‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कारयित्री व्यक्तित्व : गंगाप्रसाद 'विमल'

साहित्य  में कुछ ऐसे व्यक्तित्व  होते हैं जो अपने जीवनकाल  से अधिक  जीवनोपरान्त चर्चा का विषय बनते हैं। उनके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी खासियत  होती है जो जो उन्हें जीवन्त बनाए रखती है। गंगाप्रसाद 'विमल' उनमें -से एक रहे। विमल जी से मेरी पहली मुलाकात  अक्टूबर 1990 में प्रगति मैदान, नयी दिल्ली में हुई थी। साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था संधान के संस्थापक डॉ.जीवनप्रकाश जोशी द्वारा पद्मश्री यशपाल जैन की अध्यक्षता में एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। आयोजन  में बाबा नागार्जुन, पद्मश्री क्षेमचन्द 'सुमन' ,विष्णुप्रभाकर, कन्हैयालाल नन्दन, डॉ. मोतीलाल जोतवाणी, गंगाप्रसाद विमल,प्रमुख हस्ताक्षर की गरिमामयी उपस्थिति के अतिरिक्त डॉ. विजय, सुरेश यादव, नवीन खन्ना आदि के साथ मैं भी था। उन दिनों मैं एकयुवा जनवादी कवि के रूप में विशेष चर्चित था। मेरी "प्रजातन्त्र" कविता-कृति 1988 में प्रकाशित हो चर्चा के केंद्र  में थी। मैंने विमल जी को अपनी पुस्तक सादर भेंट की। उन्हों उलट-पलटकर देखा फिर बोले, 'मैं बाद में इस पर अपना मन्तव्य  भेजूंगा।'


यह सुयोग ही कहा जाएगा कि इतने महान साहित्यकारों के बीच पहली बार मुझे कार्यक्रम संचालन का दायित्व डॉ. जोशी ने सौंपा।  बेहिचक सभी के साभिवादन के साथ संचालन किया। वहीं पर विमल जी आवास का पता  लिया। उन दिनों वे कस्तूरबा गांधी रोड,सरकारी फ्लैट में रहते थे और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, आर, के पुरम् में निदेशक  थे। दिनोंदिन आत्मीयता और घनिष्ठता बढ़ती गयी। कभी कुछ समकालीन साहित्यिक चर्चाएं भी हो जाती थीं।

मैंने सातवें दशक के आखिरी दौर में कहानी आन्दोलन के सम्बन्ध में बात शुरू की तो उन्होंने समकालीन  कहानी के प्रस्तोता के नाते उस पर प्रकाश डालते हुए कहने लगे--"दरअसल अकहानी आन्दोलन 

परम्परित शिल्प  का विरोध तो करता है, साथ ही नये शिल्प के प्रति भी उदासीन है। मेरे भीतर महीप सिंह की तरह कोई आन्दोलन  खड़ा करने की मंशा थी नहीं न मैं महत्वाकांक्षा से ग्रसित था, न मठाधीश बनने की प्रवृत्ति ने ही मुझे आन्दोलन के लिए  खड़ा किया।मैं चाहता था कि इसे वापकता मिले। इसी नियत से मैंने  नयी कहानी से अलग साबित करने लिए  तर्क-जाव बुनना शुरू किया और काफी हद तक मुझे सफलता भी मिली। चूँकि 'समकालीन' आधुनिकता का बोधक है तथा एक विशिष्ट समय से सम्बद्ध है। लेकिन  इसकी उम्र की कोई सीमा नहीं है।'...बाद में इस आन्दोलन से दूना सिंह, राजकमल चौधरी, प्रयाग शुक्ल आदि कथाकार  भी जुड़ गए। इस में अपनी सफलता ही कहूंगा।'

'दरअसल समकालीन कहानी उस कहानी को कहते हैं जिसमें समसामयिक स्थितियों -परिस्थितियों

के परिप्रेक्ष्य में कथा का सृजन किया  जाता है। यह नयी कविता के पैटर्न 

 गठजोड़ नहीं, एक नये प्रकार  का विचार विनिमय था। रूढ़िवादी स्थिति का प्रतिकार था। शिल्पगत विविधता से कुछ  कहानीकारों का नाराज होना स्वाभाविक था। किन्तु विमल जी उसकी परवाह नहीं की और अपने सिद्धांत  पर अड़े रहे अंल समकालीनता शब्द बहुल रूप में प्रचलन में है। कई महत्वपूर्ण  कथाकारों ने अपनी भूमिका निभाई। उनका नाम गिनाना जरूरी नहीं। हां, उनकी कहानियां एक नया चिन्तन सौंपती हैं। खैर।'


विमल जी  मृदुभाषी थे और बड़े ही नपे-तुले शब्दों में बातचीत करते थे। उनमें आत्मीय प्रेम और सहृदयता का भाव स्वयं ही झलकता था। मैं जब भी उनसे मिलने उनका आवास या कार्यालय  में गया,उन्होंने बिना किसी औपचारिकता के तत्काल बातचीत की। मैंने अपनी आलोचनात्मक कृति "समकालीन कविता: विविध सन्दर्भ" की टाइप्ड पांडुलिपि दिखाई  और कुछ कवियों पर प्रसंगतः चर्चा की तो वे मन्द मुस्कान के साथ कहने लगे, आपने बड़ा गम्भीर  विवेचन किया है किन्तु जिन कुछ कवियों को छोड़ दिया है, वो माफ नहीं करेंगे।' उनकी बात सही साबित हुई। पुस्तक  प्रकाशित  होते ही की विरोधी बन गये। डा.नरेन्द्र मोहन, परमानन्द श्रीवास्तव, कुमार विमल और श्याम परमार जैसे प्रबुद्ध  कवियों की कविताओं पर मैंने निष्पक्ष रूप से जो विश्लेषण किया उससे उनका असहज होना स्वाभाविक था। जब मैंने ये बातें विमल जी से बतायी तो वे हंस पड़े।...


उन्होंने अपना उपन्यास "मानुषखोर" मुझे दिया। कुछ दिनों बाद जब उनसे भेंट हुई तो मैंने उसके कथ्य-शिल्प पर संक्षिप्त चर्चा की। उनकी कविताओं में समकालीन सामाजिक-राजनीतिक  विसंगतिपूर्ण स्थितियों का बड़ा बेबाक  चित्रण हुआ है। वे किसी कृति/रचना की चीड़फार बड़ी खूबी से करते थे। उनका आलोचक बड़ा सजग-सक्रिय था। उनका आलोचन-कर्म बड़ी गम्भीर प्रकृति का था। उसमें सिर्फ  रचना का गुण-वैशिष्ट्य होता था, न कि तथाकथित कुछ आलोचक की भांति व्यवहार -पक्ष। मैं उनके मिलनसार स्वभाव  से भलीभांति परिचित रहा।उनका निष्पक्ष-निष्कपट स्वभाव सभी के लिए उदारता का दृष्टान्त कहा जा सकता है। 


