‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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रविवार, 14 अप्रैल 2024

आफ द रिकार्ड - राजकीय सम्मान बनाम 'गले का तौंक'

 आफ द रिकार्ड


  राजकीय सम्मान  साहित्यकारों             

        के 'गले का तौंक' बना


एक मुहावरा है 'जीते जी मार डालना' इससे लोक नायक जयप्रकाश नारायण से लेकर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्ववेदी तक नहीं बच सके। लोक नायक जय प्रकाश नारायण की मृत्यु की अफवाह  पर संसद तक ने  खड़े होकर दो मिनट का मौन रखा और श्रद्धांजलि अर्पित कर दी वहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने अखबार की एक खबर पर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी को राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि करने का फरमान देडाला ।

   हुआ यह कि लोक नायक जय प्रकाश नारायन कि मृत्यु की अफवाह जब दिल्ली पहुंची। संसद चल रही थी। जे पी की मृत्यु की खबर ने पूरी संसद को गमगीन कर दिया। आनन फानन में शोक प्रस्ताव लिखा गया और संसद का सारा कार्य स्थगित करके शोक प्रस्ताव पढा गया। श्रद्धांजलि हो जाने के बाद जब संसद से निकल कर जे पी के निधन की पूरी जानकारी सांसदों को मिली तो उनके हाथों के तोते उड़ गए। जे पी जीवित थे। उनकी मृत्यु की खबर मात्र अफवाह थी। मुझसे इस पर टिप्पणी करने को कहा गया तो मैने काँव काँव में लिखा-उनके सिर पर कौव्वा बैठ गया था। जनता पार्टी के लोगो ने राहत की सांस ली। और सफाई में कहा भी-सिर पर कौव्वा बैठने पर झूठी मत्यु की अफवाह फैलाने का टोटका  गांव घरों में किया ही जाता है ताकि जिसके सिर पर कौव्वा बैठा हो उसकी उमर और बढ़ जाये।

इसी तरह का हादसा राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी को झेलना पड़ा। हुआ यह कि राजधानी के एक प्रमुख दैनिक अखबार ने फतेहपुर के संवाददाता को निकाल दिया लेकिन खबरों को भेजने के लिये टेलीग्राफिक अथॉरिटी उसी संवाददाता के पास थी। उसने एक तीर से दो शिकार किये और उस दैनिक को खबर भेज दी कि "राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी नहीं रहे।"

  जैसे ही तार से सोहन लाल द्विवेदी के निधन की खबर उस समाचार पत्र को लगी। एक  साहित्य प्रेमी सहसंपादक ने सायकिल उठाई और अपने बच्चे की आठवीं कक्षा की किताब का वह पेज फाड़ा जिसमे सोहनलाल द्विवेदी का जीवन परिचय छपा था और दफ्तरपहुंच कर "राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी नही रहे "का शीर्षक लगा कर पहले पन्ने पर बॉक्स में छपने भेज दिया। सुबह होते ही सोहन लाल द्विवेदी की मृत्यु की खबर फैल गयी। मुख्यमंन्त्री के आदेश पर राष्ट्र कवि सोहन लाल द्विवेदी को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार  करने की राजाज्ञा जारी हो गयी।

      राजकीय आदेश से पीएसी का एक कमांडेंट पीएसी बैंड और सिपाहियों को लेकर सोहन लाल द्विवेदी के बिंदकी (उन्नाव) स्थित निवास पहुंचकर शोक ध्वनि बजवाने लगा। उन्होंने अपनी मृत्यु को झूठी खबर से क्षुब्ध होकर पी ए सी कमांडेंट का डपटा-बन्द करो यह बाजा। मै तो अभी जीवित हूँ।

राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि के लिए भेजे गए कमांडेंट ने कहा-मुझे सरकार के आदेश का पालन करना है ,जब तक राजाज्ञा वापस नही होती मैं जा नही सकता।

  लाचार होकर सोहनलाल द्विवेदी जी घर के पीछे के रास्ते से निकल कर टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचे जो एक छोटी सी कोठरी में चल रहा था। इत्तिफाक से उन्हें मेरा ही नम्बर याद था। उन्होंने अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारा और कहा- यह तमाशा बन्द कराइये। मै जीवित हूँ फिर भी मेरे घर पर शोक धुनि बज रही है।

मैने घबराकर मुख्यमंन्त्री नारायण दत्त तिवारी जी से सम्पर्क किया।सुनकर वे भी हतप्रभ थे। राजाज्ञा वापस हुई और सरकार के खाते में राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी एक बार पुनः जीवित हो गए। 

इसके कुछ दिनों बाद द्विवेदी जी लखनऊ मेरे गुलिस्ता कॉलोनी आवास पर आए और अखबार वालों पर बरस पड़े- तुम लोगों ने मुझे जीते जी मार डाला। ऐसा कोई दुश्मन भी नहीं करता । मै मुस्कराता हुआ उनका गुस्सा पीता रहा। मैने उन्हें छेड़ते हुए कहा दद्दा इसमे भी  आपकी भलाई भी छिपी है।  कविसम्मेलनों के मंच पर आपने जाना बंद कर दिया है। लोग भूलने लगे थे।खबर ने आपकी उपस्थित फिर से दर्ज करा दी।है कि नहीं?

हम्मम!

लेकिन आपकी कविताओं में फ्रस्ट्रेशन बहुत है!

मतलब?

 जी दद्दा !आपकी वह कविता चिड़ियों वाली-मुझे आता हुआ देखकर चिड़ियां क्यों उड़ जाती हैं?

तो इसमे ऐसा क्या?

जी ,यही तो!  चिड़िया बैंक बैलेंस के अलावा उमर भी देखती हैं!

सुनते ही उन्होंने मुक्का दिखाया और बोले तुम सब बदमाश हो,पीटे जाने के लायक हो,तभी ठीक होंगे।

       सोहन लाल द्विवेदी जी यूं तो बच्चों के कवि के रूप में प्रसिद्ध थे बाद में  वीर रस की राष्ट्रीय कविताओं ने उन्हें राष्ट्रीय कवि का सम्बोधन दे दिया!लेकिन जैसे जैसे कविसम्मेलनों में उन्होंने जाना कम किया ।ऊब और अकेलेपन ने उन्हे आ घेरा। घर परिवार होते हुए भी

खामोशी ने उन्हें ढक लिया।

     उनसे कोई सम्पर्क करे, बाहरी बात करे। आसान नहीं था। दूरदर्शन के कार्यक्रम अधिकारी और कवि लेखक आलोक शुक्ल को जब दूरदर्शन की ओर से उनकी

आर्काइव रिकॉर्डिंग के लिये उनके बिंदकी (उन्नाव)जाना पड़ा तो उनसे मिलाने के लिए कानपुर में मानस मंदिर वाले बद्रीनारायण तिवारी भी साथ थे। सोहन लाल द्विवेदी रजाई ओढ़े लेटे थे। बद्रीनारायण जी ने उनके पैर छुए और कहा -ये आलोक शुक्ल हैं ।दूरदर्शन के,आपके दर्शन करने आये हैं। सोहन लाल द्विवेदी जी ने सुनकर रजाई ओढ़ ली । फिर रजाई हटा कर बोले-लीजिए दर्शन कर लीजिये। इसके बाद फिर  रजाई ओढ़ ली -इशारा था अब जाइये। 

बद्री नारायण जी ने फिर बात बढ़ाई-आलोक शुक्ल दूरदर्शन के लिए आपकी रिकॉर्डिंग करना चाहते हैं।

-दूरदर्शन वाले बदमाश हैं मुफ्त में करना चाहते हैं।

 नहीं बाबा ! पैसा देंगे

उनकी पतोहू आगे आयी -कितना देंगे?

