ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने गांधी जी पर एक महाकाव्य रचा। उसे लोकार्पण के लिए गांधी जी के पास लेकर गए। गांधी जी ने कहा-जब मैं साल का हो जाऊं तब आना। धर्म युग में महात्मा पर गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी टिप्पणी के साथ लेख छपा-उन्होंने कहा था ,"जब मैं सौ साल का हो जाऊं तब आना, तब समय के पहले पहुंचा था,अब लगता है-समय ही बीत गया।"
यशपाल जी ने ठाकुर भाई की पत्नी से पूछा-भाभी जी आपको ठाकुर भाई की कौन से किताब ज्यादा पसंद है?भाभी माँ ने जवाब दिया-महामानव!
लेकिन क्यों, उसमें ऐसा क्या लगा?
भाभी माँ ने जवाब दिया-उसपर रख कर चिट्ठियां लिखने में आसानी होती है।
आज ठाकुर भाई का जन्म दिन है। मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी उनका दत्तक पुत्र मानते थे। उनके अन्तिम समय तक उनके सुख-दुख का साक्षी भी रहा। निर्वाण से लेकर बनारस में उनकी मूर्ति के लोकार्पण तक। तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने उनकी मूर्ति का लोकार्पण करते हुए कहा था-यहाँ मै राज्यपाल के रूप में नही,अपने बड़े भाई को प्रणाम निवेदित करने आया हूँ।
माध्यम और अट्टहास के संरक्षक ठाकुर भाई को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज मै रामदरश जी का एक स्मृति लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ।
ठाकुर प्रसाद सिंह : वंशी और मादल / रामदरश मिश्र
ठाकुर प्रसाद सिंह अपने समय की नई पीढ़ी के लेखकों में अपना विशेष स्थान रखते थे। उन्होंने ‘महामानव’ नामक प्रबंध काव्य लिखा जो गांधी जी के जीवन पर आधारित है। ‘वंशी और मादल’ उनका विशिष्ट गीत संग्रह है जिसे अत्यंत ख्याति मिली थी। ‘हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए’ नई कविता का काव्य-संग्रह है। ‘कुब्जा सुंदरी’ तथा ‘सात घरों का गाँव’ उपन्यास भी उन्होंने लिखे थे। ‘चौथी पीढ़ी’ उनकी कहानियों का संग्रह है। वे बहुत अच्छे ललित निबंधकार थे। इन्हें हम ठाकुर भाई कहते थे। इनसे मेरी भेंट बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में हुई। तब मैं इंटर में था और ये बी.ए. में थे। वे ईश्वरगंगी मोहल्ले से साइकिल द्वारा बीएचयू आते थे।
एक बार मैं उनके संपर्क में आया तो आता ही गया। उनका साहचर्य बहुत प्रीतिकर एवं खुला हुआ था। उस समय के अनेक नये लेखकों की तरह ठाकुर भाई भी सामान्य परिवार के ही थे किंतु वे पढ़ाई के साथ इधर-उधर कुछ काम भी कर लेते थे ताकि उनके परिवार की रोजी-रोटी चलती रहे।
उन्होंने ‘साहित्यिक संघ’ नामक एक संस्था की निर्मिति भी की थी जिसमें प्रगतिशील चेतना के अनेक छोटे-बड़े साहित्यकार सम्मिलित थे। इस संस्था के माध्यम से अनेक छोटे-बड़े आयोजन हुए। ठाकुर भाई के आग्रह से मैं कई साल तक साहित्यिक संघ का मंत्री बना रहा। ठाकुर में साहित्यिक और सामाजिक दोनों प्रकार की चेतनाओं का विस्तार था। छात्र-काल में बड़े-बड़े साहित्यिक विद्वानों, रचनाकारों का उनका संबंध बन गया था। और वे लोग इनके आमंत्रण पर बनारस आते रहते थे और हम लोगों को भी उनका सानिध्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता रहता था। मेरे साथ उनका संबंध था ही।
