‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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रविवार, 14 अप्रैल 2024

प्रेमचंद जी और महादेवी वर्मा


प्रेमचंदजी से मेरा प्रथम परिचय पत्र के द्वारा हुआ। तब मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी। मेरी 'दीपक' शीर्षक एक कविता सम्भवत: 'चांद' में प्रकाशित हुई। प्रेमचंदजी ने तुरन्त ही मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा। तब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि कहानी और उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं। मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे कौतूहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा।


उनका प्रत्यक्ष दर्शन तो विद्यापीठ आने के उपरान्त हुआ। उसकी भी एक कहानी है। एक दोपहर को जब प्रेमचंदजी उपस्थित हुए तो मेरी भक्तिन ने उनकी वेशभूषा से उन्हें भी अपने ही समान ग्रामीण या ग्राम-निवासी समझा और सगर्व उन्हें सूचना दी--गुरुजी काम कर रही हैं।


प्रेमचंदजी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया--तुम तो खाली हो। घड़ी-दो घड़ी बैठकर बात करो।


और तब जब कुछ समय के उपरान्त मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है। विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार, भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक-चर्चा आरम्भ है।


प्रेमचंदजी के व्यक्तित्व में एक सहज संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होती। अपनी गम्भीर मर्मस्पर्शी दृष्टि से - उन्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया और 'अपनी सहज - सरलता से, आत्मीयता' से उसे सब ओर दूर-दूर तक पहुंचाया।


जिस युग में उन्होंने लिखना आरम्भ किया था, उस समय हिन्दी कथा-साहित्य - जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कुतूहल में - प्रेमचन्द उसे एक व्यापक धरातल पर ले आये, जो सर्व सामान्य था। उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलिहान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई।


प्राय: जो व्यक्ति हमें प्रिय होता है, जो वस्तु हमें प्रिय होती है हम  उसे देखते हुए थकते नहीं। जीवन का सत्य ही ऐसा है। जो आत्मीय है वह चिर नवीन भी है। हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं। कवि के कर्म से कथाकार का कर्म भिन्न होता है। 'कवि अन्तर्मुखी रह सकता है और जीवन की गहराई से किसी सत्य को खोज कर फिर ऊपर आ सकता है। लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में शोध करना पड़ता है, उसे निरन्तर सबके समक्ष रहना पड़ता है। शोध भी उसका रहस्य- मय नहीं हो सकता, एकान्तमय नहीं हो सकता। जैसे गोताखोर जो समुद्र में जाता है, अनमोल मोती खोजने के लिए, वहीं रहता है और - मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है। परन्तु नाविक को तो अतल गहराई का ज्ञान भी रहना चाहिए और ज्वार-भाटा भी समझना चाहिए, अन्यथा वह किसी दिशा में नहीं जा सकता।


प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की। पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी। संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे। वह उन्हें छोड़ते चले गये। ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं। उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं। वह भूलने के योग्य नहीं है। उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं। ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके सम्बन्ध में प्रेमचंद का निश्चित मत नहीं है। दर्शन, साहित्य, जीवन, राष्ट्र, साम्प्रदायिक एकता, सभी विषयों पर उन्होंने विचार किया है और उनका एक मत और ऐसा कोई निश्चित मत नहीं है, जिसके अनुसार उन्होंने आचरण नहीं किया। जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरन्तर आचरण किया। इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है।


रजनीकांत शुक्ल की स्मृति से 


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शनिवार, 8 अप्रैल 2023

प्रणाम महादेवी

 कभी आपने देखा है कि चारा-पानी भरपूर ले लेने के बाद गाय अपना बदन चारों और समेटकर बैठ जाती है, सो नहीं रही होती, पर आँखें उसकी मुँदी रहती हैं और मुँह चलता रहता है, मानो धीरे-धीरे कुछ चबा रही है। इसे कहा जाता है कि गाय जुगाली कर रही है। हम मनुष्य भी कभी-कभी यादों की जुगाली करते रहते हैं और इस जुगाली को यदि लिपिबद्ध कर दें तो वह संस्मरण बन जाता है।

बच्चनजी की एक कविता है-

"जीवन की आपा धापी में कब

कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह

जो किया, कहा, माना, उसमें क्या

वक्त मिला

सोच सकूँ बुरा-भला ।"

इस कविता में आगे एक पंक्ति आती है, 'अनवरत समय की चक्की चलती जाती है' और फिर कहते हैं, 'मैं जहाँ खड़ा था, कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह फिर पाना मुझको मुश्किल है। '

बिल्कुल सच लिखा है, हमारे वर्तमान का प्रत्येक क्षण भविष्य की ओर उन्मुख होकर समय की अनवरत चलती चक्की में चलता रहता और बदलता रहता है, किंतु यादों की जुगाली करते समय हमारे भीतरी मन में वह समय केवल उसी कालखंड में सिमटकर अनवरत चलते हुए भी स्थिर हो जाता है। मेरे जीवन की शाम भी अब गहराने

• लगी है और यादों की जुगाली इस समय सिमट आई है जीवन के उस कालखंड में, जब मैं उन्नीस बरस की थी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए. फाइनल की विद्यार्थी थी। बात कर रही हूँ आज से आधी सदी से भी पहले की, यानी सन् १९५४ की। वह ज़माना हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का स्वर्ण युग कहा जाता है। विभाग के अध्यक्ष थे प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. धीरेंद्र वर्मा, उपाध्यक्ष थे एकांकी नाटकों के जनक और कवि डॉ. रामकुमार वर्मा। प्रमुख अध्यापकों में थे डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. बृजेश्वर वर्मा, डॉ. उदयनारायण तिवारी, डॉ. माताप्रसाद, डॉ. चंद्रावती त्रिपाठी. डॉ. शैल कुमारी और कनिष्ठ अध्यापक थे डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. जगदीश गुप्त, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. माता बदल जायसवाल ।

