‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

जब मुख्यमंत्री स्वयं शिवानी जी के घर पहुँचे


 उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) राज्य के गठन के बाद यहां के जागरूक साहित्यकारों, विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने सपना देखा कि साहित्य- संगीत-कला के विकास के लिए प्रतिबद्ध अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी उत्तरांचल साहित्य अकादमी गठित की जाए। डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी एवं श्री चमन लाल प्रद्योत ने अपने इस अनुज से आग्रह किया कि अकादमी के गठन के लिए एक ज्ञापन तैयार करें, जिसे उपयुक्त समय पर मुख्यमंत्री को समर्पित किया जाएगा। मैंने तदनुसार एक ज्ञापन का प्रारूप तैयार किया, जिसमें राष्ट्रभाषा हिंदी सहित उत्तरांचल की सभी बोलियों और उनके साहित्य के विकास, साहित्यकारों के संरक्षण, पुस्तकों के प्रशासन में राजकीय सहायता आदि के लिए राज्य में उत्तरांचल साहित्य अकादमी की स्थापना की मांग की गई थी। जिन्हें भी दिखाया गया, सबने उसका समर्थन किया और देखते ही देखते हस्ताक्षर अभियान शुरू हो गया। इसमें डॉ. बुद्धि बल्लभ थपलियाल, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. राज नारायण राय, डॉ. सुधारानी पांडे आदि तमाम साहित्यकारों ने सोत्साह भाग लिया। तय हुआ कि उत्तरांचल के अधिक से अधिक साहित्यकारों के हस्ताक्षर इस ज्ञापन पर कराए जाएं।

इसी बीच 1-2 जून, 2001 को देहरादून में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का अधिवेशन हुआ, जिसमें भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से साहित्यकार और हिंदीप्रेमी पधारे। उस अवसर का लाभ उठाते हुए देश भर के साहित्यकारों के समक्ष इस मुद्दे को रखा गया और सब ने मुक्तकंठ से इस अभियान का समर्थन किया। इस प्रकार देश के 17 राज्यों से आए लगभग 250 साहित्यकारों के बहुमूल्य हस्ताक्षरों से वह ज्ञापन समृद्ध हो गया।

अब प्रश्न था मुख्यमंत्री जी से समय लेकर साहित्यकारों की टोली द्वारा उस ज्ञापन को सौंपने का जब कार्य का संकल्प स्वच्छ मन से किया जाता है तो परिस्थितियाँ स्वयं अनुकूल हो जाती हैं।

जुलाई के प्रथम सप्ताह में एक दिन अचानक देश की मूर्धन्य लेखिका और कुमाऊ की गौरवशालिनी पुत्री आदरणीया गौरा पंत शिवानी जी ने मुझे फोन किया- 'बुद्धिनाथ, मैं एक सप्ताह से तुम्हारे घर के पास ही इंदिरा नगर में अपनी बेटी उमा के पास रह रही हूँ। स्वास्थ्य खराब होने के कारण मैंने समारोहों में जाना बिलकुल बंद कर दिया है। इसलिए केवल तुम्हें  फोन कर रही हूँ कभी समय निकालकर मुझसे मिल लो।'

मैंने मान लिया कि साहित्य अकादमी के लिए अगला कदम उठाने का समय आ गया है। तय हुआ कि वह ज्ञापन शिवानी जी के हाथों ही मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को सौपा जाए। डॉ. त्रिवेदी ने स्वामी जी को फोन कर साहित्य अकादमी की आवश्यकता के बारे में बताया और उक्त ज्ञापन आदरणीया शिवानी जी के नेतृत्व में उन्हें सौंपने के लिए समय मांगा। शिवानी जी का नाम सुनकर स्वामी जी अभिभूत हो उठे। उन्होंने छूटते ही कहा कि 'शिवानी जी मेरे लिए आदरणीय हैं। वे पूरे देश की गौरव हैं, जबकि मैं एक प्रदेश का मामूली मुख्यमंत्री इसलिए वे मेरे यहां आएँ, इसके बजाय मैं ही उनके पास जाकर उनका अभिनंदन करना चाहूंगा।'

