बात २९ दिसंबर, १९८४ की है। सुबह ७:४५ के लगभग प्रयागराज एक्स्प्रेस इलाहाबाद के स्टेशन पर पहुँची। मैं उत्साह से भरा था। पता चला था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से आयोजित हीरक जयंती-समारोह : १९८४-८५ में बाहर से अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों (जैनेंद्र, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, भोला भाई पटेल आदि) के साथ कदाचित सबसे कम उम्र का साहित्यकार मैं ही था। डॉ० निर्मला जैन (मेरी अध्यापिका और शोध-निर्देशिका) भी निमंत्रित थीं। लेकिन वे नहीं जा सकीं थीं और जिनके बारे में संयोजक डॉ० प्रेमकांत टंडन ने बाद में मुझे भेजे गए एक पत्र (२१-१-१९८५) में लिखा,
"आपके प्रति आभार! आप हमारे आयोजन में सम्मिलित हुए, हार्दिक आभार। आदरणीया डॉ० निर्मला जैन जी नहीं आ सकीं, इसका हमें बड़ा दुख है। उनके वैदुष्यपूर्ण व्यक्तित्व का कुछ और ही प्रभाव होता है, उनकी उपस्थिति से हमारा आयोजन निश्चय ही अधिक गौरवान्वित होता, पर क्या किया जा सकता है।"
कवि जगदीश गुप्त हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और मेरे कवि रूप के वे बहुत प्रशंसक थे। समारोह के लिए उन्होंने ही मेरा चयन किया था। स्मरण हो आया है कि जब उनसे व्यक्तिगत रूप से अपरिचित था तो उन्हें अपने पहले कविता-संग्रह 'रास्ते के बीच' (१९७७) की प्रति भेजी थी। इसी संग्रह को केंद्र में रखकर उन्होंने पत्र लिखा था। अपने वरिष्ठों से अपवाद की तरह मिलनेवाले ऐसे पत्र बहुत ही प्रेरणादायी होते हैं। पत्र भाई ठाकुरप्रसादसिंह प्रदत्त उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के आतिथ्य में, लखनऊ से भेजा गया था, चौधरी लांज, क०नं० ४ से, प्रातः ६ बजे, सुखशैया से जागते ही। 'प्रिय दिविक रमेश' के नाम लिखा था,
"‘रास्ते के बीच’ पाने पर तुरंत पत्र लिखकर इतने अच्छे संग्रह के लिए अपनी ख़ुशी, साधुवाद के साथ, ज़ाहिर करना चाहता था, पर यह लोभ आ गया कि कविताएँ पढ़ लूँ, तब क़लम उठाऊँ। यहाँ आते समय संग्रह साथ लेता आया, सब तो नहीं पर आधे से अधिक पढ़ गया। मैंने सोचा अभी लौटने पर भी तो रास्ता तय करना है, बाक़ी इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते पढ़ लूँगा।
कल यहाँ पंत, महादेवी, अज्ञेय, विष्णुकांत शास्त्री, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, परमानंद श्रीवास्तव, भगवती चरण वर्मा से लेकर बालशौरि रेड्डी तक हिंदी के चतुर्दिक-समागत साहित्यकार गड्डमड्ड थे और प्रधानमंत्री ,मुख्यमंत्री, राज्यपाल-लेखपाल भी शामिल हुए। पुरस्कारों की धूम और दर्शकों के हुजूम के बीच जो अनुभव किया वह इस समय रूम में बैठकर संकेत से तुम्हें लिख रहा हूँ। पत्रकारों के प्रमुख मुख भी कलमवत खिले हुए थे या भोजन पर बालकवत पिले हुए थे। सो भाई खूब मज़ा लिया मेले का, ढेले का और सरकारी तबेले का।
मुझे प्रकृति के साथ साहचर्य और रोजमर्रा ज़िंदगी की कश्मकश के बीच उसे अर्थपूर्ण बनाने वाली कई कविताएँ विशेष पसंद आईं, जैसे 'इनके पक्ष में'। भाषाहीन पेड़ों के एहसास से संवेदनशील कवि का जुड़ना साहित्य में सहज रहा है, उसे प्रतीकात्मक अर्थ देकर आपने और आत्मीय बना दिया है। "काश मेरे भीतर बजी होती नब्ज़" जैसी सशक्त पंक्ति के साथ शहर के आदमी में उपजे हुए पराएपन की अनुभूति का गहरा हो जाना स्वाभाविक है। "वे लोग इतने क़रीब आ गए हैं कि धब्बे बन गए हैं" की बिंबात्मकता के मौलिक पक्ष को मैं चित्रकार के नाते अधिक पहचान रहा हूँ। अभी यहीं तक रास्ता तय किया है।
हाँ, भाषा में 'मालूम चलता' जैसे प्रयोग अवश्य असाधरण लगे।
शेष फिर,
संग्रह पाकर मुझे कितना परितोष है, क्या उसे अलग से भी कहना होगा?