केवल विभाग का ही स्वर्ण युग नहीं, वरन् हिंदी साहित्य जगत् के इतिहास का भी वह स्वर्ण युग था, जो अपनी छटा सबसे ज्यादा इलाहाबाद में ही बिखेर रहा था। गद्य और पद्य दोनों के ही शीर्षस्थ लोग उन दिनों इलाहाबाद में ही सक्रिय थे। काव्य के क्षेत्र की जो बृहदत्रयी मानी जाती है- प्रसाद, पंत और महादेवी, उनमें से केवल प्रसादजी इलाहाबाद में नहीं, वरन् काशी में रहते थे, लेकिन इस त्रयी के बाद जो चौथा नाम लिया जाता है, वह निरालाजी इलाहाबाद के ही थे। उस समय हिंदी में चतुर्दिक बड़े ऊँचे दरजे का रचनात्मक लेखन हो रहा था, साथ ही साथ समालोचनात्मक साहित्य भी बहुत अच्छा लिखा जा रहा था और बड़ी गंभीरता से पढ़ा जाता था। उन दिनों कुछ ही समय पहले डॉ. नगेंद्र का एक लेख छपा था, जिसमें महादेवीजी की दीपशिखा पर समालोचना करते हुए उन्होंने 'विशाल भारत' नामक पत्रिका में लिखा था, 'महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Subli- mation संस्कार का आधार लेकर चली हैं। अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुँकार उठी है। "

उस समय एम. ए. की परीक्षा में आठ विषय लिये जाते थे, जिनमें से भाषा विज्ञान और निबंध, ये दो विषय डॉ. धीरेंद्र वर्मा स्वयं पढ़ाते थे। निबंध पढ़ाते समय उन्होंने हम सब विद्यार्थियों को डॉ. नगेंद्र का उक्त वक्तव्य पढ़कर सुनाया और कहा आप सब इस पर अपनी प्रतिक्रियास्वरूप निबंध लिखकर लाइए। सबसे अच्छे निबंध को हिंदी परिषद् के वार्षिक उत्सव में बी.ए., एम.ए. के सभी विद्यार्थियों और अध्यापकों के समक्ष पढ़कर सुनाने का अवसर मिलेगा। मुझे क्या मालूम था कि तब मेरा लिखा वह निबंध मेरे जीवन का शिलालेख बन जाएगा। मेरे भविष्य की नींव की सबसे मजबूत पकड़ बना दी उस निबंध ने।

जो स्वयं कवि न हो, उसे कविता पर लिखने या आलोचना करने का हक दिया ही नहीं जाना चाहिए। ऐसा यदि कहूँ तो मेरी बात हास्यास्पद मानी जाएगी। लेकिन क्या करूँ कि “महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। वे प्रारंभ से ही Sublimation संस्कार का आधार लेकर चली हैं, अतः उस कला में वह उद्दाम वेग, वह तीव्रता आ ही नहीं पाई, जो प्रसाद और निराला में कहीं-कहीं हुंकार उठी है।" ऐसी पंक्तियाँ मुझे हास्यास्पद लग रही हैं। विद्वान् समालोचक ने पढ़ा होगा, जो उनके प्रिय कवि निराला ने लिखा, 'क्या कहूँ आज जो नहीं कही / दुःख ही जीवन की कथा रही' और उनके दूसरे प्रिय कवि प्रसाद ने लिखा, 'दुःख है परदा झीना नील/ छिपाए है जिसमें सुख गात।' क्या उन्होंने नहीं पढ़ा कि महादेवी ने लिखा, 'दुःख के पद छू बहते झर-झर/कण-कण से आँसू के निर्झर/हो उठता जीवन मृदु उर्वर ।'

महादेवी का दुःख जीवन को मृदु और उर्वर बनानेवाला दुःख है। प्रसाद, निराला और महादेवी में वही अंतर है, जो नारी और पुरुष में है । पुरुष है अधिकार चेतना का मूर्तिमान सत्य, नारी है आत्मसमर्पण की साकार प्रतिमा, नारी जीवन का सागर आँसुओं में डूबकर पार करती है, "तरी को ले जाओ मँझधार/ डूबकर हो जाओगे पार/ विसर्जन ही है कर्णधार/वही पहुँचा देगा उस पार।" (महादेवी)

पुरुष जमे हुए अश्रुओं के हिम को पैरों तले कुचलकर हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर अनंत आकाश के नीचे गर्व से शीश उठाकर जीवन की साधना का प्रारंभ करता है। प्रसाद के मनु की तरह। वे जीवन की अनेकता से कठोर संघर्षकर मनुष्यता के गर्व के द्वारा सामरस्य, अद्वैत और एकता का स्थापन करते हैं, दूसरी ओर महादेवी अपनी नारी सुलभ प्रेम भावनाओं से जीवन के सत्य को, एकता को, अद्वैत को अपने अनेक्य नश्वर ममता के आँचल में ही ढूँढ़ निकालती हैं।

