‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कारयित्री व्यक्तित्व : गंगाप्रसाद 'विमल'

साहित्य  में कुछ ऐसे व्यक्तित्व  होते हैं जो अपने जीवनकाल  से अधिक  जीवनोपरान्त चर्चा का विषय बनते हैं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी खासियत  होती है जो जो उन्हें जीवन्त बनाए रखती है। गंगाप्रसाद 'विमल' उनमें -से एक रहे। विमल जी से मेरी पहली मुलाकात  अक्टूबर 1990 में प्रगति मैदान, नयी दिल्ली में हुई थी। साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था संधान के संस्थापक डॉ.जीवनप्रकाश जोशी द्वारा पद्मश्री यशपाल जैन की अध्यक्षता में एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। आयोजन  में बाबा नागार्जुन, पद्मश्री क्षेमचन्द 'सुमन' ,विष्णुप्रभाकर, कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. मोतीलाल जोतवाणी, गंगाप्रसाद विमल,प्रमुख हस्ताक्षर की गरिमामयी उपस्थिति के अतिरिक्त डॉ. विजय, सुरेश यादव, नवीन खन्ना आदि के साथ मैं भी था। उन दिनों मैं एकयुवा जनवादी कवि के रूप में विशेष चर्चित था। मेरी "प्रजातन्त्र" कविता-कृति 1988 में प्रकाशित हो चर्चा के केंद्र  में थी। मैंने विमल जी को अपनी पुस्तक सादर भेंट की। उन्हों उलट-पलटकर देखा फिर बोले, 'मैं बाद में इस पर अपना मन्तव्य  भेजूंगा।'


यह सुयोग ही कहा जाएगा कि इतने महान साहित्यकारों के बीच पहली बार मुझे कार्यक्रम संचालन का दायित्व डॉ. जोशी ने सौंपा।  बेहिचक सभी के साभिवादन के साथ संचालन किया। वहीं पर विमल जी आवास का पता  लिया। उन दिनों वे कस्तूरबा गांधी रोड,सरकारी फ्लैट में रहते थे और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, आर, के पुरम् में निदेशक  थे। दिनोंदिन आत्मीयता और घनिष्ठता बढ़ती गयी। कभी कुछ समकालीन साहित्यिक चर्चाएं भी हो जाती थीं।

मैंने सातवें दशक के आखिरी दौर में कहानी आन्दोलन के सम्बन्ध में बात शुरू की तो उन्होंने समकालीन  कहानी के प्रस्तोता के नाते उस पर प्रकाश डालते हुए कहने लगे--"दरअसल अकहानी आन्दोलन 

परम्परित शिल्प  का विरोध तो करता है, साथ ही नये शिल्प के प्रति भी उदासीन है। मेरे भीतर महीप सिंह की तरह कोई आन्दोलन  खड़ा करने की मंशा थी नहीं न मैं महत्वाकांक्षा से ग्रसित था, न मठाधीश बनने की प्रवृत्ति ने ही मुझे आन्दोलन के लिए  खड़ा किया।मैं चाहता था कि इसे वापकता मिले। इसी नियत से मैंने  नयी कहानी से अलग साबित करने लिए  तर्क-जाव बुनना शुरू किया और काफी हद तक मुझे सफलता भी मिली। चूँकि 'समकालीन' आधुनिकता का बोधक है तथा एक विशिष्ट समय से सम्बद्ध है। लेकिन  इसकी उम्र की कोई सीमा नहीं है।'...बाद में इस आन्दोलन से दूना सिंह, राजकमल चौधरी, प्रयाग शुक्ल आदि कथाकार  भी जुड़ गए। इस में अपनी सफलता ही कहूंगा।'

'दरअसल समकालीन कहानी उस कहानी को कहते हैं जिसमें समसामयिक स्थितियों -परिस्थितियों

के परिप्रेक्ष्य में कथा का सृजन किया  जाता है। यह नयी कविता के पैटर्न 

 गठजोड़ नहीं, एक नये प्रकार  का विचार विनिमय था। रूढ़िवादी स्थिति का प्रतिकार था। शिल्पगत विविधता से कुछ  कहानीकारों का नाराज होना स्वाभाविक था। किन्तु विमल जी उसकी परवाह नहीं की और अपने सिद्धांत  पर अड़े रहे अंल समकालीनता शब्द बहुल रूप में प्रचलन में है। कई महत्वपूर्ण  कथाकारों ने अपनी भूमिका निभाई। उनका नाम गिनाना जरूरी नहीं। हां, उनकी कहानियां एक नया चिन्तन सौंपती हैं। खैर।'


विमल जी  मृदुभाषी थे और बड़े ही नपे-तुले शब्दों में बातचीत करते थे। उनमें आत्मीय प्रेम और सहृदयता का भाव स्वयं ही झलकता था। मैं जब भी उनसे मिलने उनका आवास या कार्यालय  में गया,उन्होंने बिना किसी औपचारिकता के तत्काल बातचीत की। मैंने अपनी आलोचनात्मक कृति "समकालीन कविता: विविध सन्दर्भ" की टाइप्ड पांडुलिपि दिखाई  और कुछ कवियों पर प्रसंगतः चर्चा की तो वे मन्द मुस्कान के साथ कहने लगे, आपने बड़ा गम्भीर  विवेचन किया है किन्तु जिन कुछ कवियों को छोड़ दिया है, वो माफ नहीं करेंगे।' उनकी बात सही साबित हुई। पुस्तक  प्रकाशित  होते ही की विरोधी बन गये। डा.नरेन्द्र मोहन, परमानन्द श्रीवास्तव, कुमार विमल और श्याम परमार जैसे प्रबुद्ध  कवियों की कविताओं पर मैंने निष्पक्ष रूप से जो विश्लेषण किया उससे उनका असहज होना स्वाभाविक था। जब मैंने ये बातें विमल जी से बतायी तो वे हंस पड़े।...


उन्होंने अपना उपन्यास "मानुषखोर" मुझे दिया। कुछ दिनों बाद जब उनसे भेंट हुई तो मैंने उसके कथ्य-शिल्प पर संक्षिप्त चर्चा की। उनकी कविताओं में समकालीन सामाजिक-राजनीतिक  विसंगतिपूर्ण स्थितियों का बड़ा बेबाक  चित्रण हुआ है। वे किसी कृति/रचना की चीड़फार बड़ी खूबी से करते थे। उनका आलोचक बड़ा सजग-सक्रिय था। उनका आलोचन-कर्म बड़ी गम्भीर प्रकृति का था। उसमें सिर्फ  रचना का गुण-वैशिष्ट्य होता था, न कि तथाकथित कुछ आलोचक की भांति व्यवहार -पक्ष। मैं उनके मिलनसार स्वभाव  से भलीभांति परिचित रहा।उनका निष्पक्ष-निष्कपट स्वभाव सभी के लिए उदारता का दृष्टान्त कहा जा सकता है। 


एकबार  केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय  में "हिन्दी के विकास में मुस्लिम  साहित्यकारों का योगदान " पर डॉ. नगेन्द्र की अध्यक्षता में चर्चा संगोष्ठी का आयोजन था। डॉ.नगेन्द्र के अलावा कई महान साहित्यकार पधारे थे। विमल जी चर्चा प्रवर्तन कर रहे थे।

डॉ.सुलेखचन्द्र शर्मा करीब आधा घंटा बोलने के बाद बोले, अब मैं मूल विषय पर आता हूं। तब विमल जी ने रोकते हुए कहा,अब आपका व्याख्यान हो चुका। शर्मा जी कुछ बोलना चाह रहे थे तब नगेन्द्र जी ने कहा-' बस।' आगे उन्होंने उन्हें कुछ भी बोलने नहीं दिया। चर्चा के उपरान्त सभी लोग चले गए। विमलजी ने अपनी कार  में मुझे बिठाया और बातें करते हुए धौला कुआं के बस स्टैंड पर ड्राप किया।

यह उनके विमल व्यक्तित्व  की विरलता- विराटता का प्रमाण कहा जा सकता है। उन्होंने ही तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरलाल शर्मा के मेरी कृति "युगांक" (महाकाव्य) के लोकार्पण का परामर्श  दिया और लोकार्पण के अवसर पर राष्ट्रपति भवन में साथ रहे।


  -डॉ.राहुल की स्मृति से


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आवारागर्दों के बीच प्रधानमंत्री

 हम तीन तिलंगे-- कमलेश मिश्रा, नरेंद्र भट्ट और राम प्रकाश त्रिपाठी, थे सिर्फ़ बीए पार्ट वन में ;पढने में कच्चे पर आवारगी में पक्के। राहुल सांकृत्यायन का मंत्र "अथतो  घुमक्कड़ जिज्ञासा" साथ लिये फिरते रहते। इसी जुनून के चलते1965की छुट्टियों में देश भर में भटकते बम्बई जा पहुंचे (कृपया संघी और शिवसैनिक बुरा न माने, तब बंबई मुंबई नहीं हुआ था!)! हम सब थे तो ठन ठन गोपाल, मैं ही रु.164-00 लेकर देश विजय पर निकला था। बाकी दो की भी कम ओ बेश यही कहानी थी! 

ठहरने के लिए धर्मशाला न मिले। कमलेश को आवारगी के अलावा क्रिकेट की भी संघातक बीमारी थी।मैरिन ड्राइव पर भटकते हुए उसकी नज़र सामने के स्टेडियम पर पडी। स्टेडियम खाली था। भाई ने किस हिकमत अमली से क्या पट्टी पढाई कि स्टेडियम का चौकदार पट गया। उसने रात में ठहरने के लिए मुफ्त में ड्रेसिंग रूम में जगह दे दी! 

वह पूर्णमासी की रात थी। खाने-पीने की जुगाड़ करके  सोने गये तो अरब सागर हाहाकार क्रंदन करते हुए चिंघाड़ने लगा। सागर का ऐसा तांडव कारी संगीत हम ग्वालियर वासी पहली बार सुन रहे थे। 

एक संघ से बाहर देखा तो मंज़र अभूतपूर्व था। सागर आकाश छूने को उतावला था। इस कोशिश में उठ गिर रहा था। हम तीनों ने पास से यह अजूबा दृश्य देखना तय किया! मगर स्टेडियम का चौकदार फाटक खोलने पर हज़ार मिन्नतों के बाद भी राजी न हुआ! गुस्सा तो इतना आया कि मारें साले को, पर उसकी मेहरबानी पर वहाँ टिके थे, सो मन मार कर रहना पडा। बहरहाल उसे गालियाँ देते और समुद्र का शोर सुनते कब सो गये पता तक नहीं चला! 

सुबह पांच बजे चौकदार ने मग्गों भरी चाय के साथ जगाया और कहा समुद्र में ज्वार ठंडा पड़ गया है बस उतरता हुआ भाटा है, अब कोई खतरा नहीं है।

--देखने में कैसा खतरा? मैने रात के गुस्से को दबाते हुए कहा। 

---आप सूखे इलाके के हो। समुद्र और उसके स्वभाव को जानते नहीं हो। किनारे पर पछाडें  खाता समुद्र कब कितनी दूर से पकड कर साथ ले जाय, कोई नहीं समझ सकता। इसलिए रोका था, चौकदार ने प्यार से समझाया। 

यों भी हमारे पास समझने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। बाहर आकर हमने उतरते ज्वार की जितनी भीषण लहरें देखीं वे भी आश्चर्य में डालने वाली थीं। लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य  हमारा इंतजार कर रहा था। आधी सडक पार करके हम सेण्टर वर्ज पर चढे ही थे कि मेरी नज़र कुछ दूर खड़े ट्रेफिक मैन पर पडी। मैंने उससे जाकर पूछा---भैये, इत्ती सुबह सुनसान सड़क पर क्या कर रहे हो? 

उसका संक्षिप्त जबाव था -- पंत प्रधान आने वाले हैं! मुझे मुंह फाडे देख कर नरेंद्र भट्ट ने समझाया--पंतप्रधान मराठी में प्रधानमंत्री कहते हैं।–


बात पूरी होते न होते सामने मोटर पर एक लाल झंडी वाला पायलट गुज़रा। पीछे एक सफेद एम्बेसडर कार और उसके पीछे एक पुलिसिया जीप। जिसमें एक बंदूकची और चार बैंक धारी जवान। कुल इतनी भर सुरक्षा प्रधानमंत्री की। आज तो पी एम की परछाईं को भी सौ शस्त्रधारी जवान लगते हैं। ख़ैर! 

हुआ यह कि हमारे साथी नरेंद्र ने पता नहीं किस बेखुदी में कार को हाथ दे दिया! कार रुक भी गयी। खुद प्रधानमंत्री ने शीशा नीचा करके पूछा --कहिये? 

अब हमारे होश फाख्ता! क्या कहें? किसी तरह आत्म नियंत्रण कर, मैंने कहा --सर, किसी प्रधानमंत्री को इतने पास से कभी देखा नहीं था इस उत्सुकता में गाड़ी को हाथ दे दिया। बारीक सी हंसी हंसे प्रधानमंत्रीप्रधानमंत्री श्री लबहादुर शास्त्री! बोले कोई बात नहीं! 

कहाँ से हो? क्या करते हो? क्या परेशानी है?... 

ऐसे सवाल प्रधानमंत्री पूछ रहे थे, हममें से जिससे बन रहा था अट-पट जबाव दे रहा था । सबके दिमाग सुन्न थे। सवाल होते तो पूछते!  शीतोष्ण सुबह में भी हम पसीने पसीन-! 

मुझे अचानक रेडियो पर होने वाले इंटरव्यू याद आये। एंकर  आखिर में मेहमान से पूछता था --युवापीढ़ी के लिए आपका क्या  संदेश है?.. मुझे इस वाक्य में मुक्ति की राह सूझी। मैने तुरंत कहा--सर हमारे लिए आपका क्या संदेश है? 

--संदेश नहीं, आदेश है, मानोगे? 

--जी अवश्य! 

--- तो मुझे वचन दो कि तुम कभी अपनी थाली में  एक कौर ,एक दाना भी नहीं छोडोगे! 

हम सब ने वचन दिया । आज तक निभा भी रहे हैं। 

बात मगर वचन निभाने की नहीं है। आज के दौर में, यह याद करने की है कि तब के प्रधानमंत्री के जन-सरोकार कितने बुनियादी थे। 

यह लिखते वक्त मेरी आंखें नम हैं और रो़गटे खड़े! 



-राम प्रकाश त्रिपाठी की स्मृति से


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कैसे मिले अज्ञेय ....

 बात उन दिनों की है जब मैं ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) में साहित्य, कला आदि देखता था। हमारे संपादक थे श्री प्रभु चावला।  उनके निर्देशानुसार मुझे ‘इंडिया टुडे’ के साहित्यिक विशेषांक के लिए कोई अच्छी सी योजना बनानी थी। मैंने अपने एक सहायक श्री चितरंजन खेतान के साथ यह योजना बनाई कि कुछ साहित्यकारों, प्रकाशकों और पाठकों से पूछना है कि उन्हें इस वर्ष कौन-सी पुस्तकें पढ़ी और क्यों? हमने तय किया कि यह प्रश्न किसी को बताया नहीं जायेगा, इसे तभी पूछा जायेगा जब हम साहित्यकार/प्रकाशक/पाठक से मिलेंगे।

मैंने और चितरंन ने यह प्रश्न पूछने के लिए जिनको चुना, उनमें अज्ञेय का नाम सर्वोपरि था। मैंने श्री अज्ञेय से फोन पर उनसे मिलने का समय लिया। जो समय उन्होंने दिया उस दिन वे किसी आवश्यक बैठक की वजह से मिल नहीं पाये और ऐसा तीन बार हुआ।

मुझे और चितरंजन को रोज ही किसी न किसी से इस हेतु मिलना होता था। एक दोपहर कहीं जाने से पहले मैंने संपादन विभाग के एक पत्रकार को कहा कि वे हमारे लौटने से पूर्व श्री अज्ञेय मेरे लिये समय ले लें और मैंने उन्हें अज्ञेय जी का व्यक्तिगत फोन नम्बर दे दिया।

जब मैं किसी प्रकाशक से मिलकर वापिस दफ़्तर में आया, इससे पहले कि मैं उन पत्रकार से अज्ञेय जी के विषय में पूछता, उन्होंने बहुत खीझे स्वर में कहा, ‘‘सर मैंने आपके दिये नम्बर पर अज्ञेय जी को कई बार फोन किया लेकिन वे नहीं मिले। हर बार जो व्यक्ति फोन उठाता था वह यही कहता कि अज्ञेय तो नहीं हैं, मैं वात्सयायन बोल रहा हूँ मुझसे अगर नवल जी मिलना चाहें तो स्वागत है। मैं हर बार अज्ञेय जी को पूछता और हर बार वही व्यक्ति कहता रहा कि, ‘‘अज्ञेय नहीं हैं मैं वात्सयायन हूँ मुझसे अगर  ‘इंडिया टुडे’ का काम बनता हो तो मैं हाज़िर हूँ, मैं भी एक साहित्यकार और पत्रकार हूँ।’’

मैंने बड़ी हैरत से अपने आवेश को दबाते हुए पूछा, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं कि वात्सयायन और अज्ञेय एक ही हैं?’’ इस पर वह बहुत लज्जित हुआ और माफी मांगने लगा। मैंने कहा, ‘‘माफी अज्ञेय जी से मांगिए, जिस पर उसका निवेदन था कि ‘‘मैं उनसे अब बात न हीं कर पाऊँगा। अब आप ही उनसे बात कीजिये।’’

मैंने अज्ञेय जी को तभी फोन किया और उनसे बहुत क्षमा मांगी। इस पर हँसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आज मेरा भ्रम टूट गया कि मेरा पूरा नाम सभी हिंदी के साहित्यकार और पत्रकार जानते होंगे।’’

अज्ञेय जी की विनोद प्रियता का यह एक विशिष्ट उदाहरण था। आप जानना चाहते होंगे कि अज्ञेय या वात्सयायन से फिर मैं कब मिला?