आलोक शुक्ल ने इशारा किया-दस हजार ! 

सोहन लाल द्विवेदी-हजार बस ?

पतोहू -नही बाबा जी ,दस हजार!

दस हजार रूपये सुनते ही वे उठकर बैठ गए,पतोहू से बोले-

फिर से पूछो?

बाबा पूरे दस हजार देंगे !

 बात तय हो गई अगले महीने की।

      एक महीने बाद साक्षात्कार के लिए राजेन्द्र राव जी से सम्पर्क किया गया तो उन्होंने यह कहके टाल दिया -हमारा उनसे क्या मतलब ?लेकिन बाद में राजी हो गए। दूरदर्शन के कैमरे के साथ सात लोगों की टीम राजेंद्रराव सहित आलोक शुक्ल एक महीने बाद बिंदकी पहुँचे। द्विवेदी जी तब भी अनमने थे।

साक्षात्कार शुरू हुआ। राजेन्द्र राव जी की सवालों से भरी लम्बी सूची थी। ढाई घण्टे की शूटिंग में भी बात नही बनी । हर सवाल पर उनका संक्षिप्त सवाल था-

ऐसा हो सकता है!

ऐसा नही भी हो सकता है !!

ऐसा होना तो नही चाहिए !!!

ऐसा ही हुआ होगा!!!!

  सब पसीने पसीने हो गए। साक्षात्कार पांच मिनट भी आगे नही बढ़ा। सवाल जवाब कदम ताल करते रहे। दूरदर्शन की टीम  सभी को लेकर अतिथि गृह लौट आयी।

सभी उधेड़बुन में थे तभी अवस्थी जी  (शायद धनन्जय अवस्थी) ने

 यह कहकर हिम्मत लौटाई कि कल इंटरव्यू में पंडित जी बोलेंगे।

     दूसरे दिन जब दूरदर्शन की टीम राजेन्द्र राव को लेकर पहुची तो पंडित सोहन लाल द्विवेदी कुर्ता ,टोपी लगाए बैठे थे। उनके हाथ मे ठंडाई  का बड़ा गिलास था। दिव्य जलपान के बाद साक्षात्कार प्रारम्भ हुआ। लगता था कि किसी जादू ने माहौल बदल दिया था। पंडित सोहन लाल द्विवेदी ने साक्षात्कार में अपनी काव्य यात्रा के अलावा गांधी जी के बारे में, देश भक्ति से जुड़े सवालों पर जम कर बात की। अपनी कविताएं सुनाई, बाल साहित्य पर खुलकर चर्चा की। कवि सम्मेलनों के संस्मरण रिकॉर्ड कराए। सभी आश्चर्यचकित थे। बोल कर ही नहीं

चलकर भी दिखाया अपने आप।किताबो को दिखाया।

  शाम को अतिथिगृह में जब अवस्थी जी से पूछा गया -पंडित जी अचानक बदल कैसे गए। कौन सी जादू की छड़ी आपने घुमा दी?

    अवस्थी जी ने मुस्कराते हुए कहा -किसी से कहिएगा नहीं, हमने आपके पहुंचने के पहले ही उनकी ठंडाई में भांग कुछ ठीक से मिला दी थी।

                  क्रमशः


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से


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परसाई जी की हठ

 जबलपुर में परसाई के उस खस्ता हाल मकान के चलते एक घटना और याद आई। परसाई जी के जन्म दिन पर उनके सम्मान में आयोजित संगोष्ठी में आयोजकों का आग्रह था कि परसाई जी भी वहां चलते लेकिन परसाई जी ने कहा -वे उठकर चलने के लायक नही हैं।कृपया हठ न करें। लोगो ने कहा हम आपको इसी  चारपाई सहित उठाकर ले चलेंगे।  कहकर उन लोगो ने परसाई जी समेत पलंग उठा लिया।

परसाई जी भी कम हठी नही थे,,उन्होंने बिस्तर को अपने हाथों से जकड़ लिया। हुआ यह कि दरवाजा छोटा था और पलंग कुछ ज्यादा ही चौड़ा था। पलंग उठाने वालों ने उसे थोड़ा टेढ़ा किया और परसाई जी भूलुंठित हो गए। यह देखके ठाकुरप्रसाद सिंह और मैने उन लोगो को बरजा तब जाकर परसाई जी सहज हुए। 

यहॉ नही ,उस बार ठाकुर प्रसाद सिंह परसाई जो को अट्ठहास शिखर सम्मान देने के निर्णय पर उनकी स्वीकृति लेने के लिए मुझे लेकर गए थे। परसाई जी ने अट्टहास सम्मान के बारे में पूछतांछ शुरु कर दी।कैसे करोगे, आगे बन्द तो नही होगा?

जब उन्हें बताया गया कि हम लोगो ने पांच लाख रु बैंक में जमा कर दिए है ।उसी के ब्याज से हर वर्ष दिया जाएगा। कितना?21000रु और 5100 रु। तो  उन्होंने कहा -आश्वस्त हुआ। लेकिन इसे पहला सम्मान शरद जोशी को दो। मुझे बाद में यही आकर दे देना। शरद जोशी जी ने हामी भरने के बाद मनोहर श्याम जोशी को 1990 का अट्टहास शिखर सम्मान  देने का निर्देश दिया और खुद जोशी जी को लखनऊ लेकर आये । शरद जोशी को बाद में दिया गया जबकि उनके निधन पर उनकी बेटी नेहा लेने आई।अट्टहासयुवा सम्मान प्रेम जनमेजय को दिया गया


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से 


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शनिवार, 23 सितंबर 2023

शैलेश मटियानी और उनका स्वाभिमान!


हेमवती नंदन बहुगुणा जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे,वे पहाड़ के लेखकों के दुख और सुख की चिंता रखा करते थे। आर्थिक मदद भी  भेजा करते  थे। उनको जब साहित्यकार शैलेश मटियानी  की विपन्नता की खबर  मिली  तो  रहा नही गया। बहुगुणा जी ने तत्काल शैलेश मटियानी की आर्थिक मदद के लिए अपने निजी सचिव को निर्देश दिया। दस हजार रु का  चेक जिलाधिकारी लेकर शैलेश मटियानी के पास पहुंचा-मुख्य मंत्री जी ने कृपा पूर्वक यह आर्थिक सहायता भेजी है,कृपया इसे ग्रहण करे।

शैलेश मटियानी मानी औऱ स्वभिमानी साहित्यकार थे। सरकार से भेजी गई आर्थिक मदद ने उन्हें बौखला दिया था। जो किसी  भी तरह उन्हें मंजूर नही थी। जिलाधिकारी को हाथ जोड़कर वे घर के अंदर चले आये। दिमाग मे आंधी सी चल रही थी।  सिर पकड़ कर काफी देर तक बैठे रहे। चेहरा तमतमाया हुआ था। 

जिलाधिकारी ने कहा था-सर! आप बहुत बड़े लेखक हैं।चेक की राशि देखकर मैं समझ गया था। मुख्यमंत्री जी आपको बहुत मानते हैं। दस हजार बहुत होते हैं, मेरे जैसे डीएम की सैलरी सिर्फ सात सौ रुपये  ही है। आप को तो दस हजार!