'हंस' पत्रिका ने रेखाचित्र अंक निकाला था, उसमें डॉ. रामकुमार वर्मा ने महादेवी के निर्मल हास्य पर लिखा था, "वे हँसती हैं। उन्मुक्त हँसी, निर्झर सी, हँसती हैं तो हँसती ही जाती हैं, जैसे अपनी हँसी की प्राचीरों में मन की वेदना को छिपाने का प्रयत्न कर रही हों।' डॉ. साहब की कवि-सुलभ भावना अच्छी तो है, मगर मुझे स्वीकार नहीं। महादेवी निराशावादिनी कभी नहीं रहीं। उनकी वेदना तो उनके आनंद के विकास का साधन है। वे उसे छिपाएँगी क्यों? उनका काव्य आत्म वंचना नहीं, आत्मनिर्माण का काव्य है। महादेवी की कला उनके जीवन की अनंत अनुभूतियों की समष्टि है। प्रत्येक गीत एक सौंदर्य खंड है। दुःख पर उन्हें दुःख नहीं होता। वे तो उसकी उपासिका हैं ऐसा ही है उनका प्रेमलोक, "मिटना था निर्वाण जहाँ/नीरव रोदन था पहरेदार।"


अपनी इस वेदना पर उन्हें तरस नहीं आता, वे तो उस पर असीम श्रद्धा और गौरव का भाव रखती हैं, "मेरी लघुता पर आती/जिस दिव्य लोक को व्रीड़ा/ उसके प्राणों से पूछो / वे पाल सकेंगे पीड़ा ?" मेरा डॉ. नगेंद्र से पूछने का मन होता है प्रसाद और निराला की कला का उद्दाम वेग और हुंकार तो देखा, किंतु वे वेदना के इस उच्चतम शिखर की "जिसकी विशाल छाया में/जग बालक सा रोता है/मेरी आँखों में वह दु:ख / आसू बन उजास क्यों नहीं देख पाए। महादेवी के आँसुओं का 'उद्दाम वेग' देखना है? सुनिए, कर सोता है।" यह उद्दाम वेग किसी बड़े साम्राज्य की रानी - महारानी में भी आपको देखने को नहीं मिलेगा; जो महिला महीयसी महादेवी की कविता में मिलता है, जब वह कहती हैं, “अपने इस सूनेपन की/मैं रानी हूँ मतवाली/प्राणों का दीप जलाकर/करती रहती दीवाली।'' जिस Sublimation को नगेंद्रजी ने देखा, उसकी प्रकृति देखिए क्या है—महादेवी कहती हैं, “चिंता क्या है है निर्मम / बुझ जाए दीपक मेरा/हो जाएगा तेरा ही/पीड़ा का राज्य अँधेरा।" नगेंद्रजी को इन पंक्तियों की 'हुंकार' नहीं सुनाई दी और न समझ में आई यह 'हुंकार' "पंथ होने दो अपरिचित / प्राण रहने दो अकेला / अन्य होंगे चरण हारे/और हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे/दुःखवृति निर्माण उन्मद/यह अमरता नापते पद/बाँध देंगे अंक, संसृति/से तिमिर में स्वर्ण-वेला । "

हाँ, महादेवी को दुःख से प्रेम है, पीड़ा से प्रेम है, आँसुओं से प्रेम है। उन्हें इन ससीम अनुभूतियों की सीमित चेतना से प्रेम है, क्योंकि इन्हीं की पृष्ठभूमि में उनके इष्ट की व्यापकता का विकास होता है। जिस दिन ये न रहेंगी, उस दिन व्यापकता न रहेगी। जिस दिन दुःख का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा, उस दिन सुख अपने लिए कौन सा नीड़ ढूँढ़ेगा। इसीलिए तो वे कहती हैं, "जब असीम से हो जाएगा/मेरी लघुसीमा का मेल/ देखोगे हे नाथ! अमरता खेलेगी मिटने का खेल।" इसीलिए महादेवी तरह-तरह से इसी बात को व्यक्त करती चलती हैं, कैसी मीठी है उनकी 'हुंकार', "क्या अमरों का लोक मिलेगा/तेरी करुणा का उपहार/रहने दो हे देव !/ अरे यह मेरा मिटने का अधिकार।"


प्रसाद, पंत, निराला तीनों ही महादेवी के समकालीन रहे हैं, सभी एक बढ़कर हैं, अद्वितीय, अप्रतिम हैं, किंतु पुरुष के सृजन पर आधारित मानदंडों से नारी की कला को मापना नारीत्व की विशिष्टता का अपमान है। नगेंद्र कहते हैं- महादेवी के काव्य में कभी जीवन की वासनाओं से संघर्ष ही नहीं हुआ। मैं कहूँगी गुरुदेव ! नारी को जीवन से संघर्ष की आवश्यकता ही नहीं, जिस सत्य को रीतिकालीन महाकवि देव जीवन भर विलास के पश्चात् समझ पाए, जिस सत्य को तुलसी ने रत्ना की उपेक्षा पाकर सीखा, जिस सत्य की अकस्मात चमक उठनेवाली ज्योति ने सूर की आँखों में चकाचौंध पैदा कर दी, उस सत्य को सीखने के लिए मीरा को जीवन के अनुभवों की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। उसने शैशव में ही 'गिरधर गोपाल' को पा लिया था। तर्क-वितर्क से नहीं, संघर्ष से नहीं, चिंतन से नहीं, केवल मन की श्रद्धा से, हृदय की भावना से, आँसुओं की धारा से। स्वयं प्रसाद ने स्वीकार किया है, नारी तुम केवल श्रद्धा हो, महादेवी के काव्य में निराला को ढूँढ़ना या प्रसाद के काव्य में महादेवी की छाया की खोज हास्यास्पद है, किंतु नारी हो या पुरुष प्रसाद हों या महादेवी-काव्य के आदर्श चिरंतन हैं। काव्य का साध्य अमर । चाहे नारी हो या पुरुष, दोनों के साहित्य सृजन की मूल चेतना एक ही है और वह है सत्य की खोज।

काव्य का साधन सत्य है । वह सत्य, जो एक है, चिरंतन है। अपरिवर्तनीय है, खंड नहीं है, पूर्ण है। यही सत्य इन सभी की कविताओं का साधन है, सौंदर्य है।