स्वामी जी का यह उद्गार सुनकर हमलोग चकित रह गए। हमें लगा कि यह व्यक्ति देश का शीर्षस्थ नेता तो है ही, अच्छे संस्कारों और सात्विक विचारों वाला महापुरुष भी है। इनका विराट व्यक्तित्व इनकी कुर्सी से बहुत ऊंचा है।

मैंने शिवानी जी को स्वामी जी की इच्छा के बारे में बतलाया तो वे भी अवाक रह गई मैंने उनसे स्वामी जी से मिलने के लिए समय मांगा। उनकी सुविधा के अनुसार रविवार 15 जुलाई 2001 को 11:00 का समय निर्धारित हुआ। तदनुसार स्वामी जी को अवगत कराया गया।

उस दिन स्वामी जी का 10:00 बजे से ही व्यस्त कार्यक्रम था मगर उन्होंने उसमें फेरबदल कर 11:00 बजे शिवानी जी से मिलने का कार्यक्रम बनाया। चूँकि ज्ञापन शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री को देना था, इसलिए बड़ी संख्या में साहित्यकारों को ले जाना संभव नहीं था। तय हुआ कि डॉ. त्रिवेदी, श्री प्रद्योत और डॉ. मिश्र ही प्रतीक रूप में वहां उपस्थित रहें।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 15 जुलाई की सुबह 10:30 बजे हम दोनों भाई (मैं और डॉ. त्रिवेदी जी) मुख्यमंत्री निवास पर पहुंचे और प्रद्योतजी सीधे शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री निवास पर मिलने वालों की भारी भीड़ को देखते हुए मुझे लगा कि 12 बजे से पहले वहां से चलना नहीं हो पाएगा। मगर ठीक 11 बजे मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी जी घर से निकल पड़े और उनके साथ हमलोग 10 मिनट में इंदिरा नगर पहुँच गए। स्वामी जी का विशेष निर्देश था कि सुरक्षा और प्रोटोकॉल के नाम पर ज्यादा लाव लश्कर उनके साथ न हो, क्योंकि एक साहित्यकार से मिलने जाना है।

मामूली सुरक्षा व्यवस्था के साथ वे अपने युग की महान साहित्यकार के घर गए थे, लेकिन उनके जाने से पहले ही आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्थानीय प्रतिनिधि इस ऐतिहासिक घटना को रिकॉर्ड करने के लिए पहुंच चुके थे।

वहाँ स्वामी जी ने शिवानी जी के पांव छूकर प्रणाम किया और उन्हें शाल ओढ़ाकर तथा स्मृति चिह्न के रूप में रुद्राक्ष की माला और गंगाजली भेंट कर उनका अभिनंदन किया। उन्होंने कहा कि शिवानी के उपन्यासों को मैं शुरू से पढ़ता रहा हूँ। उत्तरांचल के जनजीवन को जिस उदात्त शैली और सुसंस्कृत भाषा में इन्होंने हिंदी जगत के समक्ष रखा, वह हम सभी के लिए गौरव की बात है। मैं तो नई पीढ़ी के लेखकों से आग्रह करूँगा कि वे शिवानी जी के उपन्यासों को पढ़कर भाषा और शैली सीखें।

शिवानी जी अपने इस राजसी सत्कार से गर्वित थीं। उपयुक्त अवसर देखकर मैंने उत्तरांचल साहित्य अकादमी की चर्चा शुरू की और हस्ताक्षरकर्ता साहित्यकारों की सूची में सबसे ऊपर शिवानी जी से हस्ताक्षर कराकर उन्हीं के हाथों उक्त ज्ञापन मुख्यमंत्री को दिलवा दिया।

इस अवसर पर शिवानी जी ने कहा कि अकादमी का गठन पुरस्कार देने के लिए नहीं हो। पुरस्कार की राजनीति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है और भाषा व साहित्य की अकादमियों का वातावरण प्रदूषित कर दिया है। इसलिए मैं चाहती हूं कि उत्तरांचल साहित्य अकादमी साहित्य सृजन और साहित्यकारों के संरक्षण व विकास पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करे। वहाँ उपस्थित आकाशवाणी के समाचार संपादक श्री राघवेश पांडेय ने स्वामी जी से पूछा कि क्या हम मान लें कि यह प्रस्ताव आपको स्वीकार है? मुख्यमंत्री ने तत्काल कहा- शिवानी जी का यह आदेश मुझे स्वीकार क्या, शिरोधार्य है।