मटियानी जी फैसला ले चुके थे। प्राकृतिस्थ होते हो चेक लेकर   मुख्यमंत्री बहुगुणा जी को तीन पन्नो का खर्रा लिखने बैठ गए।पत्र क्या था।एक एक शब्द आग का बबूला था। पत्र क्या ,पत्र बम था। उस तीन पन्ने के खर्रे को ज्यों का त्यों लिख पाना मुमकिन  नहीं है।

 पत्र में मटियानी ने लिखा था- आपको तो मालूम है। में बिकाऊ नही हूँ। शैलेश मटियानी को कोई खरीद सके, अभी तक पैदा नही हुआ है।आपका दस हजार का चेक वापस कर रहा हूँ।कृपया इसे अपने अपने ख़लीते (रेक्टम )मे डाल लीजिएगा।

जब तक शैलेश मटियानी का मुख्यमंत्री हेमवती नंन्दन बहुगुणा को सम्बोधित पत्र लखनऊ पहुंचा। सरकार बदल चुकी थी।मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बहुगुणा जी की जगह नारायण दत्त तिवारी आसीन हो चुके थे।

मुख्यमंन्त्री के नाम आये पत्रों का जवाब लिखने की जिम्मेदारी उनके विशेष सचिव और वंशी और मादल की कविताओं से चर्चित कवि ठाकुर प्रसादसिंह पर थे। शैलेश मटियानी का आग बबूला होकर दस हजार रु का चेक सहित पत्र पढ़कर  ठाकुरप्रसाद सिंह जी मुस्कराए ।उन्हें शरारत सूझी। जवाब में उन्होंने मुख्यमंन्त्री नारायण दत्त तिवारी की ओर से एक भावुक पत्र लिखा और उपसचिव से कहा जब मुख्यमंन्त्री जी इन  पर हस्ताक्षर करे तो आप उनके पास ही रहिएगा और संभालिएगा। चुपचाप मै भी पीछे पीछे हो लिया और एक कुर्सी पर बैठ गया।

मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी पत्रों पर हस्ताक्षर करते- करते ठिठक गए । मेरी ओर देखा-यह क्या है- पत्र में लिखा था-आदरणीय मटियानी जी, आपका कृपा पत्र मिला, आभारी हुआ। अब मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आदरणीय बहुगुणा की जगह आपका सेवक है।आपकी रचनाओं में मैं अपना जीवन दर्शन खोजता रहा हूँ। प्रार्थना है कभी पधारें ।

मुझे भी दर्शन दें। अपने चरणों की धूल से मेरे आवास  पवित्र हो जाएगा। अनवरत प्रतीक्षा में आपका नारायण दत्त तिवारी।

         तिवारी जी को मैने पत्र के पीछे का इतिहास बताया।सम्वेदना प्रतिफल देगी। तिवारी जी ने मेरे आग्रह पर उस पत्र पर  यह कहकर हस्ताक्षर कर दिए कि ठाकुर  प्रसाद सिंह से कहिएगा -'इतनी अतिशयोक्ति ठीक नहीं है।"

मुख्य मंत्री का पत्र शैलेश मटियानी को चला गया।

 कुछ समय बीता। रविवार के दिन जनता दरबार लगा हुआ था।  मुख्यमंत्री तिवारी जी जनता की शिकायतों को निपटाकर अपने कक्ष में चले गए । भीड़ छटने लगी थी। हेलीकॉटर तैयार था।उनको तत्काल दिल्ली प्रस्थान करना था। तभी वहां कहानीकार शैलेश मटियानी प्रकट हुए।यह कहते हुए कि नारायण दत्त कहाँ है। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहे है। उनको बताइये कि शैलेश मटियानी उनके  आग्रह पर उपस्थित है।

उन्होंने न  तो ठाकुर प्रसाद सिंह की ओर देखा और न मेरी तरफ। अपनी धुन में नारायण दत्त तिवारी को पुकारते रहे।

     ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने  मुझसे कहा अनूप जी  !जरा  सम्भालिए जाकर। मैने मुख्यमन्त्री जी के कक्ष में जाकर देखा नारायणदत्त तिवारी दिल्ली जाने के लिए तैयार थे।सामान हेलीकाप्टर में भेजा जा चुका था। मुख्यमन्त्री ने द्रष्टि उठाकर देखा। मैने उन्हें बताया शैलेश मटियानी 

अपनी पुस्तक देने पधारे हैं।

 शैलेश मटियानी कौन हैं ?

ये   वे ही साहित्यकार हैं जिन्होंने बहुगुणा जी का दस लाख रु का चेक  वापस कर दिया था। जवाब में आपका पत्र पाकर पधारे है।ठाकुर प्रसाद सिंह जी मटियानी जी को लेकर हेलीकाप्टर के पास खड़े हैं।

     मुख्य मंत्री- लेकिन मेरे पास समय कहाँ है। मेने आगाह किया था  !इतनीअतिशयोक्ति न किया करें!

मैने फिर अनुरोध किया हेलीकाप्टर में बैठने के पहले उनसे उनकी किताबे तो ले सकते है। क्रोधी किंतु सह्रदय लेखक है।

मुख्यमंत्री  -ठीक है,लेकिन मैं उनको पहचानूगा कैसे?

मैने सुझाव दिया आगे बढ़कर शैलेश मटियानी के कंधे पर  हाथ रख दूंगा।

 मुख्यम1न्त्री राजी हो गए,ठीक है आप ऐसा ही करें।लेकिन सिर्फ एक मिनट का समय बचा है। थोड़ी सहायता करें।

में तेज कदमो से आगे बढ़ा। मुख्यमंन्त्री जी ने मुझे धक्का दिया दौड़ कर पहुंचिए। आगे आगे मैं पीछे पीछे तिवारी जी।मैने जैसे ही शैलेश मटियानी के पीछे हाथ रखा ,मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने अपने दोनों भुजाओं को फैलाते हुए मटियानी जी को  लपेट लिया।

 इस दृश्य को देखकर सुरक्षा कर्मी तक

हड़बड़ा गए। मटियानी की सारी किताबे जमीन में गिर गई।

तिवारी जी ने झुककर किताबे उठायी,अरे इतनी  ढेर सारी किताबे आप हमारे लिए।सबको हेलीकॉप्टर में रख दो। रास्ते मे पढूँगा। मटियानी जी आपने तो आज मुझ अकिंचन को समृद्ध कर दिया। शैलेश मटियानी मुख्यमन्त्री जी को मात्र दो किताबे भेंट करने के लिए लाये  थे। मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी यह कहते हुए हेलीकाप्टर में बैठ गए -अब आप नही मैं स्वयम आपके घर आकर दर्शन करूंगा और  साग रोटी भी खाऊंगा।ठाकुर प्रसाद जी मटियानी जी के स्वागत सत्कार में कोई कमी नही होना चाहिए।

इसी के साथ मुख्यमंत्री का हेलीकॉटर के उड़ने पर उड़ी धूल का गर्दोगुबार जब बैठा तो वहां  मात्र तीन लोग ही बचे थे। शैलेश मटियानी,ठाकुर प्रसाद सिंह जी और एक अदद चश्मदीद मै।

 - अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से



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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!