एकबार  केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय  में "हिन्दी के विकास में मुस्लिम  साहित्यकारों का योगदान " पर डॉ. नगेन्द्र की अध्यक्षता में चर्चा संगोष्ठी का आयोजन था। डॉ.नगेन्द्र के अलावा कई महान साहित्यकार पधारे थे। विमल जी चर्चा प्रवर्तन कर रहे थे।

डॉ.सुलेखचन्द्र शर्मा करीब आधा घंटा बोलने के बाद बोले, अब मैं मूल विषय पर आता हूं। तब विमल जी ने रोकते हुए कहा,अब आपका व्याख्यान हो चुका। शर्मा जी कुछ बोलना चाह रहे थे तब नगेन्द्र जी ने कहा-' बस।' आगे उन्होंने उन्हें कुछ भी बोलने नहीं दिया। चर्चा के उपरान्त सभी लोग चले गए। विमलजी ने अपनी कार  में मुझे बिठाया और बातें करते हुए धौला कुआं के बस स्टैंड पर ड्राप किया।

यह उनके विमल व्यक्तित्व  की विरलता- विराटता का प्रमाण कहा जा सकता है। उन्होंने ही तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरलाल शर्मा के मेरी कृति "युगांक" (महाकाव्य) के लोकार्पण का परामर्श  दिया और लोकार्पण के अवसर पर राष्ट्रपति भवन में साथ रहे।


  -डॉ.राहुल की स्मृति से


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आवारागर्दों के बीच प्रधानमंत्री

 हम तीन तिलंगे-- कमलेश मिश्रा, नरेंद्र भट्ट और राम प्रकाश त्रिपाठी, थे सिर्फ़ बीए पार्ट वन में ;पढने में कच्चे पर आवारगी में पक्के। राहुल सांकृत्यायन का मंत्र "अथतो  घुमक्कड़ जिज्ञासा" साथ लिये फिरते रहते। इसी जुनून के चलते1965की छुट्टियों में देश भर में भटकते बम्बई जा पहुंचे (कृपया संघी और शिवसैनिक बुरा न माने, तब बंबई मुंबई नहीं हुआ था!)! हम सब थे तो ठन ठन गोपाल, मैं ही रु.164-00 लेकर देश विजय पर निकला था। बाकी दो की भी कम ओ बेश यही कहानी थी! 

ठहरने के लिए धर्मशाला न मिले। कमलेश को आवारगी के अलावा क्रिकेट की भी संघातक बीमारी थी।मैरिन ड्राइव पर भटकते हुए उसकी नज़र सामने के स्टेडियम पर पडी। स्टेडियम खाली था। भाई ने किस हिकमत अमली से क्या पट्टी पढाई कि स्टेडियम का चौकदार पट गया। उसने रात में ठहरने के लिए मुफ्त में ड्रेसिंग रूम में जगह दे दी! 

वह पूर्णमासी की रात थी। खाने-पीने की जुगाड़ करके  सोने गये तो अरब सागर हाहाकार क्रंदन करते हुए चिंघाड़ने लगा। सागर का ऐसा तांडव कारी संगीत हम ग्वालियर वासी पहली बार सुन रहे थे। 

एक संघ से बाहर देखा तो मंज़र अभूतपूर्व था। सागर आकाश छूने को उतावला था। इस कोशिश में उठ गिर रहा था। हम तीनों ने पास से यह अजूबा दृश्य देखना तय किया! मगर स्टेडियम का चौकदार फाटक खोलने पर हज़ार मिन्नतों के बाद भी राजी न हुआ! गुस्सा तो इतना आया कि मारें साले को, पर उसकी मेहरबानी पर वहाँ टिके थे, सो मन मार कर रहना पडा। बहरहाल उसे गालियाँ देते और समुद्र का शोर सुनते कब सो गये पता तक नहीं चला! 

सुबह पांच बजे चौकदार ने मग्गों भरी चाय के साथ जगाया और कहा समुद्र में ज्वार ठंडा पड़ गया है बस उतरता हुआ भाटा है, अब कोई खतरा नहीं है।

--देखने में कैसा खतरा? मैने रात के गुस्से को दबाते हुए कहा। 

---आप सूखे इलाके के हो। समुद्र और उसके स्वभाव को जानते नहीं हो। किनारे पर पछाडें  खाता समुद्र कब कितनी दूर से पकड कर साथ ले जाय, कोई नहीं समझ सकता। इसलिए रोका था, चौकदार ने प्यार से समझाया। 

यों भी हमारे पास समझने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। बाहर आकर हमने उतरते ज्वार की जितनी भीषण लहरें देखीं वे भी आश्चर्य में डालने वाली थीं। लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य  हमारा इंतजार कर रहा था। आधी सडक पार करके हम सेण्टर वर्ज पर चढे ही थे कि मेरी नज़र कुछ दूर खड़े ट्रेफिक मैन पर पडी। मैंने उससे जाकर पूछा---भैये, इत्ती सुबह सुनसान सड़क पर क्या कर रहे हो? 

उसका संक्षिप्त जबाव था -- पंत प्रधान आने वाले हैं! मुझे मुंह फाडे देख कर नरेंद्र भट्ट ने समझाया--पंतप्रधान मराठी में प्रधानमंत्री कहते हैं।–


बात पूरी होते न होते सामने मोटर पर एक लाल झंडी वाला पायलट गुज़रा। पीछे एक सफेद एम्बेसडर कार और उसके पीछे एक पुलिसिया जीप। जिसमें एक बंदूकची और चार बैंक धारी जवान। कुल इतनी भर सुरक्षा प्रधानमंत्री की। आज तो पी एम की परछाईं को भी सौ शस्त्रधारी जवान लगते हैं। ख़ैर! 

हुआ यह कि हमारे साथी नरेंद्र ने पता नहीं किस बेखुदी में कार को हाथ दे दिया! कार रुक भी गयी। खुद प्रधानमंत्री ने शीशा नीचा करके पूछा --कहिये? 

अब हमारे होश फाख्ता! क्या कहें? किसी तरह आत्म नियंत्रण कर, मैंने कहा --सर, किसी प्रधानमंत्री को इतने पास से कभी देखा नहीं था इस उत्सुकता में गाड़ी को हाथ दे दिया। बारीक सी हंसी हंसे प्रधानमंत्रीप्रधानमंत्री श्री लबहादुर शास्त्री! बोले कोई बात नहीं! 

कहाँ से हो? क्या करते हो? क्या परेशानी है?... 

ऐसे सवाल प्रधानमंत्री पूछ रहे थे, हममें से जिससे बन रहा था अट-पट जबाव दे रहा था । सबके दिमाग सुन्न थे। सवाल होते तो पूछते!  शीतोष्ण सुबह में भी हम पसीने पसीन-! 

मुझे अचानक रेडियो पर होने वाले इंटरव्यू याद आये। एंकर  आखिर में मेहमान से पूछता था --युवापीढ़ी के लिए आपका क्या  संदेश है?.. मुझे इस वाक्य में मुक्ति की राह सूझी। मैने तुरंत कहा--सर हमारे लिए आपका क्या संदेश है? 

--संदेश नहीं, आदेश है, मानोगे? 

