अभी कुछ समय पहले काशी जाने का सुअवसर मिला तो
यादों के गलियारों की अनेक खिड़कियाँ मन पर दोबारा दस्तक देने लगीं। काशी के इतिहास, अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति,कला, लोगों की जीवन पद्धति, परम्पराओं
के बारे में जो पढ़ा, देखा और सुना उसके चित्र ज़ेहन में उतरने लगे तो
सोचा क्यों न इसे आपके साथ साझा करूँ।
काशी की एक परंपरा है। यहाँ पर बाहर से जो भी आया उसे काशी धर्म,
जाति वर्ग और स्थिति को देखे बगैर अपनी कसौटी पर
कसती है तथा उत्तीर्ण होने पर उस व्यक्ति को अपने में समाहित करके महिमामंडित कर
देती है। इसी
कारण दक्षिण से आये एक सन्यासी शंकर को काशी ने जगद्गुरु बना दिया, नेपाल में जन्में एक राजपूत को गौतम बुद्ध तथा
प्रयागराज इलाहाबाद से आये एक वकील, मदन
मोहन मालवीय को भारत रत्न उपाधि से महामंडित किया। काशी में जन्मी बालिका मणिकर्णिका छबीली, झाँसी पहुंच कर वीरांगना लक्ष्मी बाई बन जाती है। गायिका गिरजा देवी स्वर साम्राज्ञी
कहलाती हैं।
मेरा जन्म कानपुर में हुआ, ससुराल
पक्ष राजस्थान से आया, और कानपुर में ही रहा – किन्तु संयोग
देखिये उस काल में जब आज की तरह विवाह स्थलों का चुनाव दूर दराज के नगरों – यहाँ
तक कि विदेशों में भी होने का चलन हो रहा है, मेरा विवाह बनारस में हुआ और विवाह के दूसरे दिन ही प्रातः बेला में
सर्वप्रथम काशी विश्वनाथ मंदिर में भगवान शिव का आशीर्वाद मिला। इस प्रकार से बनारस मेरी ससुराल हुई। अब 98 वर्ष की आयु में एक बार फिर बाबा विश्वनाथ का आशीर्वाद लेने का
सौभाग्य मिला।
ऐसा नहीं है कि इस बीच काशी से मेरा सम्बन्ध टूटा रहा। एक साहित्यकार, एक पत्रकार होने के नाते काशी से कोई अलग कैसे रह
सकता है। काशी
अपनी धार्मिक, पौराणिक और आध्यात्मिक मान्यताओं के
कारण सदैव ही विश्व प्रसिद्ध रही है। एक से बढ़कर एक मनीषी और श्रेष्ठ विद्वान यहाँ हुए हैं। बल्लभाचार्य, स्वामी रामानंद, योगदर्शन
के प्रणेता पतंजलि तथा तंत्र विद्या के महान आचार्य महा महोपाध्याय गोपीनाथ कविराज
आदि का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। अघोराचार्य बाबा कीनाराम की अनादि काल से
प्रज्वलित आग्नेय रूद्र की धूनी काशी की विशिष्ट पहचान हैं।
वेद, वेदांग, छंद, उपनिषद, ज्योतिष शास्त्र, खगोलशास्त्र,
व्याकरण तो काशी की पहचान है। काशी साहित्यिक, सांस्कृतिक, संगीत तथा सौन्दर्य की अद्भुत नगरी है। पहली बार पंचांग काशी में बना और आज तक चल रहा है। संगीत परंपरा में तो काशी का कोई
जवाब नहीं है। संगीत
के स्वर यहाँ की गलियों में उसी प्रकार गूंजते हैं जिस प्रकार घाटों और मंदिरों
में घंटे की ध्वनि गूंजती हैं। संगीत के सबसे उच्चतम सप्तम सोपान पर यहाँ के भजनों को संगीतकारों ने
संगीतबद्ध किया है। काशी
ने बड़े-बड़े संगीतकारों को जन्म दिया है। पं. रविशंकर, हरिप्रसाद चौरसिया, उस्ताद
विस्मिल्लाह खान। स्वर
साम्राज्ञी गिरिजा देवी, यहाँ
की शान हैं तो कला क्षेत्र में रामकृष्ण दास का कला भवन बेजोड़ है।
काशी को हम केवल एक दृष्टि से महिमामंडित नहीं कर सकते। साहित्य के क्षेत्र में काशी का
वर्णन, कविता, कहानी, निबंध, आलोचना, यात्रा वर्णन, उपन्यास सभी में हुआ है। कबीर, तुलसीदास, भारतेंदु हरिशचंद्र, जयशंकर
प्रसाद, प्रेमचंद, देवकीनंदन खत्री, रामचंद्र
शुक्ल, राहुल साँसकृवाथन, श्यामसुन्दर दास, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि एक से बढ़कर एक साहित्यकार काशी की धरोहर हैं।
