‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शनिवार, 2 दिसंबर 2023

देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद पर महाकवि निराला की संभवतः अप्रकाशित कविता...

[बंधु ! इस बार पटना से जो गट्ठर मेरे साथ आया है, उसकी पोटली नंबर-2 में एक बहुमूल्य पत्र निरालाजी की कविता के साथ मुझे मिला है । पत्र पिताजी को संबोधित है, जून 1942 का है । उन दिनों पिताजी 'आरती' नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन अपने स्वत्वाधिकार के 'आरती मन्दिर प्रेस, पटना से कर रहे थे । यह महत्वपूर्ण रचना भी निरालाजी ने पिताजी के पास प्रकाशन के लिए भेजी थी, मुझे मालूम नहीं कि यह पत्रिका में छपी या नहीं, क्योंकि जैसा पिताजी से सुना था, सन ४२ के विश्व-युद्ध के दौरान ही 'आरती' का प्रकाशन अवरुद्ध हो गया था । मुझे यह भी नहीं मालूम कि देशरत्न पर लिखी उनकी यह कविता कहीं, किसी और ग्रन्थ में संकलित हुई या नहीं....! अगर नहीं हुई, तो निःसंदेह यह अत्यंत महत्त्व का दस्तावेज़ है ।

मुझे आश्चर्य इस बात का है कि पिताजी जैसे असंग्रही व्यक्ति के पुराने गट्ठर में और खानाबदोशी की हालत में निरंतर घिसटते हुए यह पत्र आज भी 73 वर्षों बाद बचा कैसे रह गया...? संभवतः, मेरे सौभाग्य से ! मूल और टंकित प्रति के साथ आज इसे लोकार्पित कर धन्य हो रहा हूँ । --आनन्दवर्धन ओझा]
C/o Pandit Ramlalji garg,
karwi, Banda (U.P.)
15.6.'42.
प्रिय मुक्तजी,
क्षमा करें । मैं यथासमय आपको कुछ भेज नहीं सका । यह रचना देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी पर है । भेज रहा हूँ । स्वीकृति भेजें । आप अच्छी तरह होंगे । मेरी 'आरती' इस पते पर भेजें--
श्रीरामकृष्ण मिशन लाइब्रेरी,
गूंगे नव्वाब का बाग़,
अमीनाबाद, लखनऊ ।
उत्तर ऊपर के पते पर । नमस्कार ।
आपका--
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
[पत्र के पृष्ठ-भाग पर कविता]
देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति...
उगे प्रथम अनुपम जीवन के
सुमन-सदृश पल्लव-कृश जन के ।
गंध-भार वन-हार ह्रदय के,
सार सुकृत बिहार के नय के ।
भारत के चिरव्रत कर्मी हे !
जन-गण-तन-मन-धन-धर्मी हे !
सृति से संस्कृति के पावनतम,
तरी मुक्ति की तरी मनोरम ।
तरणि वन्य अरणि के, तरुण के
अरुण, दिव्य कल्पतरु वरुण के ।
सम्बल दुर्बल के, दल के बल,
नति की प्रतिमा के नयनोत्पल ।
मरण के चरण चारण ! अविरत
जीवन से, मन से मैं हूँ नत ।।
--'निराला'


सौजन्य - मुक्ताकाश http://avojha.blogspot.com/2015/01/blog-post_18.html



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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!

 ऑफ द रिकॉर्ड !   (पांच)

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!


वेदव्यास ने क्या कहा या बोला

 था?हमें पता नहीं.हम तो केवल उतना ही जानते है जिसे गणेश जी ने लिखा था. दुनिया जानती ही नही मानती भी है कि वेदव्यास ने ही महाभारत लिखा था. 


महर्षि वेदव्यास वाचिक परम्परा के शीर्ष थे. जब महाभारत के कथानक को कालपात्र की तरह भविष्य के लिए अक्षुण्य रखने का निर्णय हुआ और उसका दायित्व वेदव्यास पर सौंपा गया तो भोज पत्र पर उसे लिपिबद्ध करने के लिए गणेश जी की तलाश हुई फिर,महाभारत ही नहीं ,चारो वेद,पुराण,संहिताओं को भी भोज पत्रों पर लिपिबद्ध किया गया.और इस तरह से लिखने पढ़ने का भोजपत्र पहला आधार परिपत्र बना.और इसके लिये एक मजबूत गणेश परम्परा बनी जो आज तक कायम है. सबके पास अबअपने अपने गणेश हैं.