 ऑफ द रिकॉर्ड !   (पांच)

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!


वेदव्यास ने क्या कहा या बोला

 था?हमें पता नहीं.हम तो केवल उतना ही जानते है जिसे गणेश जी ने लिखा था. दुनिया जानती ही नही मानती भी है कि वेदव्यास ने ही महाभारत लिखा था. 


महर्षि वेदव्यास वाचिक परम्परा के शीर्ष थे. जब महाभारत के कथानक को कालपात्र की तरह भविष्य के लिए अक्षुण्य रखने का निर्णय हुआ और उसका दायित्व वेदव्यास पर सौंपा गया तो भोज पत्र पर उसे लिपिबद्ध करने के लिए गणेश जी की तलाश हुई फिर,महाभारत ही नहीं ,चारो वेद,पुराण,संहिताओं को भी भोज पत्रों पर लिपिबद्ध किया गया.और इस तरह से लिखने पढ़ने का भोजपत्र पहला आधार परिपत्र बना.और इसके लिये एक मजबूत गणेश परम्परा बनी जो आज तक कायम है. सबके पास अबअपने अपने गणेश हैं.


भगवान बुद्ध ने भी अंतिम समय मे कहा था कि मेरे द्वारा दिये गए उपदेशों को भंते आनंद से पुष्टि कराने के बाद ही माना जाये. 


महाकवि निराला  ही नही राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त भी स्लेट पर लिखते थे. बाद में मुंशी अजमेरी उसे स्लेट से उतार कर,संवार कर कागज़ पर लिपिबद्ध करते थे. दद्दा (मैथिली शरण गुप्त )अक्सर मुंशी अजमेरी को आइये हमारे गणेश जी! का सम्बोधन  देते थे.

जो भी दद्दा के दर्शन करने उनके घर जाता था,उसे एक कोने में तर ऊपर करीने से रखी बीस। पच्चीस स्लेट  नजर आती थी और दो तीन स्लेट दद्दा के घुटनो के पास रखी दिखती थीं.

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी भी स्लेट पर लिखते रहते थे ,बिगाड़ते रहते थे.


एक बार मुझे राम विलास शर्मा जी निराला जी के यहां दारागंज लेकर गए.  कुछ  और लोग भी पहले से बैठे थे. निराला जी ने  उन्हें जाने का संकेत किया. मैने देखा -निराला जी बार बार एक स्लेट पर संस्कृत के एक श्लोक को लिखते थे और कपड़े से पोंछ कर बिगाड़ देते थे। मुझे मुस्कराता देख कर निराला जी उखड़ गए. बोले-

 क्यों खीसे बा रहे हो. तुम्हारे पास स्लेट नही है? 

जी है!

तो फिर,लिखते नही हो उसपर?

-लिखता हूँ स्लेट पर आप की तरह नहीं!

क्या मतलब?,निराला जी गुर्राए.

-लिख रहे हैं,बिगाड़ रहे हैं,फिर लिख रहे है और फिर बिगाड़ रहे हैं! और क्या कर रहे हैं?

हम्मम!जानना चाहते हो,क्या कर रहा हूं?इसे खा रहा हूँ,कहकर निराला जी ने अपनी स्लेट रख दी.औरराम विलास जी ने प्यार भरी चपत लगाकर मुझे चुप करा दिया। सालों बाद मैंने निराला जी की एक कविता पढ़ी ,तब मुझे उनके द्वारा स्लेट पर लिखे श्लोक का स्मरण हो आया. निराला जी उस श्लोक को सिर्फ खा ही नहीं रहे थे ,उसे पचा भी रहे थे.


मेरे पिता चौधरी कृष्ण कुमार श्रीवास्तव लखनऊ राम विलास शर्मा के घर में ऊपर के हिस्से  में रहते थे. वे राम विलास शर्मा जी के प्रिय छात्र थे.किराए का घर उन्होंने ही दिलवाया था .पापा के सारे पत्र रामविलास शर्मा जी के पते पर ही आते थे.मेरे बाबा जब भी लखनऊ आते थे।हमेशा उनके लिए गांव से कुछ न कुछ भेंट करने के लिए लेकर आते थे। निराला जी भी जब तब  आकर राम विलास शर्मा जी के घर की कुंडी खटखटाते थे,उनकी भारी आवाज से पूरा मोहल्ला गूंज जाता था। सुनते ही मै भी भाग कर नीचे दौड़ जाता था। निराला जी को बच्चों से बेहद लगाव था। देखते ही गोद मे बिठा लेते थे.मेरी मां शांति श्रीवास्तव को 'प्रभा'उपनाम उन्होंने  ही दिया था.


माँ कहानियां लिखती थीं. मां की लिखी कहानियों को किस पत्रिका में जानी हैं इसे रामविलास शर्मा जी ही बताते थे। उनकी कुछ कहानियों के पहले या आखरी पन्ने पर मैने उनके निर्देश  भी कहीं कहीं पढ़े थे। मां की एक कहानी पर जब  सरकार की भौं टेढ़ी हुई और मेरी ननिहाल में इसकी जानकारी पहुंची तो रोना धोना मच गया.  मेरी ननिहाल हरदोई की सबसे बड़ी तहसील शाहाबाद में थी.नाना राय साहब जंग बहादुर के होश उड़े हुए थे. कहानी में  शांता श्रीवास्तव प्रभा 'राय निवास'शाहाबाद ,जिला हरदोई लिखा था. पता नही,कैसे राय निवास में बैठ कर अंग्रेज जिलाधिकारी क्रिमानी ने मामला दाखिल दफ्तर कर दिया। बाद में पता चला कहानी भेजते समय शर्मा जी ने लिफाफे पर मेरी मां का नाम शांति के बजाय शांता लिख दिया था।


सालों बाद जब हिंदी संस्थान के समारोह में राम विलास शर्मा जी को अतिथि गृह पहुचाने के बाद जब मैने उनके चरण स्पर्श किये तो उन्होंने मुझे गौर से देखा. मैने बताया कि उन्हें बचपन से जानता हूं. कैसे?मेरे पिता आपके स्टूडेंट थे .अरे जाने कितनों को पढ़ाया है,खैर, उनका नाम क्या था?

जी,कृष्ण कुमार .

अरे !तुम शांता के बेटे  अनूप हो.

बहुत शैतान थे.सिर चढ़े भी.मेरे दाढ़ी बनाने का सामान तुमने खिड़की से नीचे फेंक दिया था.

तुम्हारी माँ कैसी हैं?

नहीं रही,चली गयी बहुत दूर जब मै पांच साल का था .ओह! होती तो बड़ी कहानीकार बनती। पहले भी उसकी कहानियां चर्चा में थीं.और वे पुरानी स्मृतियों में खो गए.


