ़ बरस में ही तौबा करके चले गए। हम दोनों अपवाद सिद्ध हुए जो बिना किसी शिकायत और कुंठा के मस्त रहे अपने इस अरण्यकांड में ।उसी को अपना राज्याभिषेक मानते रहे। प्रतिदिन प्रातःकाल 3 किलोमीटर स्थित शोणभद्र के दर्शन करना वह भी टेकरी पर चढ़कर हमारा रूटीन था ।उन दिनों अजीब सा नशा था। सप्ताह में 1 दिन घर में संगीत की बैठकी होती जो हमें सप्ताह भर की ऊर्जा जुटा देती ।साल में दो-तीन बार इलाहाबाद के चक्कर लगाते ।इलाहाबाद साहित्यकारों का तीर्थ। खूब मन भी रमता वहां और यह सब संभव होता ज्योत्सना की बदौलत ।सोचता हूं कैसे लांघी होगी मुंबई से सीधी के बीच की दुर्लंघ्य खाईयाँ उसने।
वह तो नौकरी करने की भी जिद करती । वे तंगहाली के दिन थे। मुझे अपने वेतन का एक तिहाई हिस्सा अपने माता-पिता को भेजना पड़ता था ।जिसमें वह मेरा सहयोग करना चाहती थी। पर मैं यह कहकर रोक देता कि क्या घर चलाने की आठों प्रहर की नौकरी कम है जो तुम एक और बोझ अपने सिर पर लादना चाहती हो। थोड़ी सी जो मोहलत तुम्हें नसीब है अपनी अंतरातमिक्चर्या को जीने की उसे भी क्यों गवा देना चाहती हो।"
इस घटना के 20 बरस बाद जब वे भोपाल स्थानांतरित हुए तब वह दिन भी आया जब सेवा संस्था की संस्थापक और विश्व प्रसिद्ध समाज सेवी इलाबेन भट्ट भोपाल पधारीं और उन्होंने अपने पाक्षिक मुखपत्र अनुसूया को हिंदी में निकालने संपादित करने का प्रस्ताव ज्योत्सना के सामने रखा। यही तो चाहती थी वह। लिहाजा वह जुट गई इलाबेन के साथ विभिन्न कार्यों में।
उसने इला भट्ट के ऐतिहासिक उपन्यास ‘लॉरी युद्ध’ का हिंदी अनुवाद किया, साथ ही उनकी स्त्री-चिंतन की पुस्तक का अनुवाद ‘हम सविता’ नाम से किया।
अनुसूया ज्योत्सना के जीवन में उतने ही महत्व की जगह घेरी रही जितनी उसकी कविता और कहानी। स्वरोजगार स्त्रियों को समर्पित यह भारत ही क्या विश्व भर की इकलौती अनूठी संस्था और उसकी गतिविधियों में ज्योत्सना सहर्ष रमी रहती। यह सच्चे अर्थों में सेवा थी। इला बेन उसकी प्रेरणा स्रोत थीं। उसका अंतरंग संबंध इंदौर ,लखनऊ, भागलपुर इत्यादि तमाम सेवा केंद्रों में कार्यरत स्त्री शक्ति के प्रतिनिधियों से रहा।
यह सिलसिला चलता रहता , अगर इंदौर से लौटना उसके लिए अंतिम सिद्ध न होता।
"अंतिम !वो कैसे ?"
"नहीं संतोष, मत पूछो ।उस तकलीफ से मैं प्रतिदिन गुजरता हूं।वह स्मृति नहीं कृति है मेरी, शिलालेख जो मेरे हृदय में अंकित है। भोपाल के चिरायु में उसने अंतिम सांस ली ।क्या इससे भी अधिक वाहियात और विडंबना पूर्ण किसी अस्पताल का नाम हो सकता है ।उसकी अचेतन जीवन यात्रा 3 दिन 3 रात का सफर तय कर हमेशा के लिए लुप्त हो गई। मेरी अर्द्ध विक्षिप्त हुई चेतना पर उसकी कविताओं की दस्तक मेरी कलम को विस्तार देती रहती है।"
मैंने उनसे विदा ली तो गहराती शाम में इस महान लेखक का, महान प्रेमी का ,अपनी सहचरी के महान सहचर का बड़ा सा सितारा जगमगाते पाया।


 - संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से

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गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

वह शाम मेरी यादों में अक्स है


जब मैं जबलपुर से मुंबई पहुँची तो मुंबई की हवाओं में कला और साहित्य का नशा था। निश्चय ही वह साहित्य का मुंबई के लिए स्वर्ण युग था। एक ओर प्रगतिशील आंदोलन, इप्टा और ट्रेड यूनियन आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था ,तो दूसरी ओर कई नामी-गिरामी लेखक फिल्मों में गीत और संवाद लिखने को विभिन्न प्रदेशों से जुट आए थे। यहाँ टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप अपने चरम पर था। जहाँ से निकलने वाली पत्रिकाएँ धर्मयुग , सारिका ,माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली, पराग ,चंदामामा ,नंदन से मुंबई की एक अलग पहचान बनती थी ।पृथ्वी थियेटर ,तेजपाल थिएटर, रंगशारदा में खेले गए तुगलक हयवदन, सखाराम बाईंडर, मी नाथूराम गोडसे बोलतो जैसे नाटक शो पे शो किए जा रहे थे।  मुझे इन सब के बीच अपनी जगह बनानी थी।             मैं टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग में बिना किसी अपॉइंटमेंट के संपादक धर्मवीर भारती से मिलने गई। अपने नाम की स्लिप केबिन में भिजवा कर बाहर इंतजार करने लगी। ऑफिस का माहौल शांत था। मनमोहन सरल, शशि कपूर , रूमा भादुड़ी, सुमन सरीन सब अपने-अपने कामों में व्यस्त। लकड़ी के पार्टीशन से लगा माधुरी का ऑफिस ,सामने सारिका का। थोड़ा हटकर नंदन ,पराग बाल पत्रिकाओं का। ऑफिस में मुझे बैठे 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि भारती जी के केबिन से बुलावा आ गया। सिगार सुलगाती हुई भव्य आकृति ।

" आईए संतोष जी ,बैठिए ।"

"जी मैं जबलपुर से अब यहीं रहने आ गई हूँ।"

"अच्छा किसी नौकरी के सिलसिले में?"

तभी चपरासी चाय और पानी लाकर रख गया ।

"चाय लीजिए, छापा है हमने आपको।"

" जी नौकरी नहीं पत्रकारिता करने आई हूँ। "मैंने झिझकते हुए कहा।

" बड़ी कठिन राह है पत्रकारिता की। बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"

मुझे लगा कि वह समझ रहे हैं मैं उनसे काम माँगने आई हूँ।

" जी पहले समझ तो लूँ। अभी तो पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी पत्रकारिता की।"

वे मुस्कुराए फिर सूरज का सातवाँ घोड़ा पुस्तक मुझे भेंट की। मैंने इजाज़त चाही। वे उठकर केबिन के बाहर तक मुझे छोड़ने आए।

भारतीजी जितने अच्छे साहित्यकार थे उतने ही अच्छे संपादक भी थे। मैं यह बात निजी अनुभव से कह सकती हूँ कि उन्होंने देश भर में हजारों लेखकों को मांजा है, संवारा है, और पहचान दी है। उनके लिखे पोस्टकार्ड आज भी मेरी धरोहर है।

धीरे - धीरे मेरे दोस्तों की सूची में संपादक ,पत्रकार जुड़ते गए। मनमोहन सरल, सुमंत मिश्र, विमल मिश्र, आलोक श्रीवास्तव, आलोक भट्टाचार्य ,कैलाश सेंगर ,सुमन सरीन, रूमा भादुरी, शशि कपूर एक ऐसा समूह तैयार होता गया जिससे एक दिन भी न मिलना बड़ा शून्य रच देता।