किसी कवि की कविता या कलाकार की कला को प्रेम करो और कोई उसके लिए कुछ ऐसा कह दे, जो आपको अप्रिय लगे तो प्रतिक्रिया का जो बवंडर आपके मन में उठता है, उस वेग को रोकना कठिन होता है। यही हुआ था उस दिन मेरे साथ । लगभग पचास बरस पहले के रखे कागज़ पीले पड़ चुके हैं, जर्जर हो चुके हैं । जहाँ- तहाँ से स्याही भी धुल गई है। इस सबमें से बीन-बटोरकर यह सब आपके सामने प्रस्तुत किया, लेकिन इस समय मुझे तो याद आ रहा है, वह दिन, जब मेरे गुरु डॉ. रामकुमार वर्मा मुझे महादेवीजी के घर ले गए थे और मैंने महादेवीजी को यह लेख पढ़कर सुनाया था। शांत और निर्वेद भाव से सुनती रही थीं महादेवीजी। सुनने के बाद बिना कुछ बोले बाहर अपने बाग की ओर गई थीं और अपने हाथों से लगाए एक अमरूद के पेड़ में से दो गद्दर अमरूद तोड़कर एक तश्तरी में चाकू के साथ रखकर लाई थीं। खुद अपने हाथ से तराश कर तश्तरी मेरे हाथ में देते हुए एक फाँक मुझे अपने हाथ से खिलाई थी। मूर्तिमंत आशीर्वाद बन गई थीं उस समय वे मेरे लिए । प्रशंसा में कुछ शब्द बोलतीं तो शायद वे शब्द मेरे भीतरी मन तक इस तरह न धँस गए होते। शब्दों की अपेक्षा इस तरह दिया गया यह आशीर्वाद मेरे जीवन की अमूल्यतम निधियों में से एक है। इस समय भी उनके हाथों से तराशे गए उस गदराए अमरूद की वह भीनी सुगंध और वह मधुर स्वाद मेरे मुँह में ही नहीं, वरन पूरे शरीर के रोम-रोम में घुल रहा है और मेरा मनप्राण उनकी पावन स्मृति को प्रणाम कर रहा है-प्रणाम महादेवी।


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पुष्पा भारती की स्मृति से

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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

अग्नि में तप्त कुंदन सी: महीयसी महादेवी

























   प्रायः मीरा और महादेवी जी की प्रेमभावना एवं विरह वेदना की तुलना की जाती है । प्रेम और विरह शाश्वत भावनाएँ होने का युगीन वैचारिकता से प्रभावित होती हैं । मीरा के समर्पण में जो आत्म विसर्जन है महादेवी में नहीं लगता। मीरा कहती है - जो पहरावै सोई पहरूँ….पराकाष्ठा है “बेचे तो बिक जाऊँ “  महादेवी जी का जयघोष - “ क्या अमरों का लोक मिलेगा, तेरी करुणा का उपहार , रहने दो देव ! अरे, मेरा मिटने का अधिकार !  परब्रह्म प्रिय, प्रेमिका जो आत्मसमर्पण मीरा में है वह महादेवी में नहीं हो सकता। आधुनिक नारी अपने व्यक्तित्व बोध के कारण “बेचे तो बिक जाऊँ “ -यह पराकाष्ठा संभव नहीं है।

 मेरे पास “यामा”(सचित्र ) दीपशिखा ( सचित्र ) मेरी अमूल्य निधि के रूप संजोये हुए हैं ! आज कितना कुछ लिखती जा रही हूँ दिल नहीं भर रहा है । लगभग सभी कविताएँ कंठस्थ है । आप के सान्निध्य की स्मृतियों का चलचित्र मेरे आँखों के सामने चल रहा है । मैंने महादेवी जी से पूछा, इनमें बदलू कुम्हार की बनायी सरस्वती की मूर्ति कौन सी है। आप ने हँसते हुए एक सरस्वती की मूर्ति की तरफ़ इशारा किया । बदलू कुम्हार के संस्मरण की पंक्ति आज अनायास याद आ रही है । “ कला किसी की क्रीतदासी नहीं है ।"

 यह लेख तत्कालीन समाज और साहित्य- समाज  का ऐतिहासिक दस्तावेज है । ऐसे समय में महादेवी ने अपने सामाजिक कार्य में एवं विद्यापीठ चलाने में कितना संघर्ष किया होगा इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है  । अकेली स्त्री के वर्चस्व को स्वीकार कर पाना पुरुष समुदाय को ही नहीं , स्त्री समाज को भी कठिन है । आज भी कठिन है तो आप के समय के लिए क्या कहें ? वैवाहिक जीवन अस्वीकार करने के महादेवी जी के व्यक्तिगत  कारणों को जानने का कौतूहल ज़्यादा था। अतीत के चलचित्र में आप ने कहा था - इन स्मृति चित्रों के साथ मेरे जीवन का अंश भी आ गया। रंगों के प्रति उदासीनता और श्वेत वस्त्र धारण के संबंध में मारवाडिन भाभी की स्मृति को ताजा किया । महादेवी का व्यक्तित्व अपने समय के सामाजिक , राजनीतिक  एवं साहित्यिक संघर्ष की अग्नि में तप्त कुंदन है  ।  ………… डॉ० मणि की स्मृतियों से


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गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

महादेवी वर्मा का वैवाहिक जीवन

महीयसी महादेवी वर्मा के परिवार में कई पीढ़ियों से लड़कियाँ पैदा नहीं हुई थी, इसलिए जब महादेवी का जन्म हुआ तो इनके दादाजी श्री बांके बिहारी जी ने इन्हें घर की देवी मानते हुए इनका नाम 'महादेवी' रख दिया। इनके पिताजी श्री गोविंद प्रसाद और माताजी सभी धार्मिक प्रकृति के थे। इनका पूरा परिवार रामायण और गीता का पाठ किया करता था। इनके दादाजी को अपनी पोती का विवाह करने का बहुत उत्साह था इसलिए महादेवी का विवाह उनकी बाल्यावस्था में ही कर दिया गया था, उस समय वे मात्र ९ वर्ष की थीं।