भगवान बुद्ध ने भी अंतिम समय मे कहा था कि मेरे द्वारा दिये गए उपदेशों को भंते आनंद से पुष्टि कराने के बाद ही माना जाये. 


महाकवि निराला  ही नही राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त भी स्लेट पर लिखते थे. बाद में मुंशी अजमेरी उसे स्लेट से उतार कर,संवार कर कागज़ पर लिपिबद्ध करते थे. दद्दा (मैथिली शरण गुप्त )अक्सर मुंशी अजमेरी को आइये हमारे गणेश जी! का सम्बोधन  देते थे.

जो भी दद्दा के दर्शन करने उनके घर जाता था,उसे एक कोने में तर ऊपर करीने से रखी बीस। पच्चीस स्लेट  नजर आती थी और दो तीन स्लेट दद्दा के घुटनो के पास रखी दिखती थीं.

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी भी स्लेट पर लिखते रहते थे ,बिगाड़ते रहते थे.


एक बार मुझे राम विलास शर्मा जी निराला जी के यहां दारागंज लेकर गए.  कुछ  और लोग भी पहले से बैठे थे. निराला जी ने  उन्हें जाने का संकेत किया. मैने देखा -निराला जी बार बार एक स्लेट पर संस्कृत के एक श्लोक को लिखते थे और कपड़े से पोंछ कर बिगाड़ देते थे। मुझे मुस्कराता देख कर निराला जी उखड़ गए. बोले-

 क्यों खीसे बा रहे हो. तुम्हारे पास स्लेट नही है? 

जी है!

तो फिर,लिखते नही हो उसपर?

-लिखता हूँ स्लेट पर आप की तरह नहीं!

क्या मतलब?,निराला जी गुर्राए.

-लिख रहे हैं,बिगाड़ रहे हैं,फिर लिख रहे है और फिर बिगाड़ रहे हैं! और क्या कर रहे हैं?

हम्मम!जानना चाहते हो,क्या कर रहा हूं?इसे खा रहा हूँ,कहकर निराला जी ने अपनी स्लेट रख दी.औरराम विलास जी ने प्यार भरी चपत लगाकर मुझे चुप करा दिया। सालों बाद मैंने निराला जी की एक कविता पढ़ी ,तब मुझे उनके द्वारा स्लेट पर लिखे श्लोक का स्मरण हो आया. निराला जी उस श्लोक को सिर्फ खा ही नहीं रहे थे ,उसे पचा भी रहे थे.


मेरे पिता चौधरी कृष्ण कुमार श्रीवास्तव लखनऊ राम विलास शर्मा के घर में ऊपर के हिस्से  में रहते थे. वे राम विलास शर्मा जी के प्रिय छात्र थे.किराए का घर उन्होंने ही दिलवाया था .पापा के सारे पत्र रामविलास शर्मा जी के पते पर ही आते थे.मेरे बाबा जब भी लखनऊ आते थे।हमेशा उनके लिए गांव से कुछ न कुछ भेंट करने के लिए लेकर आते थे। निराला जी भी जब तब  आकर राम विलास शर्मा जी के घर की कुंडी खटखटाते थे,उनकी भारी आवाज से पूरा मोहल्ला गूंज जाता था। सुनते ही मै भी भाग कर नीचे दौड़ जाता था। निराला जी को बच्चों से बेहद लगाव था। देखते ही गोद मे बिठा लेते थे.मेरी मां शांति श्रीवास्तव को 'प्रभा'उपनाम उन्होंने  ही दिया था.