मैने बताया कि पापा लखनऊ से सीतापुर  आ गए थे  वकालत करने.उन्होंने सिर हिलाया ,पता है,एक बार गांव तक भी गया था।

साथ मे थे कृष्ण कुमार ,काला कोट पहने,पुश्तैनी काम संभालना भी जरूरी होता है कभी कभी..

   

निराला जी की स्मृति चर्चा एक बार फिर लौटी जब मेरी बेटी का नामकरण गीतकार नीरज जी ने शिल्पा नाम देकर कहा कि कभी सबसे कहोगे कि तुम्हारी बेटी का नाम .. शिल्पा नीरज जी ने रखा था।

मैंने उन्हें बताया कि इसकी दादी का उपनाम "प्रभा"भी निराला जी ने रखा था। कहानीकार थीं ,मेरी माँ.

आज सोचता हूँ ,उनकी स्मृति ही मेरी पूंजी है और लेखन का संस्कार भी. 


राशन का जमाना था.राशन में कपड़ा और खाद्य सामग्री तो मिलती थी पर कागज़ के टोटा था. बच्चों का विद्यारम्भ तख्ती छुलाकर आरम्भ होता था। शाम होते ही लालटेन की कालिख निकाल कर तख्ती पोती जाती थी,फिर बोतल से घोंटकर चमकाई जाती थी।मदरसे मे तख्ती लिखकर होम वर्क दिखाने ले जाते थे . बड़ी कक्षा में पहुचने पर स्लेट मिलती थी.उस महंगाई में कागज़ पर कचहरी में ही काम काज होता था।


 बड़े से बड़ा लेखक भी पहले स्लेट पर अपने हाथ आजमाता था. निराला जी,जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत,महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त तक स्लेट का इस्तेमाल करते थे. बाद में उनके लिखे को सजा संवार कर कागज पर उतारने की जिम्मेदारी उनके 'गणेश' पर होती थी. 


कागज़ का एक ताव (पन्ना) एक आने का मिलता था . उतने में सवा किलो गेहूं ,या दस किलो आलू  बाजार में खुले आम मिलता था.इतने मंहगे कागज़ एक तरफ लिखने की ऐयाशी बड़े से बड़ा आदमी करने की हिम्मत नहीं कर पाता था।

मिश्र बन्धु पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ नवल बिहारी मिश्र,जे पी श्रीवास्तव, दिनकर जी, यशपाल जी,नागर जी को मैंने कागज़ के दोनों ओर लिखते देखा है. बाद में पिछले साल के कैलेंडर की तारीखों वाले कागजो को क्लिप या पिन लगाकर बंच बनाकर  कविता, कहानी,लेख  बहुतायत से अखबारों ,पत्रिकाओं को प्रेषित करने की रवायत बहुत दिनों तक रही .


मैथिली शरण गुप्त जी ने एक बार क्रोधाष्टक शीर्षक से क्रोध पर आठ छन्द महावीर प्रसाद द्विवेदी को सरस्वती में छपने के लिए भेजे। द्विवेदी जी ने उसको छापने के बाद गुप्त जी को पत्र लिखा-आपने तो आठ  छंदों को  आठ मिनट में लिख लिया होगा लेकिन मुझे उसे ठीक करने में आठ दिन लग गए.

मैने जब दद्दा से इसकी पुष्टि चाही तो उन्होंने कहा-दरअसल उसे मुंशी को भेजना था,जल्दबाजी में द्विवेदी जी को सीधे भेज दिया था.


 श्री मनोहर श्याम जोशी को पहला अट्टहास  शिखर सम्मान दिये जाने के बाद जब दिल्ली में  मिलने गया तो उन्होंने मुझे "हमलोग" धारावाहिक की स्क्रिप्ट वर्कशॉप का पता देते हुए फोन पर कहा  वहीं आ जाइये.


वहां पहुंच कर मैंने देखा-एक बड़े हाल में बीस पच्चीस युवा स्क्रिप्ट राइटर दत्त चित्त होकर स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है और मनोहर श्याम जोशी एक बड़ी मेज पर उनके द्वारा तैयार पर्चियों पर ओके या क्रॉस के निशान लगा रहे हैं। मेरी समझ मे आगया कि जोशी जी ही वेदव्यास हैं और सारे स्क्रिप्ट राइटर गणेश की भूमिका में हैं.


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से



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बुधवार, 24 मई 2023

हम सबके ठाकुर भाई!

 ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने गांधी जी पर एक महाकाव्य रचा। उसे लोकार्पण के लिए गांधी जी के पास लेकर गए। गांधी जी ने कहा-जब मैं साल का हो जाऊं तब आना। धर्म युग में महात्मा  पर  गांधी जी की मृत्यु के बाद उनकी टिप्पणी के साथ लेख छपा-उन्होंने कहा था ,"जब मैं सौ साल का हो जाऊं तब आना, तब समय के पहले पहुंचा था,अब लगता है-समय ही बीत गया।"

 यशपाल जी ने ठाकुर भाई की पत्नी से पूछा-भाभी जी आपको ठाकुर भाई की कौन से किताब ज्यादा पसंद है?भाभी माँ ने जवाब दिया-महामानव!            

 लेकिन क्यों, उसमें ऐसा क्या लगा?           

 भाभी माँ ने जवाब दिया-उसपर रख कर चिट्ठियां लिखने में आसानी होती है।

 आज ठाकुर भाई का जन्म दिन है। मुझे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी उनका दत्तक पुत्र मानते थे। उनके अन्तिम समय तक उनके सुख-दुख का साक्षी भी रहा। निर्वाण से लेकर बनारस में उनकी मूर्ति के लोकार्पण तक। तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने उनकी मूर्ति का लोकार्पण करते हुए कहा था-यहाँ मै राज्यपाल के रूप में नही,अपने बड़े भाई को प्रणाम निवेदित करने आया हूँ।

 माध्यम और अट्टहास के संरक्षक ठाकुर भाई को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज मै रामदरश जी का एक स्मृति लेख प्रस्तुत कर रहा हूँ। 


ठाकुर प्रसाद सिंह : वंशी और मादल / रामदरश मिश्र 


   ठाकुर प्रसाद सिंह अपने समय की नई पीढ़ी के लेखकों में अपना विशेष स्थान रखते थे। उन्होंने ‘महामानव’ नामक प्रबंध काव्य लिखा जो गांधी जी के जीवन पर आधारित है। ‘वंशी और मादल’ उनका विशिष्ट गीत संग्रह है जिसे अत्यंत ख्याति मिली थी। ‘हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए’ नई कविता का काव्य-संग्रह है। ‘कुब्जा सुंदरी’ तथा ‘सात घरों का गाँव’ उपन्यास भी उन्होंने लिखे थे। ‘चौथी पीढ़ी’ उनकी कहानियों का संग्रह है। वे  बहुत अच्छे ललित निबंधकार थे। इन्हें हम ठाकुर भाई कहते थे। इनसे मेरी भेंट बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में हुई। तब मैं इंटर में था और ये बी.ए. में थे। वे ईश्वरगंगी मोहल्ले से साइकिल द्वारा बीएचयू आते थे। 

