‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



प्रेम जनमेजय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रेम जनमेजय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 8 अप्रैल 2023

डॉ० नगेंद्र - रवि हुआ अस्त

 


डॉ० नगेंद्र को आज याद करना, पूर्णतः श्वेत हो चुके केशों के साथ श्याम केश युग में विचरण करने सा है। यह ऐसा है जैसे कोई शांत स्थिर तालाब में कंकड़ी-सा गिर जाए और उसमें पड़ते गोलाकार स्मृति व्यूह के साथ अतीत तल की गहराई तक पहुंच जाएं आप ही सोचें कहां आभासित दुनिया के संग मोबाईल होने को विवश करता 2019 के सजे-धजे बाजार का वातानुकूलित भीड़तंत्र और कहां 1969 की गलियों मोहल्लों में धेला पैसा इक्कनी, दुक्कनी आदि वाली मिट्टी में लोटी-पोटी, छाबछी वाले से झुंगा मांगती दिल्ली। लालटेन से कंप्यूटर युग तक आए. मुझ जैसा जीव जब अतीत में झांकता है तो आह! ग्राम्य जीवन भी क्या था की तर्ज पर गाता है।

डॉ० नगेंद्र मेरी स्मृतियों में अनेक रूपों में जीवित है हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा - साहित्य के अप्रतिम विद्वान, दबंग प्रशासक दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग को अपने परिवार की तरह विकसित करते मुखिया हिंदी आलोचना को नया मुहावरा देता प्रखर आलोचक आदि न जाने और क्या - क्या ! इस और क्या में विरोध के अनेक झंझावत झेलता, अपनों से हारकर अंततः पराजित योद्धा - सा अकेलेपन को भोगता महारथी भी है। पद पर बैठा जब लाल बुझक्कड़ देवता समान पूजा जा सकता है तो पद पर बैठा विद्वान तो स्वतः पूजनीय हो जाता है। पद पर बैठा व्यक्ति तो शहद का छत्ता होता जिसके हर कोण से मधु ग्रहण करने को ज्ञानीजन पदासीन का इतना मधुमय महिमामंडन करते हैं कि अंततः उसे मधुमेह हो जाता है और और वह अशक्त हो जाता है। आप तो जानते हैं कि आज के युग में ही नहीं अनंत काल से आवश्यक्तानुसार अपने देवता गढ़ने और उनकी पूजा अर्चना द्वारा अपना मनोवंछित पाने की अटूट पंरपरा है जीव आवश्यक्तानुसार देवियों देवों देवों के देवों आदि का शरणागत होता रहा है। धन की आवश्यक्ता हुई तो लक्ष्मी मैया के चरण गह लिए, संकट आया तो संकटमोचन हनुमान के नाम पर मंगलवार को प्रसाद बांटने लगे देवी और देवता के नाम में ही दे वर्ण है अतः वर्णानुसार वे भक्त को देते रहते हैं। पद पर बैठा आदमी भी देवी या देवता होता है।

पदासीन डॉ० नगेंद्र भी अनेक के लिए देवादिदेव रहे हैं मेरे लिए एक गुरु रहे जिनसे मैंने कामायनी राम की शक्ति पूजा, अरस्तू का काव्यशास्त्र, उर्वशी जैसी कालजयी रचनाओं के गर्म और साहित्यिक सौंदर्य को जाना। उनके गुणवत्तापूर्ण अध्यापकीय पक्ष के चाहे समर्थक हों. विरोधी हों या 'गुटपिरपेक्ष आदि अनादि सभी प्रशंसक रहे हैं जिन्होंने उनसे पढ़ा वे तो प्रशंसक हैं हीं पर जो नहीं पढ़ पाए वे विवशता में अपने हाथ मलते हुए प्रशंसा करते हैं। डॉ० नगेंद्र से पढ़ने के सुख का वर्णन गूंगे के गुड़ जैसा है। मुझे आज भी 1970-71 के वे दिन याद हैं जब हम ढाई बजे होने वाली डॉ० नगेंद्र की क्लास की कमरा नंबर 65 में या 18 में प्रतीक्षा करते थे। कक्षा का समय 3.20 तक का था और हमारी यूनिवर्सिटी स्पेशल बस 330 पर जाती थी। 90 प्रतिशत की यू स्पेशल छूटती ही थी पढ़ाते समय न तो डॉ० नगेंद्र को समय का ध्यान रहता था और न ही पढ़ने वाले को समय पर कक्षा छूट जाए तो यू स्पेशल मिल जाती और में 20 किलोमीटर दूर अपने निवास रामकृष्ण पुरम् साढ़े चार बजे के लगभग पहुंच जाता अन्यथा उस समय की गरीब परिवहन व्यवस्था की कृपा से शाम के सात तो बज ही जाते । पर कोई शिकायत नहीं।

