राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार "विजय वर्मा कथा सम्मान" जिनकी स्मृति में हर वर्ष दिया जाता है, ऐसे अपने भाई विजय वर्मा की जयंती पर उन्हें याद करते हुए........
लेखक ,चित्रकार ,छायाचित्रकार, पत्रकार, संपादक, अभिनेता और आवाज की दुनिया के जादूगर जिनकी आवाज रेडियो पर जिंगल्स में विज्ञापन में फिल्मों की डबिंग में लगातार गूंजती रहती थी।
जबलपुर से उन दिनों प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी उनकी कहानी "सफर "उनकी गहरी पीड़ा का बयान है ।वह आजन्म पत्रकारिता और मीडिया में संघर्षरत रहे खुद को भूल कर और अपने अंदर के रंगकर्मी और चित्रकार को खफा कर ।मानो उनके दिल का एक कोना दुखों के लिए था जिसमें किसी को प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी और दूसरा उनकी कला से जुड़ा जो सबका था, सबके लिए था ।
अगर इसमें किसी का प्रवेश था तो उनके परम मित्र दूधनाथ सिंह, मलय, ज्ञानरंजन, मदन बावरिया, ललित सुरजन, इंद्रमणि चोपड़ा,विजय चौहान और दिलीप राजपूत ।
जबलपुर में वे ज्यां पाल सात्र का नाटक मैन विदाउट शैडोज का मंचन करने वाले थे। जिसमें उन्हें सौरवियर का किरदार निभाना था। मानो एक यज्ञ संपन्न करना था और उस यज्ञ के लिए विजय भाई को तप करना था। रिहर्सल की कठिन शामें, रातें और मंचन का वह ऐतिहासिक दिन ।शहीद स्मारक हॉल में सन्नाटा छाया था ।विजय भाई की थरथराती आवाज -"मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है ।हमने जिंदगी को मायने देने की कोशिश की। नाकामयाब रहे इसीलिए हम मर रहे हैं।"
संवाद के संग संग चेहरे पर तैरती खौफ की परछाइयां और जब सौरवियर को मौत की सजा होती है, रॉबर्टसन कॉलेज की स्तब्ध छात्रा की सिसकी आज भी मुझे रोमांचित करती है। इस नाटक के बाद कई दिन लगे थे विजय भाई को संभलने में लेकिन उन्हीं दिनों उन्होंने डी एच लॉरेंस और टी एस इलियट की कविताओं का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया था। और जापानी काव्य शैली हाइकु लिख रहे थे ।उनके हाइकु गहरा सन्नाटा खींच देते थे ।उन्होंने क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम को संगठित ही नहीं किया बल्कि अपने कार्य क्षेत्र में स्थानीय भाषा द्वारा शिक्षार्थियों को भी तैयार किया ।उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए उपयुक्त भाषा परीक्षा के भी अनुभव थे।
वैसे विजय भाई ने अपने कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी ।वे नवभारत के जबलपुर शहर संवाददाता और बाद में समाचार संपादक हुए। अनुवादक और संचालक की भूमिका बखूबी निभाते हुए उन्होंने शहर विकास निगम में काम किया साथ ही भोपाल एवं नागपुर से प्रकाशित हितवाद के लिए न्यूज़ बुलेटिन भी तैयार किए ।फिर भी बेचैनी..... जाने किस आसमान को छूने की चाह थी उनमें ।
मैं समूचा आकाश /इस भुजा पर ताबीज की तरह/ बांध लेना चाहता हूँ/ समूचा विश्व होना चाहता हूँ।
चाह बलवती थी। वे शोध सहायक के रूप में बीड़ी मजदूरों के जीवन सामाजिक-आर्थिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर एम ए के शोध प्रबंध पर अनुसंधान करते रहे। बाद के दिनों में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी अमेरिका के भी शोध सहायक (कोऑर्डिनेटर) के रूप में काम करते रहे। भारत में इस संस्था का नाम अमेरिकन पीस कोर था जिसके अंतर्गत वे सघन ग्रामीण क्षेत्रों में हिल टेक्नोलॉजी के द्वारा मौखिक प्रशिक्षण भी देते थे
बेहद गरीब पिछड़े गाँव से लौटे थे वे। बेहद उदास। बताने लगे किसी घुटन्ना नामक गाँव के बारे में ।गरीबी इतनी कि मिट्टी के घड़ों के छेद ,दरारें कपड़ों की थिगलियों से भरी जातीं क्योंकि उनके पास नए घड़े खरीदने के पैसे नहीं थे। विजय भाई ने 25 झोंपड़ों वाले उस गाँव में हर एक के घर नए घड़े भिजवाए। कृषि क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा सुन मैं कांप उठी थी ।उस रात मैंने डायरी में लिखा
"कौन है इस दुर्दशा का जिम्मेदार!! आजाद भारत की यह कैसी परिभाषा!!"