अज्ञेय जी अपने पिता की स्मृति में एक व्याख्यान-माला आयोजित करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अमुक दिन चार बजे उनसे मिलने साहित्य अकादमी के सभा कक्ष में आ जाऊँ, कार्यक्रम पाँच बजे आरंभ होगा तब तक हमारी बातचीत हो जाएगी।

मैं चार बजे पहुँच गया लेकिन अज्ञेय जी के चाहने वाले उस समय भी व्याख्यान होने से पूर्व अज्ञेय जी को मिलने वहाँ पहुँच कर उन्हें घेरे हुए थे। मैं प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखता रहा और वे मुझे चाय पीने का संकेत करते रहे। कार्यक्रम से पहले चाय का आयोजन होता था, वे मुझसे मिल पाते उससे पहले बहुत से श्रोता चाय पान के लिए आते रहे।

मन मारकर मैं हाथ में चाय का प्याला लिए अज्ञेय जी को निहारता रहा। अचानक वे सबको छोड़कर मेरे पास आये और हाथ पकड़कर बाहर की ओर ले चले। चलते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘कितना समय लगेगा’’ मैंने उत्तर दिया ‘‘जी केवल एक सवाल पूछना है, लेकिन यहाँ बाहर भी लोग खड़े है आपको देखकर आपकी ओर आ रहे हैं’’, वे बोले, ‘‘लिफ्ट  में चलो।’’

मैं उनके साथ लिफ्ट में चला गया। उन्होंने कहा ‘‘पूछो अब कोई नहीं आएगा।’’ चलती लिफ्ट में मैंने सवाल पूछा। लिफ्ट ऊपर दूसरे फ्लोर तक पहुँची, सभा फर्स्ट फ्लोर पर थी, उससे ऊपर तक कम ही लोग आते-जाते थे। ऊपर पहुँचकर अज्ञेय जी ने लिफ्ट रुकने पर उसका दरवाज़ा खोल दिया। तब तक लिफ्ट रुकी रहती जब तक दरवाज़ा न बंद होता। अज्ञेय जी ने खड़ी लिफ्ट में मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। अपनी उस वर्ष पढ़ी गई पुस्तकों का नाम बताया और उन पर उनकी तथा उनके रचनाकारों पर बात की और उसके बाद दरवाज़ा बंद करके नीचे जाने के लिए बटन दबा दिया।

लिफ्ट से निकलते ही अज्ञेय जी को मिलने और देखने आए हुए श्रोता उमड़ पड़े। अज्ञेय जी ने मेरी पीठ पर हाथ रख विदा लेने का संकेत किया .... भूलेंगे नहीं खड़ी लिफ्ट के वे पाँच-सात मिनट और भूलेंगी नहीं कभी वात्सयायन जी की अज्ञेयता ......

-डॉ. हरीश नवल की स्मृति से



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सोमवार, 4 दिसंबर 2023

सहज,सरल,आत्मीय दिनकर सोनवलकर

 मेरे पिता व हिंदी के प्रख्यात कवि स्व दिनकर सोनवलकर बहुत ही सहज,सरल,आत्मीय,फक्कड़,फिकर नॉट व्यक्तित्व के धनी थे।उनके कुछ संस्मरण व किस्से साझा कर रहा हूँ।

एक बार जावरा जिला रतलाम मध्यप्रदेश जहां के शासकीय कॉलेज में दिनकर सोनवलकर दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक थे,वहाँ के बसस्टैंड पर रात को कोई चलते  वाहन में से नींद में सोई एक छोटी 4 साल की बच्ची गिर गई व वाहन में बैठे लोग बेखबर जावरा से आगे निकल गए।पिताजी के दयालु व कोमल ,उदार स्वभाव के चलते कुछ परिचित उस बच्ची को घर ले आये।पिताजी बोले अब ये मेरी तीसरी बच्ची है।पहले से मैं व बड़ी बहन थे ही।मेरी मां व सब हतप्रभ क्योंकि तत्समय मैं 18 वर्ष का व पिताजी54 के थे।संयोग से दूसरे दिन सुबह उस बच्ची के परिजन खोजते हुए आये व उसे ले गए।

पिताजी की कविता है इतनी सी महत्व की आकांक्षा मेरी कि भले ही जीवन में अर्थ मिले या न मिले जीवन को अर्थ मिले उन पर सदैव चरितार्थ हुई ।

2,बिना पूर्व सूचना के अनेक अतिथियों को घर भोजन हेतु निमंत्रित कर लेते थे जबकि घर पर मां जिसे भोजन बनाना हो उसे पता ही नहीं रहता था व अतिथि आ जाते थे।एक बार महाकवि हरिवंश राय बच्चन को दमोह मध्यप्रदेश व कवि बालकवि बैरागी जी व 10 अन्य को अनेक बार जावरा घर पर पिताजी ने ऐसे ही बुलाया।

3 वे बड़े प्रोफेसर थे किंतु तांगे में बैठकर अभावग्रस्त कवि,गायक,कलाकारों की मदद के लिये चंदा एकत्रीकरण व महफिलें सजाने में उन्होंने कभी शर्म महसूस नहीं की।वे कथनी ,करनी  में अर्थात आचरण में भी एक जैसे थे।

4,अनेक पान,चाय की गुमटी वालों को पिताजी ने बड़ी राशि कई बार जरूरत पड़ने पर उधार दी व उनके वापस नहीं करने पर कभी स्मरण नहीं कराया।

वे कहते थे मशाल की तरह न जल सकते हो तो न सही,अगरबत्ती की तरह परिवेश को सुगन्धित तो कर ही सकते हो।

5 कभी भी मेरी या बहन की शिक्षा, विवाह,नौकरी की कोई चिंता नहीं की व उदार मन से हमेशा  मित्रवत सहयोग दिया।जीपीएफ खाते में भी उनका नाम दिनकर की जगह दिवाकर था संयोगवश एक परिचित ने वो त्रुटि ठीक कराई अन्यथा रिटायरमेंट पर राशि नहीं मिलती।

एक अदृश्य दैवीय शक्ति पर पिताजी को पूरा भरोसा था व उस शक्ति ने यथासमय उनके सारे दायित्व पूर्ण किये।बैंक बैलेंस उनका नगण्य था किंतु यश व नाम का बैलेंस भरपूर रहा।

6 कभी भी नौकरी में मेरे लिये कोई सिफारिश नहीं की जबकि तत्समय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष उनके शिष्य थे ।पिताजी बोले मेरा बेटा अपनी योग्यता व मेहनत से चयनित होगा व ऐसा हुआ भी।

अटल बिहारी वाजपेयी, उनकी कविताओं के प्रशंसक थे व संघ प्रमुख के सुदर्शन जी मित्रवत थे ।अनेक मंत्री,अफसर उनके शिष्य रहे लेकिन कभी पिताजी ने उन्हें भुनाया नहीं।

उन्हें जावरा जैसे कस्बे से इंदौर, उज्जैन, भोपाल, दिल्ली आने के कई आकर्षक प्रस्ताव थे।साहित्यकार प्रभाकर माचवे जी उन्हें चौथा संसार अखबार का सम्पादक बनाना चाहते थे किंतु पिताजी जावरा की आत्मीयता छोड़कर कहीं नहीं गए।

सम्भवतः इसीलिये उनके साहित्य,कृतित्व का यथोचित मूल्यांकन भी नही हुआ।

दिनकर सोनवलकर जी के 18 काव्य संग्रह,4 मराठी के हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित व कई पुरस्कृत हैं। हिंदी में व्यंग्य कविता के वे शुरुआती प्रमुख कवि हैं।धर्मवीर भारती उनके बड़े प्रशंसक थे।धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बरी, नईदुनिया नवनीत,दिनमान में दिनकर सोनवलकर सदैव छपे व चर्चित रहे।

जब बच्चन जी रतलाम घर आये तब दो पलंग,दो चटाई व एक टेबल कुर्सी ही घर में थी।

वे व्यक्तित्व से सरल व कद में छोटे पर आचरण में महान थे।

पूज्य पिताजी दिनकर सोनवलकर जी  की पंक्तियों से विराम लेता हूँ

बड़ी छोटी छोटी बातों पर 

घण्टों मुझसे नाराज़ बैठा 

रहता है मेरा बेटा

मुझे उसकी नाराज़गी से कोई एतराज नहीं किन्तु

मेरी ख्वाहिश है कि वो

जीवन में बड़े मुद्दों पर

नाराज़ होना सीखे

 भले ही उसके जीवन में

  पल पल पर युद्ध हो

   मगर उसकी आत्मा में

      बुद्ध हो।

 

- प्रतीक सोनवलकर की स्मृति से


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शनिवार, 2 दिसंबर 2023

देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद पर महाकवि निराला की संभवतः अप्रकाशित कविता...

[बंधु ! इस बार पटना से जो गट्ठर मेरे साथ आया है, उसकी पोटली नंबर-2 में एक बहुमूल्य पत्र निरालाजी की कविता के साथ मुझे मिला है । पत्र पिताजी को संबोधित है, जून 1942 का है । उन दिनों पिताजी 'आरती' नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन अपने स्वत्वाधिकार के 'आरती मन्दिर प्रेस, पटना से कर रहे थे । यह महत्वपूर्ण रचना भी निरालाजी ने पिताजी के पास प्रकाशन के लिए भेजी थी, मुझे मालूम नहीं कि यह पत्रिका में छपी या नहीं, क्योंकि जैसा पिताजी से सुना था, सन ४२ के विश्व-युद्ध के दौरान ही 'आरती' का प्रकाशन अवरुद्ध हो गया था । मुझे यह भी नहीं मालूम कि देशरत्न पर लिखी उनकी यह कविता कहीं, किसी और ग्रन्थ में संकलित हुई या नहीं....! अगर नहीं हुई, तो निःसंदेह यह अत्यंत महत्त्व का दस्तावेज़ है ।

मुझे आश्चर्य इस बात का है कि पिताजी जैसे असंग्रही व्यक्ति के पुराने गट्ठर में और खानाबदोशी की हालत में निरंतर घिसटते हुए यह पत्र आज भी 73 वर्षों बाद बचा कैसे रह गया...? संभवतः, मेरे सौभाग्य से ! मूल और टंकित प्रति के साथ आज इसे लोकार्पित कर धन्य हो रहा हूँ । --आनन्दवर्धन ओझा]
C/o Pandit Ramlalji garg,
karwi, Banda (U.P.)
15.6.'42.
प्रिय मुक्तजी,
क्षमा करें । मैं यथासमय आपको कुछ भेज नहीं सका । यह रचना देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी पर है । भेज रहा हूँ । स्वीकृति भेजें । आप अच्छी तरह होंगे । मेरी 'आरती' इस पते पर भेजें--
श्रीरामकृष्ण मिशन लाइब्रेरी,
गूंगे नव्वाब का बाग़,
अमीनाबाद, लखनऊ ।
उत्तर ऊपर के पते पर । नमस्कार ।
आपका--
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
[पत्र के पृष्ठ-भाग पर कविता]
देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति...
उगे प्रथम अनुपम जीवन के
सुमन-सदृश पल्लव-कृश जन के ।
गंध-भार वन-हार ह्रदय के,
सार सुकृत बिहार के नय के ।
भारत के चिरव्रत कर्मी हे !
जन-गण-तन-मन-धन-धर्मी हे !
सृति से संस्कृति के पावनतम,
तरी मुक्ति की तरी मनोरम ।
तरणि वन्य अरणि के, तरुण के
अरुण, दिव्य कल्पतरु वरुण के ।
सम्बल दुर्बल के, दल के बल,
नति की प्रतिमा के नयनोत्पल ।
मरण के चरण चारण ! अविरत
जीवन से, मन से मैं हूँ नत ।।
--'निराला'


सौजन्य - मुक्ताकाश http://avojha.blogspot.com/2015/01/blog-post_18.html



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विजय वर्मा की स्मृति में

 


राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार "विजय वर्मा कथा सम्मान" जिनकी स्मृति में हर वर्ष दिया जाता है, ऐसे अपने भाई विजय वर्मा की जयंती पर उन्हें याद करते हुए........


लेखक ,चित्रकार ,छायाचित्रकार, पत्रकार, संपादक, अभिनेता और आवाज की दुनिया के जादूगर जिनकी आवाज रेडियो पर जिंगल्स में विज्ञापन में फिल्मों की डबिंग में लगातार गूंजती रहती थी।

जबलपुर से उन दिनों प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी उनकी कहानी "सफर "उनकी गहरी पीड़ा का बयान है ।वह आजन्म पत्रकारिता और मीडिया में संघर्षरत रहे खुद को भूल कर और अपने अंदर के रंगकर्मी और चित्रकार को खफा कर ।मानो उनके दिल का एक कोना दुखों के लिए था जिसमें किसी को प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी और दूसरा उनकी कला से जुड़ा जो सबका था, सबके लिए था ।

अगर इसमें किसी का प्रवेश था तो उनके परम मित्र दूधनाथ सिंह, मलय, ज्ञानरंजन, मदन बावरिया, ललित सुरजन, इंद्रमणि चोपड़ा,विजय चौहान और दिलीप राजपूत ।

जबलपुर में वे ज्यां पाल सात्र का नाटक मैन विदाउट शैडोज का मंचन करने वाले थे। जिसमें उन्हें सौरवियर का किरदार निभाना था। मानो एक यज्ञ संपन्न करना था और उस यज्ञ के लिए विजय भाई को तप करना था। रिहर्सल की कठिन शामें, रातें और मंचन का वह  ऐतिहासिक दिन ।शहीद स्मारक हॉल में सन्नाटा छाया था ।विजय भाई की थरथराती  आवाज -"मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है ।हमने जिंदगी को मायने देने की कोशिश की। नाकामयाब रहे इसीलिए हम मर रहे हैं।"

संवाद के संग संग चेहरे पर तैरती खौफ की परछाइयां और जब सौरवियर को मौत की सजा होती है, रॉबर्टसन कॉलेज की स्तब्ध छात्रा की सिसकी आज भी मुझे रोमांचित करती है। इस नाटक के बाद कई दिन लगे थे विजय भाई को संभलने में लेकिन उन्हीं दिनों उन्होंने डी एच लॉरेंस और टी एस इलियट की कविताओं का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया था। और जापानी काव्य शैली हाइकु लिख रहे थे ।उनके हाइकु गहरा सन्नाटा खींच देते थे ।उन्होंने क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम को संगठित ही नहीं किया बल्कि अपने कार्य क्षेत्र में स्थानीय भाषा द्वारा शिक्षार्थियों को भी तैयार किया ।उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए उपयुक्त भाषा परीक्षा के भी अनुभव थे।

वैसे विजय भाई ने अपने कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी ।वे नवभारत के जबलपुर शहर संवाददाता और बाद में समाचार संपादक हुए। अनुवादक और संचालक की भूमिका बखूबी निभाते हुए उन्होंने शहर विकास निगम में काम किया साथ ही भोपाल एवं नागपुर से प्रकाशित हितवाद के लिए न्यूज़ बुलेटिन भी तैयार किए ।फिर भी बेचैनी.....  जाने किस आसमान को छूने की चाह थी उनमें ।

मैं समूचा आकाश /इस भुजा पर ताबीज की तरह/ बांध लेना चाहता हूँ/   समूचा विश्व होना चाहता हूँ।

चाह बलवती थी। वे शोध सहायक के रूप में बीड़ी मजदूरों के जीवन सामाजिक-आर्थिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर एम ए के शोध प्रबंध पर अनुसंधान करते रहे। बाद के दिनों में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी अमेरिका के भी शोध सहायक (कोऑर्डिनेटर) के रूप में काम करते रहे। भारत में इस संस्था का नाम अमेरिकन पीस कोर था जिसके अंतर्गत वे सघन ग्रामीण क्षेत्रों में हिल टेक्नोलॉजी के द्वारा मौखिक प्रशिक्षण भी देते थे

बेहद गरीब पिछड़े गाँव से लौटे थे वे। बेहद उदास। बताने लगे किसी घुटन्ना नामक गाँव के बारे में ।गरीबी इतनी कि मिट्टी के घड़ों के छेद ,दरारें कपड़ों की थिगलियों से भरी जातीं क्योंकि उनके पास नए घड़े खरीदने के पैसे नहीं थे। विजय भाई ने 25 झोंपड़ों वाले उस गाँव में हर एक के घर नए घड़े भिजवाए। कृषि क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा सुन मैं कांप उठी थी ।उस रात मैंने डायरी में लिखा 

"कौन है इस दुर्दशा का जिम्मेदार!! आजाद भारत की यह कैसी परिभाषा!!"

आज सोचती हूँ कि एक व्यक्ति की छोटी सी जिंदगी के इतने आयाम भी हो सकते हैं?

