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सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कारयित्री व्यक्तित्व : गंगाप्रसाद 'विमल'

साहित्य  में कुछ ऐसे व्यक्तित्व  होते हैं जो अपने जीवनकाल  से अधिक  जीवनोपरान्त चर्चा का विषय बनते हैं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी खासियत  होती है जो जो उन्हें जीवन्त बनाए रखती है। गंगाप्रसाद 'विमल' उनमें -से एक रहे। विमल जी से मेरी पहली मुलाकात  अक्टूबर 1990 में प्रगति मैदान, नयी दिल्ली में हुई थी। साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था संधान के संस्थापक डॉ.जीवनप्रकाश जोशी द्वारा पद्मश्री यशपाल जैन की अध्यक्षता में एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। आयोजन  में बाबा नागार्जुन, पद्मश्री क्षेमचन्द 'सुमन' ,विष्णुप्रभाकर, कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. मोतीलाल जोतवाणी, गंगाप्रसाद विमल,प्रमुख हस्ताक्षर की गरिमामयी उपस्थिति के अतिरिक्त डॉ. विजय, सुरेश यादव, नवीन खन्ना आदि के साथ मैं भी था। उन दिनों मैं एकयुवा जनवादी कवि के रूप में विशेष चर्चित था। मेरी "प्रजातन्त्र" कविता-कृति 1988 में प्रकाशित हो चर्चा के केंद्र  में थी। मैंने विमल जी को अपनी पुस्तक सादर भेंट की। उन्हों उलट-पलटकर देखा फिर बोले, 'मैं बाद में इस पर अपना मन्तव्य  भेजूंगा।'


यह सुयोग ही कहा जाएगा कि इतने महान साहित्यकारों के बीच पहली बार मुझे कार्यक्रम संचालन का दायित्व डॉ. जोशी ने सौंपा।  बेहिचक सभी के साभिवादन के साथ संचालन किया। वहीं पर विमल जी आवास का पता  लिया। उन दिनों वे कस्तूरबा गांधी रोड,सरकारी फ्लैट में रहते थे और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, आर, के पुरम् में निदेशक  थे। दिनोंदिन आत्मीयता और घनिष्ठता बढ़ती गयी। कभी कुछ समकालीन साहित्यिक चर्चाएं भी हो जाती थीं।

मैंने सातवें दशक के आखिरी दौर में कहानी आन्दोलन के सम्बन्ध में बात शुरू की तो उन्होंने समकालीन  कहानी के प्रस्तोता के नाते उस पर प्रकाश डालते हुए कहने लगे--"दरअसल अकहानी आन्दोलन 

परम्परित शिल्प  का विरोध तो करता है, साथ ही नये शिल्प के प्रति भी उदासीन है। मेरे भीतर महीप सिंह की तरह कोई आन्दोलन  खड़ा करने की मंशा थी नहीं न मैं महत्वाकांक्षा से ग्रसित था, न मठाधीश बनने की प्रवृत्ति ने ही मुझे आन्दोलन के लिए  खड़ा किया।मैं चाहता था कि इसे वापकता मिले। इसी नियत से मैंने  नयी कहानी से अलग साबित करने लिए  तर्क-जाव बुनना शुरू किया और काफी हद तक मुझे सफलता भी मिली। चूँकि 'समकालीन' आधुनिकता का बोधक है तथा एक विशिष्ट समय से सम्बद्ध है। लेकिन  इसकी उम्र की कोई सीमा नहीं है।'...बाद में इस आन्दोलन से दूना सिंह, राजकमल चौधरी, प्रयाग शुक्ल आदि कथाकार  भी जुड़ गए। इस में अपनी सफलता ही कहूंगा।'

'दरअसल समकालीन कहानी उस कहानी को कहते हैं जिसमें समसामयिक स्थितियों -परिस्थितियों

के परिप्रेक्ष्य में कथा का सृजन किया  जाता है। यह नयी कविता के पैटर्न 

 गठजोड़ नहीं, एक नये प्रकार  का विचार विनिमय था। रूढ़िवादी स्थिति का प्रतिकार था। शिल्पगत विविधता से कुछ  कहानीकारों का नाराज होना स्वाभाविक था। किन्तु विमल जी उसकी परवाह नहीं की और अपने सिद्धांत  पर अड़े रहे अंल समकालीनता शब्द बहुल रूप में प्रचलन में है। कई महत्वपूर्ण  कथाकारों ने अपनी भूमिका निभाई। उनका नाम गिनाना जरूरी नहीं। हां, उनकी कहानियां एक नया चिन्तन सौंपती हैं। खैर।'