माँ कहानियां लिखती थीं. मां की लिखी कहानियों को किस पत्रिका में जानी हैं इसे रामविलास शर्मा जी ही बताते थे। उनकी कुछ कहानियों के पहले या आखरी पन्ने पर मैने उनके निर्देश  भी कहीं कहीं पढ़े थे। मां की एक कहानी पर जब  सरकार की भौं टेढ़ी हुई और मेरी ननिहाल में इसकी जानकारी पहुंची तो रोना धोना मच गया.  मेरी ननिहाल हरदोई की सबसे बड़ी तहसील शाहाबाद में थी.नाना राय साहब जंग बहादुर के होश उड़े हुए थे. कहानी में  शांता श्रीवास्तव प्रभा 'राय निवास'शाहाबाद ,जिला हरदोई लिखा था. पता नही,कैसे राय निवास में बैठ कर अंग्रेज जिलाधिकारी क्रिमानी ने मामला दाखिल दफ्तर कर दिया। बाद में पता चला कहानी भेजते समय शर्मा जी ने लिफाफे पर मेरी मां का नाम शांति के बजाय शांता लिख दिया था।


सालों बाद जब हिंदी संस्थान के समारोह में राम विलास शर्मा जी को अतिथि गृह पहुचाने के बाद जब मैने उनके चरण स्पर्श किये तो उन्होंने मुझे गौर से देखा. मैने बताया कि उन्हें बचपन से जानता हूं. कैसे?मेरे पिता आपके स्टूडेंट थे .अरे जाने कितनों को पढ़ाया है,खैर, उनका नाम क्या था?

जी,कृष्ण कुमार .

अरे !तुम शांता के बेटे  अनूप हो.

बहुत शैतान थे.सिर चढ़े भी.मेरे दाढ़ी बनाने का सामान तुमने खिड़की से नीचे फेंक दिया था.

तुम्हारी माँ कैसी हैं?

नहीं रही,चली गयी बहुत दूर जब मै पांच साल का था .ओह! होती तो बड़ी कहानीकार बनती। पहले भी उसकी कहानियां चर्चा में थीं.और वे पुरानी स्मृतियों में खो गए.


मैने बताया कि पापा लखनऊ से सीतापुर  आ गए थे  वकालत करने.उन्होंने सिर हिलाया ,पता है,एक बार गांव तक भी गया था।

साथ मे थे कृष्ण कुमार ,काला कोट पहने,पुश्तैनी काम संभालना भी जरूरी होता है कभी कभी..

   

निराला जी की स्मृति चर्चा एक बार फिर लौटी जब मेरी बेटी का नामकरण गीतकार नीरज जी ने शिल्पा नाम देकर कहा कि कभी सबसे कहोगे कि तुम्हारी बेटी का नाम .. शिल्पा नीरज जी ने रखा था।

मैंने उन्हें बताया कि इसकी दादी का उपनाम "प्रभा"भी निराला जी ने रखा था। कहानीकार थीं ,मेरी माँ.

आज सोचता हूँ ,उनकी स्मृति ही मेरी पूंजी है और लेखन का संस्कार भी. 


राशन का जमाना था.राशन में कपड़ा और खाद्य सामग्री तो मिलती थी पर कागज़ के टोटा था. बच्चों का विद्यारम्भ तख्ती छुलाकर आरम्भ होता था। शाम होते ही लालटेन की कालिख निकाल कर तख्ती पोती जाती थी,फिर बोतल से घोंटकर चमकाई जाती थी।मदरसे मे तख्ती लिखकर होम वर्क दिखाने ले जाते थे . बड़ी कक्षा में पहुचने पर स्लेट मिलती थी.उस महंगाई में कागज़ पर कचहरी में ही काम काज होता था।


 बड़े से बड़ा लेखक भी पहले स्लेट पर अपने हाथ आजमाता था. निराला जी,जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत,महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त तक स्लेट का इस्तेमाल करते थे. बाद में उनके लिखे को सजा संवार कर कागज पर उतारने की जिम्मेदारी उनके 'गणेश' पर होती थी. 