काशी की विरासत की बात करें तो बरबस भारतेंदु हरिशचंद्र का नाम सामने
आ जाता है। उसके
साथ ही ‘बुड़वा मंगल’ मेले की याद ताजा हो जाती है। भारतेंदु के पिता फूलों का व्यापार करते थे – घर
का मंदिर हो या बाबा विश्वनाथ का प्रांगण रंगबिरंगे फूलों विशेषकर गेंदे की चमक से
सज जाता था।
उन्होंने ही बुड़वा मंगल मेले की शुरुआत की – प्रारंभ में इस मेले में
व्यापारी ही आते थे – धीरे-धीरे समाज का जुडाव बढ़ता गया – भारतेंदु हरिशचंद्र ने
बुड़वा मंगल मेले को एक नई पहचान दी – क्योंकि वे स्वयं कविता, नाटक साहित्य की सभी विधाओं से परिचित थे –
धीरे-धीरे मेला साहित्य, संस्कृति
का केंद्र बन गया। फूलों
की प्रदर्शनी के साथ वहां कविता पाठ, कहानी
चर्चा, रामायण मंचन, नौटंकी आदि के मंचन से लोगों का मनोरंजन होता था तो साहित्यिक सामाजिक
जुडाव भी बढ़ता गया। मेले
में प्रवेश की पहचान थी – गुलाबी रंग की पगड़ी, गले में फूलों की माला – और मुख में बनारसी पान की गिलोरी – जिसके
द्वारा प्रवेश द्वार पर ही आने वालों का स्वागत होता था।
बुड़वा मंगल मेले के माध्यम से भारतेंदु हरिशचंद्र ने समाज, संस्कृति और साहित्य को एक मंच पर लाकर खड़ा कर
दिया। काशी
की विरासत के सन्दर्भ में, उन्होंने
यह एक नई संरचना की। यह एक
बहुत महत्वपूर्ण योगदान था।
अब बात करते हैं साहित्य के बारे में –
मुंशी प्रेमचंद जी की जन्मभूमि बनारस होने के
कारण उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ में बनारस की झलक साफ़ दिखाई पड़ती है। स्वतंत्रता पूर्व बनारस की स्थिति को
‘रंगभूमि’ के बहाने उन्होंने स्थापित किया। ‘रंगभूमि’ को प्रेमचंद जी का आशावाद, जीवन दर्शन और गाँधी जी के प्रति उनकी आस्था और विचारों की
सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति कहा जा सकता है जबकि ‘गोदान’ को उन्होंने अपनी संवेदनात्मक
अभिव्यक्ति दी है।
‘गोदान’ का होरी और ‘रंगभूमि’ का सूरदास आजीवन दोनों संघर्ष करते हैं
किन्तु ‘गोदान’ का होरी दया का पात्र बन कर
उभरता है जबकि ‘रंगभूमि’ का सूरदास बनारस के संघर्षशील जीवन को उद्घाटित करता है।
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म बनारस में सुंघनी साहू के परिवार में हुआ। वे किशोरावस्था से ही कविता, कहानी, नाटक
लिखने लगे थे। अपनी
सांस्कृतिक अभिरुचि और भाव विपुलता के कारण शीघ्र ही वे सफल साहित्यकार, कवि और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गए – सभी
उनके साहित्य से परिचित हैं –
मुंशी प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद – हिंदी के दो
महान साहित्यकारों की मित्रता तो सर्वविदित है।
जयशंकर प्रसाद जी रात के अँधेरे में साहित्य रचना
करते थे। कामायनी
की रचना भी रात के अँधेरे में ही हुई। अक्सर वे प्रातः 5 बजे
टहलने के लिए बनिया बाग़ की ओर निकल जाते थे और कामायनी की पंक्तियाँ गुनगुनाते
रहते थे।
मुन्शु प्रेमचंद की भी यही आदत थी। टहलते-टहलते दोनों की आपस में भेंट
हो जाती। धीरे-धीरे
यह मित्रता गहराती गई।
इस सम्बन्ध में मुझे एक संस्मरण याद आ रहा है जो
परिपूर्णानन्द जी ने मुझसे साझा किया था। परिपूर्णानन्द जी, प्रख्यात हिंदी लेखक और राजनेता सम्पूर्णानंद जी के भाई थे। उन्होंने एक बार मुझे बताया था -
“बड़ा मार्मिक था वह क्षण जब प्रेमचंद जी की मृत्यु हुई। उनके निर्जीव शरीर को गोद में चिपटाये उनकी पत्नी