देश के एक महान साहित्यकार और महान राजनेता के बीच आत्मीय मिलन की और सत्ता द्वारा साहित्य के प्रति राजसी सम्मान की यह घटना ऐसी नहीं थी जिसे इतिहास याद रख सके, मगर नवोदित उत्तरांचल राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री द्वारा एक वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति दिखाया गया विनम्र शिष्टाचार इस राज्य का ऐसा छंदोमय अध्याय है, जिस पर आने वाली पीढ़ियां गर्व करेंगी।


 - डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र की स्मृति से


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मंगलवार, 9 मई 2023

शिवानी होने का अर्थ!

समकालीन हिंदी कथा साहित्य में एक  अनूठा लोक रंजित इतिहास हैं गौरा पन्त शिवानी। शिवानी साहित्य की गंगा थीं। उनका ज्यादा समय कुमायूँ की पहाड़ियों में बीता लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आने के बाद साहित्य जगत में शिवानी ही होकर रह गईं। सच कहूँ तो वे साहित्य की गंगा थीं ।

 लखनऊ में यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृत लाल नागर के बाद श्रीलाल शुक्ल,ठाकुर प्रसाद सिंह और शिवानी  साहित्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र थे।            उस समय की सरकारी  वी आई पी गुलिस्ता कालोनी में ठाकुर  भाई 31 और शिवानी जी 66 नम्बर में रहती थीं। मेरा आवास कालोनी में प्रवेश करते ही पड़ता था। जो भी उनसे मिलने आता था।पहले मुझसे ही उनके बारे में पूछता था। ठाकुर भाई का आवास खुला दरबार था लेकिन शिवानी जी से मिलाने के पहले उनकी अनुमति लेनी पड़ती थी। बरसों मैं द्वारपाल की तरह दोनों साहित्यकारों के लिये दरबानगिरी करता रहा। मेरा आवास बाहर से आने वाले साहित्यकारों का अतिथिगृह बना रहा। ठाकुर भाई का मैं दत्तक पुत्र माना जाता था।शिवानी जी का मैं स्नेह पात्र था ही।

 शिवानी जी के पति शुकदेव पन्त रियासतों के विलीनीकरण के बाद उत्तर प्रदेश सरकार में उप सचिव के पद पर नियुक्त हुए थे। उन्हें सरकारी आवास के रूप में 66 गुलिस्ता कालोनी आवंटित किया गया था।  पति की असामयिक मृत्यु के बाद सबसे बड़ी समस्या आई  निवास की।जिसे तत्काल खाली कराने का परवाना आ चुका था। इसका निदान निकालने के लिए ठाकुर भाई ने मुझसे स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक जी से बात करने की सलाह दी। उस समय मैं स्वतन्त्र भारत का चीफ रिपोर्टर था। स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक  जी का स्नेहपात्र  भी समझा जाता था । अशोक जी ने शिवानी जी को सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में नियुक्त पत्र जारी कर दिया। तय हुआ शिवानी हर इतवार को "वातायन"शीर्षक से सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखेंगी। अखबार की ओर से मेरी ड्यूटी लगाई गई कि प्रत्येक शनिवार की सुबह शिवानी जी का कॉलम लेकर अखबार में पहुंचाया करूँ। उधर शिवानी जी ने कॉलम में क्या लिखना है इस पर शुक्रवार की सुबह चर्चा करने का हुक्म दिया। कभी कभी ठाकुर भाई मदद कर देते। मुझे राहत मिल जाती। बरसों में शिवानी जी के कालम का हरकारा बना रहा। वातायन के लेखों का बाद में संकलन भी छपा।

शिवानी जी रोज सुबह  की सैर से लौटते समय मेरे निवास 10 गुलिस्ताँ की घंटी बजाती। अखबार पढ़तीं। कभी कभी चाय भी...