मेरे तीन वर्षीय बेटे हेमंत के दोस्त बन गए थे। तब हम लोग बनारस के सिगरा इलाके के भक्ति भवन में रहते थे जोकि बहुत सुनसान इलाका था । जब कोई हमसे मिलने आता था तो हम बहुत सुखी होते थे। ठाकुर भाई आते रहते थे और आते ही हेमंत चिल्ला पड़ता था- चाचा.. आओ और ठाकुर भी जी लपक कर उससे हाथ मिलाते थे। मेज के एक ओर वे बैठते थे और दूसरी ओर हेमंत बैठते थे। और दोनों हाथ मिलाकर हँसते थे। हेमंत सरस्वती जी से कहता था- चाचा के लिए पकौड़ी लाओ मम्मी।
ठाकुर भाई के कोई संतान नहीं थी। उनके साथ उनके चाचा रहते थे और ठाकुर भाई दर्द की हँसी हँसा करते थे। उनका खिलंदड़ व्यक्तित्व हर समय जागरूक रहा करता था कुछ प्रसंग मुझे याद आ रहे हैं।
मेरे एक सहपाठी ने उनसे कहा- भइया। मैं भी कविता करना चाहता हूँ । तो ठाकुर भाई ने कहा- करो। लेकिन कविता दर्द से फूटती हो, कभी दर्द अनुभव किया है? सहपाठी ने कहा- हाँ भइया! एक बार किया था। मैं जब पहली क्लास में था तो मेरी माँ ने स्कूल में नाश्ते के लिए मुझे इकन्नी दी थी वह इकन्नी खो गई थी। मैं बहुत रोया था । ठाकुर भाई ने कहा- दोस्त! इकन्निया दर्द से कविता नहीं बनती।
गौदोलिया पर एक कॉफी हाउस था। कामरेड लोग प्राय: वहाँ आते रहते थे। एक दिन ठाकुर मुझे भी वहाँ ले गए। संयोग से नामवर सिंह भी वहाँ आ गए। नामवर सिंह ने कहा- ठाकुर भाई! चाय पिलवाओ। ठाकुर भाई ने कहा- आप आर्डर दे दो। नामवर ने आर्डर दे दिया। चाय आई और सबने चाय पी । चाय पीकर ठाकुर भाई उठ चले। नामवर के पास भी पैसे तो थे नहीं। वे घबरा गए और हे ठाकुर भाई! हे ठाकुर भाई! कहते उनके पीछे दौड़ चले। ठाकुर भाई ने धीरे-धीरे दौड़ते हुए चौराहा पार किया और जाकर रूक गए। जब नामवर पहुँचे तो उनसे कहा अरे! आर्डर तुमने दिया है न। पर इस मजाक के बाद वे दुकान पर वापिस आए और चाय के पैसे दे दिए।
बाद की बात है जब वे उत्तर प्रदेश मंत्रालय में बड़े अधिकारी बन कर चले गए थे। लखनऊ में गांधी भवन बनाने की योजना थी। इस संदर्भ में कांग्रेसी मंत्रियों और अफसरों की एक बैठक बुलाई गई। प्रस्ताव रखा गया कि पैसा अर्जित करने के लिए अभिनेताओं को बुलाकर एक कार्यक्रम किया जाए। इस पर सभी लोग सहमत हो गए।
तभी ठाकुर ने एक प्रस्ताव रखा कि इस कार्यक्रम में विशेष रूप से हेलेन को बुलाया जाए और उनसे नृत्य कराया जाए। गांधी भवन के सिलसिले में हेलेन का आना बहुत प्रासंगिक होगा। क्योंकि दोनों में बहुत अधिक समानता है। चौंककर कमलापति त्रिपाठी (मुख्यमंत्री) ने पूछा-क्या समानता है ? ठाकुर भाई ने कहा- कि दोनों कम से कम वस्त्र पहनते के हिमायती हैं। हँसी मची किंतु कमलापति ने गंभीर होकर डांटा कि तुम्हें हर समय मजाक ही सूझता है। ठाकुर ने कहा- मजाक मैं कर रहा हूँ कि आप लोग? गांधी भवन का निर्माण अभिनेताओं की मदद से करवा रहे हैं। यह मजाक नहीं है तो और क्या है?
