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हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शनिवार, 8 अप्रैल 2023

कुर्रतुल ऐन हैदर को याद करते हुए


कुर्रतुल ऐन हैदर को याद करते हुए

रेखा सेठी


कुर्रतुल ऐन हैदर भारतीय साहित्य की बड़ी लेखक हैं। यह लेख अपनी अग्रजा के रूप में उनकी स्मृति को समर्पित है। वे 1941 से 1945 तक इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय की छात्रा रहीं। मैं भी 1984-89 तक यहाँ पढ़ी और अब यहीं अध्यापन कर रहीं हूँ। साहित्य के अध्ययन अध्यापन से जुड़े होने के कारण लंबे समय से मेरे मन में यह जिज्ञासा रही कि जिन लेखकों की विरासत भारतीय विरासत की थाती है, वे जब छात्रों की उम्र के रहे होंगे तब क्या सोचते थे? अपने आस-पास को समझने की क्या दृष्टि रही होगी? भाषा कैसी थी आदि। पिछले दिनों कॉलेज के संग्रहालय में पुरानी कॉलेज पत्रिकाएँ देखते हुए मुझे उनका एक लेख मिला। इंद्रप्रस्थ कॉलेज एकमात्र ऐसा कॉलेज है जिसने अपनी विरासत को संग्रहालय के रूप में सहेज कर रखा है और उसे एक लर्निंग रिसोर्स सेंटर की शक्ल दी जिससे ऐसे अध्ययन हो सकें जो हमें हमारा इतिहास समझने और उसका विश्लेषण करने में मदद करें। 1944 की कॉलेज पत्रिका 'प्रदीप' में कुर्रतुल ऐन हैदर का अंग्रेजी में लिखा एक लेख मिलता है जिसका शीर्षक है 'समथिंग ओरिजिनल'' यानी 'कुछ मौलिक' । इस लेख के साथ उनका नाम है और यह सूचना भी कि वे थर्ड ईयर (तृतीय वर्ष) की छात्रा हैं। यह लेख कहानीनुमा है, दो मित्रों के बीच संवाद जिसमें कुछ मौलिक रचने या लिखने के लिए मज़मून-ए- आफ़रीन ढूँढ़ा जा रहा है। यह लेख एक तरह का व्यंग्य है। उन दिनों लेखन में प्रगतिशीलता का ज़ोर था लेकिन वहीं बहुत बार प्रगतिशीलता सिर्फ फैशन बनकर रह जाती थी। इस कहानी में दो किरदार आपस में जो बातचीत करते हैं उसमें कहानी सुनाने वाली लेखिका का मित्र कहानी का जो आइडिया देता है, वह कहने को प्रगतिशील है लेकिन रूमानियत में उलझा हुआ है। कहानी उसी स्थिति पर एक तरह का व्यंग्य है। संभवत: यह उस समय की साहित्यिक विचारधारा पर भी एक तरह का व्यंग्य है जिसमें रोमानी ढर्रे पर पनपता स्त्री पुरुष का प्रेम, हमारी साहित्यिक प्रगतिशीलता को रोमानी ढाँचे में बाँध रहा था। कॉलेज की पत्रिकाओं में छपने वाले ऐसे लेखों की खास भूमिका होती थी। आज के समय के फ़ेसबुक पोस्ट या ब्लॉग की तरह ये छोटी-छोटी टिपणियाँ मज़ाइहा अंदाज़ में लिखी जाती थीं और अपने साथियों के बीच लेखक को लोकप्रिय बनाती थीं। कुर्रतुल ऐन हैदर ने बहुत कम उम्र में लिखना शुरू कर दिया था और सन् 1945 तक उनका पहला कहानी संग्रह 'शीशे का घर' प्रकाशित हो चुका था।