--जी अवश्य! 

--- तो मुझे वचन दो कि तुम कभी अपनी थाली में  एक कौर ,एक दाना भी नहीं छोडोगे! 

हम सब ने वचन दिया । आज तक निभा भी रहे हैं। 

बात मगर वचन निभाने की नहीं है। आज के दौर में, यह याद करने की है कि तब के प्रधानमंत्री के जन-सरोकार कितने बुनियादी थे। 

यह लिखते वक्त मेरी आंखें नम हैं और रो़गटे खड़े! 



-राम प्रकाश त्रिपाठी की स्मृति से


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कैसे मिले अज्ञेय ....

 बात उन दिनों की है जब मैं ‘इंडिया टुडे’ (हिंदी) में साहित्य, कला आदि देखता था। हमारे संपादक थे श्री प्रभु चावला।  उनके निर्देशानुसार मुझे ‘इंडिया टुडे’ के साहित्यिक विशेषांक के लिए कोई अच्छी सी योजना बनानी थी। मैंने अपने एक सहायक श्री चितरंजन खेतान के साथ यह योजना बनाई कि कुछ साहित्यकारों, प्रकाशकों और पाठकों से पूछना है कि उन्हें इस वर्ष कौन-सी पुस्तकें पढ़ी और क्यों? हमने तय किया कि यह प्रश्न किसी को बताया नहीं जायेगा, इसे तभी पूछा जायेगा जब हम साहित्यकार/प्रकाशक/पाठक से मिलेंगे।

मैंने और चितरंन ने यह प्रश्न पूछने के लिए जिनको चुना, उनमें अज्ञेय का नाम सर्वोपरि था। मैंने श्री अज्ञेय से फोन पर उनसे मिलने का समय लिया। जो समय उन्होंने दिया उस दिन वे किसी आवश्यक बैठक की वजह से मिल नहीं पाये और ऐसा तीन बार हुआ।

मुझे और चितरंजन को रोज ही किसी न किसी से इस हेतु मिलना होता था। एक दोपहर कहीं जाने से पहले मैंने संपादन विभाग के एक पत्रकार को कहा कि वे हमारे लौटने से पूर्व श्री अज्ञेय मेरे लिये समय ले लें और मैंने उन्हें अज्ञेय जी का व्यक्तिगत फोन नम्बर दे दिया।

जब मैं किसी प्रकाशक से मिलकर वापिस दफ़्तर में आया, इससे पहले कि मैं उन पत्रकार से अज्ञेय जी के विषय में पूछता, उन्होंने बहुत खीझे स्वर में कहा, ‘‘सर मैंने आपके दिये नम्बर पर अज्ञेय जी को कई बार फोन किया लेकिन वे नहीं मिले। हर बार जो व्यक्ति फोन उठाता था वह यही कहता कि अज्ञेय तो नहीं हैं, मैं वात्सयायन बोल रहा हूँ मुझसे अगर नवल जी मिलना चाहें तो स्वागत है। मैं हर बार अज्ञेय जी को पूछता और हर बार वही व्यक्ति कहता रहा कि, ‘‘अज्ञेय नहीं हैं मैं वात्सयायन हूँ मुझसे अगर  ‘इंडिया टुडे’ का काम बनता हो तो मैं हाज़िर हूँ, मैं भी एक साहित्यकार और पत्रकार हूँ।’’

मैंने बड़ी हैरत से अपने आवेश को दबाते हुए पूछा, ‘‘क्या तुम्हें मालूम नहीं कि वात्सयायन और अज्ञेय एक ही हैं?’’ इस पर वह बहुत लज्जित हुआ और माफी मांगने लगा। मैंने कहा, ‘‘माफी अज्ञेय जी से मांगिए, जिस पर उसका निवेदन था कि ‘‘मैं उनसे अब बात न हीं कर पाऊँगा। अब आप ही उनसे बात कीजिये।’’

मैंने अज्ञेय जी को तभी फोन किया और उनसे बहुत क्षमा मांगी। इस पर हँसते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आज मेरा भ्रम टूट गया कि मेरा पूरा नाम सभी हिंदी के साहित्यकार और पत्रकार जानते होंगे।’’

अज्ञेय जी की विनोद प्रियता का यह एक विशिष्ट उदाहरण था। आप जानना चाहते होंगे कि अज्ञेय या वात्सयायन से फिर मैं कब मिला?

अज्ञेय जी अपने पिता की स्मृति में एक व्याख्यान-माला आयोजित करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अमुक दिन चार बजे उनसे मिलने साहित्य अकादमी के सभा कक्ष में आ जाऊँ, कार्यक्रम पाँच बजे आरंभ होगा तब तक हमारी बातचीत हो जाएगी।

मैं चार बजे पहुँच गया लेकिन अज्ञेय जी के चाहने वाले उस समय भी व्याख्यान होने से पूर्व अज्ञेय जी को मिलने वहाँ पहुँच कर उन्हें घेरे हुए थे। मैं प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखता रहा और वे मुझे चाय पीने का संकेत करते रहे। कार्यक्रम से पहले चाय का आयोजन होता था, वे मुझसे मिल पाते उससे पहले बहुत से श्रोता चाय पान के लिए आते रहे।

मन मारकर मैं हाथ में चाय का प्याला लिए अज्ञेय जी को निहारता रहा। अचानक वे सबको छोड़कर मेरे पास आये और हाथ पकड़कर बाहर की ओर ले चले। चलते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘कितना समय लगेगा’’ मैंने उत्तर दिया ‘‘जी केवल एक सवाल पूछना है, लेकिन यहाँ बाहर भी लोग खड़े है आपको देखकर आपकी ओर आ रहे हैं’’, वे बोले, ‘‘लिफ्ट  में चलो।’’

मैं उनके साथ लिफ्ट में चला गया। उन्होंने कहा ‘‘पूछो अब कोई नहीं आएगा।’’ चलती लिफ्ट में मैंने सवाल पूछा। लिफ्ट ऊपर दूसरे फ्लोर तक पहुँची, सभा फर्स्ट फ्लोर पर थी, उससे ऊपर तक कम ही लोग आते-जाते थे। ऊपर पहुँचकर अज्ञेय जी ने लिफ्ट रुकने पर उसका दरवाज़ा खोल दिया। तब तक लिफ्ट रुकी रहती जब तक दरवाज़ा न बंद होता। अज्ञेय जी ने खड़ी लिफ्ट में मेरे प्रश्न का उत्तर दिया। अपनी उस वर्ष पढ़ी गई पुस्तकों का नाम बताया और उन पर उनकी तथा उनके रचनाकारों पर बात की और उसके बाद दरवाज़ा बंद करके नीचे जाने के लिए बटन दबा दिया।

लिफ्ट से निकलते ही अज्ञेय जी को मिलने और देखने आए हुए श्रोता उमड़ पड़े। अज्ञेय जी ने मेरी पीठ पर हाथ रख विदा लेने का संकेत किया .... भूलेंगे नहीं खड़ी लिफ्ट के वे पाँच-सात मिनट और भूलेंगी नहीं कभी वात्सयायन जी की अज्ञेयता ......