अभिभूत थी मैं। मुम्बई अजनबी नहीं लग रही थी। कितने अपनों से भरी है मुम्बई।

नवभारत टाइम्स में मैं लगातार लिखने लगी। पहले छिटपुट लेख फिर विश्वनाथ जी ने मुझसे मानुषी कॉलम लिखवाना शुरू किया। डेस्कवर्क मैं करना नहीं चाहती थी, मेरा मन फ्रीलांस में ही लगता था । दूसरे हेमंत भी बहुत छोटा था और उसको मैं अधिक समय तक अकेला नहीं छोड़ सकती थी। 

फिर न जाने क्या सनक चढ़ी संतोष वर्मा नाम बदलकर शादी के बाद का सरनेम संतोष श्रीवास्तव लिखना शुरू किया। इस खबर को भारती जी ने धर्मयुग में छापा। शुभचिंतकों ने इस बात पर विरोध प्रकट किया" यह क्या किया सरनेम बदलने की क्या जरूरत थी? अपनी पहचान खुद मिटा रही हो।"

"पहचान बरकरार रहेगी, मैं संतोष वर्मा को मिटने नहीं दूंगी ।" 


भारती जी ने धर्मयुग में कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा। इस कॉलम में मनोरोग से पीड़ित बच्चों की केस हिस्ट्री ,चिकित्सकों से पूछ कर उसका बाल मनोरोग व्रत और निदान भी लिखना था। तब धर्मयुग साप्ताहिक था और यह कॉलम हर पखवाड़े प्रकाशित करने की उनकी योजना थी।

इस कॉलम के लिए जानकारी जुटाना बहुत भागदौड़ से संभव हुआ। मुझे मनश्चिकित्सकों से अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था और फिर उनके संग तीन-चार घंटे बैठकर केस हिस्ट्री आदि जानने की व्यस्तता शुरू हो गई। मेहनत ज़रूर करनी पड़ी लेकिन कॉलम बहुत ज्यादा चर्चित हुआ। बच्चों का यह कॉलम दो साल तक लिखा मैंने। इस कॉलम के बाद भारती जी ने मनोरोगी औरतों के बारे में भी मुझसे अंतरंग नाम से कॉलम लिखवाया। इस कॉलम के लेखन के दौरान मैं आश्चर्यचकित कर देने वाले और मर्मान्तक अनुभवों से गुजरी। मुझे एहसास हुआ कि एक स्त्री को मनोरोगी बनाने में जितना परिवेश ज़िम्मेदार है उससे कहीं अधिक पति, पिता ,भाई, बेटा और अन्य मर्द से संबंधित रिश्ते जिम्मेवार हैं। इस पीड़ा ने भीतर तक मुझे कुरेदा और मैं नारी विषयक लेख यथा 

अत्याचार को चुनौती समझें 

क्यों सहती है औरत इतने अत्याचार पितृसत्ता को बदलना होगा 

आदि शीर्षकों से लिखने लगी जिन्हें धर्मयुग, नवभारत टाइम्स ने तो खूब छापा ही ।

नई दिल्ली के "भारत भारती" द्वारा तथा "युगवार्ता त्रि साप्ताहिक प्रसंग लेख सेवा" द्वारा देश भर के अखबारों में भी प्रकाशित किए गए ।मानुषी और अंतरंग तथा बाल अंतरंग स्तंभों ने मुझे पत्रकार के रूप में मुंबई में प्रतिष्ठित कर दिया । और इस बात का पूरा श्रेय भारती जी को जाता है। उन्हीं ने मुझसे कहा कि एक बार विश्वनाथ सचदेव से भी मिल लो। विश्वनाथ सचदेव जी से मुलाकात अविस्मरणीय थी। बहुत सरल और भव्य उनका व्यक्तित्व था। नवभारत टाइम्स में मेरी कई कहानियाँ प्रकाशित कीं और नारी विषयक लेख उन्होंने मुझसे लिखवाए। फिर एक कॉलम दिया मानुषी जिसमें मैं हर पखवाड़े लगातार लिखती रही। यह कॉलम भी दो ढाई साल चला।