वे अमेरिकन पीस कोर में कोऑर्डिनेटर भी थे।जिसकी अवधि समाप्त होते ही इमरजेंसी लग गई ।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।

चूँकि बाबूजी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन हम लोगों ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं।

लिहाजा विजय भाई पर चारों ओर से दबाव था। क्योंकि जबलपुर के उनके मित्रों का समूह उनके कोलकाता या मुंबई के फैसले से नाखुश था। अपने त्याग और प्रेम से उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे तमाम अव्यवस्थाओं से दुखी रहते थे ।अन्याय उन्हें बर्दाश्त न था ।संपादकीय विभाग में यदि मालिक ने किसी अन्य को प्रताड़ित किया है तो पहला त्यागपत्र उनका होता था। हर सहयोगी का दुख उनका अपना दुख था।

अपनी रचनात्मक बेचैनी सहित आखिर वे मुम्बई आ ही गए ।फिर कितना कुछ घटा। मुंबई में थिएटर से जुड़े ,आवाज़ की दुनिया से जुड़े ,रेडियो और दूरदर्शन से जुड़े। रेडियो में उन दिनों विनोद शर्मा थे। जिन्होंने उनसे रामायण के एपिसोड लिखवाए। मनोहर महाजन ने सेंटोजन की महफिल.......और अन्य रेडियो निदेशकों से जुड़कर उन्होंने प्रगति की कहानी यूनियन बैंक की जवानी ,

पत्थर बोल उठे ,एवरेडी के हम सफर, महाराष्ट्र राज्य लॉटरी का पहला पन्ना और भी जाने क्या-क्या ........टेली फिल्म "राजा " में मुख्य भूमिका की। अमीन सयानी के संग जिंगल लिखे ।इतना कुछ होने के बावजूद आर्थिक संकट ज्यों का  त्यों बना रहा। मुंबई के उनके 8 वर्षों का जीवनकाल संघर्ष करते ही बीता ।उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। 

आम आदमी से जुड़ना उनकी फितरत थी। एक रात मुंबई लैब में डबिंग करके जब वे अपनी जेब के चंद सिक्कों को टटोलते इरला ब्रिज से गुजर रहे थे फुटपाथ पर मैली कथडी में लिपटी एक बुढ़िया अपना कटोरा लिए काँपती बैठी थी। उन्होंने उस के कटोरे में अपनी जेब उलट दी और घर आकर खूब रोए । वे सही अर्थों में मार्क्सवादी विचारधारा के थे ।कभी-कभी मुझे लगता देशकाल के परे लेखक सब जगह एक जैसा होता है ।अगर ऐसा न होता तो विजय भाई को सोचते हुए मुझे चेक लेखक मिलान कुंडेरा क्यों याद आते जिन्होंने अपने शहर प्राहा में रहते हुए कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपता को लिखा।

प्यार उन्होंने डूबकर किया था और अपनी प्रेमिका को अपने हाथों दुल्हन बनाकर अमेरिका विदा किया था। कहते हैं प्रेम में आदमी पड़ता है। अंग्रेजी में फॉल इन लव ।तो क्या प्रेम एक ऐसी फिसलन भरी घाटी है जिसमें फिसलते चले जाओ और जिसका कोई अंत नहीं। विजय भाई ने भी प्रेम किया। अपनी प्रेमिका से, अम्मा- बाबूजी से ,मुझसे। मुझसे बहुत ज्यादा प्रेम किया उन्होंने ।मेरे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उन्हें बर्दाश्त न थी। वे मुझे फूल की तरह सहेज कर रखते। उन्होंने प्रेम किया अपने मित्रों से, अपने परिवेश से और अपने हालात से। जिससे उन्हें उम्र भर छुटकारा नहीं मिला ।

30 जनवरी 1984 की सुबह सूरज ने निकलने से मना कर दिया था। चिड़ियों ने चहचहाने से और फूलों ने खिलने से ....... एंटॉप हिल का चौथी मंजिल का विजय भाई का फ्लैट आगन्तुकों से खचाखच भरा था । 29 जनवरी की रात सेंटूर होटल से फ़िल्म की डबिंग करके वे लौट रहे थे ।उन्होंने टैक्सी में बैठ कर सभी भाई बहनों को पोस्टकार्ड लिखे कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में सब मुम्बई आएं ताकि जमकर मस्ती की जाए ,घूमा जाए। और उनकी इच्छा तत्काल फलित। लेकिन सबकी आँखों में आँसू और घर में मौत का सन्नाटा।

30 जनवरी की सुबह 5:45 बजे यह सितारा ऐसे टूटा की आँखें चोंधिया गईं।किसी को समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या ?डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही थी कि अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया।

विजय भाई का शव फूलों से सजाया जा रहा था ।उनके पथराए होठों पर मुस्कुराहट अंकित थी कि हम तो चले, आबाद रहो दुनिया वालों ।

मैं देख रही थी अपने बेहद हैंडसम भाई को उनकी अंतिम यात्रा में और भी खूबसूरत होते। मानो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारा गरल खुद में समाहित कर मृत्युंजय हो अनंत यात्रा पर निकला उनका काफिला...... जिसमें उनके रंगमंच की नायिकाएं हैं। माशा, उर्वशी, वसंतसेना, शकुंतला, एंटीगनी, जूलियट ,डेसडीमोना,सस्सी, लूसी। ऐसी विदाई जैसे इजिप्ट का कोई सम्राट हो।

विजय भाई के निधन से जबलपुर का सारा मित्र वर्ग स्तब्ध था। उनके चित्रकार दोस्त दिलीप राजपूत ने शहीद स्मारक भवन में उनके लिए रखी शोकसभा के दौरान वहीं स्टेज पर आधे घंटे में विजय भाई का चित्र बनाया था जो हाथों हाथ बिका और वह धनराशि विजय भाई पर आश्रित अम्मा को भेंट की गई। केसरवानी महाविद्यालय में जहाँ विजय भाई अंग्रेजी के लेक्चरर थे ,अवकाश रखा गया और मुंबई में सेंटोजन की महफिल का एक एपिसोड मनोहर महाजन ने श्रद्धांजलि स्वरुप रखा...अभी भी जब कभी यह एपिसोड सुनती हूँ जिसमें विजय भाई द्वारा अभिनीत छोटे-छोटे प्रहसन,उनकी हँसी और मनोहर महाजन की शोक संतप्त आवाज..... इस हंसी के इन प्रहसनों के नायक हम सब के लाडले विजय वर्मा अब नहीं रहे...... फिर सन्नाटा और धीमे-धीमे बजता गीत "दिन जो पखेरु होते पिजड़े में मैं रख लेता "तो जीवन की हताशा पर रो पड़ती हूँ ।

दूसरे दिन अखबारों ने प्रमुखता से खबर छापी। मौन हो गया छोटा मुक्तिबोध, तमाम संघर्षों के बीच अलविदा कह गया और एक सपना छोड़ गया हमारी दुनिया बदलने के लिए ।लगभग 2 महीने तक मुंबई की विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं, थिएटर विज्ञापन केंद्र और डबिंग लैब मैं उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं।

 जिसने न परिवार बसाया, न दुनियादारी के गुर सीखे ,पर सबका होने  का कमाल कर दिखाया ।


संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से




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डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का खत कुंअर बेचैन के नाम

डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का पत्र पिताश्री डॉ० कुँअर बेचैन जी के लिए अमिताभ बच्चन जी के लैटरहैड पर**

बात है 1975-76 की जब मैं पाँच वर्ष का रहा होऊँगा। एक दिन डाकिया रोज की तरह दरवाज़े की साँकल बजाकर घर में चिट्ठियाँ डालकर गया और दरवाज़े की साँकल की आवाज़ सुनकर हम बच्चे सीढ़ियों से उतरकर दरवाज़े की ओर दौड़े। तब हम ग़ाज़ियाबाद के पुराने शहर डासना गेट पर रहते थे जो घर पहली मंज़िल पर था। कुछ पत्रिकाओं, कुछ पोस्टकार्ड, कुछ अन्तर्देशीय पत्रों की भीड़ में एक बड़ा सफ़ेद लिफ़ाफ़ा था जिस पर प्रेषक के नाम में लाल रंग से अमिताभ बच्चन लिखा था।

पापाजी सम्मेलन में बाहर गए हुए थे तो यथावत सारे पत्र मम्मी के हाथ में देते हुए हमने कहा कि ये पत्र पहले खोलकर पढ़ें ये अमिताभ बच्चन ने भेजा है पापाजी को। मम्मी ने भी उत्सुकता से पत्र खोला तो पहली पंक्ति में लिखा था,


प्रिय कुँअर,

मेरे लैटरहैड ख़त्म हो गए थे इसलिए ये पत्र मैं अमिताभ के लैटरहैड पर लिख रहा हूँ। 

तब तक मम्मी समझ चुकी थीं कि ये पत्र अमिताभ जी ने नहीं बल्कि डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का था जिसमें उन्होंने पापाजी के नवगीत संग्रह “पिन बहुत सारे” की बहुत प्रशंसा की थी और पापाजी के साथ साझा की मंच की कुछ स्मृतियों का भी उल्लेख किया था। उन्होंने एक संरक्षक की की तरह पापाजी को पुत्रवत रूप में ढेरों आशीर्वाद दिए हुए थे। 

पापाजी उस समय कोलकाता कविसम्मेलन में गए हुए थे और दो दिन बाद घर लौटे। जब मम्मी ने उनको सारे पत्र दिए तो पाया कि वो एक पत्र ग़ायब है। हम बच्चों से प्रश्न किया गया तो पाया कि वो तो सामने वाली ताऊजी के पास है। कारण था हम बच्चे उस पत्र को लेकर पूरे मोहल्ले में घूम रहे थे और मोहल्ले के हर घर में ये चर्चा थी कि डॉक्टर साहब के घर अमिताभ बच्चन का पत्र आया है। सारी मुँहबोली चाचीजी, ताईजी, बुआजी या दादीजी सबको मालूम था ये बात।

पापाजी ने कहा कि “जाओ लेकर आओ ताईजी के घर से वो पत्र।” जब हम लाए और पापाजी ने अपने फोल्डर में उस पत्र को सँभालकर रख लिया जहाँ वो सभी ज़रूरी प्रपत्र रखा करते थे। बाद में उन्होंने उस पत्र का उत्तर भी लिखा। 


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बाद में घर बदलने के समय पत्र इधर-उधर हो गए और नए घर में आने के बाद हम ये तलाशते ही रह गए कि वो पत्र कहाँ सँभालकर रख गया जो मोहल्ले और रिश्तेदारों में एक चर्चित प्रसंग रहा था। आज भी अफ़सोस है कि काश तब भी मोबाइल का ज़माना होता तो तुरंत पत्र का फ़ोटो खींचकर अपने पास रख लिया होता। 

इसके कई वर्षों बाद डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी की स्मृति में एक कार्यक्रम में पापाजी भी आमंत्रित थे और जब वो लौटे उसके कुछ दिनों बाद पापाजी के लिए अमिताभ बच्चन जी का ही लिखा पत्र धन्यवाद रूप में आया। इस बार मैंने बिना देरी किए मोबाइल से पत्र की तस्वीर ली और अपने पास सुरक्षित रख लिया। तलाश है अभी भी उस पुराने पत्र की जो कहीं सँभालकर बहुत सुरक्षित रखा गया था।


-प्रगीत कुँअर की स्मृति से

(सिडनी, ऑस्ट्रेलिया)


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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

जब मुख्यमंत्री स्वयं शिवानी जी के घर पहुँचे


 उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) राज्य के गठन के बाद यहां के जागरूक साहित्यकारों, विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने सपना देखा कि साहित्य- संगीत-कला के विकास के लिए प्रतिबद्ध अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी उत्तरांचल साहित्य अकादमी गठित की जाए। डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी एवं श्री चमन लाल प्रद्योत ने अपने इस अनुज से आग्रह किया कि अकादमी के गठन के लिए एक ज्ञापन तैयार करें, जिसे उपयुक्त समय पर मुख्यमंत्री को समर्पित किया जाएगा। मैंने तदनुसार एक ज्ञापन का प्रारूप तैयार किया, जिसमें राष्ट्रभाषा हिंदी सहित उत्तरांचल की सभी बोलियों और उनके साहित्य के विकास, साहित्यकारों के संरक्षण, पुस्तकों के प्रशासन में राजकीय सहायता आदि के लिए राज्य में उत्तरांचल साहित्य अकादमी की स्थापना की मांग की गई थी। जिन्हें भी दिखाया गया, सबने उसका समर्थन किया और देखते ही देखते हस्ताक्षर अभियान शुरू हो गया। इसमें डॉ. बुद्धि बल्लभ थपलियाल, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. राज नारायण राय, डॉ. सुधारानी पांडे आदि तमाम साहित्यकारों ने सोत्साह भाग लिया। तय हुआ कि उत्तरांचल के अधिक से अधिक साहित्यकारों के हस्ताक्षर इस ज्ञापन पर कराए जाएं।

इसी बीच 1-2 जून, 2001 को देहरादून में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का अधिवेशन हुआ, जिसमें भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से साहित्यकार और हिंदीप्रेमी पधारे। उस अवसर का लाभ उठाते हुए देश भर के साहित्यकारों के समक्ष इस मुद्दे को रखा गया और सब ने मुक्तकंठ से इस अभियान का समर्थन किया। इस प्रकार देश के 17 राज्यों से आए लगभग 250 साहित्यकारों के बहुमूल्य हस्ताक्षरों से वह ज्ञापन समृद्ध हो गया।

अब प्रश्न था मुख्यमंत्री जी से समय लेकर साहित्यकारों की टोली द्वारा उस ज्ञापन को सौंपने का जब कार्य का संकल्प स्वच्छ मन से किया जाता है तो परिस्थितियाँ स्वयं अनुकूल हो जाती हैं।

जुलाई के प्रथम सप्ताह में एक दिन अचानक देश की मूर्धन्य लेखिका और कुमाऊ की गौरवशालिनी पुत्री आदरणीया गौरा पंत शिवानी जी ने मुझे फोन किया- 'बुद्धिनाथ, मैं एक सप्ताह से तुम्हारे घर के पास ही इंदिरा नगर में अपनी बेटी उमा के पास रह रही हूँ। स्वास्थ्य खराब होने के कारण मैंने समारोहों में जाना बिलकुल बंद कर दिया है। इसलिए केवल तुम्हें  फोन कर रही हूँ कभी समय निकालकर मुझसे मिल लो।'

मैंने मान लिया कि साहित्य अकादमी के लिए अगला कदम उठाने का समय आ गया है। तय हुआ कि वह ज्ञापन शिवानी जी के हाथों ही मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को सौपा जाए। डॉ. त्रिवेदी ने स्वामी जी को फोन कर साहित्य अकादमी की आवश्यकता के बारे में बताया और उक्त ज्ञापन आदरणीया शिवानी जी के नेतृत्व में उन्हें सौंपने के लिए समय मांगा। शिवानी जी का नाम सुनकर स्वामी जी अभिभूत हो उठे। उन्होंने छूटते ही कहा कि 'शिवानी जी मेरे लिए आदरणीय हैं। वे पूरे देश की गौरव हैं, जबकि मैं एक प्रदेश का मामूली मुख्यमंत्री इसलिए वे मेरे यहां आएँ, इसके बजाय मैं ही उनके पास जाकर उनका अभिनंदन करना चाहूंगा।'

स्वामी जी का यह उद्गार सुनकर हमलोग चकित रह गए। हमें लगा कि यह व्यक्ति देश का शीर्षस्थ नेता तो है ही, अच्छे संस्कारों और सात्विक विचारों वाला महापुरुष भी है। इनका विराट व्यक्तित्व इनकी कुर्सी से बहुत ऊंचा है।

मैंने शिवानी जी को स्वामी जी की इच्छा के बारे में बतलाया तो वे भी अवाक रह गई मैंने उनसे स्वामी जी से मिलने के लिए समय मांगा। उनकी सुविधा के अनुसार रविवार 15 जुलाई 2001 को 11:00 का समय निर्धारित हुआ। तदनुसार स्वामी जी को अवगत कराया गया।

उस दिन स्वामी जी का 10:00 बजे से ही व्यस्त कार्यक्रम था मगर उन्होंने उसमें फेरबदल कर 11:00 बजे शिवानी जी से मिलने का कार्यक्रम बनाया। चूँकि ज्ञापन शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री को देना था, इसलिए बड़ी संख्या में साहित्यकारों को ले जाना संभव नहीं था। तय हुआ कि डॉ. त्रिवेदी, श्री प्रद्योत और डॉ. मिश्र ही प्रतीक रूप में वहां उपस्थित रहें।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 15 जुलाई की सुबह 10:30 बजे हम दोनों भाई (मैं और डॉ. त्रिवेदी जी) मुख्यमंत्री निवास पर पहुंचे और प्रद्योतजी सीधे शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री निवास पर मिलने वालों की भारी भीड़ को देखते हुए मुझे लगा कि 12 बजे से पहले वहां से चलना नहीं हो पाएगा। मगर ठीक 11 बजे मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी जी घर से निकल पड़े और उनके साथ हमलोग 10 मिनट में इंदिरा नगर पहुँच गए। स्वामी जी का विशेष निर्देश था कि सुरक्षा और प्रोटोकॉल के नाम पर ज्यादा लाव लश्कर उनके साथ न हो, क्योंकि एक साहित्यकार से मिलने जाना है।