-डॉ. हरीश नवल की स्मृति से



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सोमवार, 4 दिसंबर 2023

सहज,सरल,आत्मीय दिनकर सोनवलकर

 मेरे पिता व हिंदी के प्रख्यात कवि स्व दिनकर सोनवलकर बहुत ही सहज,सरल,आत्मीय,फक्कड़,फिकर नॉट व्यक्तित्व के धनी थे।उनके कुछ संस्मरण व किस्से साझा कर रहा हूँ।

एक बार जावरा जिला रतलाम मध्यप्रदेश जहां के शासकीय कॉलेज में दिनकर सोनवलकर दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक थे,वहाँ के बसस्टैंड पर रात को कोई चलते  वाहन में से नींद में सोई एक छोटी 4 साल की बच्ची गिर गई व वाहन में बैठे लोग बेखबर जावरा से आगे निकल गए।पिताजी के दयालु व कोमल ,उदार स्वभाव के चलते कुछ परिचित उस बच्ची को घर ले आये।पिताजी बोले अब ये मेरी तीसरी बच्ची है।पहले से मैं व बड़ी बहन थे ही।मेरी मां व सब हतप्रभ क्योंकि तत्समय मैं 18 वर्ष का व पिताजी54 के थे।संयोग से दूसरे दिन सुबह उस बच्ची के परिजन खोजते हुए आये व उसे ले गए।

पिताजी की कविता है इतनी सी महत्व की आकांक्षा मेरी कि भले ही जीवन में अर्थ मिले या न मिले जीवन को अर्थ मिले उन पर सदैव चरितार्थ हुई ।

2,बिना पूर्व सूचना के अनेक अतिथियों को घर भोजन हेतु निमंत्रित कर लेते थे जबकि घर पर मां जिसे भोजन बनाना हो उसे पता ही नहीं रहता था व अतिथि आ जाते थे।एक बार महाकवि हरिवंश राय बच्चन को दमोह मध्यप्रदेश व कवि बालकवि बैरागी जी व 10 अन्य को अनेक बार जावरा घर पर पिताजी ने ऐसे ही बुलाया।

3 वे बड़े प्रोफेसर थे किंतु तांगे में बैठकर अभावग्रस्त कवि,गायक,कलाकारों की मदद के लिये चंदा एकत्रीकरण व महफिलें सजाने में उन्होंने कभी शर्म महसूस नहीं की।वे कथनी ,करनी  में अर्थात आचरण में भी एक जैसे थे।

4,अनेक पान,चाय की गुमटी वालों को पिताजी ने बड़ी राशि कई बार जरूरत पड़ने पर उधार दी व उनके वापस नहीं करने पर कभी स्मरण नहीं कराया।

वे कहते थे मशाल की तरह न जल सकते हो तो न सही,अगरबत्ती की तरह परिवेश को सुगन्धित तो कर ही सकते हो।

5 कभी भी मेरी या बहन की शिक्षा, विवाह,नौकरी की कोई चिंता नहीं की व उदार मन से हमेशा  मित्रवत सहयोग दिया।जीपीएफ खाते में भी उनका नाम दिनकर की जगह दिवाकर था संयोगवश एक परिचित ने वो त्रुटि ठीक कराई अन्यथा रिटायरमेंट पर राशि नहीं मिलती।

एक अदृश्य दैवीय शक्ति पर पिताजी को पूरा भरोसा था व उस शक्ति ने यथासमय उनके सारे दायित्व पूर्ण किये।बैंक बैलेंस उनका नगण्य था किंतु यश व नाम का बैलेंस भरपूर रहा।

6 कभी भी नौकरी में मेरे लिये कोई सिफारिश नहीं की जबकि तत्समय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष उनके शिष्य थे ।पिताजी बोले मेरा बेटा अपनी योग्यता व मेहनत से चयनित होगा व ऐसा हुआ भी।

अटल बिहारी वाजपेयी, उनकी कविताओं के प्रशंसक थे व संघ प्रमुख के सुदर्शन जी मित्रवत थे ।अनेक मंत्री,अफसर उनके शिष्य रहे लेकिन कभी पिताजी ने उन्हें भुनाया नहीं।

उन्हें जावरा जैसे कस्बे से इंदौर, उज्जैन, भोपाल, दिल्ली आने के कई आकर्षक प्रस्ताव थे।साहित्यकार प्रभाकर माचवे जी उन्हें चौथा संसार अखबार का सम्पादक बनाना चाहते थे किंतु पिताजी जावरा की आत्मीयता छोड़कर कहीं नहीं गए।

सम्भवतः इसीलिये उनके साहित्य,कृतित्व का यथोचित मूल्यांकन भी नही हुआ।

दिनकर सोनवलकर जी के 18 काव्य संग्रह,4 मराठी के हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित व कई पुरस्कृत हैं। हिंदी में व्यंग्य कविता के वे शुरुआती प्रमुख कवि हैं।धर्मवीर भारती उनके बड़े प्रशंसक थे।धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बरी, नईदुनिया नवनीत,दिनमान में दिनकर सोनवलकर सदैव छपे व चर्चित रहे।

जब बच्चन जी रतलाम घर आये तब दो पलंग,दो चटाई व एक टेबल कुर्सी ही घर में थी।

वे व्यक्तित्व से सरल व कद में छोटे पर आचरण में महान थे।

पूज्य पिताजी दिनकर सोनवलकर जी  की पंक्तियों से विराम लेता हूँ

बड़ी छोटी छोटी बातों पर 

घण्टों मुझसे नाराज़ बैठा 

रहता है मेरा बेटा

मुझे उसकी नाराज़गी से कोई एतराज नहीं किन्तु

मेरी ख्वाहिश है कि वो

जीवन में बड़े मुद्दों पर

नाराज़ होना सीखे

 भले ही उसके जीवन में

  पल पल पर युद्ध हो

   मगर उसकी आत्मा में

      बुद्ध हो।

 

- प्रतीक सोनवलकर की स्मृति से


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शनिवार, 2 दिसंबर 2023

देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद पर महाकवि निराला की संभवतः अप्रकाशित कविता...