विमल जी  मृदुभाषी थे और बड़े ही नपे-तुले शब्दों में बातचीत करते थे। उनमें आत्मीय प्रेम और सहृदयता का भाव स्वयं ही झलकता था। मैं जब भी उनसे मिलने उनका आवास या कार्यालय  में गया,उन्होंने बिना किसी औपचारिकता के तत्काल बातचीत की। मैंने अपनी आलोचनात्मक कृति "समकालीन कविता: विविध सन्दर्भ" की टाइप्ड पांडुलिपि दिखाई  और कुछ कवियों पर प्रसंगतः चर्चा की तो वे मन्द मुस्कान के साथ कहने लगे, आपने बड़ा गम्भीर  विवेचन किया है किन्तु जिन कुछ कवियों को छोड़ दिया है, वो माफ नहीं करेंगे।' उनकी बात सही साबित हुई। पुस्तक  प्रकाशित  होते ही की विरोधी बन गये। डा.नरेन्द्र मोहन, परमानन्द श्रीवास्तव, कुमार विमल और श्याम परमार जैसे प्रबुद्ध  कवियों की कविताओं पर मैंने निष्पक्ष रूप से जो विश्लेषण किया उससे उनका असहज होना स्वाभाविक था। जब मैंने ये बातें विमल जी से बतायी तो वे हंस पड़े।...


उन्होंने अपना उपन्यास "मानुषखोर" मुझे दिया। कुछ दिनों बाद जब उनसे भेंट हुई तो मैंने उसके कथ्य-शिल्प पर संक्षिप्त चर्चा की। उनकी कविताओं में समकालीन सामाजिक-राजनीतिक  विसंगतिपूर्ण स्थितियों का बड़ा बेबाक  चित्रण हुआ है। वे किसी कृति/रचना की चीड़फार बड़ी खूबी से करते थे। उनका आलोचक बड़ा सजग-सक्रिय था। उनका आलोचन-कर्म बड़ी गम्भीर प्रकृति का था। उसमें सिर्फ  रचना का गुण-वैशिष्ट्य होता था, न कि तथाकथित कुछ आलोचक की भांति व्यवहार -पक्ष। मैं उनके मिलनसार स्वभाव  से भलीभांति परिचित रहा।उनका निष्पक्ष-निष्कपट स्वभाव सभी के लिए उदारता का दृष्टान्त कहा जा सकता है। 


एकबार  केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय  में "हिन्दी के विकास में मुस्लिम  साहित्यकारों का योगदान " पर डॉ. नगेन्द्र की अध्यक्षता में चर्चा संगोष्ठी का आयोजन था। डॉ.नगेन्द्र के अलावा कई महान साहित्यकार पधारे थे। विमल जी चर्चा प्रवर्तन कर रहे थे।

डॉ.सुलेखचन्द्र शर्मा करीब आधा घंटा बोलने के बाद बोले, अब मैं मूल विषय पर आता हूं। तब विमल जी ने रोकते हुए कहा,अब आपका व्याख्यान हो चुका। शर्मा जी कुछ बोलना चाह रहे थे तब नगेन्द्र जी ने कहा-' बस।' आगे उन्होंने उन्हें कुछ भी बोलने नहीं दिया। चर्चा के उपरान्त सभी लोग चले गए। विमलजी ने अपनी कार  में मुझे बिठाया और बातें करते हुए धौला कुआं के बस स्टैंड पर ड्राप किया।

यह उनके विमल व्यक्तित्व  की विरलता- विराटता का प्रमाण कहा जा सकता है। उन्होंने ही तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरलाल शर्मा के मेरी कृति "युगांक" (महाकाव्य) के लोकार्पण का परामर्श  दिया और लोकार्पण के अवसर पर राष्ट्रपति भवन में साथ रहे।


  -डॉ.राहुल की स्मृति से


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