एक बार मैं उनके संपर्क में आया तो आता ही गया। उनका साहचर्य बहुत प्रीतिकर एवं खुला हुआ था। उस समय के अनेक नये लेखकों की तरह ठाकुर भाई भी सामान्य परिवार के ही थे किंतु वे पढ़ाई के साथ इधर-उधर कुछ काम भी कर लेते थे ताकि उनके परिवार की रोजी-रोटी चलती रहे।

उन्होंने ‘साहित्यिक संघ’ नामक एक संस्था की निर्मिति भी की थी जिसमें प्रगतिशील चेतना के अनेक छोटे-बड़े साहित्यकार सम्मिलित थे। इस संस्था के माध्यम से अनेक छोटे-बड़े आयोजन हुए। ठाकुर भाई के आग्रह से मैं कई साल तक साहित्यिक संघ का मंत्री बना रहा। ठाकुर में साहित्यिक और सामाजिक दोनों प्रकार की चेतनाओं का विस्तार था। छात्र-काल में बड़े-बड़े साहित्यिक विद्वानों, रचनाकारों का उनका संबंध बन गया था। और वे लोग इनके आमंत्रण पर बनारस आते रहते थे और हम लोगों को भी उनका सानिध्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होता रहता था। मेरे साथ उनका संबंध था ही।

मेरे तीन वर्षीय बेटे हेमंत के दोस्त बन गए थे। तब हम लोग बनारस के सिगरा इलाके के भक्ति भवन में रहते थे जोकि बहुत सुनसान इलाका था । जब कोई हमसे मिलने आता था तो हम बहुत सुखी होते थे। ठाकुर भाई आते रहते थे और आते ही हेमंत चिल्ला पड़ता था- चाचा.. आओ और ठाकुर भी जी लपक कर उससे हाथ मिलाते थे। मेज के एक ओर वे बैठते थे और दूसरी ओर हेमंत बैठते थे। और दोनों हाथ मिलाकर हँसते थे। हेमंत सरस्वती जी से कहता था- चाचा के लिए पकौड़ी लाओ मम्मी। 

ठाकुर भाई के  कोई संतान नहीं थी। उनके साथ उनके चाचा रहते थे और ठाकुर भाई दर्द की हँसी हँसा करते थे। उनका खिलंदड़ व्यक्तित्व हर समय जागरूक रहा करता था कुछ प्रसंग मुझे याद आ रहे हैं।

मेरे एक सहपाठी ने उनसे कहा- भइया। मैं  भी कविता करना चाहता हूँ । तो ठाकुर भाई ने कहा- करो। लेकिन कविता दर्द से फूटती हो, कभी दर्द अनुभव किया है? सहपाठी ने कहा- हाँ भइया! एक बार किया था। मैं जब पहली क्लास में था तो मेरी माँ ने स्कूल में नाश्ते के लिए मुझे इकन्नी दी थी वह इकन्नी खो गई थी। मैं बहुत रोया था । ठाकुर भाई ने कहा- दोस्त! इकन्निया दर्द से कविता नहीं बनती। 

गौदोलिया पर एक कॉफी हाउस था। कामरेड लोग प्राय: वहाँ आते रहते थे। एक दिन ठाकुर मुझे भी वहाँ ले गए। संयोग से नामवर सिंह भी वहाँ आ गए। नामवर सिंह ने कहा- ठाकुर भाई! चाय पिलवाओ। ठाकुर भाई ने कहा- आप आर्डर दे दो। नामवर ने आर्डर दे दिया। चाय आई और सबने चाय पी । चाय पीकर ठाकुर भाई उठ चले। नामवर के पास भी पैसे तो थे नहीं। वे घबरा गए और हे ठाकुर भाई!  हे ठाकुर भाई! कहते उनके पीछे दौड़ चले। ठाकुर भाई ने धीरे-धीरे दौड़ते हुए चौराहा पार किया और जाकर रूक गए। जब नामवर पहुँचे तो उनसे कहा अरे! आर्डर तुमने दिया है न। पर इस मजाक के बाद वे दुकान पर वापिस आए और चाय के पैसे दे दिए।

बाद की बात है जब वे उत्तर प्रदेश मंत्रालय में बड़े अधिकारी बन कर चले गए थे। लखनऊ में गांधी भवन बनाने की योजना थी। इस संदर्भ में कांग्रेसी मंत्रियों और अफसरों की एक बैठक बुलाई गई। प्रस्ताव रखा गया कि पैसा अर्जित करने के लिए अभिनेताओं को बुलाकर एक कार्यक्रम किया जाए। इस पर सभी लोग सहमत हो गए। 

तभी ठाकुर ने एक प्रस्ताव रखा कि इस कार्यक्रम में विशेष रूप से हेलेन को बुलाया जाए और उनसे नृत्य कराया जाए। गांधी भवन के सिलसिले में हेलेन का आना बहुत प्रासंगिक होगा। क्योंकि दोनों में बहुत अधिक समानता है। चौंककर कमलापति त्रिपाठी (मुख्यमंत्री) ने पूछा-क्या समानता है ? ठाकुर भाई ने कहा- कि दोनों कम से कम वस्त्र पहनते के हिमायती हैं। हँसी मची किंतु कमलापति ने गंभीर होकर डांटा कि तुम्हें हर समय मजाक ही सूझता है। ठाकुर ने कहा- मजाक मैं कर रहा हूँ कि आप लोग? गांधी भवन का निर्माण अभिनेताओं की मदद से करवा रहे हैं। यह मजाक नहीं है तो और क्या है?

कभी-कभी वे छोटे बच्चों सी शरारत कर दिया करते थे। वे गौदोलिया से बीएचयू रिक्शे से जाया करते  था। रिक्शे दो सवारी लेकर चलते थे । रिक्शे पर एक आदमी बैठा हुआ  था। दूसरे का इंतजार था। तभी ठाकुर आकर बैठ गए। पहला व्यक्ति एक फ़िल्मी गीत  गुनगुनाने लगा गु- जोगन बन जाऊंगी। तभी यकायक ठाकुर भाई ने उसके मुँह से मुँह मिलाकर गाना पूरा किया कि-  सैंया तोरे कारन। पहला आदमी एकदम अचकचा गया और रिक्शा छोड़कर भाग गया।

ठाकुर बहुत अच्छे छात्र थे। देश-विदेश का बहुत साहित्य पढ़ा था। उम्मीद थी कि वे एम.ए. में प्रथम श्रेणी प्राप्त करेंगे। लेकिन ऐसे छात्र अपनी छेड़-छाड़ से गुरुओं को भी नाराज कर लेते हैं। या परीक्षा में ऐसा कुछ लिख देते हैं जो लीक से हटकर होता है। अत: ठाकुर को प्रथम श्रेणी नहीं मिली और लेक्चरर होने की संभावना समाप्त हो गई। फिर तो इन्होंने बड़ागाँव  में स्थित इंटर कॉलेज की प्रिंसीपली कर ली। फिर देवघर विद्यापीठ में आचार्य होकर देवघर चले गए। वहाँ से हटे तो उत्तर प्रदेश सूचना विभाग से जुड़ गए। ठाकुर जहाँ भी रहे, साहित्यिक हलचल मचाए रहे। बड़ागाँव में थे तो वहाँ की कॉलेज पत्रिका को एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका बना दिया और नाम रखा- हमारी पीढ़ी। इसके लिए उन्हें कार्यकारिणी को जवाब देना पड़ा तो पड़ा। वे वहाँ अपनी शर्तों पर प्रिंसीपली करने गए थे,आदेशित होकर नहीं। 