महादेवी जी का विवाह जिस उम्र में हुआ, उस समय वे विवाह का मतलब भी नहीं जानती थी। उन्होंने स्वयं अपने संस्मरणों में लिखा है, "दादा ने पुण्य लाभ से विवाह रच दिया, पिताजी उनका विरोध नहीं कर सके। बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे। हमें व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई वाले कमरे में बैठकर हमने खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाइन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रातः काल जब आँख खुली तो कपड़े में गाँठ लगी देखी, तो उसे खोल कर भाग गए।" 

वे सांसारिक जीवन से विरक्त होने के कारण ही कभी पति-पत्नी संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाईं। इसके लिए विद्वानों ने उनकी आलोचना भी की है। गंगाप्रसाद पांडेय के अनुसार- "ससुराल पहुँचकर महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उसे उनके ससुराल वाले ही जानते हैं.....रोना, बस रोना। नई बालिका वधू के स्वागत समारोह का उत्सव फीका पड़ गया और घर में एक आतंक छा गया। फलतः दूसरे ही दिन उनके ससुर महोदय उन्हें वापस लौटा गए।"
अपने पिताजी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप नारायण वर्मा कुछ समय तक अपने ससुर के पास ही रहे। सबने बहुत कोशिश की महादेवी जी को सांसारिक जीवन में रचाने-बसाने की, लेकिन अपनी पुत्री की मनोदशा देखकर उनके बाबूजी ने श्री वर्मा को इंटर करवाकर लखनऊ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिला दिया और वहीं बोर्डिंग हाउस में उनके रहने की व्यवस्था कर दी। उसके बाद महादेवी जी इलाहाबाद के क्राॅस्थवेट गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने चली गईं। उन दोनों के बीच कभी-कभी पत्राचार होता था और उनके पतिदेव उनसे मिलने इलाहाबाद आते थे। उन्होंने महादेवी जी के कहने के बावजूद दूसरी शादी नहीं की।

आगे भी महादेवी जी का जीवन एक संन्यासिनी जैसा ही था। उन्होंने जीवन भर सफेद साड़ी ही पहनी। वे आजीवन तख्त पर ही सोईं और उन्होंने कभी शीशे में अपना मुँह नहीं देखा। मीराबाई की तरह महादेवी जी का प्रियतम साकार नहीं है, जिस प्रकार मीराबाई अपने प्रियतम गिरधर गोपाल के विरह में तड़पती हैं, उसी प्रकार महादेवी भी अपने अज्ञात प्रियतम के विरह में पीड़ा का अनुभव करती हैं। दोनों ही प्रेम दीवानी हैं, इसी कारण महादेवी जी को 'आधुनिक युग की मीरा' कहा जाता है। तभी उन्होंने लिखा है-
"मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना, इतिहास यही
उमड़ी कल थी, मिट आज चली।
मैं नीर भरी दुःख की बदली।"

महादेवी जी ने अपनी रचनाओं में लिखा है- "माँ से पूजा और आरती के समय सुने हुए सूर, तुलसी और मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचने की प्रेरणा देते थे। माँ से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्रायः सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पड़ोस की एक विधवा बहू के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला आदि शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे। व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा का बाहुल्य होने के कारण मुझे बौद्ध साहित्य भी प्रिय रहा है।"

सरिता सुराणा की स्मृति से।

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महादेवी जी का पशु प्रेम

बात २९ दिसंबर, १९८४ की है। सुबह ७:४५  के लगभग प्रयागराज एक्स्प्रेस इलाहाबाद के स्टेशन पर पहुँची। मैं उत्साह से भरा था। पता चला था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से आयोजित हीरक जयंती-समारोह : १९८४-८५ में बाहर से अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों (जैनेंद्र, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, भोला भाई पटेल आदि) के साथ कदाचित सबसे कम उम्र का साहित्यकार मैं ही था। डॉ० निर्मला जैन (मेरी अध्यापिका और शोध-निर्देशिका) भी निमंत्रित थीं। लेकिन वे नहीं जा सकीं थीं और जिनके बारे में संयोजक डॉ० प्रेमकांत टंडन ने बाद में मुझे भेजे गए एक पत्र (२१-१-१९८५) में लिखा, 
"आपके प्रति आभार! आप हमारे आयोजन में सम्मिलित हुए, हार्दिक आभार। आदरणीया डॉ० निर्मला जैन जी नहीं आ सकीं, इसका हमें बड़ा दुख है। उनके वैदुष्यपूर्ण व्यक्तित्व का कुछ और ही प्रभाव होता है, उनकी उपस्थिति से हमारा आयोजन निश्चय ही अधिक गौरवान्वित होता, पर क्या किया जा सकता है।"  

कवि जगदीश गुप्त हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और मेरे कवि रूप के वे बहुत प्रशंसक थे। समारोह के लिए उन्होंने ही मेरा चयन किया था। स्मरण हो आया है  कि जब उनसे व्यक्तिगत रूप से अपरिचित था तो उन्हें अपने पहले कविता-संग्रह 'रास्ते के बीच' (१९७७)  की प्रति भेजी थी। इसी संग्रह को केंद्र में रखकर उन्होंने पत्र लिखा था। अपने वरिष्ठों से अपवाद की तरह मिलनेवाले ऐसे पत्र बहुत ही प्रेरणादायी होते हैं। पत्र भाई ठाकुरप्रसादसिंह प्रदत्त उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के आतिथ्य में, लखनऊ से भेजा गया था, चौधरी लांज, क०नं० ४ से, प्रातः ६ बजे, सुखशैया से जागते ही। 'प्रिय दिविक रमेश' के नाम लिखा था, 