कागज़ का एक ताव (पन्ना) एक आने का मिलता था . उतने में सवा किलो गेहूं ,या दस किलो आलू  बाजार में खुले आम मिलता था.इतने मंहगे कागज़ एक तरफ लिखने की ऐयाशी बड़े से बड़ा आदमी करने की हिम्मत नहीं कर पाता था।

मिश्र बन्धु पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ नवल बिहारी मिश्र,जे पी श्रीवास्तव, दिनकर जी, यशपाल जी,नागर जी को मैंने कागज़ के दोनों ओर लिखते देखा है. बाद में पिछले साल के कैलेंडर की तारीखों वाले कागजो को क्लिप या पिन लगाकर बंच बनाकर  कविता, कहानी,लेख  बहुतायत से अखबारों ,पत्रिकाओं को प्रेषित करने की रवायत बहुत दिनों तक रही .


मैथिली शरण गुप्त जी ने एक बार क्रोधाष्टक शीर्षक से क्रोध पर आठ छन्द महावीर प्रसाद द्विवेदी को सरस्वती में छपने के लिए भेजे। द्विवेदी जी ने उसको छापने के बाद गुप्त जी को पत्र लिखा-आपने तो आठ  छंदों को  आठ मिनट में लिख लिया होगा लेकिन मुझे उसे ठीक करने में आठ दिन लग गए.

मैने जब दद्दा से इसकी पुष्टि चाही तो उन्होंने कहा-दरअसल उसे मुंशी को भेजना था,जल्दबाजी में द्विवेदी जी को सीधे भेज दिया था.


 श्री मनोहर श्याम जोशी को पहला अट्टहास  शिखर सम्मान दिये जाने के बाद जब दिल्ली में  मिलने गया तो उन्होंने मुझे "हमलोग" धारावाहिक की स्क्रिप्ट वर्कशॉप का पता देते हुए फोन पर कहा  वहीं आ जाइये.


वहां पहुंच कर मैंने देखा-एक बड़े हाल में बीस पच्चीस युवा स्क्रिप्ट राइटर दत्त चित्त होकर स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है और मनोहर श्याम जोशी एक बड़ी मेज पर उनके द्वारा तैयार पर्चियों पर ओके या क्रॉस के निशान लगा रहे हैं। मेरी समझ मे आगया कि जोशी जी ही वेदव्यास हैं और सारे स्क्रिप्ट राइटर गणेश की भूमिका में हैं.


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से



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मंगलवार, 25 जुलाई 2023

निराला और अज्ञेय

 एक बार अज्ञेय अपने लेखन के शुरूआती दिनों में शिवमंगल सिंह सुमन जी के साथ सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी से मिलने के लिये गये। उस समय दोपहर हो रही थी और निराला जी अपने खाने के लिये कुछ बना रहे थे। तो जैसे ही उन्होंने द्वार पर दस्तक दी, तो निराला जी उन्हें पहचान नहीं पाये और उनका नाम पता पूछने लगे, उन्होंने जब अज्ञेय का नाम सुना तो अंदर आने की आज्ञा दे दी। अज्ञेय को उस समय बड़े लेखक भी जानने लगे थे। अंदर आने पर निराला रसोई में गये। और वो दोनों बस इधर-उधर कमरे की नीरसता को ताकते रहे।

अब जो आगे का हिस्सा पढ़ेंगे वह ज्यों का त्यों वसंत का अग्रदूत से लिया गया है - 

इस बीच निराला एक बड़ी बाटी में कुछ ले आए और उन दोनों के बीच बाटी रखते हुए बोले, ''लो, खाओ, मैं पानी लेकर आता हूँ,'' और फिर भीतर लौट गए।

बाटी में कटहल की भुजिया थी। बाटी में ही सफाई से उसके दो हिस्से कर दिए गए थे।

निराला के लौटने तक दोनों रुके रहे। यह क्लेश दोनों के मन में था कि निरालाजी अपने लिए जो भोजन बना रहे थे वह सारा-का-सारा उन्होंने हमारे सामने परोस दिया और अब दिन-भर भूखे रहेंगे। लेकिन अज्ञेय यह भी जानते थे कि हमारा कुछ भी कहना व्यर्थ होगा-निराला का आतिथ्य ऐसा ही जालिम आतिथ्य है। सुमन ने कहा, ''निरालाजी, आप...''

''हम क्या?''

