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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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बुधवार, 16 अगस्त 2023

स्नेही मैथिलीशरण गुप्त


'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग, 1937 

एम. ए. करने के बाद 'भारत' नामक, एक दैनिक पत्र में मैंने उप-संपादक का कार्य किया। तभी दद्दा, राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक 'यशोधरा'  का प्रकाशन हुआ था। 

मैंने पुस्तक की विस्तृत समालोचना की, जो स्थानीय 'भारत'  में प्रकाशित हुई। कुछ सप्ताह बाद दद्दा इलाहाबाद आए और मुझे पहली बार उनके साक्षात-दर्शन हुए। 

दद्दा ने नवयुवक अनजान आलोचक कवि को सस्नेह आशीर्वाद दिया और आलोचना के अवज्ञासूचक अंश का तनिक भी बुरा न माना।

आलोचना में मैंने आपत्ति की थी कि राजकुमार राहुल अपनी माता यशोधरा को 'दो थन की गइया'  नहीं कह सकता, क्योंकि वह किसी ग्वाले की गऊ का पला हुआ बालक नहीं, राजमहल में लालित-पालित राजकुमार है। उक्ति की अस्वाभाविकता मुझे खली थी। लेकिन दद्दा ने इसे मेरी खलता न माना।

'भारत' एक लीडर ग्रुप का समाचार पत्र था और लीडर के बहुत बड़े विख्यात संपादक हुए हैं सी. वाई. चिंतामणि, जो कि इलाहाबाद में, लिब्ररल नेताओं में अग्रगण माने जाते थे, गणमान्य माने जाते थे। सी. वाई. चिंतामणि का प्रभाव भी बहुत ज़्यादा था।  यह एक तरह से लिब्ररल नीति का पत्र था। अब मेरी राजनीतिक चेतना इतनी जाग चुकी थी कि लिब्ररल लोगों के साथ थोड़ी अनबन हो जाए, कभी खटपट हो जाए, यह स्वाभाविक था। ऐसा कुछ हुआ नहीं। लेकिन मुझे एक सुयोग मिला कि विद्यार्थीकाल में ही मेरा परिचय श्री जे. बी. कृपलानी जी से हो चुका था। वह इतने महान होते हुए भी, छोटों से ऐसे मिलते थे कि जैसे बराबर के हों। यह उनकी महानता थी। उस समय के राजनीतिक नेता, बड़े साहित्यिक, बड़े शिक्षक, इन सब में यह गुण था। वह ऊँच-नीच का भाव बहुत नहीं बरतते थे। कृपलानी जी से बातचीत कभी-कभी हो जाती थी और उन्होंने एक दिन कहा- यह 1937 की बात है कि, "अगर तुम उस लिबरल पत्र में बहुत ज़्यादा संतोष का अनुभव नहीं करते तो तुम यहाँ 'स्वराज भवन' में क्यों नहीं आ जाते? हमें ज़रूरत है, हिंदी का काम-काज़ देखने के लिए किसी की।" 'स्वराज भवन' यानी अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय, ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी का हेड ऑफ़िस, यह 'स्वराज भवन' किसी समय 'आनंद भवन' था, जिसका निर्माण पंडित मोतीलाल नेहरू ने कराया था और उन्होंने ही इसको दान में दे दिया था।

वहीं पर उस समय यह अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय था। मैं 1937 के अक्टूबर में यहाँ आ गया और उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू काँग्रेस के सभापति थे। कृपलानी जी ने कहा कि, "तुम्हारी नियुक्ति के बारे में निर्णय जवाहरलाल जी लेंगे तुम एक बार उनसे मिलो।" उनसे भेंट कराई और वह भी भेंट ऐसी थी कि आज भी स्मरणीय है। 

    वह दफ़्तर के बाहर निकले। बाग़ था वहाँ पर।  वह इधर से उधर घूमते-घूमते, साथ-साथ, कभी पचास क़दम उधर जाते पचास क़दम इधर आते कभी सौ क़दम उधर जाते सौ क़दम इधर आते। इस तरह घूमते-घूमते जब बहुत समय हो गया, लगता है हम लोगों को डेढ़ घंटे से ऊपर हो गया। शायद दो घंटे से भी ऊपर हो गया। उन्होंने इतिहास के बारे में मुझसे पूछताछ की, साहित्य के बारे में पूछताछ की, काँग्रेस के बारे में या राजनीति के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई और दूसरे विषयों के बारे में बहुत बातचीत हुई। और जब मैंने देखा कि मैं इनका बहुत समय ले रहा हूँ। मैंने एक अवसर देख करके हाथ जोड़ कर कहा कि पंडित जी मैं आज्ञा लूँ, फिर मैंने जरा रुक करके कहा कि, "फिर मैं आप से कब मिलूँ?" "कब मिलो का क्या मतलब? बस आज से आपकी नियुक्ति हो गयी। आपके लिए टेबल अभी डलवाए दे रहे हैं और आप काम शुरू कर दीजीए। फिर कब का क्या मतलब", उस दिन से मैं वहाँ काम करने लगा। मेरे ज़िम्मे वहाँ पर हिंदी के बुलेटिन, हिंदी का पत्र व्यवहार और काँग्रेस की जो वर्किंग कमेटी थी, वह कार्यकारिणी अंतरंग सभा भी कहलाती थी, उसके जो मिनिट्स होते थे, उनकी नक़ल भी मैं एक बड़े रजिस्टर में करता था, क्योंकि मेरा लेखा थोड़ा ठीक माना जाता था। कृपलानी जी बड़े आदमी थे। बड़े आदमी थोड़ा इललेजिबल लिखते हैं यानी पढ़ने में कठिनाई होती है।  उन्होंने कहा कि मिनिट बुक में तुम्हीं लिखो। मैं उनके आधार पर लिख देता था। इस तरह से वहाँ समय बीतता गया। 