"‘रास्ते के बीच’ पाने पर तुरंत पत्र लिखकर इतने अच्छे संग्रह के लिए अपनी ख़ुशी, साधुवाद के साथ, ज़ाहिर करना चाहता था, पर यह लोभ आ गया कि कविताएँ पढ़ लूँ, तब क़लम उठाऊँ। यहाँ आते समय संग्रह साथ लेता आया, सब तो नहीं पर आधे से अधिक पढ़ गया। मैंने सोचा अभी लौटने पर भी तो रास्ता तय करना है, बाक़ी इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते पढ़ लूँगा।

कल यहाँ पंत, महादेवी, अज्ञेय, विष्णुकांत शास्त्री, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, परमानंद श्रीवास्तव, भगवती चरण वर्मा से लेकर बालशौरि रेड्डी तक हिंदी के चतुर्दिक-समागत साहित्यकार गड्डमड्ड थे और  प्रधानमंत्री ,मुख्यमंत्री, राज्यपाल-लेखपाल भी शामिल हुए। पुरस्कारों की धूम और दर्शकों के हुजूम के बीच जो अनुभव किया वह इस समय रूम में बैठकर संकेत से तुम्हें लिख रहा हूँ। पत्रकारों के प्रमुख मुख भी कलमवत खिले हुए थे या भोजन पर बालकवत पिले हुए थे। सो भाई खूब मज़ा लिया मेले का, ढेले का और सरकारी तबेले का।

मुझे प्रकृति के साथ साहचर्य और रोजमर्रा ज़िंदगी की कश्मकश के बीच उसे अर्थपूर्ण बनाने वाली कई कविताएँ विशेष पसंद आईं, जैसे 'इनके पक्ष में'। भाषाहीन पेड़ों के एहसास से संवेदनशील कवि का जुड़ना साहित्य में सहज रहा है, उसे प्रतीकात्मक अर्थ देकर आपने और आत्मीय बना दिया है। "काश मेरे भीतर बजी होती नब्ज़" जैसी सशक्त पंक्ति के साथ शहर के आदमी में उपजे हुए पराएपन की अनुभूति का गहरा हो जाना स्वाभाविक है। "वे लोग इतने क़रीब आ गए हैं कि धब्बे बन गए हैं" की बिंबात्मकता के मौलिक पक्ष को मैं चित्रकार के नाते अधिक पहचान रहा हूँ। अभी यहीं तक रास्ता तय किया है। 

हाँ, भाषा में 'मालूम चलता' जैसे प्रयोग अवश्य असाधरण लगे।

शेष फिर, 
संग्रह पाकर मुझे कितना परितोष है, क्या उसे अलग से भी कहना होगा? 

सदभाव सहित (हस्ताक्षर -जगदीश गुप्त)।"

भले ही थोड़ी भटकन हो गई है, लेकिन मुझे इस पत्र की याद आने पर इसे बताना ज़रूरी लगा। खैर, दो बर्थ वाले प्रथम श्रेणी के कूपे में पूरी रात एकाधिकार रहा और अब मैं बिस्तर बाँधकर खिड़की के पास बैठा प्लेटफॉर्म पर खोजी निगाह दौड़ा रहा था। टेलीफ़ोन पर बात हुई थी तो डॉ० जगदीश गुप्त ने बताया था कि कोई न कोई स्टेशन पर लेने आएगा, शायद अब्दुल बिस्मिल्लाह। अच्छा लगा सुनकर। अब्दुल्ल बिस्मिल्लाह दिल्ली आते थे तो मेरे पास ही ठहरते थे। जामिया मिलिया में, उनकी नौकरी के लिए मैं उन्हें नामवर सिंह जी के घर भी ले गया था। सिफारिश भी की थी। उनका कवि रूप मैं जान चुका था और उनका संघर्ष भी। विचारधारा की दृष्टि से भी हम करीब थे ही। १९७७ में उन्होंने वाराणसी से प्रकाशित अपने पहले कविता संग्रह 'मुझे बोलने दो' की प्रति भेजी थी। इतना सब सोचते-सोचते मैंने पाया कि स्टेशन पर मुझे लिवाने ले जाने वाला कोई प्राणी नजर नहीं आ रहा था। निश्चिंतता थी तो एक ही। पिछले प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जैनेंद्र कुमार जी सपत्नीक थे और वे भी हिंदी विभाग की हीरक जयंती से संबद्ध आयोजन के लिए ही आ रहे थे। उनसे नई दिल्ली स्टेशन पर ही भेंट हो चुकी थी। विश्वास था कि जैनेंद्र जी को अवश्य कोई लेने आया होगा। हल्का-सा बिस्तर और सूटकेस पकड़े मैं नीचे उतर आया था। कुली कर लिया। सोचा सामान हल्का है तो क्या, कुली को तो काम मिलना ही चाहिए। तभी डॉ० जगदीश गुप्त मिल गए। साथ ही विश्वविद्यालय के विद्यार्थी भी। काम आसान हो गया। पता चला कि वात्स्यायान जी (अज्ञेय) भी इसी गाड़ी से आए हैं। सब लोग प्लेटफॉर्म से बाहर आए। लेने आने वालों में डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ० प्रेमकांत टंडन (संयोजक), राय जी आदि भी थे। हम लोगों को कारों में बैठा कर सिविल लाइन्स के ट्यूरिष्ट बंग्लो में ले आया गया।