''निरालाजी, आप नहीं खाएँगे तो हम भी नहीं खाएँगे।''

निरालाजी ने एक हाथ सुमन की गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''खाओगे कैसे नहीं? हम गुद्दी पकड़कर खिलाएँगे।''

सुमन ने फिर हठ करते हुए कहा, ''लेकिन, निरालाजी, यह तो आपका भोजन था। अब आप क्या उपवास करेंगे ?''

निराला ने स्थिर दृष्टि से सुमन की ओर देखते हुए कहा, ''तो भले आदमी, किसी से मिलने जाओ तो समय-असमय का विचार भी तो करना होता है।'' और फिर थोड़ा घुड़ककर बोले : ''अब आए हो तो भुगतो।''

दोनों ने कटहल की वह भुजिया किसी तरह गले से नीचे उतारी। बहुत स्वादिष्ट बनी थी, लेकिन उस समय स्वाद का विचार करने की हालत उनकी नहीं थी।

जब वो लोग बाहर निकले तो सुमन ने खिन्न स्वर में कहा, ''भाई, यह तो बड़ा अन्याय हो गया।''

अज्ञेय ने कहा, ''इसीलिए मैं कल से कह रहा था कि सवेरे जल्दी चलना है, लेकिन आपको तो सिंगार-पट्टी से और कोल्ड-क्रीम से फ़ुरसत मिले तब तो! नाम 'सुमन' रख लेने से क्या होता है अगर सवेरे-सवेरे सहज खिल भी न सकें!''


वसंत का अग्रदूत से...

प्रस्तुति मनीषा कुलश्रेष्ठ


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शुक्रवार, 16 जून 2023

हिंदी के ज्यादातर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं

 हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं


युवा पंडित नंददुलारे बाजपेई निराला जी का एक कविता पाठ बी .एच .यू . (तब 1927 में,  यह आर्ट्स कालेज था)के हिंदी विभाग में आयोजित करना चाहते थे और इसके लिए तब के अध्यक्ष  (1924-37)धीर गंभीर बाबू श्याम सुंदर दास के पास अनुमति लेने गए। (याद रखें यह अध्यक्षीय हेकड़ी आज भी सर्वत्र बनी है जिस पर शीघ्र ही संपादकीय व् संस्मरण पढ़ने को मिलेगा!!-लेखक)! दास साहब ने कहा कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं है,बस रामचंद्र शुक्ल से पूछ लें।(ध्यानार्थ-आज भूमिका लेखक  रामचंद्र शुक्ल अपने नए लाठी यानि लाठावतार में हैं! चूँकि इस लाठावतार में   काशी के एक गोमुखी व्याघ्र की महत्वपूर्ण भूमिका है,इसलिए महाभारत के सन्दर्भ से  इन पर भी कुछ शीघ्र ही!!-लेखक)शुक्ल जी से जैसे ही बाजपेई जी मिले और कार्यक्रम की अध्यक्षता का अनुरोध किये,वे विफर पड़े।।कहा-यह असंभव है।निराला की कवितायेँ  मुझे नापसंद हैं।उनका कविता पाठ सुनने की बात तो दूर,मैं उसमें रह भी नहीं सकता।अब बाजपेई जी करते क्या।वे निराला को आमंत्रित कर चुके थे।निराश होकर बाजपेई जी हरिऔध जी के पास गए और फिर हरिऔध जी की अध्यक्षता में कविता पाठ आरम्भ हुआ।

निराला इलाहाबाद से बी एच यू आये और कविता पाठ शुरू करने के ठीक पहले बोले--"हिंदी के ज्यादेतर प्राध्यापक मूर्ख होते हैं"।सभा में सन्नाटा।यह सुनकर हरिऔध जी भी  तमतमाये हुए सभागार के बाहर निकल गए।अब बाजपेई जी क्या करते।उन्होंने निराला जी को बुलाया था।तब स्वयं उन्होंने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।और सञ्चालन भी।

कुपित निराला इलाहाबाद पहुंचे और एक कविता लिखी-"कालेज का बचुआ।


-विवेक निराला की स्मृति से


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