मैं अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के केंद्रीय कार्यालय 'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग का काम-काज़ देखने लगा। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरू के हिंदी-सचिव का काम भी करता था।

- नरेंद्र शर्मा की स्मृति से (1913-1989)

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा। 


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गुरुवार, 30 मार्च 2023

पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए

प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई। 

उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम०ए० कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है, परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक-अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती  है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कॉलरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की  जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।

जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नौसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत हो रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना विह्वल वाणी से उन्होंने 'सुमुखि तुमको भूल जाना तो असंभव है, असंभव' - की रागिनी छेड़ी कि सारा हॉल नयन-श्रवणमय हो गया। फिर तो श्रोता ऐसे भाव-विह्वल हो उठे कि कवि को मंच से हटने ही नहीं देते थे। एक के बाद एक सात रचनाएँ नरेंद्रजी ने पढ़ीं और बाद में जब पूर्णाहुति के रूप में 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की मंद-मधुर स्वर-लहरीं झंकृत हो उठी, तो श्रोता पगला-से उठे और एक-एक पंक्ति की तीन-तीन बार आवृत्ति करने के लिए कवि को विवश करने लगे। एक युग था, जब यह रचना युवकों और युवतियों का कंठहार बन गई थी। विश्वविद्यालय के युवक-युवतियाँ उनके गीतों को ऐसे गुनगुनाते फिरते थे, जैसे किसी मधुवन में मदमस्त भौंरों की गंजन डाल-डाल और पात-पात में मुखरित हो उठी हों। उनके लोकप्रिय गीत 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की प्रतिध्वनि तो सभाओं, छात्रावासों और कॉफी  हाउसों में आए दिन सुनी जा सकती थी। जैसा उनका सलोना, सुकुमार, सौम्य स्वरूप था, वैसी ही उनकी रचना भी मधुर और मर्मस्पर्शी थी। 'बच्चन' जी की 'मधुशाला' एक ओर और नरेंद्रजी की यह कविता एक ओर! इसके बाद तो जमने के लिए 'बच्चन' जी को भी कुछ प्रयत्न करना पड़ा था और जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने 'वह पगध्वनि मेरी पहचानी' बड़े मस्ताने तरन्नुम में सुनाई थी। 

उस संगोष्ठी में नरेंद्रजी कुछ ऐसे छा गए थे कि छायावादी नवोन्मेष के विदग्ध कवि डॉक्टर रामकुमार वर्मा और मधुशाला के मदमस्त गायक 'बच्चन' जी भी कुछ क्षणों के लिए हफ़्त दिखाई पड़े थे। मेरे जैसे नौसिखिए की तो औक़ात ही क्या थी! संगोष्ठी की समाप्ति पर तत्कालीन काव्यमर्मज्ञ डॉक्टर अमरनाथ झा ने अपनी माला नरेंद्रजी को पहना कर बड़े ममत्व से उन्हें झंझोर लिया था। उस समय का प्रयाग का वातावरण ही कुछ और था। एक ओर तो परम सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की लाक्षणिक प्रकृति, प्रेरक रचनाओं का सम्मोहन था, तो दूसरी ओर महादेवी की वेदना-व्यंजक रचनाओं का स्पंदन! 'निराला' का बहुआयामी व्यक्तित्व अभी कलकत्ता और लखनऊ के परिवेश को ही चमत्कृत कर रहा था, यद्यपि काशी और प्रयाग में भी उसकी विद्युत तरंगें चकाचौंध की छटा यदा-कदा बिखेर जाती थी। प्रयाग में तो 'बच्चन' जी की मधुशाला की मादकता, नरेंद्रजी के 'प्रवासी के गीतों' की भावोच्छलता और भगवती बाबू की 'चित्रलेखा' उफनते यौवन के ज्वार की अलमस्ती छाई हुई थी। उस समय मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी का छात्र था। इस कवि-सम्मेलन में मेरी अच्छी ख़ासी दुर्गत हुई थी। ऐसे उदात्त आत्म विह्वल वातावरण में मैंने बड़ी हौंस-हुमस के साथ, 

"हम ले कर हृदय अधीर, प्राण में पीर, नयन में नीर  चले" 

नामक रचना प्रारंभ की, तो दूसरी पंक्ति पर ही श्रोताओं ने ठहाका लगा दिया। दूसरी आवृत्ति मैंने और जोश से की, तो उससे भी बड़ा ठहाका लगा। मैं समझ न पाया कि क्या बात है? किसी तरह बेशर्मी से पूरी कविता पढ़ गया और बीच-बीच में कहकहे लगते रहे। बाद में किसी ने बताया कि कविता पढ़ने के पहले मंच पर ही एक चाँदी के वर्क़ का पान खा लिया था और उसकी वर्क़ मेरे ऊपरी अधर पर चिपकी हुई थी, जो कविता पढ़ते  समय चमक-चमक जाती थी। तब से मैंने कवि-सम्मेलनों में पान खाना ही छोड़ दिया। ग़नीमत थी कि दूसरे दिन पत्रों में प्रशंसित कविताओं में उसका भी नाम गिनाया गया था और उक्त विद्रूपता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था।

- डॉक्टर शिवमंगल सिंह 'सुमन' (लावण्या शाह द्वारा प्रेषित)। 

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