[बंधु ! इस बार पटना से जो गट्ठर मेरे साथ आया है, उसकी पोटली नंबर-2 में एक बहुमूल्य पत्र निरालाजी की कविता के साथ मुझे मिला है । पत्र पिताजी को संबोधित है, जून 1942 का है । उन दिनों पिताजी 'आरती' नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन अपने स्वत्वाधिकार के 'आरती मन्दिर प्रेस, पटना से कर रहे थे । यह महत्वपूर्ण रचना भी निरालाजी ने पिताजी के पास प्रकाशन के लिए भेजी थी, मुझे मालूम नहीं कि यह पत्रिका में छपी या नहीं, क्योंकि जैसा पिताजी से सुना था, सन ४२ के विश्व-युद्ध के दौरान ही 'आरती' का प्रकाशन अवरुद्ध हो गया था । मुझे यह भी नहीं मालूम कि देशरत्न पर लिखी उनकी यह कविता कहीं, किसी और ग्रन्थ में संकलित हुई या नहीं....! अगर नहीं हुई, तो निःसंदेह यह अत्यंत महत्त्व का दस्तावेज़ है ।

मुझे आश्चर्य इस बात का है कि पिताजी जैसे असंग्रही व्यक्ति के पुराने गट्ठर में और खानाबदोशी की हालत में निरंतर घिसटते हुए यह पत्र आज भी 73 वर्षों बाद बचा कैसे रह गया...? संभवतः, मेरे सौभाग्य से ! मूल और टंकित प्रति के साथ आज इसे लोकार्पित कर धन्य हो रहा हूँ । --आनन्दवर्धन ओझा]
C/o Pandit Ramlalji garg,
karwi, Banda (U.P.)
15.6.'42.
प्रिय मुक्तजी,
क्षमा करें । मैं यथासमय आपको कुछ भेज नहीं सका । यह रचना देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसादजी पर है । भेज रहा हूँ । स्वीकृति भेजें । आप अच्छी तरह होंगे । मेरी 'आरती' इस पते पर भेजें--
श्रीरामकृष्ण मिशन लाइब्रेरी,
गूंगे नव्वाब का बाग़,
अमीनाबाद, लखनऊ ।
उत्तर ऊपर के पते पर । नमस्कार ।
आपका--
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
[पत्र के पृष्ठ-भाग पर कविता]
देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति...
उगे प्रथम अनुपम जीवन के
सुमन-सदृश पल्लव-कृश जन के ।
गंध-भार वन-हार ह्रदय के,
सार सुकृत बिहार के नय के ।
भारत के चिरव्रत कर्मी हे !
जन-गण-तन-मन-धन-धर्मी हे !
सृति से संस्कृति के पावनतम,
तरी मुक्ति की तरी मनोरम ।
तरणि वन्य अरणि के, तरुण के
अरुण, दिव्य कल्पतरु वरुण के ।
सम्बल दुर्बल के, दल के बल,
नति की प्रतिमा के नयनोत्पल ।
मरण के चरण चारण ! अविरत
जीवन से, मन से मैं हूँ नत ।।
--'निराला'


सौजन्य - मुक्ताकाश http://avojha.blogspot.com/2015/01/blog-post_18.html



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विजय वर्मा की स्मृति में

 


राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार "विजय वर्मा कथा सम्मान" जिनकी स्मृति में हर वर्ष दिया जाता है, ऐसे अपने भाई विजय वर्मा की जयंती पर उन्हें याद करते हुए........


लेखक ,चित्रकार ,छायाचित्रकार, पत्रकार, संपादक, अभिनेता और आवाज की दुनिया के जादूगर जिनकी आवाज रेडियो पर जिंगल्स में विज्ञापन में फिल्मों की डबिंग में लगातार गूंजती रहती थी।

जबलपुर से उन दिनों प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी उनकी कहानी "सफर "उनकी गहरी पीड़ा का बयान है ।वह आजन्म पत्रकारिता और मीडिया में संघर्षरत रहे खुद को भूल कर और अपने अंदर के रंगकर्मी और चित्रकार को खफा कर ।मानो उनके दिल का एक कोना दुखों के लिए था जिसमें किसी को प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी और दूसरा उनकी कला से जुड़ा जो सबका था, सबके लिए था ।

अगर इसमें किसी का प्रवेश था तो उनके परम मित्र दूधनाथ सिंह, मलय, ज्ञानरंजन, मदन बावरिया, ललित सुरजन, इंद्रमणि चोपड़ा,विजय चौहान और दिलीप राजपूत ।

जबलपुर में वे ज्यां पाल सात्र का नाटक मैन विदाउट शैडोज का मंचन करने वाले थे। जिसमें उन्हें सौरवियर का किरदार निभाना था। मानो एक यज्ञ संपन्न करना था और उस यज्ञ के लिए विजय भाई को तप करना था। रिहर्सल की कठिन शामें, रातें और मंचन का वह  ऐतिहासिक दिन ।शहीद स्मारक हॉल में सन्नाटा छाया था ।विजय भाई की थरथराती  आवाज -"मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है ।हमने जिंदगी को मायने देने की कोशिश की। नाकामयाब रहे इसीलिए हम मर रहे हैं।"

संवाद के संग संग चेहरे पर तैरती खौफ की परछाइयां और जब सौरवियर को मौत की सजा होती है, रॉबर्टसन कॉलेज की स्तब्ध छात्रा की सिसकी आज भी मुझे रोमांचित करती है। इस नाटक के बाद कई दिन लगे थे विजय भाई को संभलने में लेकिन उन्हीं दिनों उन्होंने डी एच लॉरेंस और टी एस इलियट की कविताओं का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया था। और जापानी काव्य शैली हाइकु लिख रहे थे ।उनके हाइकु गहरा सन्नाटा खींच देते थे ।उन्होंने क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम को संगठित ही नहीं किया बल्कि अपने कार्य क्षेत्र में स्थानीय भाषा द्वारा शिक्षार्थियों को भी तैयार किया ।उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए उपयुक्त भाषा परीक्षा के भी अनुभव थे।

वैसे विजय भाई ने अपने कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी ।वे नवभारत के जबलपुर शहर संवाददाता और बाद में समाचार संपादक हुए। अनुवादक और संचालक की भूमिका बखूबी निभाते हुए उन्होंने शहर विकास निगम में काम किया साथ ही भोपाल एवं नागपुर से प्रकाशित हितवाद के लिए न्यूज़ बुलेटिन भी तैयार किए ।फिर भी बेचैनी.....  जाने किस आसमान को छूने की चाह थी उनमें ।

मैं समूचा आकाश /इस भुजा पर ताबीज की तरह/ बांध लेना चाहता हूँ/   समूचा विश्व होना चाहता हूँ।

चाह बलवती थी। वे शोध सहायक के रूप में बीड़ी मजदूरों के जीवन सामाजिक-आर्थिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर एम ए के शोध प्रबंध पर अनुसंधान करते रहे। बाद के दिनों में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी अमेरिका के भी शोध सहायक (कोऑर्डिनेटर) के रूप में काम करते रहे। भारत में इस संस्था का नाम अमेरिकन पीस कोर था जिसके अंतर्गत वे सघन ग्रामीण क्षेत्रों में हिल टेक्नोलॉजी के द्वारा मौखिक प्रशिक्षण भी देते थे

बेहद गरीब पिछड़े गाँव से लौटे थे वे। बेहद उदास। बताने लगे किसी घुटन्ना नामक गाँव के बारे में ।गरीबी इतनी कि मिट्टी के घड़ों के छेद ,दरारें कपड़ों की थिगलियों से भरी जातीं क्योंकि उनके पास नए घड़े खरीदने के पैसे नहीं थे। विजय भाई ने 25 झोंपड़ों वाले उस गाँव में हर एक के घर नए घड़े भिजवाए। कृषि क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा सुन मैं कांप उठी थी ।उस रात मैंने डायरी में लिखा 

"कौन है इस दुर्दशा का जिम्मेदार!! आजाद भारत की यह कैसी परिभाषा!!"