शिवरानी करुण क्रूदन कर रही थीं। किसी को भी प्रेमचन्द जी के शरीर को अपने से अलग नहीं करने दे रही थीं। तब सबने प्रसाद जी से आगे बढ़ने के
लिए कहा। प्रसाद
जी आगे बढ़े और शिवरानी जी से कहा – “भाभी अब आप इन्हें जाने दीजिए।” शिवरानी जी एकदम क्रोधपूर्वक चीख पड़ीं और बोलीं
“आप कवि हो सकते हैं पर स्त्री का ह्रदय नहीं जान सकते – मैंने इनके लिए अपना
वैधन्य खंडित किया था – इसलिए शादी नहीं की थी कि दोबारा मुझे विधवा बना कर चले
जायेंगे।”
शिवरानी जी के इन शब्दों को सुनकर प्रसाद जी के
कोमल ह्रदय को, नारी की पीड़ा ने जैसे झकझोर लिया –
उनके नेत्रों में आंसू भर आये – गला मरमरा गया। परिपूर्णानन्द जी ने बताया, ‘लेकिन उस घटना के बाद मैंने प्रसाद जी को कभी
हँसते नहीं देखा। उनके
शरीर में क्षय बीमारी घुल चुकी थी। 6 महीने
बाद ही प्रसाद जी ने भी शरीर छोड़ दिया।
आगे चलकर साहित्य की इसी परंपरा को अन्य विद्वान
साहित्यकारों ने समृद्ध किया। प्राचीन परम्पराओं के साथ-साथ आधुनिकता की ओर भी काशी बढती गई – अनेक
विद्वान साहित्यकार उभरकर सामने आये।
प्रसिद्ध कथाकार शिव प्रसाद सिंह का ऐतिहासिक
उपन्यास ‘नीला चाँद’ (1988) में
प्रकाशित हुआ। काशी
केन्द्रित उनका दूसरा उपन्यास ‘वैश्वानर’ उसके बाद ‘गली आगे मुडती है’ तीसरा
उपन्यास प्रकाशित हुआ – जो आधुनिक जीवन की गाथा कहता है।
काशीनाथ सिंह का ‘काशी का अस्सी’ काशी का जीवन्त
उपन्यास है। इसमें
उन्होंने काशी के वैविध्य को पूर्ण रूप से दर्शाया है।
उन्हीं के शब्दों में – “अस्सी बनारस का मुहल्ला
नहीं है। अस्सी
अष्टाध्यायी है और बनारस उसका भाष्य – वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहाँ
आते हैं, बार-बार आते हैं और दुनिया में इसका
बखान करते हैं”l
‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ अब्दुल बिस्मिल्लाह
द्वारा लिखा गया उपन्यास बनारस के बुनकरों के जीवन पर आधारित है। वे स्वयं कहते हैं – “दिल्ली में
बहुत भीड़ है, बहुत शोर शराबा है, पर बनारस में अमन है, चैन है, सुख शांति है। काशी साहित्य को जानने, समझने तथा बुनने, गुनने
की अद्भुत नगरी है।”
काशी की बात करें और कबीर की चर्चा न हो, यह संभव नहीं हो सकता। ‘विरले दोस्त कबीर के’ उपन्यासकार कैलाश नारायण तिवारी ने कबीर के जीवन
को अपने उपन्यास में बारीकी से उकेरा है।
वे लिखते हैं - एक बार कबीरदास जी भजन गाते-गाते
बनारस की एक गली से निकल रहे थे। उनके आगे कुछ लड़कियां जा रही थीं। उनमें से एक लड़की की शादी कहीं हाल ही में तय हुई
थी। उसके
ससुराल वालों ने शगुन स्वरुप लड़की के घर पर ‘नथनी’ भेजी थी।
सहेलियों की छेड़छाड़ के दौरान वह बार-बार अपनी
नथनी के बारे में बता रही थी। कबीर ने लड़कियों की बात सुनी, तेजी
से कदम बढ़ाते वे लड़कियों के पास पहुंचे और कहा,
नथनी दीनी यार ने तो चिंतन बारम्बार
नाक दीनी करतार ने, उनको
दिया बिसार
सोचिये यदि नाक ही न होती तो लड़की नथनी कहाँ
पहनती। यही तो
जीवन भर हम करते हैं। भौतिक वस्तुओं का तो हमें ध्यान रहता है परन्तु जिस परमात्मा ने यह
दुर्लभ मनुष्य देह दी – सम्बंधित सारे रिश्ते नाते दिये – उसी में हम फंसे रहते
हैं। परमात्मा
को याद करने के लिए हमारे पास समय ही नहीं होता।
कबीर की यही सूक्तियां आज भी हमारे साहित्य की, आध्यात्म की – थाती हैं जो काशी को महिमामंडित करती है।
काशी के बदलते नामों का रहस्य ?
