नीरज जी वास्तव में बहुत सरल व्यक्ति थे। उनसे अचानक हुई एक मुलाकात याद आती है। यह छोटा सा संस्मरण नीरज जी के प्रयाण पर दैनिक जागरण में भी प्रकाशित हुआ था......
लगभग ३० वर्ष पहले जब मैं मैत्रेयी कॉलेज में अँग्रेज़ी ऑनर्स पाठ्यक्रम की द्वितीय वर्ष की छात्रा थी, तब एक दिन बस में मिले थे नीरज। एक सीट पर सफे़द कुर्ते-पाजामे में कुछ उम्रदराज से व्यक्ति को शांत अकेले बैठे देखा तो हैरत सी हुई। संयोग से और कोई सीट खाली ना होने के कारण मुझे उन्हीं के साथ बैठना पड़ा। उन्होंने सहज ही पूछा, यह बस कितनी देर में चलेगी। मैंने उत्तर दिया, "बस अभी भर गई है, तो जल्दी ही चल पड़ेगी।" कुछ और सामान्य से उनके प्रश्न, "यहाँ पढ़ती हो?, कौन से कोर्स में? कौन सा साल? आदि। बता दिया, और फिर मैंने भी पूछ लिया, "आप यहाँ कैसे?" तो वे बोले, तुम्हारी प्रिंसिपल से मिलने आया था, "ओह!" संक्षिप्त सा उत्तर देकर मैं चुप हो गई, अब प्रिंसिपल के परिचित से छात्र क्या कहे! ज़रा रुककर वे बोले - "मेरा नाम नीरज है, गीत लिखता हूँ।"
मैं हतप्रभ थी, नीरज!!! मैं चेहरे से वाकिफ़ नहीं थी क्योंकि उस ज़माने में चित्रहार में फिल्म और गीतकार के नाम दिए जाते थे सो नाम से तो मैं भली-भांति परिचित थी। यकीन नहीं हो रहा था कि जिनके गीत हम बचपन से सुनते-पसंद करते रहे थे, मेरे सामने थे, कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वे इस तरह रास्ते में मिल जाएँगे। हम यही सोचते थे कि जिस तरह हीरो-हीरोइन और फिल्मों के अन्य कलाकार, बड़े-बड़े व्यक्तित्व हुआ करते हैं, गाड़ियों में घूमते हैं, उसी प्रकार गीतकार भी होते होंगे। मैंने कहा मुझे पके गीत पसंद हैं। वे मुस्कुराए और मेरा अगला प्रश्न सुनकर हंस पड़े थे क्योंकि मैं उनसे पूछ बैठी थी - "आप नीरज हैं तो आप बस में सफ़र क्यों कर रहे हैं?" मुस्कुराकर उन्होंने कहा था, "क्योंकि बसें सफ़र करने के लिए होती हैं।" हैरानी व संकोच में ज्यादा कुछ कह नहीं पाई फिर भी बैग से रजिस्टर निकालकर उनके हस्ताक्षर लिए थे। हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने कहा था, मेरे हस्ताक्षर लेकर क्या करोगी? मैं कोई बड़ा आदमी थोड़े ना हूँ।
फिर भी उन्होंने शायद मेरा दिल रखने को शुभकामनाओं सहित लिखकर हस्ताक्षर किए थे। वे हस्ताक्षर भी उस घर से इस घर के सफ़र में कहीं गुम हो गए। बहुत संकोच से मैंने उन्हें बताया मैं भी थोड़ा-थोड़ा लिखती हूँ..। उन्होंने कहा था, "लिखते रहना, लिखना कभी छोड़ना मत, ये तुम्हें साँसे देगा...।" १९ की वय में उस समय शायद यह समझ नहीं आया था, आज आता है। ये वाक़या न जाने कितनी बार लिखने की सोची पर लिखा नहीं...। कल उनके जाने के समाचार से अब तक मन में गूँज रहे हैं शब्द, ये तुम्हें साँसें देगा...।
लेखन की राह पर चलने को प्रेरित करने के लिए मैं सदा उनकी आभारी रहूँगी।
सच नीरज, लिखने ने ही शायद आपको साँसें दी और हमें ऐसे गीत जो हमारी साँसों में बस गए। यही होता है अमर हो जाना। गीतकार तुम्हें नमन है!
- भावना सक्सैना की स्मृति से।
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