आज सोचती हूँ कि एक व्यक्ति की छोटी सी जिंदगी के इतने आयाम भी हो सकते हैं?

वे अमेरिकन पीस कोर में कोऑर्डिनेटर भी थे।जिसकी अवधि समाप्त होते ही इमरजेंसी लग गई ।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।

चूँकि बाबूजी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन हम लोगों ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं।

लिहाजा विजय भाई पर चारों ओर से दबाव था। क्योंकि जबलपुर के उनके मित्रों का समूह उनके कोलकाता या मुंबई के फैसले से नाखुश था। अपने त्याग और प्रेम से उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे तमाम अव्यवस्थाओं से दुखी रहते थे ।अन्याय उन्हें बर्दाश्त न था ।संपादकीय विभाग में यदि मालिक ने किसी अन्य को प्रताड़ित किया है तो पहला त्यागपत्र उनका होता था। हर सहयोगी का दुख उनका अपना दुख था।

अपनी रचनात्मक बेचैनी सहित आखिर वे मुम्बई आ ही गए ।फिर कितना कुछ घटा। मुंबई में थिएटर से जुड़े ,आवाज़ की दुनिया से जुड़े ,रेडियो और दूरदर्शन से जुड़े। रेडियो में उन दिनों विनोद शर्मा थे। जिन्होंने उनसे रामायण के एपिसोड लिखवाए। मनोहर महाजन ने सेंटोजन की महफिल.......और अन्य रेडियो निदेशकों से जुड़कर उन्होंने प्रगति की कहानी यूनियन बैंक की जवानी ,

पत्थर बोल उठे ,एवरेडी के हम सफर, महाराष्ट्र राज्य लॉटरी का पहला पन्ना और भी जाने क्या-क्या ........टेली फिल्म "राजा " में मुख्य भूमिका की। अमीन सयानी के संग जिंगल लिखे ।इतना कुछ होने के बावजूद आर्थिक संकट ज्यों का  त्यों बना रहा। मुंबई के उनके 8 वर्षों का जीवनकाल संघर्ष करते ही बीता ।उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। 

आम आदमी से जुड़ना उनकी फितरत थी। एक रात मुंबई लैब में डबिंग करके जब वे अपनी जेब के चंद सिक्कों को टटोलते इरला ब्रिज से गुजर रहे थे फुटपाथ पर मैली कथडी में लिपटी एक बुढ़िया अपना कटोरा लिए काँपती बैठी थी। उन्होंने उस के कटोरे में अपनी जेब उलट दी और घर आकर खूब रोए । वे सही अर्थों में मार्क्सवादी विचारधारा के थे ।कभी-कभी मुझे लगता देशकाल के परे लेखक सब जगह एक जैसा होता है ।अगर ऐसा न होता तो विजय भाई को सोचते हुए मुझे चेक लेखक मिलान कुंडेरा क्यों याद आते जिन्होंने अपने शहर प्राहा में रहते हुए कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपता को लिखा।

प्यार उन्होंने डूबकर किया था और अपनी प्रेमिका को अपने हाथों दुल्हन बनाकर अमेरिका विदा किया था। कहते हैं प्रेम में आदमी पड़ता है। अंग्रेजी में फॉल इन लव ।तो क्या प्रेम एक ऐसी फिसलन भरी घाटी है जिसमें फिसलते चले जाओ और जिसका कोई अंत नहीं। विजय भाई ने भी प्रेम किया। अपनी प्रेमिका से, अम्मा- बाबूजी से ,मुझसे। मुझसे बहुत ज्यादा प्रेम किया उन्होंने ।मेरे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उन्हें बर्दाश्त न थी। वे मुझे फूल की तरह सहेज कर रखते। उन्होंने प्रेम किया अपने मित्रों से, अपने परिवेश से और अपने हालात से। जिससे उन्हें उम्र भर छुटकारा नहीं मिला ।

30 जनवरी 1984 की सुबह सूरज ने निकलने से मना कर दिया था। चिड़ियों ने चहचहाने से और फूलों ने खिलने से ....... एंटॉप हिल का चौथी मंजिल का विजय भाई का फ्लैट आगन्तुकों से खचाखच भरा था । 29 जनवरी की रात सेंटूर होटल से फ़िल्म की डबिंग करके वे लौट रहे थे ।उन्होंने टैक्सी में बैठ कर सभी भाई बहनों को पोस्टकार्ड लिखे कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में सब मुम्बई आएं ताकि जमकर मस्ती की जाए ,घूमा जाए। और उनकी इच्छा तत्काल फलित। लेकिन सबकी आँखों में आँसू और घर में मौत का सन्नाटा।

30 जनवरी की सुबह 5:45 बजे यह सितारा ऐसे टूटा की आँखें चोंधिया गईं।किसी को समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या ?डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही थी कि अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया।

विजय भाई का शव फूलों से सजाया जा रहा था ।उनके पथराए होठों पर मुस्कुराहट अंकित थी कि हम तो चले, आबाद रहो दुनिया वालों ।

मैं देख रही थी अपने बेहद हैंडसम भाई को उनकी अंतिम यात्रा में और भी खूबसूरत होते। मानो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारा गरल खुद में समाहित कर मृत्युंजय हो अनंत यात्रा पर निकला उनका काफिला...... जिसमें उनके रंगमंच की नायिकाएं हैं। माशा, उर्वशी, वसंतसेना, शकुंतला, एंटीगनी, जूलियट ,डेसडीमोना,सस्सी, लूसी। ऐसी विदाई जैसे इजिप्ट का कोई सम्राट हो।

विजय भाई के निधन से जबलपुर का सारा मित्र वर्ग स्तब्ध था। उनके चित्रकार दोस्त दिलीप राजपूत ने शहीद स्मारक भवन में उनके लिए रखी शोकसभा के दौरान वहीं स्टेज पर आधे घंटे में विजय भाई का चित्र बनाया था जो हाथों हाथ बिका और वह धनराशि विजय भाई पर आश्रित अम्मा को भेंट की गई। केसरवानी महाविद्यालय में जहाँ विजय भाई अंग्रेजी के लेक्चरर थे ,अवकाश रखा गया और मुंबई में सेंटोजन की महफिल का एक एपिसोड मनोहर महाजन ने श्रद्धांजलि स्वरुप रखा...अभी भी जब कभी यह एपिसोड सुनती हूँ जिसमें विजय भाई द्वारा अभिनीत छोटे-छोटे प्रहसन,उनकी हँसी और मनोहर महाजन की शोक संतप्त आवाज..... इस हंसी के इन प्रहसनों के नायक हम सब के लाडले विजय वर्मा अब नहीं रहे...... फिर सन्नाटा और धीमे-धीमे बजता गीत "दिन जो पखेरु होते पिजड़े में मैं रख लेता "तो जीवन की हताशा पर रो पड़ती हूँ ।

