‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

मिलना वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी से

 पिशाच मोचन में हिंदी प्रचारक संस्थान की विशाल इमारत के गेट से जैसे ही अंदर प्रवेश किया किताबों की खुशबू ने मन मोह लिया। वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी के बेटे विजय प्रकाश बेरी मुझे किताबों के रैक से भरे लंबे लंबे गलियारों से पहली मंजिल में ले गए। जहाँ बड़े से कमरे में व्हील चेयर में महान रचनाकार कृष्ण चंद्र बेरी बैठे थे ।बनारस के प्रकाशन पुरुष कहे जाने वाले वयोवृद्ध बेरी जी के मैंने चरण स्पर्श किए और दीवान पर बैठ गई ।बनारस ही नहीं बल्कि देश भर में हिंदी प्रचारक संस्थान का विशेष महत्व है। प्रचारक बुक क्लब, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना जैसी योजनाओं को इस संस्थान ने प्रारंभ कर एक नए युग का सूत्रपात किया है। जबलपुर में थी तो विजय जी से खतो किताबत के दौरान मेरी किताब हिंदी प्रचारक पब्लीकेशन से प्रकाशित करने की चर्चा भी होती थी ।लेकिन वे पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में मशगूल थे और बात आई गई हो गई थी। कृष्ण चंद्र बेरी से काफी देर तक संस्थान के विषय में चर्चा होती रही। जलपान भी आत्मीयता भरा था। चलने लगी तो उन्होंने अपना विशिष्ट ग्रंथ" पुस्तक प्रकाशन संदर्भ और दृष्टि" तथा "आत्मकथा प्रकाशकनामा" मुझे भेंट की ।दोनों ही किताबें काफी मोटी और ग्रंथनुमा थीं। बाद में हिंदी प्रचारक पत्रिका में हर साल मेरे जन्मदिन की बधाई ,हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कारों और मेरी पुस्तकों के लोकार्पण, पुरस्कारों के समाचार छपते रहते थे। बल्कि छपते रहते हैं ।इस पत्रिका से कहीं भी रहते हुए मेरा जुड़ा रहना मानो हिंदी प्रचारक संस्थान से जुड़े रहना है। अब कृष्णचंद बेरी जी नहीं है लेकिन इस संस्थान से जुड़ना कुछ ऐसा हुआ कि जब भी बनारस जाती हूँ हिंदी प्रचारक संस्थान जाए बिना मन नहीं मानता।

-संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से अविस्मरणीय भेंट

दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका साहित्य अमृत में पंडित विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध पढ़कर मैं उनकी फैन हो गई। मन में इच्छा जागी मैं भी ललित निबंध लिखूँ। 

 स्कूल में अध्यापन  करते हुए अपने खाली पीरियड में मैं ललित निबंध लिखने लगी ।इसी बीच दीपावली की छुट्टियों में बनारस जाना हुआ। पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से मिलने की इच्छा बलवती थी। ललित निबंध परंपरा में वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर त्रयी के रूप में लोकप्रिय थे। फोन पर उनसे मिलने की रजामंदी लेकर मैं उनके घर पहुंची।भव्य घर लेकिन भारतीय संस्कृति का प्रतीक..... पीतल के गिलास और लोटे में हमारे लिए पानी लेकर उनका सेवक आया ।थोड़ी देर में बेहद सौम्य व्यक्तित्व के मिश्र जी धोती, कुर्ता और कंधे पर शॉल, माथे पर तिलक लगाए मुस्कुराते हुए आए। इतने महान लेखक, संपादक ,पत्रकार, भूतपूर्व कुलपति को सामने देख मैं थोड़ी नर्वस हो रही थी। बात उन्हीं ने शुरू की। पूछने लगे "क्या करती हो, किस विधा में लिखती हो, कुछ प्रकाशित हुआ है क्या?"

मैंने उन्हें बहके बसन्त तुम की प्रति भेंट की ।कहा "ललित निबंध में मार्गदर्शन चाहती हूँ।"

"तुमने लिखा है कोई निबन्ध?"

"जी सुनेंगे?"

" हां सुनाओ ।"इसी बीच कांसे की चमचमाती थाली में तरह-तरह की मिठाइयां नमकीन और गरमा गरम दूध के गिलास आ गए।

" अरे भाई दूध ढाँक दो ।अभी बिटिया निबंध सुना रही है। "

सेवक ने दूध पर तश्तरियां  ढंक दी। मैंने फागुन का मन निबंध पढ़कर सुनाया ।वे भावविभोर होकर बोले "अपार संभावनाएं हैं।  तुम इसके दो तीन ड्राफ्ट लिखो। अपने आप निखार आएगा। साहित्य अमृत में प्रकाशन के लिए भेजो।"

उन्होंने मुझे अपनी लोकप्रिय किताब "मेरे राम का मुकुट भीग रहा है" भेंट की। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। उस शाम ललित निबंध लेखन में मैं विश्वास लेकर लौटी।

विभिन्न विषयों पर 16 ललित निबंध लिखकर मैंने

यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को  ललित निबंध संग्रह की पांडुलिपि भेज दी। इनमें से दो निबंध पंडित विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य अमृत में प्रकाशित किए थे। बाकी इंदौर, उज्जैन, भोपाल और मुंबई के अखबारों में छप चुके थे।

मैंने ललित निबंध संग्रह का नाम रखा फागुन का मन।

फागुन का मन पुस्तक प्रकाशित होकर आई तो पहली प्रति विद्यानिवास मिश्र जी को बनारस भेजी। उनका पत्र आया "मैंने कहा था न, अपार संभावनाएं हैं तुममें। महिला लेखकों में ललित निबंध लेखन में तुम सर्वोपरि हो ।"

मुझे लगा जैसे मैं चौपाटी सागर तट पर खड़ी हूँ और सामने ज्वार की ऊंची ऊंची लहरे डूबते सूरज और उगते पूर्णमासी के चांद के संग अठखेलियां कर रही हैं ।वे सड़क के किनारे की दीवार से टकरातीं, उछलकर सड़क की ओर जाती मानो आमंत्रण दे रही हों कि जिंदगी भी ज्वार भाटे की तरह है।अभी तुम्हारा ज्वार है। थाम लो इस ज्वार को ।मगर मैं ज्वार के बहकावे में कभी नहीं आई। मैंने खुद को शांत बहने दिया।

सूचना मिली पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के निधन की। एक समारोह में जाते हुए उनकी कार पेड़ से टकरा जाने के कारण घटनास्थल पर ही उनका निधन हो गया। मैं भीतर तक व्यथित हो गई थी। ललित निबंधों के लिखने के लिए उनका आग्रह और मार्गदर्शन अब कभी नहीं मिलेगा।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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