काशी का नाम कई बार बदला गया – कभी वाराणसी – कभी
बनारस और कभी काशी। भगवान
शंकर के त्रिशूल पर टिकी वाराणसी इसलिए नाम पड़ा कि इस क्षेत्र में एक नदी थी जिसका
नाम था वरुणा तथा पास में ही एक नाला था जो पहले एक नदी थी – कालांतर में
घटते-घटते वह नाले के रूप भर रह गया – उस नदी का नाम था अस्सी। इन दोनों का संगम बनारस में ही होता
था, इसके कारण वरुणा और अस्सी मिलकर
वाराणसी शब्द बना जहाँ आज अस्सी घाट है। इसी कारण इस पुण्य क्षेत्र को ‘वाराणसी’ कहते हैं। बाद में अपभ्रंश के रूप में ‘बनारस’ नाम पड़ गया। बनारस के बारे में कहा जाता है कि जो
मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में।
बनारस नाम इस कारण भी पड़ा कि यहाँ सब रसों का रंग प्रवाहित होता रहता
है। धार्मिक, आध्यात्मिक,
संगीत, साहित्य,
काव्यधारा आदि। रसों की गंगा जहाँ बहती हो वह कहलाया बनारस।
ऐतिहासिक काशी नाम क्यों पड़ा इसका भी एक इतिहास है। प्रसिद्ध कथाकार शिव प्रसाद सिंह ने
अपने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक उपन्यास ‘नीला चाँद’ में १८६० ईसवी की काशी को उसके पूरे
संदर्भ में प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं - उस समय काशी पर दो राजवंशों का शासन था – व्यावहारिक
रूप से कलचुरी राजा कर्णदेव के हाथ में शासन की बागडोर थी – कर्णदेव एक अत्याचारी
शासक था। कालांतर
में दूसरे राजवंश के ‘काशा’ नाम के राजा ने इस क्षेत्र को बसाया – इसलिए नगर का
नाम ‘काशी’ पड़ा।
एक किवंदती यह भी है कि गंगा और यमुना के किनारे ‘काशिका’ नाम की एक
घास बहुतायत से होती है – इसकी बहुतायत होने के कारण ‘काशी’ नाम पड़ा।
काशी में मृत्यु को सुखद माना गया है। किवंदती है कि जो बनारस में अंतिम गति को प्राप्त
करता है यानी मरता है, वह सीधा स्वर्ग जाता है। कहते हैं एक बार भगवान शंकर और
पार्वती संवाद कर रहे थे। तभी शिव जी ने पार्वती से कहा “हे अन्नपूर्णे मुझसे वायदा करो कि जो
भी काशी में आये उसे कभी भूखा न रहना पड़े। उसे तुम अन्न का दान करना – मैं उसे मोक्ष का
वरदान दूंगा”। इसी
कारण परंपरा चली कि वर्ष में एक दिन होली के अवसर पर, एक रात शमशान में उत्सव का माहौल होता था। एक ओर जहाँ शवों की अग्नि जलती – तांत्रिक अपनी
तांत्रिक क्रियाओं, अनुष्ठानों के करने में व्यस्त रहते
- वहीँ दूसरी ओर नृत्य, गान और संगीत की महफ़िल सजतीं। प्रसिद्ध संगीतकार छन्नू महाराज के
संगीत के स्वर ‘मसाने में दिगम्बर खेलें होली’ फिजाओं में आज भी गूंजने लगते हैं। नगर के प्रतिष्ठित लोग इन आयोजकों
में सम्मिलित होते थे।
काशी के निवासी
बनारस की सुबह और अवध की शाम मशहूर है। बनारस में सूर्योदय से 2 घंटे पूर्व से ही गंगा स्नान प्रारंभ हो जाता है। पूरा बनारस चल पड़ता है गंगा स्नान के
लिए कंधे पर गमछा डाले। गमछा, लंगोट, लूंगी धोती और जनेऊ आम आदमी की पोशाक है। उस समय वहां केवल दो ही वर्ग होते हैं। एक जो गंगा स्नान करके आ रहा है। वह पूरे अभिमान के साथ चौड़ा होकर
चलता है। और जो
स्नान करने जा रहा है, वह अपने को संकुचित करते हुए सड़क के