मुंबई में मुझे स्थायित्व मिल चुका था और मैं लगातार फ्रीलांस पत्रकारिता करने लगी। 


भारती जी के संपादन में धर्मयुग में बहुत महत्वपूर्ण विषयों पर परिचर्चाएं आयोजित की जाती थीं। मुझे याद है एक परिचर्चा का विषय था "अब मैं बता सकती हूँ।" जो केवल महिला लेखकों के लिए था। मेरे विचार भी इस परिचर्चा में मेरी फोटो सहित प्रकाशित किए गए। मुझे लगता है इस परिचर्चा का उद्देश्य बरसों से महिलाओं की खामोशी को तोड़ना था कि वे खुलकर नहीं बता पा रही थीं कि वे किन परिस्थितियों से गुज़री हैं ।

एक और परिचर्चा आयोजित की गई "वह क्षण जिसने जीवन को नया मोड़ दिया "इस परिचर्चा में भी मैंने भाग लिया था। और स्वीकार किया था कि एडवोकेट बनते- बनते मैं साहित्यकार बन बैठी।

"पति पत्नी और वो "इस विषय पर भी धर्मयुग में परिचर्चा आयोजित की गई थी। हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। फिर चाहे वह दूसरी स्त्री ही क्यों न हो ।इस विषय पर बहुत काम हुआ। लेखकों ने कई कहानियां लिखी तथा कई साझा संकलन भी निकले।

धर्मयुग को लोकप्रिय बनाने में ऐसे विषय बहुत सहायक थे।

धर्मयुग में ही यह बात उठाई गई थी कि जब सभी क्षेत्रों में रैंकिंग होती है तो साहित्य में रैंकिंग क्यों नहीं होती और यह कार्य इन दिनों बखूबी निभा रही है राजस्थान की संस्था राही रैंकिंग। हालाँकि साहित्यिक रैंकिंग का यह कार्य भारती जी के निधन के बाद 2014 से आरंभ हुआ लेकिन अब यह खूब लोकप्रिय हो रहा है।

भारती जी के संपादन काल में मेरी 8 कहानियाँ धर्मयुग में छपी।

    मेरे उपन्यास " टेम्स की सरगम" का लोकार्पण पुष्पा भारती जी के हाथों हुआ था। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि इस उपन्यास में जिस प्रेम का संतोष ने वर्णन किया है उस प्रेम से मैं भारती जी को लेकर गुजर चुकी हूँ। संतोष, कैसे लिखा तुमने यह सच्चा ,उदात्त समर्पित प्रेम। पुष्पा जी के इस पूरे वक्तव्य को समीक्षा के नाम से हंस में राजेंद्र यादव जी ने प्रकाशित किया था।

कांता भारती द्वारा लिखित रेत की मछली को पढ़कर कई लेखक भारती जी के विरोधी हो गए थे। लेकिन मैं यह कहना चाहूंगी कि उन्होंने पुष्पा भारती जी से सच्चा प्रेम किया और उसे किसी से  छुपाया नहीं। इस बात के गवाह हैं वे प्रेम पत्र जो उन्होंने पुष्पा भारती के नाम "धर्मवीर भारती के पत्र पुष्पा भारती के नाम "पुस्तक में प्रकाशित कर सरेआम किए हैं।

इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ में लिखा गया है कि ये पत्र एक ऐसे कालजयी रचनाकार के अंतरंग का आलोक है जिसने भारतीय साहित्य को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं ।ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा से आप्लावित हैं। इन पत्रों में प्रेम की अनेकायामिता अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान निर्मित करती है। यही कारण है कि ये पत्र दैनंदिन जीवन का व्यक्तिगत लेखा-जोखा मात्र हैं। "संबोधित "के प्रति समग्र समर्पण और उसके हित चिंतक की प्रेमिल पराकाष्ठा इनकी विशेषता है।