मामूली सुरक्षा व्यवस्था के साथ वे अपने युग की महान साहित्यकार के घर गए थे, लेकिन उनके जाने से पहले ही आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्थानीय प्रतिनिधि इस ऐतिहासिक घटना को रिकॉर्ड करने के लिए पहुंच चुके थे।

वहाँ स्वामी जी ने शिवानी जी के पांव छूकर प्रणाम किया और उन्हें शाल ओढ़ाकर तथा स्मृति चिह्न के रूप में रुद्राक्ष की माला और गंगाजली भेंट कर उनका अभिनंदन किया। उन्होंने कहा कि शिवानी के उपन्यासों को मैं शुरू से पढ़ता रहा हूँ। उत्तरांचल के जनजीवन को जिस उदात्त शैली और सुसंस्कृत भाषा में इन्होंने हिंदी जगत के समक्ष रखा, वह हम सभी के लिए गौरव की बात है। मैं तो नई पीढ़ी के लेखकों से आग्रह करूँगा कि वे शिवानी जी के उपन्यासों को पढ़कर भाषा और शैली सीखें।

शिवानी जी अपने इस राजसी सत्कार से गर्वित थीं। उपयुक्त अवसर देखकर मैंने उत्तरांचल साहित्य अकादमी की चर्चा शुरू की और हस्ताक्षरकर्ता साहित्यकारों की सूची में सबसे ऊपर शिवानी जी से हस्ताक्षर कराकर उन्हीं के हाथों उक्त ज्ञापन मुख्यमंत्री को दिलवा दिया।

इस अवसर पर शिवानी जी ने कहा कि अकादमी का गठन पुरस्कार देने के लिए नहीं हो। पुरस्कार की राजनीति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है और भाषा व साहित्य की अकादमियों का वातावरण प्रदूषित कर दिया है। इसलिए मैं चाहती हूं कि उत्तरांचल साहित्य अकादमी साहित्य सृजन और साहित्यकारों के संरक्षण व विकास पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करे। वहाँ उपस्थित आकाशवाणी के समाचार संपादक श्री राघवेश पांडेय ने स्वामी जी से पूछा कि क्या हम मान लें कि यह प्रस्ताव आपको स्वीकार है? मुख्यमंत्री ने तत्काल कहा- शिवानी जी का यह आदेश मुझे स्वीकार क्या, शिरोधार्य है।

देश के एक महान साहित्यकार और महान राजनेता के बीच आत्मीय मिलन की और सत्ता द्वारा साहित्य के प्रति राजसी सम्मान की यह घटना ऐसी नहीं थी जिसे इतिहास याद रख सके, मगर नवोदित उत्तरांचल राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री द्वारा एक वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति दिखाया गया विनम्र शिष्टाचार इस राज्य का ऐसा छंदोमय अध्याय है, जिस पर आने वाली पीढ़ियां गर्व करेंगी।


 - डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र की स्मृति से


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शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

मिलना वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी से

 पिशाच मोचन में हिंदी प्रचारक संस्थान की विशाल इमारत के गेट से जैसे ही अंदर प्रवेश किया किताबों की खुशबू ने मन मोह लिया। वरिष्ठ लेखक कृष्णचंद्र बेरी के बेटे विजय प्रकाश बेरी मुझे किताबों के रैक से भरे लंबे लंबे गलियारों से पहली मंजिल में ले गए। जहाँ बड़े से कमरे में व्हील चेयर में महान रचनाकार कृष्ण चंद्र बेरी बैठे थे ।बनारस के प्रकाशन पुरुष कहे जाने वाले वयोवृद्ध बेरी जी के मैंने चरण स्पर्श किए और दीवान पर बैठ गई ।बनारस ही नहीं बल्कि देश भर में हिंदी प्रचारक संस्थान का विशेष महत्व है। प्रचारक बुक क्लब, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना जैसी योजनाओं को इस संस्थान ने प्रारंभ कर एक नए युग का सूत्रपात किया है। जबलपुर में थी तो विजय जी से खतो किताबत के दौरान मेरी किताब हिंदी प्रचारक पब्लीकेशन से प्रकाशित करने की चर्चा भी होती थी ।लेकिन वे पाठ्य पुस्तकों के प्रकाशन में मशगूल थे और बात आई गई हो गई थी। कृष्ण चंद्र बेरी से काफी देर तक संस्थान के विषय में चर्चा होती रही। जलपान भी आत्मीयता भरा था। चलने लगी तो उन्होंने अपना विशिष्ट ग्रंथ" पुस्तक प्रकाशन संदर्भ और दृष्टि" तथा "आत्मकथा प्रकाशकनामा" मुझे भेंट की ।दोनों ही किताबें काफी मोटी और ग्रंथनुमा थीं। बाद में हिंदी प्रचारक पत्रिका में हर साल मेरे जन्मदिन की बधाई ,हेमंत फाउंडेशन के पुरस्कारों और मेरी पुस्तकों के लोकार्पण, पुरस्कारों के समाचार छपते रहते थे। बल्कि छपते रहते हैं ।इस पत्रिका से कहीं भी रहते हुए मेरा जुड़ा रहना मानो हिंदी प्रचारक संस्थान से जुड़े रहना है। अब कृष्णचंद बेरी जी नहीं है लेकिन इस संस्थान से जुड़ना कुछ ऐसा हुआ कि जब भी बनारस जाती हूँ हिंदी प्रचारक संस्थान जाए बिना मन नहीं मानता।

-संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से अविस्मरणीय भेंट

दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका साहित्य अमृत में पंडित विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंध पढ़कर मैं उनकी फैन हो गई। मन में इच्छा जागी मैं भी ललित निबंध लिखूँ। 

 स्कूल में अध्यापन  करते हुए अपने खाली पीरियड में मैं ललित निबंध लिखने लगी ।इसी बीच दीपावली की छुट्टियों में बनारस जाना हुआ। पंडित विद्यानिवास मिश्र जी से मिलने की इच्छा बलवती थी। ललित निबंध परंपरा में वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ राय के साथ मिलकर त्रयी के रूप में लोकप्रिय थे। फोन पर उनसे मिलने की रजामंदी लेकर मैं उनके घर पहुंची।भव्य घर लेकिन भारतीय संस्कृति का प्रतीक..... पीतल के गिलास और लोटे में हमारे लिए पानी लेकर उनका सेवक आया ।थोड़ी देर में बेहद सौम्य व्यक्तित्व के मिश्र जी धोती, कुर्ता और कंधे पर शॉल, माथे पर तिलक लगाए मुस्कुराते हुए आए। इतने महान लेखक, संपादक ,पत्रकार, भूतपूर्व कुलपति को सामने देख मैं थोड़ी नर्वस हो रही थी। बात उन्हीं ने शुरू की। पूछने लगे "क्या करती हो, किस विधा में लिखती हो, कुछ प्रकाशित हुआ है क्या?"

मैंने उन्हें बहके बसन्त तुम की प्रति भेंट की ।कहा "ललित निबंध में मार्गदर्शन चाहती हूँ।"

"तुमने लिखा है कोई निबन्ध?"

"जी सुनेंगे?"

" हां सुनाओ ।"इसी बीच कांसे की चमचमाती थाली में तरह-तरह की मिठाइयां नमकीन और गरमा गरम दूध के गिलास आ गए।

" अरे भाई दूध ढाँक दो ।अभी बिटिया निबंध सुना रही है। "

सेवक ने दूध पर तश्तरियां  ढंक दी। मैंने फागुन का मन निबंध पढ़कर सुनाया ।वे भावविभोर होकर बोले "अपार संभावनाएं हैं।  तुम इसके दो तीन ड्राफ्ट लिखो। अपने आप निखार आएगा। साहित्य अमृत में प्रकाशन के लिए भेजो।"

उन्होंने मुझे अपनी लोकप्रिय किताब "मेरे राम का मुकुट भीग रहा है" भेंट की। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। उस शाम ललित निबंध लेखन में मैं विश्वास लेकर लौटी।

विभिन्न विषयों पर 16 ललित निबंध लिखकर मैंने

यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को  ललित निबंध संग्रह की पांडुलिपि भेज दी। इनमें से दो निबंध पंडित विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य अमृत में प्रकाशित किए थे। बाकी इंदौर, उज्जैन, भोपाल और मुंबई के अखबारों में छप चुके थे।

मैंने ललित निबंध संग्रह का नाम रखा फागुन का मन।

फागुन का मन पुस्तक प्रकाशित होकर आई तो पहली प्रति विद्यानिवास मिश्र जी को बनारस भेजी। उनका पत्र आया "मैंने कहा था न, अपार संभावनाएं हैं तुममें। महिला लेखकों में ललित निबंध लेखन में तुम सर्वोपरि हो ।"

मुझे लगा जैसे मैं चौपाटी सागर तट पर खड़ी हूँ और सामने ज्वार की ऊंची ऊंची लहरे डूबते सूरज और उगते पूर्णमासी के चांद के संग अठखेलियां कर रही हैं ।वे सड़क के किनारे की दीवार से टकरातीं, उछलकर सड़क की ओर जाती मानो आमंत्रण दे रही हों कि जिंदगी भी ज्वार भाटे की तरह है।अभी तुम्हारा ज्वार है। थाम लो इस ज्वार को ।मगर मैं ज्वार के बहकावे में कभी नहीं आई। मैंने खुद को शांत बहने दिया।

सूचना मिली पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के निधन की। एक समारोह में जाते हुए उनकी कार पेड़ से टकरा जाने के कारण घटनास्थल पर ही उनका निधन हो गया। मैं भीतर तक व्यथित हो गई थी। ललित निबंधों के लिखने के लिए उनका आग्रह और मार्गदर्शन अब कभी नहीं मिलेगा।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

राष्ट्रकवि और उपराष्ट्रकवि !

 आफ द रिकॉर्ड         (नौ )

    पत्रकारिता के खतरे

महात्मा !नेताजी !और राष्ट्रकवि ! जैसी उपाधियां कभी किसी संस्था या जन समारोह में नहीं दी गयी थी लेकिन प्रचलन में ये उपाधियां  आम लोगों की जबान पर थीं. मोहन दास करमचंद गांधी को लोग महात्मा गांधी ,सुभाष चन्द्र को नेता जी का सम्बोधन देने लगे थे. उसी तरह से मैथिली शरण गुप्त को राष्ट्रकवि की उपाधि  इतनी भायी कि उन्होंने इसे अपने नाम के साथ चस्पा कर ली थी.यहां तक कि पत्रव्यवहार और परिचय वाचन में भी राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त लिखा और बोला जाने लगा.  

         कालान्तरण में जय प्रकाश नारायण को भी 'लोकनायक का सम्बोधित किया गया 'लेकिन जय प्रकाश जी को जे पी कहलाना ज्यादा पसंद था इसलिए उनके नाम के साथ लोकनायक का सम्बोधन ज्यादा समय नहीं चला.

मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि कहे जाने पर  कवियों के एक समुदाय ने इस सम्बोधन को हाथों हाथ लिया।सच भी यही है कि किसी ने भौं तक नहीं टेढ़ी की लेकिन जब राम धारी सिंह दिनकर के नाम के आगे राष्ट्रकवि का सम्बोधन लगाया जाने लगा तो कुछ हंसोड़ साहित्यकारों ने दबी जबान से चुस्की लेना शुरू किया। यही नही  जब एक ही मंच पर  दोनों वरिष्ठ कवि  मंचासीन होते तो वे चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते-आज हमारे मंच पर दो दो राष्ट्र कवि मंचस्थ हैं. यह देखकर दिनकर जी मंद मंद मुस्कराते दिखते लेकिन मैथिली शरण गुप्त जी का अनमनापन छिपाए नहीं छिपता.  पीठ पीछे हास परिहास चलता रहता. लोग बाग मजे लेते.

मैथिली शरण गुप्त जी को  सभी दद्दा कहते थे. धीर गम्भीर होते हुए भी हम लोगों की चुहलबाजी पर उनकी निगाह बनी रहती थी.और राष्ट्र कवि के मुद्दे पर अंदर ही अंदर बेहद टची रहते थे.उन्हें छेड़ने के लिए हम लोगो ने एक बार कहा कि दद्दा !आप को सभी राष्ट्र कवि मानते है पर दिनकर  जी  को भी राष्ट्र कवि कहा जाए  हमें यह स्वीकार नही है.

सुनकर  गिरदे पर टिके हुए राष्ट्र कवि की मुद्रा थोड़ी चौकन्नी हुई उनका स्वर सुनाई दिया-हूँ !

 इस बारे में दिनकर जी से बात हुई तो उन्होंने भी जवाब दिया कि मै तो किसी को राष्ट्र कवि बोलने को कहता नहीं.

दद्दा की आंखों में सवालिया निशान उभरा-

लेकिन एक रास्ता है अगर आप अनुमति दें तो?

क्या ?

-"यह  कि दद्दा आप  को राष्ट्र कवि और दिनकर जी को उपराष्ट्रकवि घोषित कर दिया जाए."

मैथिली शरण गुप्त जी ने अपनी आंखे बंद कर लीं और हमारी चुहलबाजी को वहीं पर ब्रेक लगाना पड़ा.

लेकिन हम सबने  बार बार दुहराकर इस प्रस्ताव की गम्भीरता बनाये रखी और अन्य वरेण्य साहित्यकार भी रुचि लेने लगे तो मैथिलीशरण जी को भी एक दिन बोलना पड़ा-ठीक है,आगे दिनकर भी चाहते हैं तो उनको उपराष्ट्रकवि घोषित करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है.

लेकिन दद्दा! तीन चार उपाधियां और भी फाइनल कर दें तो और बेहतर हो जाये.

वह क्या?

जैसे-बच्चन जी को "परराष्ट्रकवि",

 प्रभाकर माचवे जी को महाराष्ट्र कवि" और--

और ?

जी और...

गोपाल प्रसाद व्यास जी को 

"धृतराष्ट्रकवि"!

अब दद्दा से न रहा गया,उन्होंने गिरदा खींच कर हम लोगों पर फेंका. और हम अदबदा कर भागे. पेट पकड़े . ठहाके पर ठहाके लगाते हुए.

 बाद में सोहन लाल द्विवेदी जी के  नाम में भी राष्ट्रकवि लगाया जाने लगा। कानपुर के श्री देवी प्रसाद राही भी यदा कदा राष्ट्र कवि से सम्बोधित किये जाते दिखे पश्चात वीर रस के कवियों में भी राष्ट्र कवि कहलाने की होड़ लग गयी। लेकिन असली राष्ट्र कवि कहलाने वाले मैथिलीशरण गुप्त जी ही थे.

मैथिली शरण गुप्त जी का व्यक्तित्व प्रभावी और भव्य था. चूड़ी दार पैजामा,शेरवानी और सिर पर टोपी, हाथ मे छड़ी. हमेशा उनके साथ मुंशी अजमेरी झोले में गुप्त जी के लिखने के लिए स्लेट और पेंसिल लेकर चलते थे. बाद में उसे कलम बद्ध करने की जिम्मेदारी मुंशी अजमेरी की हुआ करती थी. लेकिन रामधारी सिंह दिनकर  का व्यक्तित्व बेहद दबंग था. कवि सम्मेलनों के वे सिरमौर थे. दिनकर जी नेहरू जी के अत्यंत प्रिय थे. हमेशा लोकसभा से साथ साथ निकलते थे. एक बार सांसद की सीढ़ियों से उतरते समय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू  के कदम लड़खड़ा गए, दिनकर जी ने बढ़कर नेहरू जी को संभाल लिया. इसपर नेहरू जी ने दिनकर जी को धन्यवाद दिया.

दिनकर जी ने तत्क्षण  आभार प्रदर्शन पर उन्हें बरजते हुए चुटकी ली-"नेहरू भाई इसकी जरूरत नही है,राजनीति जब भी लड़खड़ाती है साहित्य हमेशा बढ़कर उसे सम्भाल लेता है । यह हमारा दायित्व है", नेहरू जी सुनकर मुस्करा दिए.

         दिनकर जी की कविताएं राष्ट्रीयता से ओतप्रेत होती थी। वीर रस के अद्भुत कवि थे दिनकर जी. जब मंच पर काव्यपाठ के लिए खड़े होते . तालियों की गड़गड़ाहट होती थी और जनता की निगाहों में सिर्फ दिनकर जी होते थे.उनके बाद काव्य पाठ करने की बड़े बड़ों की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन वे कितने बड़े रस मर्मज्ञ थे?कितने मंजे हुए गीतकार थे, बिहार के एक कवि सम्मेलन के बाद एक ऐसी घटना घटी जिसका चश्मदीद गवाह मैं भी बना.

हुआ यह कि सासाराम के कविसम्मेलन के बाद एक भव्य प्रसाद के भवन में पांच  कवियों के रूकने की व्यवस्था थी।दिनकर जी, व्यास जी,नागार्जुन जी ,ठाकुर प्रसाद सिंह और उनके साथ सबसे युवा   वय का मैं. अचानक आधी रात को दिनकर जी  उठ खड़े हुए और उन्होंने पलंग को उलट दिया.सभी की आंख खुल गयी। पलंग पर खटमल बिछे पड़े थे.सभी  ने अपनी अपनी खाट खड़ी की और बरामदे में लगी कुर्सियों पर बैठ गए. पता चला कुर्सियों में भी खटमल भरे पड़े थे. दिनकर जी ने कहा उधर देखो-पलँगो से उतर कर खटमलों की कतार हमारी तरफ आ रही थी.