दूसरे दिन अखबारों ने प्रमुखता से खबर छापी। मौन हो गया छोटा मुक्तिबोध, तमाम संघर्षों के बीच अलविदा कह गया और एक सपना छोड़ गया हमारी दुनिया बदलने के लिए ।लगभग 2 महीने तक मुंबई की विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं, थिएटर विज्ञापन केंद्र और डबिंग लैब मैं उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं।

 जिसने न परिवार बसाया, न दुनियादारी के गुर सीखे ,पर सबका होने  का कमाल कर दिखाया ।


संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से




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डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का खत कुंअर बेचैन के नाम

डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का पत्र पिताश्री डॉ० कुँअर बेचैन जी के लिए अमिताभ बच्चन जी के लैटरहैड पर**

बात है 1975-76 की जब मैं पाँच वर्ष का रहा होऊँगा। एक दिन डाकिया रोज की तरह दरवाज़े की साँकल बजाकर घर में चिट्ठियाँ डालकर गया और दरवाज़े की साँकल की आवाज़ सुनकर हम बच्चे सीढ़ियों से उतरकर दरवाज़े की ओर दौड़े। तब हम ग़ाज़ियाबाद के पुराने शहर डासना गेट पर रहते थे जो घर पहली मंज़िल पर था। कुछ पत्रिकाओं, कुछ पोस्टकार्ड, कुछ अन्तर्देशीय पत्रों की भीड़ में एक बड़ा सफ़ेद लिफ़ाफ़ा था जिस पर प्रेषक के नाम में लाल रंग से अमिताभ बच्चन लिखा था।

पापाजी सम्मेलन में बाहर गए हुए थे तो यथावत सारे पत्र मम्मी के हाथ में देते हुए हमने कहा कि ये पत्र पहले खोलकर पढ़ें ये अमिताभ बच्चन ने भेजा है पापाजी को। मम्मी ने भी उत्सुकता से पत्र खोला तो पहली पंक्ति में लिखा था,


प्रिय कुँअर,

मेरे लैटरहैड ख़त्म हो गए थे इसलिए ये पत्र मैं अमिताभ के लैटरहैड पर लिख रहा हूँ। 

तब तक मम्मी समझ चुकी थीं कि ये पत्र अमिताभ जी ने नहीं बल्कि डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी का था जिसमें उन्होंने पापाजी के नवगीत संग्रह “पिन बहुत सारे” की बहुत प्रशंसा की थी और पापाजी के साथ साझा की मंच की कुछ स्मृतियों का भी उल्लेख किया था। उन्होंने एक संरक्षक की की तरह पापाजी को पुत्रवत रूप में ढेरों आशीर्वाद दिए हुए थे। 

पापाजी उस समय कोलकाता कविसम्मेलन में गए हुए थे और दो दिन बाद घर लौटे। जब मम्मी ने उनको सारे पत्र दिए तो पाया कि वो एक पत्र ग़ायब है। हम बच्चों से प्रश्न किया गया तो पाया कि वो तो सामने वाली ताऊजी के पास है। कारण था हम बच्चे उस पत्र को लेकर पूरे मोहल्ले में घूम रहे थे और मोहल्ले के हर घर में ये चर्चा थी कि डॉक्टर साहब के घर अमिताभ बच्चन का पत्र आया है। सारी मुँहबोली चाचीजी, ताईजी, बुआजी या दादीजी सबको मालूम था ये बात।

पापाजी ने कहा कि “जाओ लेकर आओ ताईजी के घर से वो पत्र।” जब हम लाए और पापाजी ने अपने फोल्डर में उस पत्र को सँभालकर रख लिया जहाँ वो सभी ज़रूरी प्रपत्र रखा करते थे। बाद में उन्होंने उस पत्र का उत्तर भी लिखा। 


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बाद में घर बदलने के समय पत्र इधर-उधर हो गए और नए घर में आने के बाद हम ये तलाशते ही रह गए कि वो पत्र कहाँ सँभालकर रख गया जो मोहल्ले और रिश्तेदारों में एक चर्चित प्रसंग रहा था। आज भी अफ़सोस है कि काश तब भी मोबाइल का ज़माना होता तो तुरंत पत्र का फ़ोटो खींचकर अपने पास रख लिया होता। 

इसके कई वर्षों बाद डॉ० हरिवंश राय बच्चन जी की स्मृति में एक कार्यक्रम में पापाजी भी आमंत्रित थे और जब वो लौटे उसके कुछ दिनों बाद पापाजी के लिए अमिताभ बच्चन जी का ही लिखा पत्र धन्यवाद रूप में आया। इस बार मैंने बिना देरी किए मोबाइल से पत्र की तस्वीर ली और अपने पास सुरक्षित रख लिया। तलाश है अभी भी उस पुराने पत्र की जो कहीं सँभालकर बहुत सुरक्षित रखा गया था।


-प्रगीत कुँअर की स्मृति से

(सिडनी, ऑस्ट्रेलिया)


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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

जब मुख्यमंत्री स्वयं शिवानी जी के घर पहुँचे


 उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) राज्य के गठन के बाद यहां के जागरूक साहित्यकारों, विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने सपना देखा कि साहित्य- संगीत-कला के विकास के लिए प्रतिबद्ध अन्य राज्यों की तरह यहाँ भी उत्तरांचल साहित्य अकादमी गठित की जाए। डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी एवं श्री चमन लाल प्रद्योत ने अपने इस अनुज से आग्रह किया कि अकादमी के गठन के लिए एक ज्ञापन तैयार करें, जिसे उपयुक्त समय पर मुख्यमंत्री को समर्पित किया जाएगा। मैंने तदनुसार एक ज्ञापन का प्रारूप तैयार किया, जिसमें राष्ट्रभाषा हिंदी सहित उत्तरांचल की सभी बोलियों और उनके साहित्य के विकास, साहित्यकारों के संरक्षण, पुस्तकों के प्रशासन में राजकीय सहायता आदि के लिए राज्य में उत्तरांचल साहित्य अकादमी की स्थापना की मांग की गई थी। जिन्हें भी दिखाया गया, सबने उसका समर्थन किया और देखते ही देखते हस्ताक्षर अभियान शुरू हो गया। इसमें डॉ. बुद्धि बल्लभ थपलियाल, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. राज नारायण राय, डॉ. सुधारानी पांडे आदि तमाम साहित्यकारों ने सोत्साह भाग लिया। तय हुआ कि उत्तरांचल के अधिक से अधिक साहित्यकारों के हस्ताक्षर इस ज्ञापन पर कराए जाएं।

इसी बीच 1-2 जून, 2001 को देहरादून में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग का अधिवेशन हुआ, जिसमें भाग लेने के लिए देश के कोने-कोने से साहित्यकार और हिंदीप्रेमी पधारे। उस अवसर का लाभ उठाते हुए देश भर के साहित्यकारों के समक्ष इस मुद्दे को रखा गया और सब ने मुक्तकंठ से इस अभियान का समर्थन किया। इस प्रकार देश के 17 राज्यों से आए लगभग 250 साहित्यकारों के बहुमूल्य हस्ताक्षरों से वह ज्ञापन समृद्ध हो गया।

