प्रायः मीरा और महादेवी जी की प्रेमभावना एवं विरह वेदना की तुलना की जाती है । प्रेम और विरह शाश्वत भावनाएँ होने का युगीन वैचारिकता से प्रभावित होती हैं । मीरा के समर्पण में जो आत्म विसर्जन है महादेवी में नहीं लगता। मीरा कहती है - जो पहरावै सोई पहरूँ….पराकाष्ठा है “बेचे तो बिक जाऊँ “ महादेवी जी का जयघोष - “ क्या अमरों का लोक मिलेगा, तेरी करुणा का उपहार , रहने दो देव ! अरे, मेरा मिटने का अधिकार ! परब्रह्म प्रिय, प्रेमिका जो आत्मसमर्पण मीरा में है वह महादेवी में नहीं हो सकता। आधुनिक नारी अपने व्यक्तित्व बोध के कारण “बेचे तो बिक जाऊँ “ -यह पराकाष्ठा संभव नहीं है।
मेरे पास “यामा”(सचित्र ) दीपशिखा ( सचित्र ) मेरी अमूल्य निधि के रूप संजोये हुए हैं ! आज कितना कुछ लिखती जा रही हूँ दिल नहीं भर रहा है । लगभग सभी कविताएँ कंठस्थ है । आप के सान्निध्य की स्मृतियों का चलचित्र मेरे आँखों के सामने चल रहा है । मैंने महादेवी जी से पूछा, इनमें बदलू कुम्हार की बनायी सरस्वती की मूर्ति कौन सी है। आप ने हँसते हुए एक सरस्वती की मूर्ति की तरफ़ इशारा किया । बदलू कुम्हार के संस्मरण की पंक्ति आज अनायास याद आ रही है । “ कला किसी की क्रीतदासी नहीं है ।"
यह लेख तत्कालीन समाज और साहित्य- समाज का ऐतिहासिक दस्तावेज है । ऐसे समय में महादेवी ने अपने सामाजिक कार्य में एवं विद्यापीठ चलाने में कितना संघर्ष किया होगा इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है । अकेली स्त्री के वर्चस्व को स्वीकार कर पाना पुरुष समुदाय को ही नहीं , स्त्री समाज को भी कठिन है । आज भी कठिन है तो आप के समय के लिए क्या कहें ? वैवाहिक जीवन अस्वीकार करने के महादेवी जी के व्यक्तिगत कारणों को जानने का कौतूहल ज़्यादा था। अतीत के चलचित्र में आप ने कहा था - इन स्मृति चित्रों के साथ मेरे जीवन का अंश भी आ गया। रंगों के प्रति उदासीनता और श्वेत वस्त्र धारण के संबंध में मारवाडिन भाभी की स्मृति को ताजा किया । महादेवी का व्यक्तित्व अपने समय के सामाजिक , राजनीतिक एवं साहित्यिक संघर्ष की अग्नि में तप्त कुंदन है । ………… डॉ० मणि की स्मृतियों से
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