इसी पत्रिका में उनकी एक उर्दू कहानी भी मिलती है जिसका शीर्षक है रेल में"। उसके आरंभ में ही यह भी दर्ज है कि इसका प्रसारण 15 सितंबर 1942 की शाम ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से हुआ। यह चल पाया कि इस कहानी का प्रकाशन कॉलेज पत्रिका के अतिरिक्त भी कहीं हुआ या नहीं? संभवत: नहीं क्योंकि उनके कहानी संकलनों-- शीशे के घर', 'सितारों से आगे', 'पतझड़ की आवाज़', 'रोशनी की रफ़्तार - - इन सभी संकलनों में इस शीर्षक से कोई भी कहानी नहीं है। 'प्रदीप' पत्रिका में प्रकाशित यह कहानी यह अवश्य ज़ाहिर करती है कि 15-16 साल की उम्र में कुर्रतुल ऐन हैदर लेखन और रेडियो में बराबर रूप से सक्रिय थीं। इस कहानी का केंद्र-बिन्दु भी लखनऊ की पारंपरिक जीवन शैली जीने वाली पर्दानशीन नवाबजादियों तथा देश के अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ने वाली आजाद ख्याल लड़कियों के जीवन के अंतर को रेखांकित करना है।

1941 1945 का समय पूरे देश में राजनीतिक सक्रियता का समय था। यह वह समय था जब गाँधी जी का "भारत छोड़ो' आंदोलन परवान चढ़ रहा था। पूरे देश से युवक युवतियाँ आगे बढ़ कर उसमें भाग ले रहे थे। इंद्रप्रस्थ कॉलेज के सभी विद्यार्थियों में भी राजनीतिक चेतना की सरगर्मियाँ जोर मार रहीं थीं। स्वतंत्रता की अग्रदूत सुचेता कृपलाणी सरीखी छात्राएँ इसी कॉलेज से निकलीं थीं। 1942 में इसी कॉलेज की छात्रा रूप सेठ ने लाहौर जेल की प्राचीर पर तिरंगा लहराया। उस समय की छात्राएँ बताती हैं कि किस तरह आए दिन लड़कियाँ गाँधीजी के आंदोलनों में भाग लेने के लिए कॉलेज की दीवारें कूद-कूद कर जुलूस और जलसों में शामिल होने के लिए निकल जाती थीं। चरखा चलाना, सूत कातना, खादी पहनना कॉलेज की छात्राओं का राष्ट्र धर्म बन गया था। 2005 में प्रकाशित मीना भार्गव तथा कल्याणी दत्ता ने अपनी पुस्तक Women, Education and Politics: The Women's Movement and Delhi's Indraprastha College ŞA सारी स्थितियों का ब्योरा प्रस्तुत किया है। 1942 में ही इंद्रप्रस्थ कॉलेज की छात्राओं द्वारा स्वाधीनता आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेने के कारण औपनिवेशिक सरकार ने छात्राओं के दमन के लिए छात्रावास को मिलने वाली गेंहू की सपलाई में कटौती कर दी। इस सबसे उनका उत्साह कम नहीं हुआ। कुर्रतुल ऐन हैदर इतिहास के इसी मोड़ पर कॉलेज के छात्रावास में रह रहीं थीं।

यह समय स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में परंपरा और आधुनिकता के द्वन्द्व का समय था। एक ओर आज़ादी का जुनून दूसरी ओर लड़कियों की आज़ाद ख्याली के अंतर्विरोध | पितृसत्तात्मक परिवारों से दूर शहर में कुछ लड़कियों ने अपनी आज़ादी को जीवन की रंगीनियों में पाने की कोशिश की। 'गुड गर्ल' बनाम 'बैड गर्ल' सिंड्रोम जो आज तक किसी न किसी रूप में बना हुआ है उस समय भी कॉलेजों के छात्रावासों में नैति के ये सवाल और मूल्यगत टकराहटें लगातार चलती रहती थीं। 1985 में कुर्रतुल ऐन हैदर को अपने कहानी संकलन 'पतझड़ की आवाज़ 7 के लिए साहित्य अकादेमी पुरुस्कार मिला। इसी नाम से उनकी कहानी में इस स्थिति का बेबाक वर्णन है। इस कहानी से दो-तीन हिस्से मैं उद्धृत करना चाहूँगी जिससे अपनी बात स्पष्ट कर सकूँ:

“ये विश्व युद्ध के दिन थे या शायद युद्ध इसी साल खत्म हुआ था, मुझे ठीक से याद नहीं है। बहरहाल, दिल्ली पर बहार आई हुई थी। करोड़पति कारोबारियों और भारत सरकार के बड़े-बड़े अफसरों की लड़कियाँ हिंदू-सिख-मुसलमान... लंबी-लंबी मोटरों में उड़ी उड़ी फिरतीं। नित नई पार्टियाँ, उत्सव, हंगामे - आज इंद्रप्रस्थ कॉलेज में ड्रामा है, कल मिरांडा हाउस में, परसों लेडी इरविन कॉलेज में संगीत सभा है। लेडी हार्डिंग और सेंट स्टीफेंस कॉलेज, चेम्सफोर्ड क्लब, रोशनआरा, इंपीरियल, जिमखाना – मतलब यह कि हर ओर अलिफ़ लैला के बाल बिखरे पड़े थे, हर स्थान पर नौजवान फ़ौजी अफ़सरों और सिविल सर्विस के अविवाहित पदाधिकारियों के ठट डोलते दिखाई देते एक हंगामा था"

एक ही कहानी में अर्थ की कई परतें हैं। स्त्री शिक्षा का माहौल अनेक जटिलताएँ समेटे हुए था। कॉलेज और वहाँ के छात्रावास कुलीन घरानों की लड़कियों के लिए थे। उन्हीं में से बहुत-सी लड़कियाँ और आगे पढ़ीं और ऊँचे-ऊँचे ओहद पर पहुँच गयीं। इस कहानी में भी ऐसी सफलताओं का ज़िक्र है। कुछ बड़े अफसरों की शरीक़-ए-हयात हो गईं। कुछ सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय रहीं लेकिन उन सबके वर्णन से सामाजिक रिपोर्ट बनती हैं। कहानी उन भीतरी सच्चाईयों को उजागर करने से बनती है जिन्हें विक्टोरियन नैतिकता और पारिवारिक मर्यादा के नाम पर कई पर्दों में छिपा कर रखा जाता है। कुर्रतुल ऐन हैदर इस कहानी में ऐसी महीन स्थितियों को बेपर्द करती हैं।

"इन दिनों नई दिल्ली के एक-दो आवारा लड़कियों के किस्से बहुत मशहूर हो रहे थे और मैं सोच-सोचकर ही डरा करती थी । शरीफ़ ख़ानदानों की लड़कियाँ अपने माँ-बाप की आँखों में धूल झोंककर किस तरह लोगों के साथ रंगरेलियाँ मनाती हैं हॉस्टल से प्राय: इस प्रकार की लड़कियों के संबंध में अटकलें लगाया करती । वह बहुत ही अजीब और रहस्यमई हस्तियाँ मालूम होती । यद्यपि देखने में वह भी हमारी ही तरह की लड़कियाँ थीं— साड़ियाँ, सलवारें पहनें बाकी सुंदर और पढ़ी लिखी ।

"लोग बदनाम करते हैं जी", सईदा दिमाग पर बड़ा जोर डालकर कहती, 'अब ऐसा भी क्या है?"

“वास्तव में हमारी सोसाइटी ही अभी इस योग्य नहीं हुई कि पढ़ी-लिखी लड़कियों को अपने में समो सके।" सरला कहती।

"होता यह है की लड़कियाँ संतुलन-भावना को खो बैठती हैं।" रेहाना अपना मत प्रकट करती ।

जो भी हो, किसी भी तरह विश्वास नहीं होता कि हमारी जैसी हमारे ही साथ की कुछ लड़कियाँ ऐसी-ऐसी भयानक करतूतें किस तरह करती हैं। "

कहने को ये जवानी की बहारें और रंगीनियाँ थीं। घरवालों से झूठ बोल-बोलकर सारी नैतिकता को धता बताकर लेकिन लड़कियों का शोषण इसमें भी कम नहीं था। हिंसा के कई रूप थे—मेरे इंकार करने पर खुशवक्त ने जूतों- लातों से मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल दिया।" लड़कियों की न के शायद कोई मायने नहीं होते। न तब थे और कमोबेश आज भी नहीं हैं। आज की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ आज भी न कहने के अपने हक के लिए संघर्षरत हैं।

कुर्रतुल ऐन हैदर की कहानी- कला की यह खासियत है कि वे पात्रों के मन में प्रवेश करके उसके अंत को उजागर करने की कोशिश करती हैं। हिन्दी में नई कहानी और उर्दू में नया अफसाना के अंतर्गत बाद में यह प्रयोग खूब किए गए लेकिन उर्दू साहित्य में इसका चलन शुरू करने का श्रेय हैदर को जाता है। इस कहानी में भी वे इस सारी स्थिति के कारणों की पड़ताल करते हुए दो-तीन तरह के मतों पर विचार करती हैं - 

