डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के से मैं भी मिला था! बेल्जियम से थे! उनके हिंदी शब्दकोश से अधिक प्रामाणिक शायद ही कोई दूसरा हो!
वे रामायण पर रिसर्च करना चाहते थे, परंतु मृत्यु ने उन्हें हम सबसे छीन लिया!
बीआइटी रांची में भी कई बार आए थे। दो बार तो स्वयं मैं उन्हें लेकर आया काॅलेज में समारोह के लिए। (इंजीनियरिंग के चौथे वर्ष में मैं अपने काॅलेज में भारतीय साहित्य परिषद के संपादन विभाग का अध्यक्ष रहा, और कई वर्षों के बाद वार्षिक पत्रिका रचना १९८४ छापी, जो श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटित भारतीय विज्ञान कांग्रेस का विशेष संस्करण थी, और पहली बार रंगीन फोटो छपे थे, श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा उद्घाटन के भी)।
डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के चर्च और मंदिर, दोनों जगह समान सम्मान पाते थे और दो-तीन बार उनके मुंह से मैंने सुना था, कि राम सबके हैं, और रामायण किसी एक धर्म विशेष का धर्म ग्रंथ नहीं है बल्कि विश्व ग्रंथ है।
डॉ० फ़ादर कामिल बुल्के के व्यक्तित्व के आस-पास भी अगर कोई रहा, तो धार्मिक सहिष्णुता उस व्यक्ति के मन में स्थिर हो गई। उनकी बुराई करने वाला मुझे आज तक कोई मिला ही नहीं।
मुझे ठीक से याद नहीं पर उनकी मृत्यु संभवतः १९८२ अथवा १९८३ में हुई।
- अशोक शुक्ल की स्मृति से।
व्हाट्सएप शेयर |