उन्होंने ‘गोधूलि’ नामक पत्रिका निकाली जिसमें एक सहयोगी संपादक मैं भी था। उसके दो-तीन अंक निकले लेकिन वे समकालीन रचनाओं की दस्तावेज बन गए। मोहन राकेश की कहानी ‘नये बादल’ सबसे पहले उसी में छपी थी। जहाँ तक मुझे याद है मैंने उसमें त्रिलोचन की ‘धरती’ की समीक्षा लिखी थी।

उत्तर प्रदेश सरकार की  ‘ग्राम्या’ जैसी प्रचार पत्रिका उनके हाथ लगी तो उनके हाथ लगते ही वह एक स्पृहणीय साहित्यिक पत्रिका बन गई और ‘त्रिपथगा’ जैसी साहित्यिक पत्रिका (जिसके संपादक कोई और थे) सरकारी तंत्र के बल पर घिसटती हुई चलती रही। 

देवघर में वे गए तो वहाँ भी वे केवल आचार्य बनकर कैसे रह सकते थे। एक भव्य  कवि सम्मेलन किया जिसमें हिंदी के अनेक प्रतिष्ठित और नये कवियों ने भाग लिया। अज्ञेय का उसमें शरीक होना बड़ी बात थी। वे कहीं भी रहे हो, साहित्यिक हलचल के बिना रह नहीं सकते थे। तब मैं अहमदाबाद में था। भावनगर में कांग्रेस का अधिवेशन था। ठाकुर भाई उसमें भाग लेने के लिए लखनऊ से आए थे। वहाँ करे क्या? अनजानी जगह, पर साहित्यिक हलचल तो होनी ही चाहिए। वे अधिवेशन के ही किसी काम से अहमदाबाद आए तो मेरे घर आए। और मुझे तथा हेमंत को भावनगर के लिए आमंत्रित कर गए। भावनगर के मेरे साहित्यिक मित्रों के सहयोग से ठाकुर भाई ने शहर में एक साहित्यिक सभा का आयोजन कर दिया जो बहुत प्रभावशाली रहा। उसके सबसे  मजेदार बातें यह रही कि ठाकुर भाई ने घोषणा कर दी थी कि मेरे सात वर्षीय पुत्र हेमंत उस सभा के अध्यक्ष हैं। और हेमंत छाती फुलाकर अध्यक्ष पद पर बैठ गए। 

ठाकुर भाई के साथ मेरी ऐसी लंबी यात्रा रही है और उनका जीवन इतना पवित्र रहा है कि मैं सोच ही नहीं पाता कि उनकी कौन सी चीज याद करूँ और कौन सी भूलूँ ।

ठाकुर भाई बहुत अच्छे लेखक तो थे ही अच्छे वक्ता भी थे। उनके लेखन में जो सर्जनात्मकता है वहीं उनके वक्तव्यों में भी होती थी। बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों का संचालन वे इस कौशल से करते थे कि श्रोता समूह अनुशासित रहता था। उनके भाषणों में 'विट' और ह्यूमर भी हुआ करता था। उनके एक कवि सम्मेलन संचालन की याद आ रही है। कवि सम्मेलन वाराणसी के क्वींस कॉलेज के सभागार में था। ठाकुर भाई संचालन कर रहे थे। उनके पास बैठे उन्हीं के मोहल्ले के एक कवि बार-बार किता सुनाने का आग्रह कर रहे थे। ठाकुर भाई ने कहा कि देखों भाई। यहाँ संभ्रांत परिवारों की महिलाएँ उपस्थित हैं और तुम्हारी कविताएं फूहड़ और अश्लील होती हैं। मैं तुम्हें कविता सुनाने का अवसर नहीं दूंगा। उन कवि महोदय ने कहा कि नहीं भइया। मैं सभ्यकविताएँ सुनाउंगा। पर जैसे ही उनके हाथ में माइक आया तो  वे अपनी प्रकृति पर आ गए और लगे फूहड़ कविताएँ सुनाने। ठाकुर भाई के मना करने पर भी जब वे नहीं माने ते ठाकुर भाई ने पीछे से उनकी कमर पकड़ी और मंच के नीचे उठाकर धकेल दिया। 

बातें तो बहुत है लेकिन कुछेक की चर्चा और करना चाहूंगा। उनकी पत्नी तो जैसी भी रही हो लेकिन ठाकुर भाई ने उन्हें बहुत अपनापन दिया। वे काफी रूक्ष थीं। ठाकुर के मित्र कहा करते थे कि मैं तुम्हारे घर नहीं आऊंगा, तुम्हारी पत्नी के व्यवहार से डर लगता है। तो ठाकुर ने कभी भी अपने मित्रों की शिकायत पर ध्यान नहीं दिया और पत्नी को पूरे मन से अपनाए रहे। अपनी पत्नी के साथ घटित अप्रियता को समेटकर खुश हो लेते थे। यह बात विशेष महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि हमारे बहुत से समकालीन लेखक अपनी पढ़ी-लिखी पत्नियों के साथ बहुत मानवीय व्यवहार नहीं कर पाते। 

असमय ही ठाकुर प्रोस्टेट बीमारी के शिकार हो गए। बनारस, लखनऊ, दिल्ली तक दौड़ करते रहे। इस स्थिति में भी उन्हें कभी चिंतित नहीं देखा। जब वे अवकाश प्राप्ति के पश्चात वाराणसी लौट आए तब इस हॉल में भी उनका सामाजिक मन चुप नहीं बैठा और अनेक नये किशोरों युवाओं को साथ लेकर एक संस्था बनाई जिसके माध्यम से वे साहित्य और समाज की सेवा कर सकें। मुझे याद है जब मैं बनारस जाता था तब चंद्रकला त्रिपाठी के यहां कवि गोष्ठी होती थी और उसमें भाग लेने के लिए वे शहर से पहुंच जाते थे। दिल्ली में एक दिन सुना कि ठाकुर भाई चल गए। बनारस की एक गतिमान जीवंतता चली गई। उसकी वह हँसी चली गई जो गहरे दर्द के भीतर से पैदा होती हैं और दूसरों के होठों पर बिखर जाती है। लेकिन वे गए नहीं। उनका गीत संग्रह ‘वंशी और बादल’अभी भी सादगी और गहरी संवेदना से साहित्य जगत में अपनी आभा दीप्त करता  रहेगा।

-अनूप श्रीवास्तव के सौजन्य से


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मंगलवार, 9 मई 2023

शिवानी होने का अर्थ!

