तब मैं ' कादम्बिनी ' का कार्यकारी संपादक हुआ करता था। मैंने सोबती जी से एक बार आग्रह किया कि आप हमें अगले अंक के लिए कोई संस्मरण दीजिए।वह तारीख भी बताई ,जब तक वह लिख कर दे सकें तो आगामी अंक में ही हम उसे छापना चाहेंगे।जहाँ तक याद आता है, 17 तारीख तक अगले महीने का अंक तैयार होकर प्रेस में छपने के लिए चला जाता था और उसी महीने की 25-26 तारीख तक छपकर आ जाता था।मैंने अंदाज़न कुछ पेज सोबती जी के संस्मरण के लिए छोड़ रखे थे मगर उनका संस्मरण मिला-अंंक छूट जाने के बाद।
व्यावसायिक पत्रिकाओं की अपनी मजबूरियाँँ होती हैं, उन्हें एक खास दिन छपने के लिए प्रेस में भेजना ही होता है।इस कारण वह संस्मरण उस अंक में न जा सका और मुझसे यह चूक हुई कि मैं सोबती जी को यह बात पहले नहीं बताई।बता देता तो शायद मामला सुलझ जाता।वैसे संभव यह भी है कि तब भी न सुलझता।जब अगला अंक उनके पास गया और उन्होंने देखा कि उनका वह संस्मरण नदारद है।शाम को उनका फोन आया कि वह छपा क्यों नहीं?मैंने कारण समझाया और कहा कि यह विलंब से मिला, इसलिए अब अगले अंक में छपेगा।काफी समझाने पर वह मान गईं, हालांकि अमृता प्रीतम से 'ज़िन्दगीनामा ' शब्द के इस्तेमाल को लेकर वह लंबी कानूनी लड़ाई में उलझी थीं। सोबती जी को आशंका यह थी कि यह अमृता प्रीतम ने रुकवाया है।उनकी इस आशंका का आधार पहले की कोई ऐसी घटना थी या उनका मन अमृता प्रीतम को लेकर अनावश्यक रूप से आशंकित रहने लगा था,इसकी जानकारी मुझे नहीं। जहां तक मेरा सवाल है,अमृता जी से न जीवन में कभी मुलाकात हुई, न उन्हें कभी कहीं देखा था। कभी इच्छा भी पैदा नहीं हुई,उनसे मिलने की।सच कहूं तो उनका भावातिरेकी लेखन मुझे पसंद नहीं था।वैसे अमृता जी के पास ऐसा जासूसी तंत्र रहा नहीं होगा कि कृष्णा सोबती कहां-कहां छप रही हैं,यह पता करके उसे रुकवा सके।कोई विशुद्ध लेखक कितना भी नामी हो, इतना ताकतवर भी नहीं हो सकता कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के मालिक या संपादक उनके कहने पर चले! अमृता जी का नाम बड़ा था मगर थीं तो वह भी कुल मिलाकर एक लेखक हीं! यह बात सोबती जी को समझाई-बताई भी। अमृता जी के साथ उनके लंबा- खर्चीले मुकद्दमा लड़ने से पैदा हुई थकावट और खीज इसका कारण रही होगी।
खैर उस समय तो वह मान गईं।मैं उस रात चैन की नींद सोया।सुबह फिर उनका फोन आया, नहीं, वह अब नहीं छपेगा।उन्हें फिर से समझाना व्यर्थ साबित हुआ।दुख तो बहुत हुआ मगर मैं बेबस था। वापस भेजना पड़ा।
दूसरा वाकया तब हुआ,जब मैं 'शुक्रवार ' का संपादक था।मेरे पास एक फ्रीलांसर यह सुझाव लेकर आए कि वह लेखकों से बात कर एक सीरीज लिखना चाहेंगे कि इन दिनों वे क्या लिख -पढ़ रहे हैं।मैंने कहा, बढ़िया आइडिया है,लिखिए लेकिन हमारे एक पेज से अधिक लंबा नहीं, चूँकि यह बुनियादी रूप से राजनीतिक -सामाजिक पत्रिका है। शीर्षक और फोटो के बाद हीकरीब आठ सौ शब्दों की गुंजाइश बचती है।वे लाए थे- एक- दो लिखकर कुछ लेखकों के बारे में। मैंने कहा कि पहले दो- तीन वरिष्ठ लेखकों से बात करके लाइए,फिर हम इन्हें भी छापेंगे।