अब प्रश्न था मुख्यमंत्री जी से समय लेकर साहित्यकारों की टोली द्वारा उस ज्ञापन को सौंपने का जब कार्य का संकल्प स्वच्छ मन से किया जाता है तो परिस्थितियाँ स्वयं अनुकूल हो जाती हैं।

जुलाई के प्रथम सप्ताह में एक दिन अचानक देश की मूर्धन्य लेखिका और कुमाऊ की गौरवशालिनी पुत्री आदरणीया गौरा पंत शिवानी जी ने मुझे फोन किया- 'बुद्धिनाथ, मैं एक सप्ताह से तुम्हारे घर के पास ही इंदिरा नगर में अपनी बेटी उमा के पास रह रही हूँ। स्वास्थ्य खराब होने के कारण मैंने समारोहों में जाना बिलकुल बंद कर दिया है। इसलिए केवल तुम्हें  फोन कर रही हूँ कभी समय निकालकर मुझसे मिल लो।'

मैंने मान लिया कि साहित्य अकादमी के लिए अगला कदम उठाने का समय आ गया है। तय हुआ कि वह ज्ञापन शिवानी जी के हाथों ही मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को सौपा जाए। डॉ. त्रिवेदी ने स्वामी जी को फोन कर साहित्य अकादमी की आवश्यकता के बारे में बताया और उक्त ज्ञापन आदरणीया शिवानी जी के नेतृत्व में उन्हें सौंपने के लिए समय मांगा। शिवानी जी का नाम सुनकर स्वामी जी अभिभूत हो उठे। उन्होंने छूटते ही कहा कि 'शिवानी जी मेरे लिए आदरणीय हैं। वे पूरे देश की गौरव हैं, जबकि मैं एक प्रदेश का मामूली मुख्यमंत्री इसलिए वे मेरे यहां आएँ, इसके बजाय मैं ही उनके पास जाकर उनका अभिनंदन करना चाहूंगा।'

स्वामी जी का यह उद्गार सुनकर हमलोग चकित रह गए। हमें लगा कि यह व्यक्ति देश का शीर्षस्थ नेता तो है ही, अच्छे संस्कारों और सात्विक विचारों वाला महापुरुष भी है। इनका विराट व्यक्तित्व इनकी कुर्सी से बहुत ऊंचा है।

मैंने शिवानी जी को स्वामी जी की इच्छा के बारे में बतलाया तो वे भी अवाक रह गई मैंने उनसे स्वामी जी से मिलने के लिए समय मांगा। उनकी सुविधा के अनुसार रविवार 15 जुलाई 2001 को 11:00 का समय निर्धारित हुआ। तदनुसार स्वामी जी को अवगत कराया गया।

उस दिन स्वामी जी का 10:00 बजे से ही व्यस्त कार्यक्रम था मगर उन्होंने उसमें फेरबदल कर 11:00 बजे शिवानी जी से मिलने का कार्यक्रम बनाया। चूँकि ज्ञापन शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री को देना था, इसलिए बड़ी संख्या में साहित्यकारों को ले जाना संभव नहीं था। तय हुआ कि डॉ. त्रिवेदी, श्री प्रद्योत और डॉ. मिश्र ही प्रतीक रूप में वहां उपस्थित रहें।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 15 जुलाई की सुबह 10:30 बजे हम दोनों भाई (मैं और डॉ. त्रिवेदी जी) मुख्यमंत्री निवास पर पहुंचे और प्रद्योतजी सीधे शिवानी जी के आवास पर मुख्यमंत्री निवास पर मिलने वालों की भारी भीड़ को देखते हुए मुझे लगा कि 12 बजे से पहले वहां से चलना नहीं हो पाएगा। मगर ठीक 11 बजे मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी जी घर से निकल पड़े और उनके साथ हमलोग 10 मिनट में इंदिरा नगर पहुँच गए। स्वामी जी का विशेष निर्देश था कि सुरक्षा और प्रोटोकॉल के नाम पर ज्यादा लाव लश्कर उनके साथ न हो, क्योंकि एक साहित्यकार से मिलने जाना है।

मामूली सुरक्षा व्यवस्था के साथ वे अपने युग की महान साहित्यकार के घर गए थे, लेकिन उनके जाने से पहले ही आकाशवाणी और दूरदर्शन के स्थानीय प्रतिनिधि इस ऐतिहासिक घटना को रिकॉर्ड करने के लिए पहुंच चुके थे।

वहाँ स्वामी जी ने शिवानी जी के पांव छूकर प्रणाम किया और उन्हें शाल ओढ़ाकर तथा स्मृति चिह्न के रूप में रुद्राक्ष की माला और गंगाजली भेंट कर उनका अभिनंदन किया। उन्होंने कहा कि शिवानी के उपन्यासों को मैं शुरू से पढ़ता रहा हूँ। उत्तरांचल के जनजीवन को जिस उदात्त शैली और सुसंस्कृत भाषा में इन्होंने हिंदी जगत के समक्ष रखा, वह हम सभी के लिए गौरव की बात है। मैं तो नई पीढ़ी के लेखकों से आग्रह करूँगा कि वे शिवानी जी के उपन्यासों को पढ़कर भाषा और शैली सीखें।

शिवानी जी अपने इस राजसी सत्कार से गर्वित थीं। उपयुक्त अवसर देखकर मैंने उत्तरांचल साहित्य अकादमी की चर्चा शुरू की और हस्ताक्षरकर्ता साहित्यकारों की सूची में सबसे ऊपर शिवानी जी से हस्ताक्षर कराकर उन्हीं के हाथों उक्त ज्ञापन मुख्यमंत्री को दिलवा दिया।

इस अवसर पर शिवानी जी ने कहा कि अकादमी का गठन पुरस्कार देने के लिए नहीं हो। पुरस्कार की राजनीति ने साहित्य का बड़ा नुकसान किया है और भाषा व साहित्य की अकादमियों का वातावरण प्रदूषित कर दिया है। इसलिए मैं चाहती हूं कि उत्तरांचल साहित्य अकादमी साहित्य सृजन और साहित्यकारों के संरक्षण व विकास पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करे। वहाँ उपस्थित आकाशवाणी के समाचार संपादक श्री राघवेश पांडेय ने स्वामी जी से पूछा कि क्या हम मान लें कि यह प्रस्ताव आपको स्वीकार है? मुख्यमंत्री ने तत्काल कहा- शिवानी जी का यह आदेश मुझे स्वीकार क्या, शिरोधार्य है।

देश के एक महान साहित्यकार और महान राजनेता के बीच आत्मीय मिलन की और सत्ता द्वारा साहित्य के प्रति राजसी सम्मान की यह घटना ऐसी नहीं थी जिसे इतिहास याद रख सके, मगर नवोदित उत्तरांचल राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री द्वारा एक वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति दिखाया गया विनम्र शिष्टाचार इस राज्य का ऐसा छंदोमय अध्याय है, जिस पर आने वाली पीढ़ियां गर्व करेंगी।


 - डॉ० बुद्धिनाथ मिश्र की स्मृति से


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