कभी-कभी वे छोटे बच्चों सी शरारत कर दिया करते थे। वे गौदोलिया से बीएचयू रिक्शे से जाया करते था। रिक्शे दो सवारी लेकर चलते थे । रिक्शे पर एक आदमी बैठा हुआ था। दूसरे का इंतजार था। तभी ठाकुर आकर बैठ गए। पहला व्यक्ति एक फ़िल्मी गीत गुनगुनाने लगा गु- जोगन बन जाऊंगी। तभी यकायक ठाकुर भाई ने उसके मुँह से मुँह मिलाकर गाना पूरा किया कि- सैंया तोरे कारन। पहला आदमी एकदम अचकचा गया और रिक्शा छोड़कर भाग गया।
ठाकुर बहुत अच्छे छात्र थे। देश-विदेश का बहुत साहित्य पढ़ा था। उम्मीद थी कि वे एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करेंगे। लेकिन ऐसे छात्र अपनी छेड़-छाड़ से गुरुओं को भी नाराज कर लेते हैं। या परीक्षा में ऐसा कुछ लिख देते हैं जो लीक से हटकर होता है। अत: ठाकुर को प्रथम श्रेणी नहीं मिली और लेक्चरर होने की संभावना समाप्त हो गई। फिर तो इन्होंने बड़ागाँव में स्थित इंटर कॉलेज की प्रिंसीपली कर ली। फिर देवघर विद्यापीठ में आचार्य होकर देवघर चले गए। वहाँ से हटे तो उत्तर प्रदेश सूचना विभाग से जुड़ गए। ठाकुर जहाँ भी रहे, साहित्यिक हलचल मचाए रहे। बड़ागाँव में थे तो वहाँ की कॉलेज पत्रिका को एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका बना दिया और नाम रखा- हमारी पीढ़ी। इसके लिए उन्हें कार्यकारिणी को जवाब देना पड़ा तो पड़ा। वे वहाँ अपनी शर्तों पर प्रिंसीपली करने गए थे,आदेशित होकर नहीं।
उन्होंने ‘गोधूलि’ नामक पत्रिका निकाली जिसमें एक सहयोगी संपादक मैं भी था। उसके दो-तीन अंक निकले लेकिन वे समकालीन रचनाओं की दस्तावेज बन गए। मोहन राकेश की कहानी ‘नये बादल’ सबसे पहले उसी में छपी थी। जहाँ तक मुझे याद है मैंने उसमें त्रिलोचन की ‘धरती’ की समीक्षा लिखी थी।
उत्तर प्रदेश सरकार की ‘ग्राम्या’ जैसी प्रचार पत्रिका उनके हाथ लगी तो उनके हाथ लगते ही वह एक स्पृहणीय साहित्यिक पत्रिका बन गई और ‘त्रिपथगा’ जैसी साहित्यिक पत्रिका (जिसके संपादक कोई और थे) सरकारी तंत्र के बल पर घिसटती हुई चलती रही।
देवघर में वे गए तो वहाँ भी वे केवल आचार्य बनकर कैसे रह सकते थे। एक भव्य कवि सम्मेलन किया जिसमें हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित और नये कवियों ने भाग लिया। अज्ञेय का उसमें शरीक होना बड़ी बात थी। वे कहीं भी रहे हो, साहित्यिक हलचल के बिना रह नहीं सकते थे। तब मैं अहमदाबाद में था। भावनगर में कांग्रेस का अधिवेशन था। ठाकुर भाई उसमें भाग लेने के लिए लखनऊ से आए थे। वहाँ करे क्या? अनजानी जगह, पर साहित्यिक हलचल तो होनी ही चाहिए। वे अधिवेशन के ही किसी काम से अहमदाबाद आए तो मेरे घर आए। और मुझे तथा हेमंत को भावनगर के लिए आमंत्रित कर गए। भावनगर के मेरे साहित्यिक मित्रों के सहयोग से ठाकुर भाई ने शहर में एक साहित्यिक सभा का आयोजन कर दिया जो बहुत प्रभावशाली रहा। उसके सबसे मजेदार बातें यह रही कि ठाकुर भाई ने घोषणा कर दी थी कि मेरे सात वर्षीय पुत्र हेमंत उस सभा के अध्यक्ष हैं। और हेमंत छाती फुलाकर अध्यक्ष पद पर बैठ गए।
