समय चालीस वर्ष पूर्व से अधिक, स्थान-सफदरजंग अस्पताल की ऊपरी मंज़िल का एक वार्ड, जिसमें एक पलंग पर लेटे हुए श्री हरिशंकर परसाई को देखने मैं और प्रेम जनमेजय गए थे। कैसा था वह अप्रतिम क्षण जब पहली बार अपने आराध्य व्यंग्य गुरु से बातचीत करने का अवसर मिला था।
परसाई जी की एक टांग क्षतिग्रस्त थी, इलाज चल रहा था, पीड़ा केवल टांग में थी, उनके चेहरे पर उसका कोई भाव स्पष्ट नहीं था। उन्होंने उठने का यत्न करते हुए दो उदीयमान रचनाकारों का स्वागत किया जो व्यंग्य के क्षेत्र को धर्मक्षेत्र समझ उसमें कूद चुके थे। मेरे सेनानायक परसाई जी ही थे। उनकी कोई भी रचना, कहीं से भी उपलब्ध हो, मैं ढूंढ-ढूंढकर अवश्य पढ़ता था। मैं ही क्यों मेरे जैसे अनेक नव व्यंग्यकारों की शैली और लेखन-चेतन पर परसाई जी का गहरा प्रभाव पड़ा था।
वे अस्पताल में कई दिन रहे, उनसे मिलने के, बतियाने के, गुरुमंत्र लेने के अनेक मौके मिले। वे मानते थे कि 'व्यंग्य का क्षेत्र अभी रिक्त है, नई कहानी और नई कविता की जड़ें जम चुकी हैं, व्यंग्य को पूर्णतः अपना लेना चाहिए।' मेरे भीतर के रचनाकार ने यह बात पक्की गांठ बाँध ली थी।
जब कभी व्यंग्य तथा व्यंग्य से संबंधित विषयों पर प्रश्न उठते और समाधान न मिलते, हाथ अपने आप उठकर परसाई जी को पत्र लिख देता और आँखें दो दिन बाद से लैटर बाक्स में पावती ढूंढने लगतीं। तब मैं शाहदरा में रहता था, नेपियर टाउन, जबलपुर से उनका जवाब अवश्य आता था। वर्षों पूर्व व्यंग्य के लिए परिचर्चा का आयोजन करते हुए मैंने परसाई जी को पत्र लिखा था और पूछा था कि क्या वे व्यंग्य को एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा मानते हैं? उनका उत्तर देहावसान से ठीक बीस वर्ष पूर्व दस अगस्त उन्नीस सौ पिचहत्तर को मुझे मिला था जिसे आठ अगस्त को लिखा गया था। मुझे घोर अचरज हुआ कि जिस लेखक के कारण 'व्यंग्यकार' विशेषण सम्मानित हुआ, जिसने इसे शुद्र से ब्राह्मण बनाया, वह स्वयं इसे 'विधा' ही नहीं मानता। परसाई जी ने साफ़-साफ़ लिखा व्यंग्य स्पिरिट है। ... व्यंग्य विधा नहीं है। कारण यह है कि व्यंग्य का अपना कोई स्ट्रक्चर नहीं है। कहानी, नाटक, उपन्यास का स्ट्रक्चर है, व्यंग्य का नहीं है......।
मैं हतप्रभ था क्योंकि हम तो 'व्यंग्य' को गद्य की एक स्थापित विधा मनवाने पर तुले हुए थे और ठोस व्यंग्य का सबसे बड़ा लेखक हमारी नज़र में तब हरिशंकर परसाई ही थे।
परसाई जी के व्यंग्य की सबसे बड़ी ताक़त जो विरासत में अजातशत्रु, ज्ञान चतुर्वेदी, मुझे, जनमेजय, सुरेश कांत तथा कतिपय अन्य हमारी पीढ़ी के व्यंग्यकारों को मिली, वह है - व्यंग्य की परिणति का करुणा में होना, यही त्रासदी ही सार्थक व्यंग्य है, शैली के स्तर पर बदलाव हो सकते हैं। मेरा सौभाग्य कि मुझे परसाई जी से कथात्मकता की किस्सागोई का शैली भी मिली, भले ही बातचीत में उनकी यह शैली नज़र नहीं आती थी।