भारती जी न जाने कितने विशेषण से उन्हें पुकारते हैं। मेरी एकमात्र अंतरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि ,मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई -के लिए ये पत्र लिखे गए हैं। इस प्रक्रिया में जीवन , साहित्य ,दर्शन व मनोविज्ञान आदि के अनेकानेक पक्ष इस प्रकार उद्घाटित होते हैं कि पाठक का मन अलौकिक ज्ञान आनंद से भर जाता है ।विलक्षण रचनाकार धर्मवीर भारती के इन पत्रों को जिस प्रीति प्रतीति के साथ पुष्पा भारती ने संजोया है वह भी उल्लेखनीय है। यह भी कहना उचित है कि भारतीय साहित्य को समझने में इन पत्रों से एक नया झरोखा खुल सकेगा। 


भारती जी की उनकी पहली पत्नी का नाम कांता था और उनसे उनके एक बेटी भी थी

लेकिन उनके संबंध अच्छे नहीं थे। भारती जी से अपने संबंधों का हवाला देते हुए कांता भारती ने एक किताब लिखी थी " रेत की मछली" जिसे उनकी आत्मकथा भी कहा जाता है।

“रेत की मछली” पढकर मैं अपने प्रिय रचनाकार को कटघरे में पाती हूं। इतनी प्रेमिल भावनाओं के भारती जी ने कांता भारती के संग क्यों ऐसा व्यवहार किया? क्यों उन्हें टॉर्चर किया ? वे चाहते तो उन्हें तलाक देकर मुक्त हो सकते थे। और कांता जी को भी मुक्त कर सकते थे। पर........ 


मैंने धर्मयुग में उनका एक संस्मरण पढ़ा था जो उन्होंने लोहिया जी पर लिखा था। इस संस्मरण में उन्होंने लिखा था कि पुष्पा जी से अपने दूसरे विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने लगभग समस्त परिचितों और आदरणीयों से सलाह चाही थी किंतु किसी ने भी खुल कर उनका समर्थन नहीं किया था। किंतु जब उन्होंने लोहिया जी से इस विषय में

सलाह मांगी तब उनकी सहमति ने उन्हें बल दिया था और वे पुष्पा जी से विवाह के लिए तैयार हो गए थे।

कहा जाता है कि ‘कनुप्रिया’ रचने की प्रेरणा भारती जी को अपने निजी जीवन में उठे द्वन्द और उसे हल करने के प्रयासों से प्राप्त जीवन अनुभवों से मिली। मुम्बई आने से पहले वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे और पुष्पा भारती उनकी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़कियों में से एक थीं। पूर्व विवाहित भारती जी को उनके रूप और इस आकर्षण को मिले प्रतिदान ने द्वन्द में डाल दिया था।

पुष्पा भारती से विवाह करने के विचार पर नैतिकतावादी भारती गहरे द्वन्द से घिरे रहे पर अंततः उनका प्रेम जीता और उन्होंने अपनी छात्रा पुष्पा जी से विवाह कर लिया।

उनसे प्रथम मुलाक़ात में मुझे जो अपना उपन्यास  सूरज का सातवाँ घोड़ा भेंट किया था उसे कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी। अंधायुग उनका प्रसिद्ध नाटक है। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।

कनुप्रिया और अंधायुग उनकी कालजयी कृतियां हैं जिन्हें भारती जी के जाने के बाद उनके जन्मदिन पर मुम्बई के नाट्यकर्मी पुष्पा भारती जी के निर्देशन में हर वर्ष 25 दिसंबर को मंचित करते हैं।

कनुप्रिया की मेरी सबसे पसंदीदा पंक्तियां हैं

मेरे हर बावलेपन पर

कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस कर

तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर

बेसुध कर देते हो

उस सुख को मैं छोड़ूँ क्यों?