ठाकुर भाई के साथ मेरी ऐसी लंबी यात्रा रही है और उनका जीवन इतना पवित्र रहा है कि मैं सोच ही नहीं पाता कि उनकी कौन सी चीज याद करूँ और कौन सी भूलूँ ।
ठाकुर भाई बहुत अच्छे लेखक तो थे ही अच्छे वक्ता भी थे। उनके लेखन में जो सर्जनात्मकता है वहीं उनके वक्तव्यों में भी होती थी। बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों का संचालन वे इस कौशल से करते थे कि श्रोता समूह अनुशासित रहता था। उनके भाषणों में 'विट' और ह्यूमर भी हुआ करता था। उनके एक कवि सम्मेलन संचालन की याद आ रही है। कवि सम्मेलन वाराणसी के क्वींस कॉलेज के सभागार में था। ठाकुर भाई संचालन कर रहे थे। उनके पास बैठे उन्हीं के मोहल्ले के एक कवि बार-बार किता सुनाने का आग्रह कर रहे थे। ठाकुर भाई ने कहा कि देखों भाई। यहाँ संभ्रांत परिवारों की महिलाएँ उपस्थित हैं और तुम्हारी कविताएं फूहड़ और अश्लील होती हैं। मैं तुम्हें कविता सुनाने का अवसर नहीं दूंगा। उन कवि महोदय ने कहा कि नहीं भइया। मैं सभ्यकविताएँ सुनाउंगा। पर जैसे ही उनके हाथ में माइक आया तो वे अपनी प्रकृति पर आ गए और लगे फूहड़ कविताएँ सुनाने। ठाकुर भाई के मना करने पर भी जब वे नहीं माने ते ठाकुर भाई ने पीछे से उनकी कमर पकड़ी और मंच के नीचे उठाकर धकेल दिया।
बातें तो बहुत है लेकिन कुछेक की चर्चा और करना चाहूंगा। उनकी पत्नी तो जैसी भी रही हो लेकिन ठाकुर भाई ने उन्हें बहुत अपनापन दिया। वे काफी रूक्ष थीं। ठाकुर के मित्र कहा करते थे कि मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा, तुम्हारी पत्नी के व्यवहार से डर लगता है। तो ठाकुर ने कभी भी अपने मित्रों की शिकायत पर ध्यान नहीं दिया और पत्नी को पूरे मन से अपनाए रहे। अपनी पत्नी के साथ घटित अप्रियता को समेटकर खुश हो लेते थे। यह बात विशेष महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि हमारे बहुत से समकालीन लेखक अपनी पढ़ी-लिखी पत्नियों के साथ बहुत मानवीय व्यवहार नहीं कर पाते।
असमय ही ठाकुर प्रोस्टेट बीमारी के शिकार हो गए। बनारस, लखनऊ, दिल्ली तक दौड़ करते रहे। इस स्थिति में भी उन्हें कभी चिंतित नहीं देखा। जब वे अवकाश प्राप्ति के पश्चात वाराणसी लौट आए तब इस हॉल में भी उनका सामाजिक मन चुप नहीं बैठा और अनेक नये किशोरों युवाओं को साथ लेकर एक संस्था बनाई जिसके माध्यम से वे साहित्य और समाज की सेवा कर सकें। मुझे याद है जब मैं बनारस जाता था तब चंद्रकला त्रिपाठी के यहां कवि गोष्ठी होती थी और उसमें भाग लेने के लिए वे शहर से पहुंच जाते थे। दिल्ली में एक दिन सुना कि ठाकुर भाई चल गए। बनारस की एक गतिमान जीवंतता चली गई। उसकी वह हँसी चली गई जो गहरे दर्द के भीतर से पैदा होती हैं और दूसरों के होठों पर बिखर जाती है। लेकिन वे गए नहीं। उनका गीत संग्रह ‘वंशी और बादल’अभी भी सादगी और गहरी संवेदना से साहित्य जगत में अपनी आभा दीप्त करता रहेगा।
-अनूप श्रीवास्तव के सौजन्य से
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