उन्नीस सौ अठत्तर में जबलपुर जाने का मौका हाथ लगा। युवा व्यंग्यकार रमेश शर्मा 'निशिकर' के बंगले में सपरिवार ठहरना हुा। भाई 'निशिकर' ने एक व्यंग्य-गोष्ठी परसाई जी की अध्यक्षता में मेरे रचना पाठ पर आयोजित की। अनेक साहित्यकार और व्यंग्य-प्रेमी उपस्थित हुए किंतु परसाई जी को वहाँ न पाकर निराशा के उत्सव में मेरे साथ शामिल हुए। गोष्ठी समाप्ति के बाद हम लोग परसाई जी के निवास पर गए। वे अस्वस्थ थे, लेटे थे, हमें देख हाथ जोड़ क्षमा मांगने लगे कि 'किसी ने जाने न दिया, तबियत ख़राब हो गई....।'
मैं उनकी शालीनता और भद्रता देख विह्वल हो उठा। एक वटवृक्ष का घासफूस के आगे नत् देख मैंने उनके चरण पकड़ लिए और आशीर्वाद की मांग की। वे बोले, एक व्यंग्य रचना सुनाओ और आशीर्वाद मिलेगा। मैंने अपनी एक प्रिय रचना 'बुढ़िया, सराय रोहिल्ला और विक्रमार्क' डरते-डरते सुनाई। उन्होंने सराहना की तथा ढेरों आशीर्वाद दिए, कहा, 'गोष्ठी मेरे घर होनी चाहिए थी, घर उतना बड़ा नहीं है पर मन भी तो देखना चाहिए था मगर निशिकर माने नहीं थे।'
परसाई जी दैहिक रूप से अस्वस्थ होने के बावजूद मानसिक रुग्णता के शिकार न हुए। जिस विचारधारा पर उनकी सोच टिकी हुई थी उसे कभी विलग न हुए। मैंने पहली बार उन्हें पहले दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित प्यारेलाल भवन के प्रेक्षागृह में हो रही प्रोग्रेसिव गोष्ठी की कार्यवाही में हिस्सेदारी
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करते देखा था। मेरा आकर्षण वहाँ केवल वे ही थे। कुर्तुल-एन-हैदर वक्तव्य देकर
आई थीं, परसाई प्रतिक्रिया दे रहे थे। तभी एक लेखक ने अपने भाषण में धर्मवीर
भारती का नाम लेकर उन पर कीचड़ उछालना शुरू किया, मुझे बेहद खला। भारती
हमारे प्रिय थे क्योंकि हम लोग 'धर्मयुगीन' कहलाते थे .... कोई कुछ कहता न
कहता परसाई जी ने उठकर उन महाशय के कथन पर अपना विरोध दर्ज कराया कि
जो अनुपस्थित है तथा यहाँ अप्रासंगिक है उस पर ऐसी टिप्पणी देना शोभा नहीं देता
मेरी कीचड़ छंट गई, भारती जी पर मानों छीटें भी नहीं पड़े... मैं परसाई जी पर
मुग्ध हो उठा था, मुझे उनका शोभा मंडल नज़र आने लगा था। तब मैं सोचता था,
क्या कभी उनसे मिल पाऊँगा।
दिसंबर अठासी में कॉलेज का टूर लेकर पंचमढ़ी जाना हुआ, लौटते हुए मैंने
तथा सुरेश ऋतुपर्ण ने जबलपुर का कार्यक्रम बनाया तथा विद्यार्थियों की शंकाओं
को लेकर हम लोग परसाई जी के घर गए। परसाई जी बेहद प्रसन्न हुए, विद्यार्थियों
की शंकाओं का समुचित समाधान किया। हम सब उनके पलंग के चारों ओर बैठे,
खड़े या टिके थे, वे पलंग पर लेटे थे, तब वे बैठ नहीं पाते थे। उन्होंने वातावरण में
इतनी सहजता पैदा कर दी कि एक छात्रा परमजीत कौर ने उन्हें क्षीर सागर में शेष-