किनारे चलता है कि कहीं वह स्नान करके आने वाले व्यक्ति को छू न ले। गंगा घाट पर दबे पांव बाहर आ जाती है। पानी की छप छप, श्रद्धालुओं के कलरव और पंडों की पुकार से
वातावरण गूँज जाता है। इसके उपरांत
मंदिरों में पूजा उपासना का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। यह सारा उत्सव 10-11 बजे दिन तक ही चलता है।
काशी के निवासी बहुत संतोषी प्रकृति के होते हैं। यहाँ के लोगों के बारे में एक कहावत
प्रसिद्ध है।
चना, चबैना औ गंगाजल जो पूरवे भरतार
काशी रहन न छोड़िये जहाँ विश्वनाथ दरबार
दूसरी ओर अभिजात्य वर्ग के लोग होते हैं –
खुशमिजाज, कुछ हद तक आरामतलब, सुविधाभोगी
उनके लिए भी एक कहावत मशहूर है –
खान के भंग, नाहन के गंग
चढ़न को तुरंग, उढ़न को दुशाला
पान पुरान, सुहागिनी नार
साथ लिए नंदलाला
इतनी चीजें देव तो देव
या तो मृगनयनी
नहीं तो देव मृग छाला
ऐसी है काशी निवासियों की अलमस्ती – फक्कडपन। यहाँ की गलियाँ, भांग और पान यहाँ जीवन के अंग हैं। जीवन्त संस्कृति के प्रतीक जगह-जगह
गरमागरम चाय सुड़कते, राजनीतिक बहसों में उलझते – दुनिया
भर की विचारधाराओं पर बहस करते लोग यहाँ आज भी दिख जायेंगे।
काशी में यदि कोई कुछ दिन, कुछ माह, कुछ समय के लिए ही आता है तो वह भी
उसके रंग में रंग जाता है।
ऐसे ही बात उन दिनों की है जब मिर्जा ग़ालिब
दिल्ली से कलकत्ता जाते समय करीब 6 महीने
बनारस में रुके थे। एक दिन
वह बनारस के बाहर कहीं जा रहे थे – जब वह चलते चलते थक गये थे तो एक छायादार पेड़
के नीचे सुस्ताने के लिए लेट गये – अपनी शेरवानी वहीँ पेड़ पर टांग दी – थोड़ी देर
में उन्हें झपकी आ गई। उन्हें बेखबर देखकर एक चोर ने उनकी शेरवानी पर हाथ साफ कर
दिया। जब मिर्जा ग़ालिब की आँख खुली उन्होंने शेरवानी को
नदारद पाया तो बरबस उनके मुंह से निकला
लुटता दिन को तो
कब रात में बेखबर सोता
खटका न चोरी का
दुआ देता हूँ रहजन को
अर्थात हे ईश्वर तू चोर की लम्बी उमर कर, उसने मुझे दिन में ही लूट लिया है अब कम से कम
रात में तो मैं पैर पसार कर सो सकूँगा।
ऐसी है काशी की अलमस्ती और आध्यात्मिकता जिसका
असर मिर्जा ग़ालिब पर इस रूप में हुआ कि उन्हें अपने नुकसान की चिंता से ज्यादा इस
बात की संतुष्टि थी कि रात को चैन से सो सकूँगा।
काशी की और विशेषता है। काशी एक सांस्कृतिक प्रयोगशाला है। यहाँ कोई किसी को सहज रूप में
स्वीकार नहीं करता है। यहाँ सबकी परीक्षा हुई है। तुलसीदास की परीक्षा हुई, शंकराचार्य की भी परीक्षा हुई।
एक बार जो काशी आया वह काशी से जुड़ जाता है अजातशत्रु जैसा अत्याचारी
क्रूर राजा काशी आकर हिंसा त्याग सका यह महादेव की महिमा का प्रभाव था। काशी में शैव, वैष्णव, अघोरी, तंत्र मन्त्र, भूत
प्रेत सब समाहित हो जाते हैं क्योंकि शिव उदार हैं।
और इस सबसे ऊपर हैं गंगा। जिसके किनारे “गंगा तरंग रमणीय जटा कलापं, गौरी निरंतर विभूषित वाम भागम” का अद्भुत उद्घोष सुनाई देता है। एक पंथ दो काज को चरितार्थ करती हुई
गंगा जहाँ एक तरफ नयनों को सुख की अनुभूति कराती है, वहीँ दूसरी तरफ गंगा के किनारे बैठकर उपन्यासकार लेखक अपनी साहित्यिक
प्रतिभा दिखाते हैं।
शीला झुनझुनवाला की समृति से
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