यहाँ ठहरने का बहुत ही अच्छा प्रबंध देखकर अच्छा लगा। लोगों के आत्मीय आदर-सत्कार ने बहुत ही प्रभावित किया। विभाग से जुड़े सभी नारी-पुरुषों ने बहुत ही आवभगत की। चाय-नाश्ता हुआ। स्नान कर तरोताज़ा हुआ। उद्घाटन का समय ३:३० बजे का था। सोचा थोड़ा घूम लिया जाए। नीचे उतरकर आया तो पता चला कि जैनेंद्र, श्रीमती जैनेंद्र और जगदीश गुप्त महादेवी जी के यहाँ जाने को तैयार थे। मुझे भी किसी ने कहा, शायद हिंदी विभाग की निर्मला अग्रवाल ने, कि मैं भी साथ जाना चाहूँ तो चला जाऊँ।

हम सब अब इलाहाबाद कि खुली सड़कों पर थे। काफ़ी रास्ता तय करने के बाद हम पेड़ों से भरी एक कोठी के सामने खड़े थे। यही घर था महादेवी वर्मा जी का। मैं याद करने लगा था उनके घर के बारे में पढ़ी बातें। महादेवी जी के द्वारा पालिता लड़की ने बताया कि वहाँ सुबह से हमारी ('हम' में मुझे छोड़ दिया जाए, मैं तो पिच्छलग्गू जैसा था। मैं यूँ भी अपने बारे में बहुत कम गलतफ़हमियाँ पालता हूँ।) प्रतीक्षा की जा रही थी। पता चला कि जैनेंद्र जी इलाहाबाद में महादेवी जी के ही घर पर टिका करते हैं, लेकिन इस बार नहीं। हम लोग अंदर आ गए। एक पुरानी सी कार पोर्च में खड़ी थी। उसके बाद कुछ कुर्सियाँ रखी हुई थीं। श्रीमती जैनेंद्र, जगदीश गुप्त और मैं बैठ गए। जैनेंद्र जी खड़े रहे। कारण पूछा तो बताया, "मैं आप सब के बीहाफ (behalf) पर महादेवी जी के स्वागत के लिए खड़ा हूँ। बैठे रहने में मुझे संकोच हुआ। फिर एक पेड़ को जो नींबू जाति का था, को देखने के बहाने खड़ा हो गया। तभी पता चला कि महादेवी जी ने सब को अंदर बुलाया है। जूते बाहर उतारकर हम लोग उनके कमरे में गए। मेरे लिए सबकुछ नया-नया था। कमरे में महादेवी जी और गंगाप्रसाद पांडेय के चित्र थे। भगवान की मूर्तियाँ थीं। तुलसी के चित्र थे। भारतीयता की पूरी छवि फूट रही थी। हाँ, बीच में रूमहीटर की उपस्थिति अजीब लग रही थी। टी०वी० कुछ खप रहा था। टी०वी० के संबंध में महादेवी जी ने बताया कि पोते की ज़िद पर खरीदा था। लेकिन वह उन्हें पसंद नहीं था। उनके अनुसार, जब देखो तब एक लड़का और लड़की नाचते नज़र आते हैं। यह बताते हुए उनकी मुख-मुद्रा, जिसमें थोड़ी मुस्कान और थोड़ा तिरस्कार भाव था, देखने लायक थी। तभी उनकी पालिता लड़की ने समाचार सुनने के लिए टी०वी० शुरु किया। संयोग देखिए- किसी फ़िल्म का एक अंश दिखाया जा रहा था जिसमें नायक और नायिका नाच रहे थे। टी०वी०, महादेवी जी के द्वारा, फौरन बंद करवा दिया गया। हाँ, यह तो बताना भूल ही गया, जब महादेवी जी जैनेंद्र के सामने आईं तो दोनों खूब गले मिले। भाई-बहिन का बहुत ही आत्मीय और  मीठा मिलन था। जैनेंद्र जी उनके पास ही दीवान पर बैठ गए थे। जगदीश गुप्त जी कुर्सी पर और श्रीमती जैनेंद्र और मैं ज़मीन पर बैठ गए। 

महादेवी जी इंदिरा गाँधी की हत्या को लेकर बहुत भावुक हो उठी थीं। बात तो चली थी भोपाल में फिसलने के कारण उनके घुटने में आई चोट से, लेकिन उन्होंने इंदिरा गाँधी के छ्लनी हुए शरीर के, उनके शब्दों में हृदय विदारक, चित्र खींचकर बात को एक दूसरा ही मोड़ दे दिया था। जगदीश जी ने महादेवी जी से 'शब्द' (सबद) सुनाने का अनुरोध किया। भावुकता में ही महादेवी जी ने अपनी एक कविता सुनाई- "प्रियदर्शनी - लेकिन वरा क्यों तुमने मरण त्योंहार"...कुछ ऐसी ही। यह मेरा प्रबल सौभाग्य ही था कि उनके मुँह से उनकी कविता सुनने का अवसर मिला। बहुत ही सहज और आत्मीय भाव से भरी लग रही थीं। अपने हाथों से बनाई एक मिठाई भी खिलाई। उन्होंने रहस्य में रखते हुए बताया था कि उन्होंने एक विशेष मिठाई बनाई है- फूल और फल से, जो हानिकारक नहीं है। असल में जगदीश गुप्त (शायद अपने मोटापे के कारण) और जैनेंद्र जी ने मिठाई खाने से मना किया था। जब मिठाई हमारे सामने आई तो वह गुलाबजामुन थी। हम खूब हँसे थे। उन्होंने रामगढ़ के सेब भी बहुत ही प्यार से खिलाए थे। उनका आग्रह अद्भुत था।

