हाँ, वो क़िस्सा भी मज़ेदार था। हुआ यूँ कि नीरज जी सब से पहले तो अमेरिका में हमारे घर ही आए (वही उनका 'base' होना था। उन के १० कार्यक्रम पहले से तय थे। वाशिंगटन डीसी हमारे घर से क़रीब ३ घंटे की ही दूरी पर है, वहाँ के श्रोता भी जाने-पहचाने हुए हैं। कई बार वहाँ कवि सम्मेलनों में जाना होता रहा है। वहाँ हमारे मित्र और गीतों के राजकुमार राकेश खंडेलवाल जी भी रहते हैं। इसलिए यह तय हुआ कि पहला कवि सम्मेलन वहीं होगा। यह भी तय हुआ कि हम सब हमारे घर से सुबह नाश्ते के बाद चल कर दोपहर तक राकेश खंडेलवाल जी के घर पहुँचेंगे, वहाँ दोपहर का भोजन होगा और फिर कुछ आराम के बाद शाम को कवि सम्मेलन। मैंने एक दिन पहले राकेश जी को अपने घर के रास्ते के निर्देश भेजने को कह दिया था। राकेश जी बेहद अच्छे आशु कवि हैं, खड़े-खड़े किसी भी विषय पर छंदबद्ध कविता लिखे देते हैं। माँ सरस्वती का उन पर वरद्हस्त है। उन्होंने हमारे घर से अपने घर तक के निर्देश (कहाँ बाएँ लेना है, कहाँ दाएँ ….) पूरी छंदबद्ध कविता के रूप में ईमेल से भेज दिए। मैंने उसे ऐसे ही मज़ाक़ के तौर पर प्रिंट कर किया लेकिन फिर कंप्यूटर से सही निर्देश भी ले लिए। जब हम घर से चलने लगे तो हड़बड़ी में कंप्यूटर वाले निर्देश घर पर रह गए और राकेश जी की कविता वाला पृष्ठ साथ आ गया। यह बात रास्ते में पता चली। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो हुआ नहीं करते थे। हमने सोचा कि कहीं रुककर पब्लिक फ़ोन ढूँढने की बजाय क्यों न राकेश खंडेलवाल जी की कविता का सहारा लिया जाए उन्हीं के घर पहुँचने के लिए। मैंने वह पर्चा नीरज जी को थमाया। मैं गाड़ी चला रहा था, नीरज जी ने बड़े आनंद के साथ उस कविता को लय में पढ़कर मुझे राकेश जी के घर पहुँचने के निर्देश दिए। आप विश्वास कीजिए कि उस कविता के निर्देशों का अनुसरण करते हुए हम सही सलामत बिना कहीं रुके राकेश जी के घर पहुँच गए। हाँ, इस पूरी कसरत का फ़ायदा यह हुआ कि जब हम घर पहुँचे तब मुझे राकेश जी का परिचय नीरज जी से नहीं करवाना पड़ा। नीरज जी रास्ते में ही राकेश जी के फ़ैन हो गए थे।
दुर्भाग्य से राकेश जी की कविता तो साथ नहीं है लेकिन एक मुक्तक जो उन्होंने उसी दिन नीरज जी के लिए लिखा था और जिसे मैंने नीरज जी को मंच पर आमंत्रित करते हुए प्रयोग किया वह मुझे अभी तक याद है,
मचलती शोखियों की एक मृदु अंगड़ाई है नीरज
नदी की धार में इठला रही जुनहाई हैं नीरज
ग़ज़ल हैं गीतिका है एक मुक्तक हैं रुबाई हैं
सुबह की आरती में गूँजती चौपाई हैं नीरज
- अनूप भार्गव की स्मृति से।
'क़िस्से साहित्यकारों के' की परिचर्चा में यह कविता आगे एक मित्र अभिनव द्वारा उपलब्ध होती हैं,
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सभी दिशा मिश्रित हो लेंगी,
जिधर चल पड़े गाड़ी प्रियवर, उसी तरफ़ को चलने दीजे,
वैसे टर्नपाईक पर दक्षिण दिशा आपको चलना होगा,
डैलावेयर और बाल्टीमोर पार फिर करना होगा,
कैलवर्टन का एक्जिट नंबर ट्वन्टी नाईन फिर ले लेना,
तीजा सिग्नल चैरी हिल का, उस पर आकर दाएँ मुड़ना,
पार कीजिए ट्वेन्टी नाईन यूएस का पुल, आगे बढ़ लें,
तीजा सिग्नल न्यू हैम्पशायर उससे भी आगे बढ़ लेना,
उसके बाद तीसरा सिग्नल, लेक टिवोली बुलेवार्ड का,
उसी मार्ग पर आकर प्रियवर, अपने दाएँ को मुड़ लेना,
पहला मोड़ बाएँ को जो है,नाम वही विलकाक्स लेन है,
उस पर नंबर सत्रह तेरह,मेरी छोटी सी कुटिया का,
वहीं आप आ जाएँ, दुपहरी भर विश्राम करें भोजन कर,
संध्या को फ़हरानी होगी फिर भाषा की हमें पताका।
- राकेश खंडेलवाल।
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