"एक विचारधारा थी कि वही लड़कियाँ आवारा होती हैं जिनके पास सूझ-बूझ बहुत कम होती है। मानव- मस्तिष्क कभी भी अपनी बर्बादी की ओर जान-बूझकर कदम नहीं उठाएगा लेकिन मैंने तो अच्छी-खासी समझदार, तेज़-तर्रार लड़कियों को आवारागर्दी करते देखा था। दूसरी विचारधारा थी कि रुपए-पैसे, ऐशो- आराम का जीवन, कीमती भेंटों का लालच, रोमांस की खोज, साहसिक कार्य करने की अभिलाषा या मात्र उक्ताहट या पर्दे के बंधनों के बाद स्वतंत्रता के वातावरण में प्रवेश कर पुराने बंधनों से विद्रोह इस आवारगी के कुछ कारण हैं। यह सब बातें अवश्य होंगी अन्यथा और क्या कारण हो सकता है?"

इतना ही नहीं, इस एक ही कहानी में वे इन दिनों का विस्तार विभाजन तक करती हैं। विभाजन का समय सभी वर्गों की स्त्रियों के लिए दिल दहला देने वाला अनुभव था। "मैं जीवन के इस अचानक परिवर्तन से इतनी हक्की-बक्की थी कि मेरी समझ में न आता था कि क्या हो गया! कहाँ अविभाज्य भारत की वह भरपूर, दिलचस्प, रंगारंग दुनिया, कहाँ सन् 48 के लाहौर का वह छोटा और अंधेरा मकान! देश त्याग ! अल्लाहो अकबर मैंने कैसे-कैसे दिल हिला देने वाले दिन देखे हैं।" इन सब विवरणों से उस परिवेश और माहौल की एक तस्वीर बनती है। बँटवारे के समय हुई हिंसा ने स्त्रियों की चेतना पर अजब दहशत का रंग भर दिया था। जो किसी तरह बच कर सरहद पार कर पाईं उनकी मुश्किलें भी कम न हुई। विभाजन के कारण बहुतों की पढ़ाई बीच में छूट गई। इंद्रप्रस्थ कॉलेज ने भी उस वक्त ऐसी महिलाओं के लिए विशेष कक्षाओं का इंतज़ाम किया जिससे वे अपनी डिग्री पूरी कर सकें।

दरअसल, ये सभी चित्र या औरतों के जीने के तरीके को लेकर जो द्वन्द्व उनके कथा साहित्य में है वह केवल शिक्षा संस्थाओं के अनुभव से ही नहीं आता। उनका परिवार खास तौर पर तरक्की पसंद परिवार था, केवल विचारों से ही नहीं व्यवहार से भी परिवार की सभी महिलाएँ पूरी आज़ाद ख्याली से जीने का अधिकार रखती थीं। उनके माता-पिता और बुआ, प्रतिष्ठित व सक्रिय लेखक थे। लिखने की विरासत उन्हें अपने परिवार से ही मिली। उन्होंने अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में लिखा। वे अंग्रेज़ी की पत्रकार थीं जिन्होंने 'इंप्रिंट' तथा 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया जैसी पत्रिकाओं में लेखन और संपादन का दायित्व संभाला। यह काम वे अपनी आजीविका के लिए करती रहीं और उर्दू में लेखन अपनी साहित्यिक-भाषिक निष्ठा के निर्वाह के लिए।

भारत की साझी सांस्कृतिक विरासत में उनका अटूट विश्वास और हर हालत में मानवीय मूल्यों को बड़ा रखने की कोशिश उन्हें बड़ा लेखक बनाती है। उर्दू साहित्य में उनका नाम मंटो, इस्मत, राजिंदर सिंह बेदी और कृष्ण चंदर जैसे बड़े रचनाकारों के साथ लिया जाता है। हालांकि उनका लेखन कई अर्थों में इनसे बहुत अलहदा रहा। जिस परिवार और शिक्षा से उनका संबंध रहा उसने उनके स्वतंत्रचेता मानस का निर्माण किया। उन्होंने बारह उपन्यास लिखे और कई कहानियाँ | इन सबमें 1959 में प्रकाशित 'आग का दरिया' भारतीय कथा साहित्य में उनकी उपस्थिति को स्थायी महत्व प्रदान किया। इसके अतिरिक्त 'मेरे भी सनमख़ाने', 'सफ़ीना-ए-ग़मे दिल' आदि विशेष प्रसिद्ध हुए ।