समकालीन हिंदी कथा साहित्य में एक  अनूठा लोक रंजित इतिहास हैं गौरा पन्त शिवानी। शिवानी साहित्य की गंगा थीं। उनका ज्यादा समय कुमायूँ की पहाड़ियों में बीता लेकिन उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में आने के बाद साहित्य जगत में शिवानी ही होकर रह गईं। सच कहूँ तो वे साहित्य की गंगा थीं ।

 लखनऊ में यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृत लाल नागर के बाद श्रीलाल शुक्ल,ठाकुर प्रसाद सिंह और शिवानी  साहित्य जगत के दैदीप्यमान नक्षत्र थे।            उस समय की सरकारी  वी आई पी गुलिस्ता कालोनी में ठाकुर  भाई 31 और शिवानी जी 66 नम्बर में रहती थीं। मेरा आवास कालोनी में प्रवेश करते ही पड़ता था। जो भी उनसे मिलने आता था।पहले मुझसे ही उनके बारे में पूछता था। ठाकुर भाई का आवास खुला दरबार था लेकिन शिवानी जी से मिलाने के पहले उनकी अनुमति लेनी पड़ती थी। बरसों मैं द्वारपाल की तरह दोनों साहित्यकारों के लिये दरबानगिरी करता रहा। मेरा आवास बाहर से आने वाले साहित्यकारों का अतिथिगृह बना रहा। ठाकुर भाई का मैं दत्तक पुत्र माना जाता था।शिवानी जी का मैं स्नेह पात्र था ही।

 शिवानी जी के पति शुकदेव पन्त रियासतों के विलीनीकरण के बाद उत्तर प्रदेश सरकार में उप सचिव के पद पर नियुक्त हुए थे। उन्हें सरकारी आवास के रूप में 66 गुलिस्ता कालोनी आवंटित किया गया था।  पति की असामयिक मृत्यु के बाद सबसे बड़ी समस्या आई  निवास की।जिसे तत्काल खाली कराने का परवाना आ चुका था। इसका निदान निकालने के लिए ठाकुर भाई ने मुझसे स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक जी से बात करने की सलाह दी। उस समय मैं स्वतन्त्र भारत का चीफ रिपोर्टर था। स्वतन्त्र भारत के सम्पादक अशोक  जी का स्नेहपात्र  भी समझा जाता था । अशोक जी ने शिवानी जी को सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में नियुक्त पत्र जारी कर दिया। तय हुआ शिवानी हर इतवार को "वातायन"शीर्षक से सम्पादकीय पृष्ठ पर लिखेंगी। अखबार की ओर से मेरी ड्यूटी लगाई गई कि प्रत्येक शनिवार की सुबह शिवानी जी का कॉलम लेकर अखबार में पहुंचाया करूँ। उधर शिवानी जी ने कॉलम में क्या लिखना है इस पर शुक्रवार की सुबह चर्चा करने का हुक्म दिया। कभी कभी ठाकुर भाई मदद कर देते। मुझे राहत मिल जाती। बरसों में शिवानी जी के कालम का हरकारा बना रहा। वातायन के लेखों का बाद में संकलन भी छपा।

शिवानी जी रोज सुबह  की सैर से लौटते समय मेरे निवास 10 गुलिस्ताँ की घंटी बजाती। अखबार पढ़तीं। कभी कभी चाय भी...

शिवानी जी किसी भी विसंगति को बर्दाश्त नही करती थीं।दूसरी ओर ठाकुर भाई मृत्युशैया पर रहते हुए भी परिहास करने से नहीं चूके । महाप्रयाण के बाद  ठाकुर भाई की अंतिम पुस्तक हारी हुई "लड़ाई लड़ते हुए" का लोकार्पण कैसे किया जाए? कोई बड़ा समारोह कर सकना सम्भव नहीं था।ठाकुर भाई ने कहा शिवानी जी घर आकर कर दें। शिवानी तैयार हो गयीं।

 लेकिन  प्रकाशक और सम्पादक डॉ शुकदेव  सिंह का अता पता न था। शिवानी ने पूछा-शुकदेव सिंह जी कहां हैं?

ठाकुर भाई ने उस हालत में भी चुटकी ले ली-बेचारा अपने 'पार्षद' खोजने गया है।  

             काफी इंतजार के बाद डॉ शुकदेव सिंह पधारे। समस्या तब भी नही सुलझी। ठाकुर भाई को पहनाने के लिए शुकदेव सिंह माला लेकर नही आये थे। उन्होंने तोड़ निकाला-,शरद जोशी के चित्र पर से माला उतारकर पहनाने लगे शिवानी जी बर्दाश्त नही कर सकीं।उन्होंने बरज दिया ।शिवानी जी ने मेरी ओर देखा।मैने उठकर सरस्वती के चित्र पर चढ़ाई गयी माला उतार कर शिवानी जी को बढ़ा दिया। ठाकुर भाई ने हाथ जोड़ दिए- माँ का प्रसाद है।

इस घटना को शिवानी भूली नहीं ।लिखा -नाकारा बनारसी!

यही नहीं,ठाकुर भाई के देहावसान पर शोक संवेदना व्यक्त करने आये पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के कर्कश स्वर के लिए भी उन्हें आड़े हाथों लिया।

              एक दिन दोपहर शिवानी जी का फोन आया-अनूप जी आप कहाँ हैं/अखबार में हूँ। आ सकते है?बोलीं -दिलीप कुमार को जानते है आप?जी! वे आप के लिए जाल डाले हुए हैं। वे देर शाम भगवती बाबू के आवास चित्रलेखा को बाहर से देखना चाहते हैं।मुझे अंदाजा नहीं है।मैं भी चलूंगी । आदेश था। चित्रलेखा  निवास पर काफी देर खड़े रहे। आंख बंद किये । उनके बेटे ,परिवार को खबर करने मैं बढ़ा।जन्होने बरज दिया। लौटते में दिलीप कुमार स्मृतियों में  डूबे रहे।शिवानी जी बोलती रहीं, ढेर सारे संस्मरण उचारती रहीं।

         शिवानी और ठाकुर भाई के महाप्रयाण के बाद भी द्वारपाली से मेरी छुट्टी नही हुई।लोग आते रहे।पूछते -शिवानी जी कहाँ किस फ्लैट में रहती थी,ठाकुर प्रसाद सिंह श्री लाल शुक्ल भी कभी यहीं थे?

एक दिन रायपुर से व्यंग्यकार मित्र गिरीश पंकज का फोन आया-रायपुर की डॉ सोनाली चक्रवर्ती शिवानी का घर देखना चाहती हैं । विमान से उतर कर सीधे आपके निवास पर आएंगी। उनकी  मदद करेंगे । 

सोनाली आई। उनको शिवानी के घर ले कर गया। 66 गुलिस्ता पर ताला लगा था  सोनाली चक्रवर्ती  सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुंची। बन्द ताले पर माथा टेके खड़ी रहीं। उनका मन शिवानी से मिलने के लिए छटपटा रहा था,उनका वे सीधा साक्षात्कार कर रही थी ।

 लगभग 42 साल बाद मैं भी गुलिस्ता कालोनी छोड़ आया।  जाने के पहले शिवानी और ठाकुर भाई के घरों पर जाकर दोनों को प्रणाम किया। लेकिन जैसे ही गुलिस्ता कॉलोनी के गेट से मुड़ा, किसी को पूछते सुन पड़ा-शिवानी यहीं रहती थीं?

 अनूप श्रीवास्तव  की स्मृति से



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