आज सोचती हूँ कि एक व्यक्ति की छोटी सी जिंदगी के इतने आयाम भी हो सकते हैं?
वे अमेरिकन पीस कोर में कोऑर्डिनेटर भी थे।जिसकी अवधि समाप्त होते ही इमरजेंसी लग गई ।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।
चूँकि बाबूजी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन हम लोगों ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं।
लिहाजा विजय भाई पर चारों ओर से दबाव था। क्योंकि जबलपुर के उनके मित्रों का समूह उनके कोलकाता या मुंबई के फैसले से नाखुश था। अपने त्याग और प्रेम से उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे तमाम अव्यवस्थाओं से दुखी रहते थे ।अन्याय उन्हें बर्दाश्त न था ।संपादकीय विभाग में यदि मालिक ने किसी अन्य को प्रताड़ित किया है तो पहला त्यागपत्र उनका होता था। हर सहयोगी का दुख उनका अपना दुख था।
अपनी रचनात्मक बेचैनी सहित आखिर वे मुम्बई आ ही गए ।फिर कितना कुछ घटा। मुंबई में थिएटर से जुड़े ,आवाज़ की दुनिया से जुड़े ,रेडियो और दूरदर्शन से जुड़े। रेडियो में उन दिनों विनोद शर्मा थे। जिन्होंने उनसे रामायण के एपिसोड लिखवाए। मनोहर महाजन ने सेंटोजन की महफिल.......और अन्य रेडियो निदेशकों से जुड़कर उन्होंने प्रगति की कहानी यूनियन बैंक की जवानी ,
पत्थर बोल उठे ,एवरेडी के हम सफर, महाराष्ट्र राज्य लॉटरी का पहला पन्ना और भी जाने क्या-क्या ........टेली फिल्म "राजा " में मुख्य भूमिका की। अमीन सयानी के संग जिंगल लिखे ।इतना कुछ होने के बावजूद आर्थिक संकट ज्यों का त्यों बना रहा। मुंबई के उनके 8 वर्षों का जीवनकाल संघर्ष करते ही बीता ।उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया।
आम आदमी से जुड़ना उनकी फितरत थी। एक रात मुंबई लैब में डबिंग करके जब वे अपनी जेब के चंद सिक्कों को टटोलते इरला ब्रिज से गुजर रहे थे फुटपाथ पर मैली कथडी में लिपटी एक बुढ़िया अपना कटोरा लिए काँपती बैठी थी। उन्होंने उस के कटोरे में अपनी जेब उलट दी और घर आकर खूब रोए । वे सही अर्थों में मार्क्सवादी विचारधारा के थे ।कभी-कभी मुझे लगता देशकाल के परे लेखक सब जगह एक जैसा होता है ।अगर ऐसा न होता तो विजय भाई को सोचते हुए मुझे चेक लेखक मिलान कुंडेरा क्यों याद आते जिन्होंने अपने शहर प्राहा में रहते हुए कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपता को लिखा।
प्यार उन्होंने डूबकर किया था और अपनी प्रेमिका को अपने हाथों दुल्हन बनाकर अमेरिका विदा किया था। कहते हैं प्रेम में आदमी पड़ता है। अंग्रेजी में फॉल इन लव ।तो क्या प्रेम एक ऐसी फिसलन भरी घाटी है जिसमें फिसलते चले जाओ और जिसका कोई अंत नहीं। विजय भाई ने भी प्रेम किया। अपनी प्रेमिका से, अम्मा- बाबूजी से ,मुझसे। मुझसे बहुत ज्यादा प्रेम किया उन्होंने ।मेरे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उन्हें बर्दाश्त न थी। वे मुझे फूल की तरह सहेज कर रखते। उन्होंने प्रेम किया अपने मित्रों से, अपने परिवेश से और अपने हालात से। जिससे उन्हें उम्र भर छुटकारा नहीं मिला ।