उर्दू साहित्य में उनका नाम अक्सर इस्मत चुग़तई के साथ लिया जाता है। दोनों समकालीन लेखिकाएँ थीं। साहित्यिक हल्कों में इस्मत, 'इस्मत आपा' नाम से मशहूर हुईं और कुर्रतुल ऐन हैदर, 'एनी आपा' के नाम से। इस्मत बड़ी थीं। 1938 में वे अलीगढ़ में कुर्रतुल ऐन हैदर की चचेरी बहनों के साथ पढ़ती थीं। दोनों की परवरिश अलग-अलग माहौल में हुई । इस्मत की कहानियों में परदे के पीछे, 'ज़नाना' के भीतर स्त्रियों की रंगीन-बदरंग ज़िंदगी को 'बेगमाती जुबान' में बेपर्द किया गया है। 'लिहाफ' जैसी कहानी ने कुलीन समाज की पोल खोल दी थी। मज़ाहिया अंदाज़ में लिखी गई उनकी कहानियाँ स्त्री के प्रति समाज के रवैये को लेकर कुछ ज़रूरी सवाल उठाती हैं। वे स्त्री की लाचारी की कहानियाँ भी हैं। मंटो के साथ इस्मत ने उर्दू साहित्य में एक अलग ढंग से प्रगतिशील लेखन की ज़मीन तैयार की। कुर्रतुल ऐन हैदर के यहाँ उसके बाद की, ज्यादातर पढ़ी-लिखी लड़कियों की कशमश है। वर्जनाओं और मुक्ति के बीच का अस्मिता बोध, नैतिकता के दबाव, इतिहास की करवटें और फलसफ़े इन सब के ब्योरों से बनता साहित्य हैदर की पहचान है। दोनों करीब भी हैं और अलग भी लेकिन सबसे मज़ेदार सच यह है कि दोनों एक दूसरे से मुतासिर होते हुए भी एक दूसरे को आड़े हाथों लेने से नहीं चूकतीं। इस्मत चुग़तई ने कुर्रतुल ऐन हैदर पर पॉम पॉम डार्लिंग' शीर्षक से लेख लिखा और उनके लेखन में फैशनपरस्त मध्यवर्गीय मानसिकता को उनकी सीमा बताया जो उन्हें नई ज़मीन गोड़ने से रोकती है। उन्होंने कड़े शब्दों में उनकी साहित्यिक संभावनाओं के क्षय हो जाने को लेकर चिंता जताई। कुर्रतुल ऐन हैदर के लेखन में जिस नयेपन की बात की जा रही थी उन्होंने उसके प्रति कोई आश्वस्ति प्रकट नहीं की बल्कि 'नए बच्चे न जाने खुद को क्या समझते हैं के अंदाज़ में काफी सख्त लेख लिखा। गनीमत कि कुर्रतुल ऐन हैदर ने उस पर कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं दी। हाँ इस्मत आपा के गुज़र जाने पर उन्होंने जो श्रद्धांजलि पूर्ण लेख लिखा उसका शीर्षक दिया 'लेडी चंगेज़ खाँ' । उसमें वे लिखती हैं :

 "कभी-कभी मैं उनको लेडी चंगेज़ खाँ पुकारती थी क्योंकि वह उर्दू फिक्शन की ऐसी चुग़तई सवार और तीरन्दाज़ थीं जिनका निशाना कभी नहीं चूकता था।" इसके आगे वे लिखती हैं: "उनकी कहानियों में जो बेसाख्तापन और भाषा का चटखारा मिलता है, वह उनकी और उनके खानदान की दूसरी औरतों की भाषा थी। इस्मत आपा एक मुहब्बत करने वाली, मुँहफट, साफ़ गो की ढीठ किस्म की खुशमिजाज़ औरत थीं।"11

यह दो बड़ी हस्तियों की परस्पर नोक-झोंक थी जो साहित्यिक माहौल को दिलचस्प बनाती है । बहरहाल, यह लेख कुर्रतुल ऐन हैदर के साहित्यिक अवदान की कोई गंभीर समीक्षा नहीं, इंद्रप्रस्थ कॉलेज की अपनी 'सीनियर' को याद करने का बहाना भर है। बाकी फिर कभी.....



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