एक मेज पर स्टोव रखा था और कई बाल्टियां पानी  भरी थी।

 स्टोव जलाकर एक बाल्टी का पानी गर्म करने का आदेश मिला।  लोटे से पलँगो और कुर्सियोंपर गर्म पानी डाला गया।

फिर सारी रात कुर्सियों पर जगते बीती, बतकही के अलावा कोई चारा नहीं था. दिनकर जी के संकेत पर ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने वंशी और मादल के कई नव गीत गाकर सुनाए.नागार्जुन जी को मंत्रमुग्ध होकर हम सबने सुना. बगल के हाल में ठहरे कवियों का भी यही हाल था . वे भी आ गए.सबसे अंत मे खटमली- रात रतजगे में बदल गयी. दिनकर जी ने  एक नहीं अनेक श्रंगारिक गीतों को सस्वर पाठ किया.कंठस्थ श्लोकों का वाचन किया। अपभ्रंश के घोर श्रंगारिक छंदों,दोहों को सव्याख्या सुनाया.अद्भुत रात्रि गीत थे उनके. चमत्कृत थे हम .उन्हें सुनकर.दिनकर जी के पास श्रंगारिक गीतों का अद्भुत जखीरा था .

  इसी तरह पटना में  हिंदी प्रचार सभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में एक अलग खेल हो गया. अधिवेशन में मुख्य अतिथि के रूप में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने भी स्वीकृति दे दी थी। देश भर से दिग्गज साहित्यकारों का जमावड़ा लगने का अनुमान था. महाधिवेशन के लिए प्राप्त राष्ट्रपति के भाषण, विशिष्ट अतिथियों के लिखित वक्तव्यों, अधिवेशन में पारित किए जाने वाले प्रस्तावों आदि की प्रतियां भी अखबारों को देने के लिए तैयार कर ली गयी थी.

उस समय  बनारस से छपने वाले एक प्रमुख  अखबार का बिहार में भी दबदबा था. जिस दिन अखबार नही पहुंचता था,लोग कहते थे-आज बनारस का 'अखबार' नहीं आया! उस अखबार ने महाधिवेशन की विशेष कवरेज के लिए अपने सांस्कृतिक संवाददाता को पटना भेज रखा था.

       अखबार के संवाददाता ने बेढब जी से मिलकर प्रेस नोट की तैयार सामग्री पहले ही हथिया ली थी और फटाफट लीड, बॉक्स आइटम, साक्षात्कार, महाधिवेशन की झलकियां बना कर  अखबार को भेज दी  और साथ मे नोट लगा दिया-मेरा फोन   पहुचते ही लगा दें. संवाददाता ने फोन कब भेजा ,पता नही पर बनारस के उस अखबार में पटना महाधिवेशन की शानदार कवरेज थी.लेकिन बाकी अखबारों में वरेण्य साहित्यकार के निधन के चलते महाधिवेशन के स्थगित किये जाने की मात्र एक "सिंगल"कालम में खबर छपी थी.

-अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से


                    क्रमशः


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बुधवार, 27 सितंबर 2023

अनोखा भाई

महादेवी वर्मा को जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, तो एक साक्षात्कार के दौरान उनसे पूछा गया था, 'आप इस एक लाख रुपये का क्या करेंगी? '

कहने लगीं, 'न तो मैं अब कोई कीमती साड़ियाँ पहनती हूँ , न कोई सिंगार-पटार करती हूँ। ये लाख रुपये पहले मिल गए होते तो भाई को चिकित्सा और दवा के अभाव में यूँ न जाने देती।' कहते-कहते उनका दिल भर आया।

कौन था उनका वो 'भाई'? 

हिंदी के युग-प्रवर्तक औघड़-फक्कड़-महाकवि पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी के मुंहबोले भाई थे।


एक बार वे रक्षा-बंधन के दिन सुबह-सुबह जा पहुंचे अपनी लाडली बहन के घर और रिक्शा रुकवा कर चिल्लाकर द्वार से बोले, 'दीदी, जरा बारह रुपये तो लेकर आना।'

महादेवी रुपये तो तत्काल ले आईं, पर पूछा, 'यह तो बताओ भैय्या, यह सुबह-सुबह आज बारह रुपये की क्या जरूरत आन पड़ी?

हालाँकि, 'दीदी' जानती थी कि उनका यह दानवीर भाई रोजाना ही किसी न किसी को अपना सर्वस्व दान कर आ जाता है, पर आज तो रक्षा-बंधन है, आज क्यों?

निराला जी सरलता से बोले, "ये दुई रुपया तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये तुम्हें देना है। 

आज राखी है ना! तुम्हें भी तो राखी बँधवाई के पैसे देने होंगे।" 


ऐसे थे फक्कड़ निराला और ऐसी थी उनकी वह स्नेहमयी 'दीदी'। गर्व है हमें मातृभाषा को समर्पित ऐसे निराले कवि निराला जी और कवयित्री महादेवी पर। निष्काम प्रेम।

🙏🏻🪷😌

-अमिताभ खरे के सौजन्य से


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कृष्णा सोबती जी के साथ कुछ खट्टे अनुभव, मिठास के साथ।

 तब मैं ' कादम्बिनी ' का कार्यकारी संपादक हुआ करता था। मैंने सोबती जी से एक बार आग्रह किया कि आप हमें अगले अंक के लिए कोई संस्मरण दीजिए।वह तारीख भी बताई ,जब तक वह लिख कर दे सकें तो आगामी अंक में ही हम उसे छापना चाहेंगे।जहाँ तक याद आता है, 17 तारीख तक अगले महीने का अंक तैयार होकर प्रेस में छपने के लिए चला जाता था और उसी महीने की 25-26 तारीख तक छपकर आ जाता था।मैंने अंदाज़न कुछ पेज सोबती जी के संस्मरण के लिए छोड़ रखे थे मगर उनका संस्मरण मिला-अंंक छूट जाने के बाद।

व्यावसायिक पत्रिकाओं की अपनी मजबूरियाँँ होती हैं, उन्हें एक खास दिन छपने के लिए प्रेस में भेजना ही होता है।इस कारण वह संस्मरण उस अंक में न जा सका और मुझसे यह चूक हुई कि मैं सोबती जी को यह बात पहले नहीं बताई।बता देता तो शायद मामला सुलझ जाता।वैसे संभव यह भी है कि तब भी न सुलझता।जब अगला अंक उनके पास गया और उन्होंने देखा कि उनका वह संस्मरण नदारद है।शाम को उनका फोन आया कि वह छपा क्यों नहीं?मैंने कारण समझाया और कहा कि यह विलंब से मिला, इसलिए अब अगले अंक में  छपेगा।काफी समझाने पर वह मान गईं, हालांकि अमृता प्रीतम से  'ज़िन्दगीनामा ' शब्द के इस्तेमाल को लेकर वह लंबी कानूनी लड़ाई में उलझी थीं। सोबती जी को आशंका यह थी कि यह अमृता प्रीतम ने रुकवाया है।उनकी इस आशंका का आधार पहले की कोई ऐसी घटना थी या उनका मन अमृता प्रीतम को लेकर अनावश्यक रूप से आशंकित रहने लगा था,इसकी जानकारी मुझे नहीं। जहां तक मेरा सवाल है,अमृता जी से न जीवन में कभी मुलाकात हुई, न उन्हें कभी कहीं देखा था। कभी इच्छा भी पैदा नहीं हुई,उनसे मिलने की।सच कहूं तो उनका भावातिरेकी लेखन मुझे पसंद नहीं था।वैसे अमृता जी के पास ऐसा जासूसी तंत्र रहा नहीं होगा कि कृष्णा सोबती कहां-कहां छप रही हैं,यह पता करके उसे रुकवा सके।कोई विशुद्ध लेखक कितना भी  नामी हो, इतना ताकतवर भी नहीं हो सकता कि हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के मालिक या संपादक उनके कहने पर चले! अमृता जी का नाम  बड़ा था मगर थीं तो वह भी कुल मिलाकर एक लेखक हीं! यह बात सोबती जी को समझाई-बताई भी। अमृता जी के साथ उनके लंबा- खर्चीले मुकद्दमा लड़ने से पैदा हुई थकावट और खीज इसका कारण रही होगी।

खैर उस समय तो वह मान गईं।मैं उस रात चैन की नींद सोया।सुबह फिर उनका फोन आया, नहीं, वह अब नहीं छपेगा।उन्हें फिर से समझाना व्यर्थ साबित हुआ।दुख तो बहुत हुआ मगर मैं बेबस था। वापस भेजना पड़ा।

दूसरा वाकया तब हुआ,जब मैं 'शुक्रवार ' का संपादक था।मेरे पास एक फ्रीलांसर यह सुझाव लेकर आए कि वह लेखकों से बात कर एक सीरीज लिखना चाहेंगे कि इन दिनों वे क्या लिख -पढ़ रहे हैं।मैंने कहा, बढ़िया आइडिया है,लिखिए लेकिन हमारे एक पेज से अधिक लंबा नहीं, चूँकि यह बुनियादी रूप से राजनीतिक -सामाजिक पत्रिका है। शीर्षक और फोटो के बाद हीकरीब आठ सौ शब्दों की गुंजाइश बचती है।वे लाए थे- एक- दो लिखकर कुछ लेखकों के बारे में। मैंने कहा कि पहले दो- तीन वरिष्ठ लेखकों से बात करके लाइए,फिर हम इन्हें भी छापेंगे।

उन्होंने सोबती जी से संपर्क किया,वह राजी हो गईंं।बहुत से लोग जानते हैं कि सोबती जी साक्षात्कारकर्ता पर कुछ नहीं छोड़ती थीं। लिखित सवालों के जवाब फुलस्केप कागज पर बड़े - बड़े अक्षरों में खुद लिख कर देती थीं।उन्होंने लिखा,जो ' शुक्रवार ' के तीन पेज से कम में न था। मैंने उनसे कहा कि बंधु, इतना लंबा छापना मुश्किल होगा।सोबती जी के पास फिर जाइए, शायद वे इसे छोटा कर सकें।वैसे भी मुझे वह कुछ उलझा हुआ सा लगा था।वे हाँ करके तो गए मगर मेरे कक्ष से निकल कर वहीं सहयोगी महिला पत्रिका ' बिंदिया' पत्रिका की संपादक को वह आलेख दे आए। उन्होंने इसे पूरा छापना स्वीकार कर लिया और छाप भी दिया।वह अंक जब सोबती जी के पास पहुँचा तो उन्होंने मुझे फोन किया। वह आगबबूला हो गईं कि मैंने तुम्हारी पत्रिका के लिए दिया था, ' बिंदिया '  पत्रिका को तुमने कैसे दे दिया? यह तुमसे किसने कहा था? मैंने सफाई दी कि सोबती जी, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है, स्वयं मुझे छपने ही पर पता चला है लेकिन वह विश्वास करें,तब न !

वैसे यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि 'कादम्बिनी'  में हमने एक स्तंभ ' कथा प्रतिमान' शुरू किया था, जिसमें हम हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकारों से उनकी अपनी पसंद की देशी-विदेशी कहानी का चयन करने का आग्रह करते थे।उनसे कहते थे कि आपने उस कहानी का चयन क्यों किया, इस पर एक टिप्पणी  लिखें।शर्त एक थी कि वह कहानी हिंदी में उपलब्ध होना चाहिए। हम वह कहानी तथा चयनकर्ता की उस पर टिप्पणी प्रकाशित करते थे।इस स्तंभ के लिए कृष्णा जी ने चन्द्रधर शर्मा की कालजयी कहानी ' उसने कहा था ' का चयन किया और उस पर टिप्पणी लिखी मगर यह संस्मरण वाले उस अप्रिय प्रसंग से पहले की बात है।इस स्तंभ के लिए उनके अलावा विष्णु प्रभाकर, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अमरकांत, श्रीलाल शुक्ल, शेखर जोशी, विद्यासागर नौटियाल, विजयदान देथा आदि ने भी एक-एक कहानी का चयन किया था और टिप्पणी लिखी थी। 2007 में इस चयन को पुस्तकाकार रूप में राजकमल प्रकाशन ने ' बोलता लिहाफ ' शीर्षक से प्रकाशित भी किया था।

सोबती जी के साथ आई खटास कभी लंबी नहीं चली।पता नहीं कैसे और कब मिठास फिर से लौट आती थी। इसकी पहल वे अकसर करतीं।उनसे मिलना होता रहा।उन्होंने राजकमल प्रकाशन से  'जनसत्ता ' में प्रकाशित  आलेखों की दो पुस्तिकाएँ  छपवाने से पहले उनके संपादन का दायित्व एक - एक कर मुझे सौंपा।मैंने यह काम स्वीकार तो कर लिया मगर बेहद डरते- डरते!बहुत जरूरी होने पर ही कहीं कलम चलाई, ताकि फिर से हमारे-उनके बीच कोई गलतफहमी पैदा न हो जाए ।बाद में एक बार मिलने पर उन्होंने किसी संदर्भ में कहा कि मैं जिसे संपादन का दायित्व देती हूँ,  उसे पूरी स्वतंत्रता देती हूँ।मैं मन ही मन बहुत पछताया मगर मैंने उन्हें नहीं बताया कि मैं तब कितना डरा हुआ था।

एक बार 'हंस' में विश्वनाथन त्रिपाठी और मेरी बातचीत छपी।उसके बाद इससे खुश होकर मगर ऐसा कहे बगैर उन्होंने मेरे घर दो टेबल लैंप भिजवाए।एक मेरे लिए, एक त्रिपाठी जी के लिए।बिस्तर पर अधलेटा होकर देर रात को उसी की रोशनी में कई बार लिखता - पढ़ता रहता हूँ और वे याद आती रहती हैं।

(संभावना प्रकाशन से प्रकाशित साहित्यिक संस्मरणों की पुस्तक ' राह उनकी एक थी '  से एक अंश)

-विष्णु नागर की स्मृति से


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साहिर के दो सौ रुपए

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे। ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक्त लेकर उनसे मुलाकात के लिए पहुंचे।

उस दिन साहिर ने जावेद के चेहरे पर उदासी देखी और कहा, “आओ नौजवान, क्या हाल है, उदास हो?” 

जावेद ने बताया कि दिन मुश्किल चल रहे हैं, पैसे खत्म होने वाले हैं। 

उन्होंने साहिर से कहा कि अगर वो उन्हें कहीं काम दिला दें तो बहुत एहसान होगा।


जावेद अख़्तर बताते हैं कि साहिर साहब की एक अजीब आदत थी, वो जब परेशान होते थे तो पैंट की पिछली जेब से छोटी सी कंघी निकलकर बालों पर फिराने लगते थे। जब मन में कुछ उलझा होता था तो बाल सुलझाने लगते थे। उस वक्त भी उन्होंने वही किया। कुछ देर तक सोचते रहे फिर अपने उसी जाने-पहचाने अंदाज़ में बोले, “ज़रूर नौजवान, फ़कीर देखेगा क्या कर सकता है”


फिर पास रखी मेज़ की तरफ इशारा करके कहा, “हमने भी बुरे दिन देखें हैं नौजवान, फिलहाल ये ले लो, देखते हैं क्या हो सकता है”, जावेद अख्तर ने देखा तो मेज़ पर दो सौ रुपए रखे हुए थे।


वो चाहते तो पैसे मेरे हाथ पर भी रख सकते थे, लेकिन ये उस आदमी की सेंसिटिविटी थी कि उसे लगा कि कहीं मुझे बुरा न लग जाए। ये उस शख्स का मयार था कि पैसे देते वक्त भी वो मुझसे नज़र नहीं मिला रहा था।


साहिर के साथ अब उनका उठना बैठना बढ़ गया था क्योंकि त्रिशूल, दीवार और काला पत्थर जैसी फिल्मों में कहानी सलीम-जावेद की थी तो गाने साहिर साहब के। अक्सर वो लोग साथ बैठते और कहानी, गाने, डायलॉग्स वगैरह पर चर्चा करते। इस दौरान जावेद अक्सर शरारत में साहिर से कहते, “साहिर साब !  आपके वो दौ सौ रुपए मेरे पास हैं, दे भी सकता हूं लेकिन दूंगा नहीं” साहिर मुस्कुराते। साथ बैठे लोग जब उनसे पूछते कि कौन से दो सौ रुपए तो साहिर कहते, “इन्हीं से पूछिए”, ये सिलसिला लंबा चलता रहा। 

साहिर और जावेद अख़्तर की मुलाकातें होती रहीं, अदबी महफिलें होती रहीं, वक्त गुज़रता रहा।


और फिर एक लंबे अर्से के बाद तारीख आई 25अक्टूबर 1980की। वो देर शाम का वक्त था, जब जावेद साहब के पास साहिर के फैमिली डॉक्टर, डॉ कपूर का कॉल आया। उनकी आवाज़ में हड़बड़ाहट और दर्द दोनों था। उन्होंने बताया कि साहिर लुधियानवी नहीं रहे। हार्ट अटैक हुआ था। जावेद अख़्तर के लिए ये सुनना आसान नहीं था।