सदभाव सहित (हस्ताक्षर -जगदीश गुप्त)।"
भले ही थोड़ी भटकन हो गई है, लेकिन मुझे इस पत्र की याद आने पर इसे बताना ज़रूरी लगा। खैर, दो बर्थ वाले प्रथम श्रेणी के कूपे में पूरी रात एकाधिकार रहा और अब मैं बिस्तर बाँधकर खिड़की के पास बैठा प्लेटफॉर्म पर खोजी निगाह दौड़ा रहा था। टेलीफ़ोन पर बात हुई थी तो डॉ० जगदीश गुप्त ने बताया था कि कोई न कोई स्टेशन पर लेने आएगा, शायद अब्दुल बिस्मिल्लाह। अच्छा लगा सुनकर। अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह दिल्ली आते थे तो मेरे पास ही ठहरते थे। जामिया मिलिया में, उनकी नौकरी के लिए मैं उन्हें नामवर सिंह जी के घर भी ले गया था। सिफारिश भी की थी। उनका कवि रूप मैं जान चुका था और उनका संघर्ष भी। विचारधारा की दृष्टि से भी हम करीब थे ही। १९७७ में उन्होंने वाराणसी से प्रकाशित अपने पहले कविता संग्रह 'मुझे बोलने दो' की प्रति भेजी थी। इतना सब सोचते-सोचते मैंने पाया कि स्टेशन पर मुझे लिवाने ले जाने वाला कोई प्राणी नजर नहीं आ रहा था। निश्चिंतता थी तो एक ही। पिछले प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जैनेंद्र कुमार जी सपत्नीक थे और वे भी हिंदी विभाग की हीरक जयंती से संबद्ध आयोजन के लिए ही आ रहे थे। उनसे नई दिल्ली स्टेशन पर ही भेंट हो चुकी थी। विश्वास था कि जैनेंद्र जी को अवश्य कोई लेने आया होगा। हल्का-सा बिस्तर और सूटकेस पकड़े मैं नीचे उतर आया था। कुली कर लिया। सोचा सामान हल्का है तो क्या, कुली को तो काम मिलना ही चाहिए। तभी डॉ० जगदीश गुप्त मिल गए। साथ ही विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी। काम आसान हो गया। पता चला कि वात्स्यायान जी (अज्ञेय) भी इसी गाड़ी से आए हैं। सब लोग प्लेटफॉर्म से बाहर आए। लेने आने वालों में डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ० प्रेमकांत टंडन (संयोजक), राय जी आदि भी थे। हम लोगों को कारों में बैठा कर सिविल लाइन्स के ट्यूरिष्ट बंग्लो में ले आया गया।
यहाँ ठहरने का बहुत ही अच्छा प्रबंध देखकर अच्छा लगा। लोगों के आत्मीय आदर-सत्कार ने बहुत ही प्रभावित किया। विभाग से जुड़े सभी नारी-पुरुषों ने बहुत ही आवभगत की। चाय-नाश्ता हुआ। स्नान कर तरोताज़ा हुआ। उद्घाटन का समय ३:३० बजे का था। सोचा थोड़ा घूम लिया जाए। नीचे उतरकर आया तो पता चला कि जैनेंद्र, श्रीमती जैनेंद्र और जगदीश गुप्त महादेवी जी के यहाँ जाने को तैयार थे। मुझे भी किसी ने कहा, शायद हिंदी विभाग की निर्मला अग्रवाल ने, कि मैं भी साथ जाना चाहूँ तो चला जाऊँ।
हम सब अब इलाहाबाद कि खुली सड़कों पर थे। काफ़ी रास्ता तय करने के बाद हम पेड़ों से भरी एक कोठी के सामने खड़े थे। यही घर था महादेवी वर्मा जी का। मैं याद करने लगा था उनके घर के बारे में पढ़ी बातें। महादेवी जी के द्वारा पालिता लड़की ने बताया कि वहाँ सुबह से हमारी ('हम' में मुझे छोड़ दिया जाए, मैं तो पिच्छलग्गू जैसा था। मैं यूँ भी अपने बारे में बहुत कम गलतफ़हमियाँ पालता हूँ।) प्रतीक्षा की जा रही थी। पता चला कि जैनेंद्र जी इलाहाबाद में महादेवी जी के ही घर पर टिका करते हैं, लेकिन इस बार नहीं। हम लोग अंदर आ गए। एक पुरानी सी कार पोर्च में खड़ी थी। उसके बाद कुछ कुर्सियाँ रखी हुई थीं। श्रीमती जैनेंद्र, जगदीश गुप्त और मैं बैठ गए। जैनेंद्र जी खड़े रहे। कारण पूछा तो बताया, "मैं आप सब के बीहाफ (behalf) पर महादेवी जी के स्वागत के लिए खड़ा हूँ। बैठे रहने में मुझे संकोच हुआ। फिर एक पेड़ को जो नींबू जाति का था, को देखने के बहाने खड़ा हो गया। तभी पता चला कि महादेवी जी ने सब को