उन्होंने सोबती जी से संपर्क किया,वह राजी हो गईंं।बहुत से लोग जानते हैं कि सोबती जी साक्षात्कारकर्ता पर कुछ नहीं छोड़ती थीं। लिखित सवालों के जवाब फुलस्केप कागज पर बड़े - बड़े अक्षरों में खुद लिख कर देती थीं।उन्होंने लिखा,जो ' शुक्रवार ' के तीन पेज से कम में न था। मैंने उनसे कहा कि बंधु, इतना लंबा छापना मुश्किल होगा।सोबती जी के पास फिर जाइए, शायद वे इसे छोटा कर सकें।वैसे भी मुझे वह कुछ उलझा हुआ सा लगा था।वे हाँ करके तो गए मगर मेरे कक्ष से निकल कर वहीं सहयोगी महिला पत्रिका ' बिंदिया' पत्रिका की संपादक को वह आलेख दे आए। उन्होंने इसे पूरा छापना स्वीकार कर लिया और छाप भी दिया।वह अंक जब सोबती जी के पास पहुँचा तो उन्होंने मुझे फोन किया। वह आगबबूला हो गईं कि मैंने तुम्हारी पत्रिका के लिए दिया था, ' बिंदिया ' पत्रिका को तुमने कैसे दे दिया? यह तुमसे किसने कहा था? मैंने सफाई दी कि सोबती जी, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, स्वयं मुझे छपने ही पर पता चला है लेकिन वह विश्वास करें,तब न !
वैसे यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि 'कादम्बिनी' में हमने एक स्तंभ ' कथा प्रतिमान' शुरू किया था, जिसमें हम हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों से उनकी अपनी पसंद की देशी-विदेशी कहानी का चयन करने का आग्रह करते थे।उनसे कहते थे कि आपने उस कहानी का चयन क्यों किया, इस पर एक टिप्पणी लिखें।शर्त एक थी कि वह कहानी हिंदी में उपलब्ध होना चाहिए। हम वह कहानी तथा चयनकर्ता की उस पर टिप्पणी प्रकाशित करते थे।इस स्तंभ के लिए कृष्णा जी ने चन्द्रधर शर्मा की कालजयी कहानी ' उसने कहा था ' का चयन किया और उस पर टिप्पणी लिखी मगर यह संस्मरण वाले उस अप्रिय प्रसंग से पहले की बात है।इस स्तंभ के लिए उनके अलावा विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अमरकांत, श्रीलाल शुक्ल, शेखर जोशी, विद्यासागर नौटियाल, विजयदान देथा आदि ने भी एक-एक कहानी का चयन किया था और टिप्पणी लिखी थी। 2007 में इस चयन को पुस्तकाकार रूप में राजकमल प्रकाशन ने ' बोलता लिहाफ ' शीर्षक से प्रकाशित भी किया था।
सोबती जी के साथ आई खटास कभी लंबी नहीं चली।पता नहीं कैसे और कब मिठास फिर से लौट आती थी। इसकी पहल वे अकसर करतीं।उनसे मिलना होता रहा।उन्होंने राजकमल प्रकाशन से 'जनसत्ता ' में प्रकाशित आलेखों की दो पुस्तिकाएँ छपवाने से पहले उनके संपादन का दायित्व एक - एक कर मुझे सौंपा।मैंने यह काम स्वीकार तो कर लिया मगर बेहद डरते- डरते!बहुत जरूरी होने पर ही कहीं कलम चलाई, ताकि फिर से हमारे-उनके बीच कोई गलतफहमी पैदा न हो जाए ।बाद में एक बार मिलने पर उन्होंने किसी संदर्भ में कहा कि मैं जिसे संपादन का दायित्व देती हूँ, उसे पूरी स्वतंत्रता देती हूँ।मैं मन ही मन बहुत पछताया मगर मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं तब कितना डरा हुआ था।
एक बार 'हंस' में विश्वनाथन त्रिपाठी और मेरी बातचीत छपी।उसके बाद इससे खुश होकर मगर ऐसा कहे बगैर उन्होंने मेरे घर दो टेबल लैंप भिजवाए।एक मेरे लिए, एक त्रिपाठी जी के लिए।बिस्तर पर अधलेटा होकर देर रात को उसी की रोशनी में कई बार लिखता - पढ़ता रहता हूँ और वे याद आती रहती हैं।
(संभावना प्रकाशन से प्रकाशित साहित्यिक संस्मरणों की पुस्तक ' राह उनकी एक थी ' से एक अंश)
-विष्णु नागर की स्मृति से
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