शैय्या पर लेटे विष्णु भगवान बताया। वे यह उपमा सुनकर खूब हँसे। एक छात्र गौतम
ने 'दलित साहित्य' पर उनसे इंटरव्यू लेना चाहा, वे लगभग बैठ गए यह उनके
भीतरी मन का प्रश्न था और दलित साहित्य पर धाराप्रवाह बोलने लगे
'पंचमढ़ी टूर' आज भी हमारे छात्रों की यादों की धरोहर है। वे जब भी मिलते हैं परसाई जी के घर की यात्रा की बरबस याद आती है, विशेषकर परसाई जी का आग्रह कर बिस्किट खिलाना तथा फ़ोटो खिंचवाना नहीं भूल पाता, उनका मेरे प्रति व्यंग्यात्मक कमेंट 'तुम अब ज्ञानपीठ मार्का हो' मैं भी भला कहाँ भुला सकता हूँ।
एक सहज इंसान थे परसाई जी जिनमें ममता और शालीनता कूट-कूट कर भरी हुई थी, जो उन्हें ठीक से नहीं जानते थे, उनके बारे में भ्रांतियाँ पाल लेते थे। मसलन एक टी.वी. प्रोड्यूसर जो परसाई जी की कृति 'रानी नागफनी' पर धारावाहिक बना चुके थे, उनके विषय में भ्रांत थे। जब सन् नब्बे में वे दूरदर्शन के लिए धारावाहिक प्रस्ताव बनवाने आए और मैंने तथा प्रेम जनमेजय ने उनके समक्ष तेरह व्यंग्यकारों की तेरह रचनाओं पर आधारित एक धारावाहिक बनाने का विचार
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दिया, वे ख़ुश हुए, लेकिन परसाई जी का पहला नाम सुनते ही कि पायलेट एपिसोड
उनकी कृति पर हो, वे कहने लगे, 'परसाई जी डिफिकल्ट हैं, वे बड़ी शर्तें रखेंगे,
उनसे आप ही स्वीकृति मंगवाओ। लेकिन मैं उन्हें उतना पैसा नहीं दे पाऊँगा, जितना
वे मांगेंगे, आप ही निपटें .... आदि आदि ....
परसाई जी ने हमें लौटती डाक से ही स्वीकृति भेज दी तथा किसी भी
रचना को लेने तक की हामी भरी, पैसे की बात तो पत्र में कहीं थी ही नहीं। पत्र
देखकर प्रोड्यूसर विंग कमांडर दास विस्मय से भर उठे, बोले, 'दरअसल परसाई जी
से मैंने कभी डाइरेक्ट डील नहीं किया था, इसलिए गलतफहमी हुई।'
सन् तिरानवे में भी हमने परसाई जी से किसी रचना के प्रकाशन की अनुमति मांगी थी जो जगमोहन चोपड़ा की 'बहरहाल' योजना के अधीन थी, अनुमति तुरंत व बिना शर्त ही मिली। हमें उनका आशीर्वाद ही नहीं, प्यार ही नहीं, दुलार भी मिला। वे गोष्ठियों में नहीं जा पाते थे। जब से एक राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं ने उन पर शारीरिक प्रहार किए थे, तब से ही वे स्वस्थ नहीं हो पाए किंतु मानसिक शक्ति उनकी प्रबल रही जिसका उदाहरण है उनके द्वारा निरंतर लिखा जाने वाला धारदार व्यंग्य।
आज वह हिंदी व्यंग्य का स्तंभ शरीर से नहीं दिखाई देता किंतु हमारे हिंदी व्यंग्य साहित्य पर आज भी उनका मस्तिष्क राज कर रहा है, कुछ नहीं छोड़ा उन्होंने, सब पर प्रहार किया, हम लोग उनसे आगे जाने की बात दूर, उनके पासंग तक फटक भी कहाँ पा रहे हैं।
हरीश नवल की स्मृति से
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