अंदर बुलाया है। जूते बाहर उतारकर हम लोग उनके कमरे में गए। मेरे लिए सबकुछ नया-नया था। कमरे में महादेवी जी और गंगाप्रसाद पांडेय के चित्र थे। भगवान की मूर्तियाँ थीं। तुलसी के चित्र थे। भारतीयता की पूरी छवि फूट रही थी। हाँ, बीच में रूमहीटर की उपस्थिति अजीब लग रही थी। टी०वी० कुछ खप रहा था। टी०वी० के संबंध में महादेवी जी ने बताया कि पोते की ज़िद पर खरीदा था। लेकिन वह उन्हें पसंद नहीं था। उनके अनुसार, जब देखो तब एक लड़का और लड़की नाचते नज़र आते हैं। यह बताते हुए उनकी मुख-मुद्रा, जिसमें थोड़ी मुस्कान और थोड़ा तिरस्कार भाव था, देखने लायक थी। तभी उनकी पालिता लड़की ने समाचार सुनने के लिए टी०वी० शुरु किया। संयोग देखिए- किसी फ़िल्म का एक अंश दिखाया जा रहा था जिसमें नायक और नायिका नाच रहे थे। टी०वी०, महादेवी जी के द्वारा, फौरन बंद करवा दिया गया। हाँ, यह तो बताना भूल ही गया, जब महादेवी जी जैनेंद्र के सामने आईं तो दोनों खूब गले मिले। भाई-बहिन का बहुत ही आत्मीय और मीठा मिलन था। जैनेंद्र जी उनके पास ही दीवान पर बैठ गए थे। जगदीश गुप्त जी कुर्सी पर और श्रीमती जैनेंद्र और मैं ज़मीन पर बैठ गए।
महादेवी जी इंदिरा गाँधी की हत्या को लेकर बहुत भावुक हो उठी थीं। बात तो चली थी भोपाल में फिसलने के कारण उनके घुटने में आई चोट से, लेकिन उन्होंने इंदिरा गाँधी के छ्लनी हुए शरीर के, उनके शब्दों में हृदय विदारक, चित्र खींचकर बात को एक दूसरा ही मोड़ दे दिया था। जगदीश जी ने महादेवी जी से 'शब्द' (सबद) सुनाने का अनुरोध किया। भावुकता में ही महादेवी जी ने अपनी एक कविता सुनाई- "प्रियदर्शनी - लेकिन वरा क्यों तुमने मरण त्योंहार"...कुछ ऐसी ही। यह मेरा प्रबल सौभाग्य ही था कि उनके मुँह से उनकी कविता सुनने का अवसर मिला। बहुत ही सहज और आत्मीय भाव से भरी लग रही थीं। अपने हाथों से बनाई एक मिठाई भी खिलाई। उन्होंने रहस्य में रखते हुए बताया था कि उन्होंने एक विशेष मिठाई बनाई है- फूल और फल से, जो हानिकारक नहीं है। असल में जगदीश गुप्त (शायद अपने मोटापे के कारण) और जैनेंद्र जी ने मिठाई खाने से मना किया था। जब मिठाई हमारे सामने आई तो वह गुलाबजामुन थी। हम खूब हँसे थे। उन्होंने रामगढ़ के सेब भी बहुत ही प्यार से खिलाए थे। उनका आग्रह अद्भुत था।
हम, याने जैनेंद्र जी, श्रीमती जैनेंद्र और मैं विदा लेकर बाहर आ गए। जगदीश जी डॉ० धीरेंद्र वर्मा के संबंध में कुछ शब्द लिखवाने के लिए वहीं अंदर रह गए थे। बाहर सेवकों ने बताया कि महादेवी जी किसी भी पेड़ को काटने-कतरने नहीं देतीं। दातुन तक के लिए टहनी तोड़ना वर्जित है।
तभी एक अद्भुत दृश्य देखा। एक रिक्शा में कुछ लोग आए। वे अपने साथ एक काले रंग का कुता बाँध कर लाए थे। महादेवी जी की पालिता लड़की को बुलाया गया। आने पर वह कुत्ता उसे दिखा कर पूछा गया, "यही है न वह कुत्ता?", लड़की ने मना कर दिया और एक बार फिर कुत्ते का हुलिया बताया। मैंने पूछा बात क्या है? बताया गया कि महादेवी जी का एक प्रिय कुत्ता कुछ पहले गुम हो गया। उन्होंने कुत्ते के लिए अख़बार में इश्तहार छपवा दिया और साथ ही ढूँढकर लाने के लिए कुछ इनाम देना भी तय किया। तब से इलाहाबाद की गलियों में संदेहास्पद स्थिति में पाए गए कुत्तों को पकड़-पकड़ कर महादेवी जी के यहाँ लाने की होड़ मच गई। एक तो मामला महादेवी जी के कुत्ते का था और ऊपर से इनाम की उम्मीद। मुझे लगा कि इलाहाबाद के कितने ही कुत्ते तो, पकड़े जाने के डर से भाग गए होंगे। तभी किसी ने मज़ाक में कहा, शायद काशी। बहुत ही मज़ा आया था मुझे यह किस्सा सुन कर।
- दिविक रमेश की स्मृति से।