वो जितनी जल्दी हो सकता था, उनके घर पहुंचे तो देखा कि उर्दू शायरी का सबसे करिश्माई सितारा एक सफेद चादर में लिपटा हुआ था। वो बताते हैं कि ''वहां उनकी दोनों बहनों के अलावा बी. आर. चोपड़ा समेत फिल्म इंडस्ट्री के भी तमाम लोग मौजूद थे। मैं उनके करीब गया तो मेरे हाथ कांप रहे थे, मैंने चादर हटाई तो उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे, मेरी आंखों के सामने वो वक्त घूमने लगा जब मैं शुरुआती दिनों में उनसे मुलाकात करता था, मैंने उनकी हथेलियों को छुआ और महसूस किया कि ये वही हाथ हैं जिनसे इतने खूबसूरत गीत लिखे गए हैं लेकिन अब वो ठंडे पड़ चुके थे।''


जूहू कब्रिस्तान में साहिर को दफनाने का इंतज़ाम किया गया। वो सुबह-सुबह का वक्त था, रातभर के इंतज़ार के बाद साहिर को सुबह सुपर्द-ए-ख़ाक किया जाना था। ये वही कब्रिस्तान है जिसमें मोहम्मद रफी, मजरूह सुल्तानपुरी, मधुबाला और तलत महमूद की कब्रें हैं। साहिर को पूरे मुस्लिम रस्म-ओ-रवायत के साथ दफ़्न किया गया। साथ आए तमाम लोग कुछ देर के बाद वापस लौट गए लेकिन जावेद अख़्तर काफी देर तक कब्र के पास ही बैठे रहे।


काफी देर तक बैठने के बाद जावेद अख़्तर उठे और नम आंखों से वापस जाने लगे। वो जूहू कब्रिस्तान से बाहर निकले और सामने खड़ी अपनी कार में बैठने ही वाले थे कि उन्हें किसी ने आवाज़ दी। जावेद अख्तर ने पलट कर देखा तो साहिर साहब के एक दोस्त अशफाक साहब थे।


अशफ़ाक उस वक्त की एक बेहतरीन राइटर वाहिदा तबस्सुम के शौहर थे, जिन्हें साहिर से काफी लगाव था। अशफ़ाक हड़बड़ाए हुए चले आ रहे थे, उन्होंने नाइट सूट पहन रखा था, शायद उन्हें सुबह-सुबह ही ख़बर मिली थी और वो वैसे ही घर से निकल आए थे। उन्होंने आते ही जावेद साहब से कहा, “आपके पास कुछ पैसे पड़ें हैं क्या? वो कब्र बनाने वाले को देने हैं, मैं तो जल्दबाज़ी में ऐसे ही आ गया”, जावेद साहब ने अपना बटुआ निकालते हुआ पूछा, ''हां-हां, कितने रुपए देने हैं'' उन्होंने कहा, “दो सौ रुपए"..

लेखक - जावेद अख़्तर 

-हरप्रीत सिंह पुरी जी के सौजन्य से


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शनिवार, 23 सितंबर 2023

नागर जी से भेंट

आज अमृतलाल नागर जी (17.08.1916 – 23.02.1990) का जन्मदिन है। नागर जी के साहित्य से सभी हिंदी प्रेमी परिचित होंगे। प्रेमचंद के पश्चात् हिन्दी साहित्य के निर्माताओं में जिन गद्य शिल्पियों ने वृहत्तर भूमिकाएँ निभायी हैं, उनमें नागर जी का महत्वपूर्ण स्थान है। 1935 से 1990 तक के अपने 55 वर्ष के सर्जना-काल में नागरजी ने उपन्यास, कहानियाँ, व्यंग्य, रेखाचित्र, निबंध, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि विधाओं में हिंदी वांग्मय 65 पुस्तकें दीं। उन्होंनें फ़िल्मी पटकथाएँ व रेडियो नाटक रचे और पत्रकारिता भी की। इनमें 14 उपन्यास, 14 कहानी-संग्रह, 6 संस्मरण-आत्मसंस्मरण-रिपोर्ताज-निबंध, 6 हास्य-व्यंग्य-संग्रह, 7 नाट्य-संग्रह (4 रेडियो-नाटक), बाल-साहित्य की 12 पुस्तकें तथा अनूदित साहित्य की 6 पुस्तकें शामिल हैं। 

 उनके उपन्यास, ‘बूँद और समुद्र, अमृत और विष, मानस का हंस, खंजन नयन, नाच्यो बहुत गोपाल, करवट, पीढ़ियाँ’ और व्यंग्य-संग्रह ‘चकल्लस’ अधिकतर लोगों ने पढ़ रखे होंगे। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि उनके चर्चित उपन्यास, ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की रचना से मेरा भी जुड़ाव रहा।   

 यह 15 जून 1977 की बात है जब मेरे मित्र, गोपाल ने मुझे नृत्यगुरु, वीर विक्रम सिंह जी से मिलवाया। वे कैसरबाग़ (लखनऊ) कोतवाली के पीछे ख़यालीगंज में रहते थे। गोपाल का उनसे कैसे परिचय था, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतना याद है कि गोपाल ने मुझे सिंह साहब से मिलवाते हुए कहा था कि इन्हें (मुझे) कोई छोटी-मोटी नौकरी दिलवा दीजिए...

 उन्होंने मुझे अगले दिन आने के लिए कहा। 

 अगले दिन मैं सिंह साहब से मिलने उनके घर पहुँचा। उन्होंने मुझे बैठाया और पानी के लिए पूछा। फिर लिफ़ाफ़े में बंद कर एक पत्र देकर मुझे उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी में डॉ. शरद नागर के पास भेजा। 

 अकादमी का ऑफिस उस समय कैसरबाग़ में भातखंडे संगीत महाविद्यालय के बगलवाली बिल्डिंग में था। पंद्रह मिनट बाद मैं शरद जी के पास था। पत्र-वाला लिफाफा उन्हें पत्र दिया। उसमें क्या लिखा था- यह तो नहीं पता, लेकिन पत्र पढ़ते-ही शरद जी ने मुझे अपने सामने पड़ी कुर्सी पर बिठाया और पानी पिलवाया था। उस समय वे अकादमी में सांस्कृतिक सचिव थे।

 शरद जी ने मुझसे कुछ पारिवारिक बातें कीं, स्थानीय निवास के बारे में जानकारी ली और हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर हल्का-फुल्का इंटरव्यू लिया। फिर हिन्दी और अंग्रेज़ी के कुछ शब्दों का इमला बोला जिसे मैंने लगभग सही लिखा। एक पेज हिन्दी और एक पेज अंग्रेज़ी टाइप भी करवाया... अगले दिन सवेरे आठ बजे प्रख्यात उपन्यासकार अमृतलाल नागर जी की चौक स्थित कोठी पर आने को कहा। 

 दूसरे दिन मैं सबेरे के आठ बजे चौक में बान वाली गली में राजाराम की कोठी के रूप में मशहूर हवेली के चबूतरे पर जब चार-पाँच सीढियाँ चढ़कर पहुँचा, तो मन में प्रसन्नता के साथ धुकधुकी-सी लगी थी कि नागर जी से मैं कैसे मिलूँगा? उनसे कैसे बातचीत कर पाऊँगा? 

 लकड़ी के बड़े से दरवाज़े की बायीं चौखट पर कॉल बेल लगी थी। हिम्मत कर मैंने उसे दबा दी... मैं उम्मीद कर रहा था  कि कोई आकर दरवाज़ा खोलेगा, लेकिन कोई नहीं आया। हाँ, क़रीब आधे मिनट बाद अन्दर से आवाज़ आयी, “खुला है, आ जाओ!” 

 एक पल्ला ठेल कर मैं अन्दर घुसा, फिर उसे पूर्ववत भिड़ाकर आगे बढ़ा। बरामदे को पार करते ही आँगन शुरू। आँगन में पहुँचते ही पचीस साल के चपेटे में एक आदमी से मुझसे भेंट हुई। यह सुरेश थे— नागर जी के घर-परिवार के सेवक। पता नहीं कैसे उन्होंने समझ लिया कि मुझे नागर जी से ही मिलना है और बिना मेरे कुछ कहे ही, संकेत किया कि आँगन पार कर सामने वाले कमरे में चले जाइए। अभी दो क़दम-ही आगे बढ़ा था कि शरद जी से अपने कमरे से निकलते हुए दिखायी दिये। कोठी में पाँच-छह कमरे थे। नागर जी का परिवार उसी में रहता था। मुझे देखकर शरद जी आँगन में आ गये।  

 मैं शरद जी के साथ नागर जी के कमरे में पहुँचा। कमरा क्या था, हालनुमा बैठका था। दुर्लभ पुस्तकों, चित्रों और कलाकृतियों के मध्य दो तख़्त जोड़कर बनाये गये दीवान पर दो मनसदों से घिरा उनके बैठने का स्थान निर्धारित था। तख़्त के सामने बेंत का सोफ़ा और हैण्डलूम की कारपेट पर व्यस्थित सेंटर टेबल। कलापूर्ण सादगी ने मन मोह लिया... आँखों पर काले रंग के मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये नागर जी अपने स्थान पर बैठे कुछ लिख रहे थे— पीठ मसनद से सटाये, गोद में राइटिंग पैड लिये हुए!

 शरद जी ने नागर जी से मेरा परिचय कराया— “बाबूजी! ये हैं राजेन्द्र, मैनुस्क्रिप्ट लिखेंगे।” 

 उस समय वे बहुचर्चित उपन्यास ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ लिख रहे थे। उन्होंने थोड़ा-सा सिर उठाया—

 “अच्छा, बेटा लिखोगे?” एक महान व्यक्तित्त्व से आत्मीयता से भरा प्रश्नवाचक वाक्य सुन मेरी असहजता लुप्त हो गयी।

 “जी बाबूजी!” मैंने उत्साह से कहा था।

 उन्होंने तुरन्त ही अपने तख़्त पर मुझे बिठा लिया और राइटिंग पैड पकड़ा दिया। कोई पूछताँछ नहीं। इस बात की भी जाँच नहीं कि मैं लिख भी पाऊँगा कि नहीं! एक ही नज़र में उन्होंने जैसे मुझे और मेरी क्षमता को परख लिया और आश्वस्त हो गये।

 यह मेरे लिए अप्रत्याशित था। उस समय मेरी अवस्था बीस वर्ष की थी, लेकिन देखने में मैं सत्तर-अट्ठारह का ही लगता था— सवा पाँच फ़िटी दुबली-पतली काया, दाढ़ी-मूँछ का कहीं पता नहीं, हल्की-सी रेख थी। कुर्ता-पायजामा और साधारण चप्पलें पहने मैं धूल-पसीने से गन्दे हो चुके पैरों से तख़्त पर पालथी मारकर बैठने का साहस जुटा ही रहा था कि बाबूजी ने बैठने का संकेत कर मेरे हाथ में राइटिंग पैड थमा दिया और उपन्यास की पांडुलिपि बोलनी शुरू कर दी। 

अपने गन्दे पैरों सहित बैठने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था। उनके सम्मुख तख़्त पर पालथी मार बैठ गया और ‘इमला’ लिखने लगा। अचानक  मन में एक विचार कौंधा।

अभी तक मैंने यही पढ़ा-सुना था कि लेखक खुद ही लिखते या टाइपराइटर पर टाइप करते हैं। लेकिन नागर जी का मामला अलग था। वे जब स्वयं लिखते थे, तो उनका विचार-प्रवाह भंग हो जाता था। इसलिए वे स्वयं कम ही लिखते थे, बोलकर अधिक लिखाते थे। 

 आधे-पौन घंटे बाद नाश्ता आया। ‘बा’ (नागर जी की पत्नी) स्वयं लेकर आयीं। स्वादिष्ट कचौरियाँ और चाय! हालाँकि मैं रास्ते में नाश्ता करके आया था, फिर भी, बा और बाबूजी के कहने पर दो कचौरियाँ खानी पड़ीं। इससे पहले मौक़ा निकालकर आँगन में लगी पानी की टोंटी से अपने हाथ-पैर धो चुका था।

 लेखनी को विश्राम करना पड़ा था। बाबूजी ने मेरे लिखे हुए इमले की जाँच की। दो-ढाई पृष्ठों में चार-पाँच स्थलों पर मामूली संशोधन... मैं ‘पास’ हो गया था।

 नाश्ते के बाद मैं फिर अपनी भूमिका में आ गया। करीब ग्यारह बजे पूर्वाह्न तक बोलना-लिखना जारी रहा। फिर मेरा औपचारिक साक्षात्कार। बताने को कुछ ख़ास था ही नहीं- दो-चार मामूली बातें— नाम-पता, शिक्षा-दीक्षा, माता-पिता, स्थाई निवास आदि। ‘बहुत अच्छा, ख़ूब मेहनत करो, ख़ूब तरक्क़ी करो’ जैसे आशीर्वचनों की वर्षा से मैं स्नात हो रहा था... अगले दिन थोडा जल्दी, यानी साढ़े सात बजे तक, आने की हिदायत के साथ छुट्टी ।

 मुझे उसी दिन मुझे मालूम पड़ा था कि शरद जी, नागर जी के  छोटे बेटे थे। बड़े बेटे थे- कुमुद नागर।

 अगले दिन से वही दिनचर्या। सवेरे साढ़े सात बजे से लेकर पूर्वाह्न ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक लिखना। दोपहर बारह बजे से शाम सात-साढ़े सात बजे तक अकादमी में। उस समय अकादमी के यही ऑफिस-ऑवर्स थे।

 उन दिनों मैं गौसनगर-पाण्डेगंज में बिरहाने से आने वाले नाले के पास किराये पर रहता था। जिस कमरे में मैं रहता था, उसकी पीछे मेहतर बस्ती थी और कमरे की पीछे वाली खिड़की नगरपालिका के सार्वजनिक नल को ओर खुलती थी। सवेरे पाँच से रात दस बजे तक चहल-पहल से लेकर गली-गलौज का मनोरंजक माहौल बना रहता था। ग़रीबी और उपेक्षा से निर्मित वातावरण में वह असभ्यता और कुसंस्कृति व्याप्त थी, जो उपन्यास की विषयवस्तु थी। मैं स्वयं ग़रीबी में पला-बढ़ा था और सीमान्त कृषक परिवार से था, अतः आभिजात्यता से चार हाथ की दूरी-ही भाती थी। 

 नागर जी के मुख से निकले कथोपकथन का मिलान मैं अपने कमरे के पिछवाड़े वाली खिड़की के ‘चलचित्रों’ से आने वाली आवाज़ों से करता। कहीं ‘मिसमैच’ होने पर बाबूजी को सूचित करता।  कुछ दिनों तक यह क्रम चलता रहा, फिर एक दिन उन्होंने मुझे यह छूट दे दी कि कथोपकथनों में मैं यथावश्यक परिवर्तन कर लूँ। उस समय मैंने इस बात का अधिक महत्त्व नहीं समझा, पर आज मैं इसका महत्त्व समझ सकता हूँ। इसका प्रत्यक्ष लाभ मैंने अपने कथा-लेखन, व्यंग्य आदि में उठाया है।   

 यह स्वीकारने में मुझे किंचित संकोच नहीं कि आज मुझे जो भी उल्टा-सीधा लिखना आता है, उसकी तमीज़ बाबूजी से ही मिली। मेरे घर में कोई साहित्यकार नहीं। हाँ, पिताजी को प्रेमचंद साहित्य और तुलसीकृत रामायण में विशेष रुचि है, पर वे लेखक-कवि नहीं हैं। उनकी इस रुचि के कारण मुझे कोर्स के अतिरिक्त प्रेमचंद की कई कहानियाँ और कुछ अन्य लोकप्रिय साहित्य पढ़ने का अवसर मिला था। ‘रामचरितमानस’ को तो कई बार फुटकर-फुटकर सस्वर पढ़ चुका था... जब इन बातों की चर्चा बाबूजी से हुई, तो उन्होंने कहा था, “तभी तुम बढ़िया लिखते हो!”

 “मैं तो वही लिखता हूँ, जो आप लिखाते हैं। इसमें मेरा अपना क्या है?”, मैंने कहा ।

 “बेटा! यह बात अभी नहीं समझोगे। जब स्वयं कुछ लिखोगे, तब समझ जाओगे।”

 ‘मैं भी लिखूँगा’ यह सोचकर मैं भावुक हो उठा। बाबूजी के पैर छू लिये। उनका आशीष छलक-छलक पड़ा...

 अक्टूबर-नवम्बर तक उपन्यास पूरा हुआ। बाबूजी ने स्वयं पांडुलिपि सिलकर, उस पर प्रेषक-प्रेष्य का नाम-पता लिखकर मुझे सौंपी— चौक पोस्ट ऑफिस से ‘राजपाल एंड संस’ को रजिस्ट्री करने के लिए... मैंने रजिस्ट्री की और रसीद लाकर बाबूजी को दी... आज सोचता हूँ कि जिस विश्वास से बाबूजी ने मुझे ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की पांडुलिपि रजिस्ट्री के लिए दी थी, उस विश्वास के साथ मैं अपनी पांडुलिपि जिसकी कोई दूसरी प्रति न हो, शायद ही किसी को सौंपूँ!

 इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानूँगा कि ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की पांडुलिपि का अधिकांश भाग मुझे लिपिबद्ध करने का अवसर मिला। मुझसे पहले, श्री अशोक ऋषिराज यह कार्य कर रहे थे, पर संभवतः मेरा काम नागर जी को अधिक पसंद आया। तभी, उन्होंने शरद जी से मेरे बारे में एक नहीं, दो बार कहा था कि अबकी बार तुमने अच्छा लिपिक दिया है।  

 ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ हिन्दी साहित्य में अप्रतिम उपन्यासों में है और यह नागर जी के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा अनन्य है। इसमें ‘मेहतर’ कहे जाने वाले अछूतों को लेकर ताना-बाना बुना गया है और उन्नसवी सदी के प्रारंभ की देशव्यापी सामाजिक हलचल का भी हाल मिलता है। नागर जी ने इस उपन्यास की रचना से पूर्व, मेहतर जाति के ऐतिहासिक सन्दर्भों को समझने के लिए जहाँ पर्याप्त अध्ययन किया था, वहीं इस जाति के लोगों, विशेषतः स्त्रियों के मनोविज्ञान को समझने के लिए भंगी बस्ती में सर्वेक्षण कर अनेक पात्रों का इंटरव्यू भी किया था। यही कारण है कि इस उपन्यास के विवरण इतने स्वाभाविक और सटीक हैं कि आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा को कहना पड़ा कि हिन्दी में ऐसा कोई दूसरा उपन्यास देखने को नहीं मिलता।

एक हिसाब से देखा जाय तो नागर जी का सान्निध्य और अकादमी के परिवेश ने ही मुझे लेखक-कवि बनाया... 1978 में एक टूटी-फूटी कविता लिखी थी। जब उसे बाबूजी को दिखाया, तो वे मुस्कुराकर बोले, “तेवर तो तुम्हारे निराला-वाले हैं, लेकिन बेटा! अभी पढो।” फिर समझाते हुए बोले, “चार-पाँच साल तक कुछ मत लिखना।” 

मैंने उनकी बात गाँठ बाँधकर अप्रैल 1982 तक कुछ नहीं लिखा, लेकिन गाँव में अचानक घटी एक घटना ने मुझे उद्वेलित किया और मैंने एक कहानी लिख डाली— ‘दंश’। डरते-डरते मैंने उसे जब बाबूजी को दिखाया, तो उन्होंने मेरी ख़ूब पीठ ठोंकी और संशोधन भी सुझाये— भाषा और कथा-विवरण को लेकर। हिदायत भी दी कि एक रचना को कम-से-कम तीन-चार बार रिवाइज करो, फिर उसे फ़ाइनल करो... छपाने में तो बिलकुल जल्दबाजी नहीं। 

मैंने बाबूजी की बात गाँठ बाँध अवश्य ली, पर मेरा अनुभव यही कहता है कि लेखकों के साथ उपदेश दूर तक नहीं चलते। यश-कामना उन्हें जल्द-ही टँगड़ी मार गिरा देती है।


 - राजेन्द्र वर्मा की स्मृति से


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शैलेश मटियानी और उनका स्वाभिमान!


हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे,वे पहाड़ के लेखकों के दुख और सुख की चिंता रखा करते थे। आर्थिक मदद भी  भेजा करते  थे। उनको जब साहित्यकार शैलेश मटियानी  की विपन्नता की खबर  मिली  तो  रहा नही गया। बहुगुणा जी ने तत्काल शैलेश मटियानी की आर्थिक मदद के लिए अपने निजी सचिव को निर्देश दिया। दस हजार रु का  चेक जिलाधिकारी लेकर शैलेश मटियानी के पास पहुंचा-मुख्य मंत्री जी ने कृपा पूर्वक यह आर्थिक सहायता भेजी है,कृपया इसे ग्रहण करे।

शैलेश मटियानी मानी औऱ स्वभिमानी साहित्यकार थे। सरकार से भेजी गई आर्थिक मदद ने उन्हें बौखला दिया था। जो किसी  भी तरह उन्हें मंजूर नही थी। जिलाधिकारी को हाथ जोड़कर वे घर के अंदर चले आये। दिमाग मे आंधी सी चल रही थी।  सिर पकड़ कर काफी देर तक बैठे रहे। चेहरा तमतमाया हुआ था। 

जिलाधिकारी ने कहा था-सर! आप बहुत बड़े लेखक हैं।चेक की राशि देखकर मैं समझ गया था। मुख्यमंत्री जी आपको बहुत मानते हैं। दस हजार बहुत होते हैं, मेरे जैसे डीएम की सैलरी सिर्फ सात सौ रुपये  ही है। आप को तो दस हजार!

मटियानी जी फैसला ले चुके थे। प्राकृतिस्थ होते हो चेक लेकर   मुख्यमंत्री बहुगुणा जी को तीन पन्नो का खर्रा लिखने बैठ गए।पत्र क्या था।एक एक शब्द आग का बबूला था। पत्र क्या ,पत्र बम था। उस तीन पन्ने के खर्रे को ज्यों का त्यों लिख पाना मुमकिन  नहीं है।

 पत्र में मटियानी ने लिखा था- आपको तो मालूम है। में बिकाऊ नही हूँ। शैलेश मटियानी को कोई खरीद सके, अभी तक पैदा नही हुआ है।आपका दस हजार का चेक वापस कर रहा हूँ।कृपया इसे अपने अपने ख़लीते (रेक्टम )मे डाल लीजिएगा।

जब तक शैलेश मटियानी का मुख्यमंत्री हेमवती नंन्दन बहुगुणा को सम्बोधित पत्र लखनऊ पहुंचा। सरकार बदल चुकी थी।मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बहुगुणा जी की जगह नारायण दत्त तिवारी आसीन हो चुके थे।

मुख्यमंन्त्री के नाम आये पत्रों का जवाब लिखने की जिम्मेदारी उनके विशेष सचिव और वंशी और मादल की कविताओं से चर्चित कवि ठाकुर प्रसादसिंह पर थे। शैलेश मटियानी का आग बबूला होकर दस हजार रु का चेक सहित पत्र पढ़कर  ठाकुरप्रसाद सिंह जी मुस्कराए ।उन्हें शरारत सूझी। जवाब में उन्होंने मुख्यमंन्त्री नारायण दत्त तिवारी की ओर से एक भावुक पत्र लिखा और उपसचिव से कहा जब मुख्यमंन्त्री जी इन  पर हस्ताक्षर करे तो आप उनके पास ही रहिएगा और संभालिएगा। चुपचाप मै भी पीछे पीछे हो लिया और एक कुर्सी पर बैठ गया।

मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी पत्रों पर हस्ताक्षर करते- करते ठिठक गए । मेरी ओर देखा-यह क्या है- पत्र में लिखा था-आदरणीय मटियानी जी, आपका कृपा पत्र मिला, आभारी हुआ। अब मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आदरणीय बहुगुणा की जगह आपका सेवक है।आपकी रचनाओं में मैं अपना जीवन दर्शन खोजता रहा हूँ। प्रार्थना है कभी पधारें ।

मुझे भी दर्शन दें। अपने चरणों की धूल से मेरे आवास  पवित्र हो जाएगा। अनवरत प्रतीक्षा में आपका नारायण दत्त तिवारी।

         तिवारी जी को मैने पत्र के पीछे का इतिहास बताया।सम्वेदना प्रतिफल देगी। तिवारी जी ने मेरे आग्रह पर उस पत्र पर  यह कहकर हस्ताक्षर कर दिए कि ठाकुर  प्रसाद सिंह से कहिएगा -'इतनी अतिशयोक्ति ठीक नहीं है।"

मुख्य मंत्री का पत्र शैलेश मटियानी को चला गया।

 कुछ समय बीता। रविवार के दिन जनता दरबार लगा हुआ था।  मुख्यमंत्री तिवारी जी जनता की शिकायतों को निपटाकर अपने कक्ष में चले गए । भीड़ छटने लगी थी। हेलीकॉटर तैयार था।उनको तत्काल दिल्ली प्रस्थान करना था। तभी वहां कहानीकार शैलेश मटियानी प्रकट हुए।यह कहते हुए कि नारायण दत्त कहाँ है। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहे है। उनको बताइये कि शैलेश मटियानी उनके  आग्रह पर उपस्थित है।

उन्होंने न  तो ठाकुर प्रसाद सिंह की ओर देखा और न मेरी तरफ। अपनी धुन में नारायण दत्त तिवारी को पुकारते रहे।

     ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने  मुझसे कहा अनूप जी  !जरा  सम्भालिए जाकर। मैने मुख्यमन्त्री जी के कक्ष में जाकर देखा नारायणदत्त तिवारी दिल्ली जाने के लिए तैयार थे।सामान हेलीकाप्टर में भेजा जा चुका था। मुख्यमन्त्री ने द्रष्टि उठाकर देखा। मैने उन्हें बताया शैलेश मटियानी 

अपनी पुस्तक देने पधारे हैं।

 शैलेश मटियानी कौन हैं ?

ये   वे ही साहित्यकार हैं जिन्होंने बहुगुणा जी का दस लाख रु का चेक  वापस कर दिया था। जवाब में आपका पत्र पाकर पधारे है।ठाकुर प्रसाद सिंह जी मटियानी जी को लेकर हेलीकाप्टर के पास खड़े हैं।

     मुख्य मंत्री- लेकिन मेरे पास समय कहाँ है। मेने आगाह किया था  !इतनीअतिशयोक्ति न किया करें!

मैने फिर अनुरोध किया हेलीकाप्टर में बैठने के पहले उनसे उनकी किताबे तो ले सकते है। क्रोधी किंतु सह्रदय लेखक है।

मुख्यमंत्री  -ठीक है,लेकिन मैं उनको पहचानूगा कैसे?

मैने सुझाव दिया आगे बढ़कर शैलेश मटियानी के कंधे पर  हाथ रख दूंगा।

 मुख्यम1न्त्री राजी हो गए,ठीक है आप ऐसा ही करें।लेकिन सिर्फ एक मिनट का समय बचा है। थोड़ी सहायता करें।

में तेज कदमो से आगे बढ़ा। मुख्यमंन्त्री जी ने मुझे धक्का दिया दौड़ कर पहुंचिए। आगे आगे मैं पीछे पीछे तिवारी जी।मैने जैसे ही शैलेश मटियानी के पीछे हाथ रखा ,मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने अपने दोनों भुजाओं को फैलाते हुए मटियानी जी को  लपेट लिया।

 इस दृश्य को देखकर सुरक्षा कर्मी तक

हड़बड़ा गए। मटियानी की सारी किताबे जमीन में गिर गई।

तिवारी जी ने झुककर किताबे उठायी,अरे इतनी  ढेर सारी किताबे आप हमारे लिए।सबको हेलीकॉप्टर में रख दो। रास्ते मे पढूँगा। मटियानी जी आपने तो आज मुझ अकिंचन को समृद्ध कर दिया। शैलेश मटियानी मुख्यमन्त्री जी को मात्र दो किताबे भेंट करने के लिए लाये  थे। मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी यह कहते हुए हेलीकाप्टर में बैठ गए -अब आप नही मैं स्वयम आपके घर आकर दर्शन करूंगा और  साग रोटी भी खाऊंगा।ठाकुर प्रसाद जी मटियानी जी के स्वागत सत्कार में कोई कमी नही होना चाहिए।

इसी के साथ मुख्यमंत्री का हेलीकॉटर के उड़ने पर उड़ी धूल का गर्दोगुबार जब बैठा तो वहां  मात्र तीन लोग ही बचे थे। शैलेश मटियानी,ठाकुर प्रसाद सिंह जी और एक अदद चश्मदीद मै।

 - अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से



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गुरुवार, 7 सितंबर 2023

राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी (दद्दा) और मेरे पिता श्री नरेन्द्र शर्मा का कथोपकथन

एक रोचक कथा 

" एक दिन उन्होंने (दद्दा ने) मुझे (नरेन्द्र शर्मा को) एक दोहा सुनाया:-"औसर बीते, दिन गए, जाव बिप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ कौ घाव।।" दोहा सुना कर, दद्दा ने पूछा- "अच्छा बताओ यह दोहा किसने, किसके प्रति कहा होगा।" मैंने उत्तर दिया- "कहा तो गया है किसी विप्र के प्रति..." दद्दा ने बात काटी- "पर कहा किसने है?" मैं सोचने लगा। विचार आया कि शेर को मूँछ प्यारी होती है  वानर को पूँछ। रामायण में रावण की उक्ति की स्मृति ने विचार की पुष्टि की। लेकिन फिर संशय हुआ कि वानर की पूँछ का घाव आख़िर क्योंकर इतना अविस्मरणीय होगा। मैं चक्कर में पड़ गया और कुछ देर बाद मैंने हार मान ली। दद्दा ने मुझे एक लोक-कथा कह सुनाई।"

 " एक ब्राह्मण देवता गाँव-आनगाँव, कथा-वार्ता कह कर, अपना गुज़ारा करते थे। एक समय ऐसा आया कि कथा कहने की उनकी शैली लोगों को बहुत घिसी-पिटी-सी लगने लगी। और अनेक कथा-वाचक मैदान में उतर चुके थे। वह दिनों-दिन अधिक लोकप्रिय होने लगे। बूढ़े ब्राह्मण देवता को कोई न पूछता। एक दिन वह सात गाँव निराहार घूम-फिर कर, घर लौट रहे थे कि उन्होंने निश्चय किया- जंगल में पेड़ के नीचे बैठ कर कथा कहते दिन बिता देना भला है, रीती झोली लिए घर लौटना ठीक नहीं। पेड़ के नीचे बैठ कर, वह कथा सुनाने लगे। सुनने वाला कोई न था। कथा-समापन कर, वह बस्ता बाँध ही रहे थे कि एक स्वर्ण-मुद्रा उनके सामने न जाने कहाँ से टपक पड़ी। उन्होंने आश्चर्य-चकित हो कर, इधर-उधर देखा। देखते क्या हैं कि एक नाग फन झुका-झुका कर उन्हें नमस्कार कर रहा है। ब्राह्मण देवता ने नाग को आशीर्वाद दिया और नाग ने उन्हें न्यौता दिया नित्य आने और कथा सुनाने का। ब्राह्मण देवता नाग को नित्य कथा सुनाने लगे। दक्षिणा में उन्हें नित्य एक स्वर्ण-मुद्रा की प्राप्ति होने लगी। स्वर्ण के साथ संपन्नता आई और संपन्नता के साथ भोग। और भोग है, तो रोग का आना भी अनिवार्य माना गया है। बरस भर भी कथा न कह पाए होंगे कि ब्राह्मण देवता रुग्ण हो गए। इस दशा में उन्होंने अपने किशोर पुत्र को सारा भेद बता दिया। पुत्र ने बड़े उत्साह से कहा- आज मैं जाऊँगा कथा कहने।"

" ब्राह्मण किशोर ने पेड़ के नीचे बैठ कर, कथा कही। नाग ने दक्षिणा दी। दक्षिणा पाते ही ब्राह्मण-पुत्र की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। उसने सोचा, क्यों न नाग को मार डालूँ? और बाँबी (सर्पबिल) को खोद कर, सारी स्वर्ण-राशि क्यों न एक ही फटके में हथिया लूँ? आशीर्वाद देने को उठे हुए हाथ में डंडा था। ब्राह्मण ने नाग पर भरपूर वार किया। साँप की पूँछ घायल हुई। घायल नाग ने पलट कर आक्रमण किया। ब्राह्मण कुमार मर गया। वृद्ध ब्राह्मण ने शोक के दिन पूरे किए और एक दिन वह कथा सुनाने फिर पेड़ के नीचे आ बैठे। कथा सुनने के पूर्व ही नाग ने उन्हें दक्षिणा दे दी और कहा:-"औसर बीते, दिन गए, जाव विप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ की घाव।।"

श्री परितोष नरेन्द्र शर्मा की स्मृति से

प्रस्तुति : लावण्या शाह 



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मेरे प्रिय व्यंग्य लेखक परसाई जी

बात उन दिनों की है जब मैं जबलपुर में होम साइंस कॉलेज में पढ़ती थी।

हिंदी के महान व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी मॉडल हाई स्कूल में  विजय भाई को पढ़ाते थे | बाद में एक ही विधा में होने की वजह से गुरु शिष्य का रिश्ता मित्रता में बदल गया, हालांकि परसाई जी व्यंग्य लेखक थे, विजय भाई नाटक, कहानी ,कविता हर विधा में लिखते थे ।अक्सर मैं अपने होम साइंस कॉलेज से लौटते हुए उनके घर चली जाती। 

अपनी रचनाएं उन्हें पढ़कर सुनाती। न वे तारीफ करते, न खामियाँ निकालते। मैं असंतुष्टि का भाव लिए घर लौटती।

एक दिन विजय भाई मुझे रोटरी क्लब ले गए | साहित्य कार्यक्रम था और परसाई जी मुख्य अतिथि थे | अधिकतर लोग अंग्रेजी ही बोल रहे थे। सभी परसाई जी से हाथ मिला रहे थे । डिनर के दौरान सलाद की प्लेट लिए एक सज्जन परसाई जी के करीब आए

" सर आप क्या महसूस करते हैं, यह देश विनाश की ओर जा रहा है और हम सब पतित पथभ्रष्ट इसे रसातल पहुंचाकर ही दम लेंगे।" परसाई जी तपाक से बोले

" यह मुझे नहीं मालूम था कि सलाद के साथ देश की दुर्दशा इतनी स्वादिष्ट लगती है ।"

यह सुनकर काले कोट और नीली टाई वाले सज्जन इतनी जोर से ठहाका मारकर हंसे कि उनके कप का सूप छलक पड़ा।