करूँगी!

बार-बार नादानी करूँगी

तुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो हूँ न!

1971 में बांग्ला देश में  भारत पाकिस्तान युद्ध की रोमांचक एवं लोमहर्षक दास्तान भारती जी की कलम से रिपोर्ताज के रूप में लिखी गई जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित की गई। ऐसा माना जाता है कि युद्ध का आँखों देखा वर्णन रिपोर्ताज के रूप में विश्व साहित्य में पहली बार भारती जी ने लिखा। इस किताब का नाम है युद्ध यात्रा (बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और भारत पाक युद्ध की आंखों देखी रिपोर्ट)

युद्ध के मैदान में वीर सैनिकों तथा सैनिक अफसरों के साथ स्वयं  भारती जी उपस्थित रहे हैं। भारती जी जब बांग्लादेश से मुम्बई लौटे तो मैं उनसे मिलने उनके घर गई। इच्छुक थी उनसे आंखों देखा हाल सुनने। उनकी खूबसूरत साज सज्जा वाली बैठक में पुष्पा भारती जी के सान्निध्य में युद्ध का वर्णन सुनकर मैं विचलित हो गई थी बड़ी देर तक हम बांग्लादेश के बारे में बात करते रहे। फिर भारती जी ने मुझे बांग्लादेश की स्पेशल चाय पिलाई। बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण चाय उत्पादक देश है। आज यह दुनिया का 10 वां सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है ।

वह शाम मेरी यादों में अक्स है।

उन दिनों मैं मुम्बई के सांध्य दैनिक संझा लोकस्वामी में साहित्य संपादक थी। 4 सितंबर की सुबह अखबार के संपादक रजनी कांत वर्मा जी का फोन आया कि भारती जी का निधन हो गया है और मैं उन्हें भारती जी के विषय में संपादकीय लिखकर तुरन्त भेजूँ। वैसे तो वे लंबे समय से बीमार थे लेकिन इस तरह दुनिया से रुखसत हो जाएंगे सोचा न था। मैं काफी अपसेट हो गई। लेकिन फिर अखबार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए मैंने लिखा-

कलम के सिपाही का भौतिक संसार से परलोक गमन

हिंदी साहित्य के प्रतिभाशाली कवि, कथाकार व नाटककार डॉ० धर्मवीर भारती अब हमारे बीच नहीं रहे। वे लंबे समय से बीमार थे। उनके जाने से एक बड़ा शून्य साहित्य जगत में उत्पन्न हो गया है। लेकिन वे अपनी कविताओं अपनी रचनाओं से हमारे बीच हमेशा जिंदा रहेंगे। भारती जी की कविताओं में रागतत्व की रमणीयता के साथ बौद्धिक उत्कर्ष की आभा दर्शनीय है। कहानियों और उपन्यासों में इन्होंने सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को उठाते हुए बड़े ही जीवन्त चरित्र प्रस्तुत किए हैं| साथ ही हमारे समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करने की विलक्षण क्षमता भारती जी में रही। कहानी, निबन्ध, उपन्यास, एकांकी, नाटक, आलोचना, सम्पादन व काव्य-सृजन के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण सृजन प्रतिभा का परिचय दिया। वस्तुतः साहित्य की जिस विधा का भी भारती जी ने स्पर्श किया, वही विधा इनका स्पर्श पाकर धन्य हो उठी। 'गुनाहों का देवता' जैसा सशक्त उपन्यास लिखकर भारती जी अमर हो गये। इस उपन्यास पर बनी फिल्म भारतीय दर्शकों में अत्यन्त लोकप्रिय हुई| 

ऐसे प्रतिभाशाली साहित्यकार का निधन साहित्य की एक बड़ी क्षति है।

4 सितंबर 1997 का वह दिन जब भारती जी हमसे विदा हुए......

                   ......….संतोष श्रीवास्तव जी की कलम से


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