हम, याने जैनेंद्र जी, श्रीमती जैनेंद्र और मैं विदा लेकर बाहर आ गए। जगदीश जी डॉ० धीरेंद्र वर्मा के संबंध में कुछ शब्द लिखवाने के लिए वहीं अंदर रह गए थे। बाहर सेवकों ने बताया कि महादेवी जी किसी भी पेड़ को काटने-कतरने नहीं देतीं। दातुन तक के लिए टहनी तोड़ना वर्जित है। 

तभी एक अद्भुत दृश्य देखा। एक रिक्शा में कुछ लोग आए। वे अपने साथ एक काले रंग का कुता बाँध कर लाए थे। महादेवी जी की पालिता लड़की को बुलाया गया। आने पर वह कुत्ता उसे दिखा कर पूछा गया, "यही है न वह कुत्ता?", लड़की ने मना कर दिया और एक बार फिर कुत्ते का हुलिया बताया। मैंने पूछा बात क्या है? बताया गया कि महादेवी जी का एक प्रिय कुत्ता कुछ पहले गुम हो गया। उन्होंने कुत्ते के लिए अख़बार में इश्तहार छपवा दिया और साथ ही ढूँढकर लाने के लिए कुछ इनाम देना भी तय किया। तब से इलाहाबाद की गलियों में संदेहास्पद स्थिति में पाए गए कुत्तों को पकड़-पकड़ कर महादेवी जी के यहाँ लाने की होड़ मच गई। एक तो मामला महादेवी जी के कुत्ते का था और ऊपर से इनाम की उम्मीद। मुझे लगा कि इलाहाबाद के कितने ही कुत्ते तो, पकड़े जाने के डर से भाग गए होंगे। तभी किसी ने मज़ाक में कहा, शायद काशी। बहुत ही मज़ा आया था मुझे यह किस्सा सुन कर।

- दिविक रमेश की स्मृति से।

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डॉ० वर्मा : महादेवी जी के पतिदेव

 …..चंद शब्द और 
…..महादेवी वर्मा जी के पतिदेव डॉक्टर वर्मा की कोठी दिल्ली में बंगलो रोड पर थी/है। दिल्ली विश्वविद्यालय के एकदम समीप। बहुत सौम्य थे डॉक्टर वर्मा।

शादी वाली रात ही महादेवी जी ने डॉक्टर वर्मा को बता दिया था कि वे बौद्ध भिक्षुणी हैं, उन्हें शादी नहीं करनी थी …
…उनका संबंध विच्छेद नहीं हुआ किंतु कभी एक दिन को भी गृहस्थी नहीं बसी/बनी...

अद्भुत थे डॉक्टर वर्मा, महादेवी जी के जन्मदिन पर उन्हें शुभकामना देते थे और चुहल करते थे कि अब बस जाएँ…….

हरीश नवल की स्मृति से।

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एक मीठी याद, महादेवी जी के साथ

मैंने महीयसी महादेवी वर्मा जी के साथ यात्रा की थी। हमारा परिवार लखनऊ में रहता था। मैं तब वहाँ के प्रसिद्ध महिला डिग्री कॉलेज में ही बी०ए० की छात्रा थी। सन १९५३ दिसंबर में प्रयाग में महाकुंभ का आयोजन था। मेरे जीजाजी पी०ए०सी० में कमांडर थे। उनकी भी कुंभ में ड्यूटी लगी थी। हमारे परिवार ने भी कुंभ में जाने का प्रोग्राम बनाया। मेरे पिताजी ने बताया कि एक चार बर्थ वाले फ़र्स्ट क्लास में हमारे पास तीन बर्थ हैं। चौथी बर्थ पर एक एम०एल०ए० महादेव वर्मा हैं। हमें बड़ी जिज्ञासा हुई कि पता नहीं कौन और कैसा ये आदमी होगा? थोड़ी ही देर में डिब्बे में महादेवी जी पधारीं तो हमें ये पता चला कि रिज़र्वेशन लिस्ट में असावधानी से 'महादेवी' के स्थान पर 'महादेव' लिख गया है। हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैंने पुरस्कार में मिली शचीरानी गुर्टू की पुस्तक 'महीयसी महादेवी' पढ़ी हुई थी। महादेवी जी की 'स्मृति की रेखाएँ' और 'अतीत के चलचित्र' आदि भी पढ़ ली थीं। उनके साथ रात को सोने के पूर्व बहुत बातें कीं, 'गिल्लू' और 'चीनी यात्री' की भी चर्चा हुई। वे बड़े ही शांत भाव से मुस्कुराते हुए उत्तर देती रहीं थी। वार्ताएँ बड़ी ज्ञानवर्धक और सरस हुईं। उन्होंने प्रयाग महिलाविद्यापीठ आने का निमंत्रण भी हमें दिया था। ये भी ज्ञात हुआ कि निराला जी रक्षाबंधन पर उनसे राखी बँधवाने रिक्शे पर आते थे तो उनसे ही दो रुपये माँगते थे। पूछने पर कहते थे कि एक रुपया रिक्शे वाले को दूँगा और दूसरा रुपया राखी बाँधने पर तुमको दूँगा। ये सुनकर हमें बहुत हँसी आई थी। मेरी ये यात्रा अविस्मरणीय रहेगी।

महादेवी जी की जिन उँगलियों ने तूलिका से 'दीपशिखा' में कविता के सामने मनमोहक चित्रों की पेंटिंग की थी, मैं देर तक उनको निहारती रही थी, तब मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में एम०ए० कर रही थी। तभी १९५६ में उनका वैदुष्यपूर्ण भाषण सुनकर भी मैं अभिभूत हो गई थी। तब मैंने उनके गीत "ये मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो।" को भी  स्वरबद्ध करके गाया था। वे प्रसन्न हुई थीं।

प्रो० शकुंतला बहादुर की स्मृति से।

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