परसाई जी हमें टैक्सी से घर तक छोड़ने आए । रास्ते में विजय भाई ने मेरी रचनाओं पर चर्चा छेड़ी। उन्होंने कहा -"संतोष के अंदर छुपा लेखन का बीज अंकुरित हो चुका है। तुम्हें अपनी हर एक रचना के कई कई ड्राफ्ट बनाने होंगे सन्तोष, फिर देखना निखार।"

उस दिन मैंने उन्हें पहली बार निकटता से जाना। उनकी सादगी से मैं अभिभूत थी । एक दिन अपनी कहानी" शंख और सीपियां "उन्हें सुनाने ले गई। अपने तईं मैंने इस कहानी पर खूब मेहनत की थी। वे अपने घर पलंग पर आराम से बैठे मेरी कहानी सुन रहे थे कि तभी खटर- पटर की आवाज सुन उन्होंने मुझे पढ़ने से रोका। अंदर गए और कटोरदान में रखी रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर दिए। तभी एक चूहा अलमारी के नीचे से निकला और सारे टुकड़े एक-एक कर उठा ले गया। "यह भी तो घर का सदस्य है। रोटी खाकर शांत हो जाएगा वरना तुम्हें कहानी नहीं सुनाने देगा ।"

सच में थोड़ी देर में शांति थी। मैं कहानी पढ़ने लगी। मेरी कहानी जब पूरी हुई तो वे बोले "अब वक्त आ गया है छपने का ।"

मेरी खुशी की इंतिहा न थी। दो महीने बाद धर्मयुग से डॉक्टर धर्मवीर भारती जी ने स्वयं मुझे पत्र लिखा --"आपकी कहानी "शंख और सीपियां "धर्मयुग में प्रकाशनार्थ स्वीकृत है।"

 मैंने उसी दिन परसाई जी के घर जाकर भारती जी का स्वीकृति पत्र दिखाया ।

"जाओ बिस्कुट खरीद लाओ। चूहे को खिलाना है। आखिर वह भी तो तुम्हारी कहानी सुनने में भागीदार था।"

अब परसाई जी नहीं रहे । उन्होंने जीवन की अनंत पीड़ा सही। उनका जीवन घोर दुखों से गुजरा । उस दुख ने उन्हें लेखनी थमा दी और खंगालने वाली वह दृष्टि प्रदान की जो आज व्यंग्य साहित्य की धरोहर है । वे कहते थे "जो चेतनावान होता है वह दुनिया की हालत पर रोता है ।

प्रस्तुति : संतोष श्रीवास्तव


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कहानी आन्दोलन और कमलेश्वर

 संस्मरण


सुविख्यात कथाकार हिमांशु जोशी के सुपुत्र अमित जोशी नार्वे से एक पत्रिका का सम्पादन  कर रहे थे। उसका वार्षिकांक का प्रकाशन हुआ था जिसमें भारतीय कथाकारों की रचनाओं के साथ विश्व  के कई  देशों के प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाएं थीं, उसके लोकार्पण  के निमित्त कमलेश्वर जी की अध्यक्षता में उनकै साथ अनेक साहित्यकार  राष्ट्रपति भवन गये थे। उनके साथ मैं भी था। 

महामहिम श्री कृष्णकांत जी उपराष्ट्रपति थे। जब तक महामहिम जी नहीं पधारे थे हम बाहर आपस में बातें कर रहे थे। कमलेश्वर  जी सिगरेट पीते थे। वे उसे जलाए बाहर खड़े-खड़े मस्ती में पी रहे। धुआं उड़ते हुए  देखकर  मैं उनके नजदीक गया और हंस कर बोला- आपके सिगरेट से उड़ता धुआं ऊपर कम,  नीचे अधिक फैल रहा है। वे हंसे, "नीचे फैलाना ही चाहिए। नीचे फैलने से मक्खी-मच्छरों का डर कम रहेगा।" "ये तो महामहिम भवन है। यहां कहां आ सकते हैं?" 'भाई, ये मत कहिए, वो सब जगह हैं। वो देखो  (घासों की ओर इशारा करते हुए) है न मच्छर!' "बिल्कुल सही कहा आपने। आपकी निगाह वाकई बहुत तेज और गहरी है।" वे बोले, "गहरी नहीं, पैनी है।"


फिर मैंने प्रसंग बदलते हुए पूछा, सातवें दशक का वह काल जब साहित्य  में कहानी आन्दोलन  को लेकर अनेक  खेमें बन गए थे और नयी कहानी के  नाम पर कुछ कहना शुरू कर दिया था कि, नयी कहानी अपने आखिरी चरण में मूल्यों अस्थिरता का शिकार  हो गयी है। उन्होंने कहा--'अतीत के प्रति एक चिपचिपा लगाव से नयी कहानी मुक्त नहीं हो पा रही थी। उसमें आदर्शीकरण के बिन्दु अभी भी शेष  रह गए थे। इसलिए कुछ कथा-लेखकों ने अपने -अपने ढंग  से नये-नये विचार और शिल्प लेकर सामने आए  और सचेतन कहानी, अकहानी, समकालीन कहानी के नाम दिए।' 

समकालीन कहानी अलग से क्यों? मेरे प्रश्न के उत्तर  में वे बोले, दरअसल समकालीन  कहानीकार नयी कहानी की रूढ़िवादी स्थिति से नाराजगी प्रकट करते हैं।' तभी हिमांशु जोशी बोल पड़े, डॉ.विमल समकालीन कहानी के हिमायती हैं। विमल जी नयी कहानी को  'टाइप' बन गयी है, कहते थे,  टाइप  न केवल शब्दों की, बल्कि प्रस्तुतीकरण  की भी।' 

मैं जिज्ञासावश पूछा, अब आन्दोलन  का क्या हश्र हुआ? हिमांशु जी बोले, वह अपने अपने को स्थापित  करने का एक  आन्दोलन था। इस पर कमलेश्वर  जी खिलखिलाहट  हंस पड़े। फिर वह कुछ कहते कि उपराष्ट्रपति जी पधारे और सभी साहित्यकार खड़े होकर उनका अभिवादन किए।  फिर आसन पर उनके बैठने के पश्चात सभी यथास्थान बैठ गए। औपचारिकता के बाद हिमांशु जी ने पत्रिका के सम्बन्ध  में संक्षिप्त प्रकाश डाला। फिर महामहिम जी ने पत्रिका का गरिमापूर्ण लोकार्पण किया। 

 कमलेश्वर  जी बहुत ही सुख मिजाज और हंसमुख स्वभाव  के थे। उनके  विरल  व्यक्तित्व  में  बड़ी सहजता थी। वस्तुतः वैसे लेखक अधिक नहीं हैं। बड़े- छोटे सभी  के साथ अपनत्व भरा स्नेह और गहरा प्यार। 

उपराष्ट्रपति भवन के सामने कई रोड पर मरम्मत चल रहा था। उसकी ओर इशारा करते हुए   कमलेश्वर बोले, अभी मरम्मत  हो रहा है, पता नहीं रात में दूसरे विभाग  वाले आकर खोद डालेंगे। ये हाल  पूरी दिल्ली की है।' उनकी बातें सुनकर महामहिम जी  मुस्कुराए और धीरे से कहा - "यही तो देश की प्रगति है।"

उनकी बात सुनकर  साश्चर्य सभी हंस पड़े। थोड़ी  देर बाद चाय पीकर सभी परस्पर बातें करते निकल चले--

फिर वही आपाधापी....समकालीन साहित्य  पर बहस....नये सृजन की ओर एक और पहल!


डॉ. राहुल की स्मृति से 


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प्रेमचंद और सिनेमा

 

मूर्खों के हाथ पड़ा साइंस - सिनेमा 

 बंबई की एक फिल्म कंपनी मुझे बुला रही है। तनख्वाह की बात नहीं, ठेके की बात है। आठ हजार रुपए सालाना पर। मैं इस हालात पर पहुँच गया हूँ, जब मुझको इसके सिवा कोई चारा भी नहीं रह गया है कि या तो चला जाऊँ या अपने नॉवेल को बाजार में बेचूँ। अजंता सिनेटोन कंपनी वाले हाज़िरी की कोई क़ैद नहीं रखते। मैं जो चाहूँ लिखूँ, जहाँ चाहे चला जाऊँ...। वहाँ साल भर रहने के बाद ऐसा अनुबंध कर लूँगा कि यहीं बनारस में बैठे-बैठे मैं चार कहानियाँ लिख दिया करूँगा और चार-पाँच हजार रुपए मिल जाया करेंगे, जिससे 'जागरण' और 'हंस' दोनों मजे से चलेंगे और पैसे की तकलीफ जाती रहेगी।

  मैं पहली जून 1934 में बंबई चला गया। उस कंपनी से अनुबंध कर लिया। साल भर में छह कहानियाँ उनको देना होंगी। पत्रिकाओं से लगातार नुकसान हो रहा था, बुक सेलर से रुपए वसूल न होते थे। काग़ज़ वगैरह का भाव बढ़ता जा रहा था, सो मजबूर होकर अनुबंध कर लिया। छह कहानियां लिखना मुश्किल है, क्योंकि डायरेक्टर के मशविरे से लिखना ज़रूरी है। क्या चीज़ फिल्म के लिए ज़रूरी है, इसका बेहतर फैसला वही कर सकते हैं।
 मैं जिस इरादे से बंबई आया था, उसमें से एक भी पूरा होता नज़र नहीं आया। प्रोड्यूसर जिस तरह की कहानी पर फिल्म बनाते रहे हैं, उस लीक से वे नहीं हट सकते। बेहूदा मज़ाक़ को तमाशे की जान समझते हैं। इनका विश्वास अनोखा है। राजा-रानी, वज़ीरों की साज़िशें, नकली लड़ाई, चुंबन यही उनका मक़सद है। मैंने सामाजिक कहानियाँ लिखी हैं, जिन्हें शिक्षित वर्ग भी देखना चाहता है, लेकिन इनको फिल्म बनाते हुए संदेह होता है कि यह चले या न चले...। अगर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पटकथा लिखें, तो फिल्मों में जान बढ़ जाए, मगर आप तो जानते हैं, फिल्म निम्न वर्ग के दर्शकों के लिए होती है, वो अच्छी पटकथा की कद्र नहीं कर सकते। मगर खैर! ये लोग कद्र न करें, समझने वाले तो करते हैं। 'बाजारे हुस्न' की मिट्टी पलीद कर दी, 'मिल मज़दूर' अलबत्ता कुछ अच्छी रही। यह साल (1934) तो पूरा करना ही है। क़र्ज़दार हो गया था, क़र्ज़ पट जाएगा। और कोई फायदा नहीं हुआ, तो अपने पुराने अड्डे पर जा बैठूँगा। वहाँ दौलत नहीं है, मगर सुकून जरूर है। यहाँ तो मालूम होता है कि ज़िंदगी बर्बाद कर रहा हूँ।
सिनेमा के माध्यम से पश्चिम की सारी बेहूदगी हमारे अंदर दाखिल की जा रही है और हम बेबस हैं। पब्लिक में अच्छे-बुरे की समझ नहीं है। आप अखबार में कितनी ही फरियाद कीजिए, वह बेकार है। अख़बार वाले भी साफ़गोई से काम नहीं लेते। जब एक्ट्रेस और एक्टरों की तस्वीरें धड़ाधड़ छपें और नौजवानों पर जो असर नज़र आ रहा है, इन अखबारों की बदौलत, उसमें दिन-ब-दिन तरक्की हो रही है।
मेरा फैसला हो गया। 25 मार्च 1935 को अपने शहर बनारस जा रहा हूँ। अजंता कंपनी अपना करोबार बंद कर रही है। मेरा अनुबंध तो साल भर का था और अभी तीन महीने बाकी हैं, लेकिन मैं उनकी परेशानी बढ़ाना नहीं चाहता। महज इसलिए रुका हुआ हूँ कि फरवरी और मार्च की रकम वसूल हो जाए और जाकर फिर अपने साहित्य के काम में व्यस्त हो जाऊँगा। आजकल मेरी सेहत निहायत कमजोर हो रही है। लिखना-पढ़ना छोड़ दिया है। एक साहित्यकार के लिए सिनेमा में कोई गुंजाइश नहीं है। मैं इस लाइन में इसलिए आया था कि अपनी आर्थिक स्थिति सुधार जाएगी, लेकिन अब मैं देखता हूँ कि मैं धोखे में था और फिर साहित्य की तरफ लौट रहा हूँ। साहित्य, शायरी और दूसरी कलाओं का मकसद सदा यही रहा है कि आदमी में जो बुराइयाँ हैं, उन्हें मिटाकर अच्छाइयाँ जगाई जाएं। उसकी बुरी प्रवृत्ति को दबाकर या मिटाकर कोमल, नर्म, नाज़ुक और पवित्र जज़्बात को बेदार (जाग्रत) किया जाए। अगर सिनेमा इसी आदर्श को सामने रखकर फिल्में पेश करता, तो आज वह दुनिया को आगे बढ़ाने में सबसे शक्तिशाली सिद्ध होता।
जिस जमाने में बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन था, अधिकतर सिनेमा हॉल खाली रहते थे और उन दिनों जो फिल्में प्रदर्शित हुईं, वो नाकामयाब रहीं। इसका सबब इसके सिवा और क्या हो सकता है, कि अवाम के बारे में जो विचार है कि वो मारकाट और सनसनी पैदा करने वाली फिल्मों को ही पसंद करती है, महज भ्रम है। अवाम उनके कमाल के क़सीदे गाए जाए, तो क्यों न हमारे नौजवान पर इसका असर होगा। साइंस एक रहमत है, मगर मूर्खों के हाथों में पड़ कर लानत हो रही है। जिन हाथों में फिल्म की क़िस्मत है, वो बदकिस्मती से इसे इंडस्ट्री समझ बैठे हैं। समाज में सुधार के बजाय शोषण कर रहे हैं। नग्नता, क़त्ल, खून और जुर्म की वारदातें, मारपीट ही इस इंडस्ट्री के औजार हैं और इसी से वह इंसानियत का खून कर रहे हैं।
 मैं, बंबई में ज़िंदगी से तंग आ गया हूँ। यहाँ की आबोहवा और फ़िज़ा दोनों ही मेरे माफ़िक़ नहीं हैं। हममिज़ाज आदमी नहीं मिलता, महज ज़िंदगी में एक नया तजुर्बा हासिल करने की ग़र्ज़ से बंबई आया था। मेरी कंपनी की कोई भी फिल्म सफल नहीं हुई। इधर एक्टरों के नाकामयाब होने से और भी नुकसान हुए। चुनांचे जयराज, बिब्बो, ताराबाई जैसे एक्टर भी किनारा-कश हो गए। सिनेमा से किसी सुधार की आशा करना बेकार है। यह कला भी उसी तरह पूँजीपतियों के हाथों में है, जैसे शराब फरोशी...। इनको इससे मतलब नहीं कि पब्लिक की मानसिकता पर क्या प्रभाव पड़ता है। इन्हें तो अपनी पूँजी से मतलब है। नग्नता, नृत्य, चुंबन और मर्दों का औरतों पर हमला... ये सब इनकी नज़रों में जायज़ है। पब्लिक का स्तर भी इतना गिर गया है कि जब तक ये फार्मूले न हों, तो उनको फिल्म में मज़ा नहीं आता। फिल्मों में सुधार का बीड़ा कौन उठाए? मेरे विचार में सभ्य महिलाओं का फिल्मों में आना ठीक नहीं है, क्योंकि स्टूडियों की फ़िज़ा इनके लिए नहीं है और भविष्य में भी इसमें सुधार असंभव है।
 हमारे सिनेमा वालों ने पुलिस वालों की मानसिकता से काम लेकर यह समझ लिया है कि भद्दे मसखरेपन में लड़ाई और जोर-आज़माइश या नकली ऊँची दीवार से कूदने में और झूठमूट में टीन की तलवार चलाने में ही जनता को आनंद आता है और कुछ उत्तेजना व चुंबन सिनेमा के लिए उतना ही जरूरी है, जितना जिस्म के लिए आँखें...। बेशक अवाम वीरता भरी जवांमर्दी देखना चाहती है; इश्क़, मुहब्बत भी उनके लिए आकर्षण रखता है, लेकिन यह ख्याल गलत है कि उत्तेजना व चुंबन के बगैर मुहब्बत का इज़हार हो नहीं सकता और सिर्फ तलवार चलाना ही जवांमर्दी है या बिना किसी जरूरत के गीत पेश करना जरूरी है। इन बातों से ही अवाम को खुशी मिलती है, तो यह इंसानियत की गलत कल्पना है।
- प्रेमचंद
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( प्रेमचन्द जी हिन्दी सिनेमा के लिए कहानियाँ लिखने के उद्देश्य से जून 1934 ई. में बंबई गये थे। सिनेमा के गिरते स्तर को देखकर वे बहुत निराश हुए, इस पर उन्होंने एक लेख लिखा, जो उस समय प्रतिष्ठित पाकिस्तानी पत्रिका 'नक़्श' के जून, 1964 अंक में प्रकाशित हुआ था, इस दुर्लभ लेख को बाद में ‘दैनिक भास्कर’ समाचार पत्र ने 31 जुलाई 2005 को प्रकाशित किया था, यह दुर्लभ लेख है)

प्रस्तुति -डॉ. जगदीश व्योम


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