मैं होम साइंस कॉलेज जबलपुर में पढ़ती थी। शनिवार को मेरे लोकल गार्जियन बुआ के बेटे मुझे लिवाने आ जाते थे। वहीं दो घर छोड़कर नेपियर टाउन में बाबूजी किराए के मकान में रहते थे। वे अख़बार में लिखते थे। उन दिनों फिल्म फे़यर में अँग्रेज़ी में I.S. Johar (बॉलीवुड एक्टर और मेरे मामा) का question box और हिंदी समाचार पत्र "देशबंधु" में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे परसाई जी! इन दोनों का ही मुझे और मेरी सहेलियों को या कहो, लोगों को भी बेसब्री से इंतजार रहता था।
मैं जब भी बाबूजी को मिलने जाती तो वे तख़्त पर बाहर बरामदे में लेटे होते थे, सीधे-साधे से कुर्ता पजामा पहने हुए। मेरे कॉलेज के हाल-चाल पूछते तो मैं उन्हें बहुत उत्साह से सब सुनाती थी। उसके बाद उठते और कहते चलो भीतर नाश्ता करते हैं।
कभी-कभार वे जनसाधारण की रुचि की ऐसी तीखी बातें करते कि मुझे लगता, ये quick witty हैं। व्यंग्य लेखन से मैं अपरिचित थी, लेकिन रीडर्स डायजेस्ट पढ़ने के कारण, satire समझती थी। एक बार मालूम हुआ कि उनके व्यंग्य से जल-भुनकर कुछ लोगों ने उनकी पिटाई कर दी थी। वे कहने लगे, "मतलब साफ़ है कि मेरा लिखा बढ़िया सार्थक रहा!" चोटें लगी, उसकी कोई परवाह नहीं थी। आत्मसंतुष्टि थी उन्हें। वे कहा करते थे जो जीवन के मूल्य हैं वही साहित्य के मूल्य भी हैं। साहित्य का सृजन जीवन से ही होता है इसीलिए स्पष्ट कथन और स्वाभाविक ओज के बिना साहित्य अपनी सार्थकता खो देता है। तभी तो अपने तीखे व्यंग्य से उन्होंने आम जनता के शत्रुओं को खू़ब घायल किया था। शादी के बाद भी जब कभी बुआ के घर जाती तो उनसे मिलने पहुँच जाती थी। तब तक मेरे बाबूजी विख़्यात हो चुके थे। लेकिन मैं अभी साहित्य की ओर नहीं मुड़ी थी। मेरा लेखन मेरी डायरियों तक सीमित था। मैं नाटक व नृत्य में अभिरुचि रखती थी। उस ज़माने में फोटो तो नहीं खींचे जाते थे लेकिन स्मृतियाँ मस्तिष्क में घर कर जाती थीं, जो आज तक बनी हुई हैं।
- डॉ० वीणा विज 'उदित' की स्मृति से।
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