शिवानी जी किसी भी विसंगति को बर्दाश्त नही करती थीं।दूसरी ओर ठाकुर भाई मृत्युशैया पर रहते हुए भी परिहास करने से नहीं चूके । महाप्रयाण के बाद  ठाकुर भाई की अंतिम पुस्तक हारी हुई "लड़ाई लड़ते हुए" का लोकार्पण कैसे किया जाए? कोई बड़ा समारोह कर सकना सम्भव नहीं था।ठाकुर भाई ने कहा शिवानी जी घर आकर कर दें। शिवानी तैयार हो गयीं।

 लेकिन  प्रकाशक और सम्पादक डॉ शुकदेव  सिंह का अता पता न था। शिवानी ने पूछा-शुकदेव सिंह जी कहां हैं?

ठाकुर भाई ने उस हालत में भी चुटकी ले ली-बेचारा अपने 'पार्षद' खोजने गया है।  

             काफी इंतजार के बाद डॉ शुकदेव सिंह पधारे। समस्या तब भी नही सुलझी। ठाकुर भाई को पहनाने के लिए शुकदेव सिंह माला लेकर नही आये थे। उन्होंने तोड़ निकाला-,शरद जोशी के चित्र पर से माला उतारकर पहनाने लगे शिवानी जी बर्दाश्त नही कर सकीं।उन्होंने बरज दिया ।शिवानी जी ने मेरी ओर देखा।मैने उठकर सरस्वती के चित्र पर चढ़ाई गयी माला उतार कर शिवानी जी को बढ़ा दिया। ठाकुर भाई ने हाथ जोड़ दिए- माँ का प्रसाद है।

इस घटना को शिवानी भूली नहीं ।लिखा -नाकारा बनारसी!

यही नहीं,ठाकुर भाई के देहावसान पर शोक संवेदना व्यक्त करने आये पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के कर्कश स्वर के लिए भी उन्हें आड़े हाथों लिया।

              एक दिन दोपहर शिवानी जी का फोन आया-अनूप जी आप कहाँ हैं/अखबार में हूँ। आ सकते है?बोलीं -दिलीप कुमार को जानते है आप?जी! वे आप के लिए जाल डाले हुए हैं। वे देर शाम भगवती बाबू के आवास चित्रलेखा को बाहर से देखना चाहते हैं।मुझे अंदाजा नहीं है।मैं भी चलूंगी । आदेश था। चित्रलेखा  निवास पर काफी देर खड़े रहे। आंख बंद किये । उनके बेटे ,परिवार को खबर करने मैं बढ़ा।जन्होने बरज दिया। लौटते में दिलीप कुमार स्मृतियों में  डूबे रहे।शिवानी जी बोलती रहीं, ढेर सारे संस्मरण उचारती रहीं।

         शिवानी और ठाकुर भाई के महाप्रयाण के बाद भी द्वारपाली से मेरी छुट्टी नही हुई।लोग आते रहे।पूछते -शिवानी जी कहाँ किस फ्लैट में रहती थी,ठाकुर प्रसाद सिंह श्री लाल शुक्ल भी कभी यहीं थे?

एक दिन रायपुर से व्यंग्यकार मित्र गिरीश पंकज का फोन आया-रायपुर की डॉ सोनाली चक्रवर्ती शिवानी का घर देखना चाहती हैं । विमान से उतर कर सीधे आपके निवास पर आएंगी। उनकी  मदद करेंगे । 

सोनाली आई। उनको शिवानी के घर ले कर गया। 66 गुलिस्ता पर ताला लगा था  सोनाली चक्रवर्ती  सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुंची। बन्द ताले पर माथा टेके खड़ी रहीं। उनका मन शिवानी से मिलने के लिए छटपटा रहा था,उनका वे सीधा साक्षात्कार कर रही थी ।

 लगभग 42 साल बाद मैं भी गुलिस्ता कालोनी छोड़ आया।  जाने के पहले शिवानी और ठाकुर भाई के घरों पर जाकर दोनों को प्रणाम किया। लेकिन जैसे ही गुलिस्ता कॉलोनी के गेट से मुड़ा, किसी को पूछते सुन पड़ा-शिवानी यहीं रहती थीं?

 अनूप श्रीवास्तव  की स्मृति से



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