30 जनवरी 1984 की सुबह सूरज ने निकलने से मना कर दिया था। चिड़ियों ने चहचहाने से और फूलों ने खिलने से ....... एंटॉप हिल का चौथी मंजिल का विजय भाई का फ्लैट आगन्तुकों से खचाखच भरा था । 29 जनवरी की रात सेंटूर होटल से फ़िल्म की डबिंग करके वे लौट रहे थे ।उन्होंने टैक्सी में बैठ कर सभी भाई बहनों को पोस्टकार्ड लिखे कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में सब मुम्बई आएं ताकि जमकर मस्ती की जाए ,घूमा जाए। और उनकी इच्छा तत्काल फलित। लेकिन सबकी आँखों में आँसू और घर में मौत का सन्नाटा।
30 जनवरी की सुबह 5:45 बजे यह सितारा ऐसे टूटा की आँखें चोंधिया गईं।किसी को समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या ?डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही थी कि अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया।
विजय भाई का शव फूलों से सजाया जा रहा था ।उनके पथराए होठों पर मुस्कुराहट अंकित थी कि हम तो चले, आबाद रहो दुनिया वालों ।
मैं देख रही थी अपने बेहद हैंडसम भाई को उनकी अंतिम यात्रा में और भी खूबसूरत होते। मानो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारा गरल खुद में समाहित कर मृत्युंजय हो अनंत यात्रा पर निकला उनका काफिला...... जिसमें उनके रंगमंच की नायिकाएं हैं। माशा, उर्वशी, वसंतसेना, शकुंतला, एंटीगनी, जूलियट ,डेसडीमोना,सस्सी, लूसी। ऐसी विदाई जैसे इजिप्ट का कोई सम्राट हो।
विजय भाई के निधन से जबलपुर का सारा मित्र वर्ग स्तब्ध था। उनके चित्रकार दोस्त दिलीप राजपूत ने शहीद स्मारक भवन में उनके लिए रखी शोकसभा के दौरान वहीं स्टेज पर आधे घंटे में विजय भाई का चित्र बनाया था जो हाथों हाथ बिका और वह धनराशि विजय भाई पर आश्रित अम्मा को भेंट की गई। केसरवानी महाविद्यालय में जहाँ विजय भाई अंग्रेजी के लेक्चरर थे ,अवकाश रखा गया और मुंबई में सेंटोजन की महफिल का एक एपिसोड मनोहर महाजन ने श्रद्धांजलि स्वरुप रखा...अभी भी जब कभी यह एपिसोड सुनती हूँ जिसमें विजय भाई द्वारा अभिनीत छोटे-छोटे प्रहसन,उनकी हँसी और मनोहर महाजन की शोक संतप्त आवाज..... इस हंसी के इन प्रहसनों के नायक हम सब के लाडले विजय वर्मा अब नहीं रहे...... फिर सन्नाटा और धीमे-धीमे बजता गीत "दिन जो पखेरु होते पिजड़े में मैं रख लेता "तो जीवन की हताशा पर रो पड़ती हूँ ।
दूसरे दिन अखबारों ने प्रमुखता से खबर छापी। मौन हो गया छोटा मुक्तिबोध, तमाम संघर्षों के बीच अलविदा कह गया और एक सपना छोड़ गया हमारी दुनिया बदलने के लिए ।लगभग 2 महीने तक मुंबई की विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं, थिएटर विज्ञापन केंद्र और डबिंग लैब मैं उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं।
जिसने न परिवार बसाया, न दुनियादारी के गुर सीखे ,पर सबका होने का कमाल कर दिखाया ।
संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से
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