दिल्ली विश्वविद्यालय ने न केवल मुझे आजीविका दी अपितु रचनात्मक साहित्य का विस्तृत आकाश भी दिया। इस विश्वविद्यालय ने मुझे एक ऐसा परिवार दिया जिसमें निरंतर वृद्धि हुई। मेरा जन्म 1949 में इलाहबाद में हुआ था और उस समय साहित्य की राजनीति और राजनीति की राजनीति की कर्मभूमि इलाहबाद ही थी। इलाहबाद में पैदा होने और निराला की गली से गुजरने के बावजूद साहित्य का कीड़ा मेरे बचपन को प्रभावित नहीं कर पाया। पिताजी का जब दिल्ली तबादला हुआ तो मैं मात्र नी वर्ष का था।

इसके बाद की मेरी शिक्षा-दीक्षा की उत्तरदायी दिल्ली है। निचले स्तर की स्कूली शिक्षा से लेकर 'उच्च स्तर की शिक्षा मैंने दिल्ली के आंगन में खेलते-कूदते ग्रहण की है।

मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और मैंने बी ए में मैथ्स आनर्स लिया था पर एक कहानी ने मुझे 1966 में हिंदी आनर्स का छात्र बना दिया और मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हस्तिनापुर कालेज से हिंदी आनर्स करने लगा। मैं आभारी हूं इस कॉलेज का कि इसने मुझे शून्य से ज्ञान की बूंद बनाने में भूमिका निभाई। इसी कॉलेज में पढ़ी नीव के कारण मैने दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज में 40 वर्ष पढ़ाया, चार वर्ष यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंडीज में अतिथि आचार्य के रूप में पढ़ाया। एक व्यंग्य लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाई लेखन के लिए अनेक सम्मानों से सम्मानित एवं पुरस्कृत हुआ। इसी कालेज ने मुझे नरेंद्र कोहली और कैलाश वाजपेयी जैसे गुरु दिए। सतगुरु मिल जाए तो शिष्य का जीवन सुधर जाता है, उसे सही मार्ग मिल जाता है अन्यथा सत शिष्यों के कंधे पर चढ़े गुरु से गोविंद बने अपना जीवन सुधारते हैं और उन्हें विलासिता का सच्चा मार्ग मिल जाता है। नरेंद्र कोहली मेरे लिए सतगुरु हैं जो न तो स्वयं अंधत्व धरण करते हैं और न ही शिष्य को अंधत्व धारण करने की राह में धकेलते हैं। लेखन उनके जीवन की प्राथमिकता है जिसके लिए वे किसी भी प्रकार का मोह त्याग सकते हैं। इस प्राथमिकता के चलते ही उन्होंने सन् 2008 में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय की लगी लगाई एसोसिएट प्रोफेसर की सुविधाजनक नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। डॉ० नगेंद्र ने उनकी पत्नी मधुरीमा कोहली से सकोध कहा- नरेन्द्र का दिमाग खराब हो गया है। पढ़ाते हुए भी लेखन किया जा सकता है। मैंने किया है उसे कहो, त्यागपत्र वापिस ले।" पर इस अर्थ में नरेन्द्र कोहली जिद्दी है। लेखन के बिन अन्य सब कुछ सून है। लेखन उनके लिए तपस्या और साधना है और वे सहन नहीं कर सकते कि इसमें कोई राक्षस वृत्ति बाधा पहुंचाए।

आरंभ में मैंनें प्रेम प्रकाश निर्मल प्रेम प्रकाश शैल तथा परीक्षित कुंद्रा के नाम से कहानियां और कविताएं लिखीं । उन दिनों कैलाश वाजपेयी के प्रभाव में मैंनें आधुनिक कविताएं लिखीं तो पाठयक्रम में जयशंकर प्रसाद की लहर ने मेरे रोमानी होते युवा मन को छायावाद दिया। इस कारण छायावदी प्रभाव की कविताएं भी लिखीं। पर धीरे-धीरे नरेन्द्र कोहली के प्रभाव में कविताएं छोड़ भी दीं। इन गुरुओं की साहित्यिक अभिरुचि एवं प्रभाव के कारण ही हमारे कालेज में उस समय के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार आए। डॉ० नरेन्द्र कोहली के प्रयासों से हरिवंश राय बच्चन हमारे कॉलेज में आए थे। इस अवसर पर उन्होंने अपनी रचनाएं बड़े मन से सुनाई फूलमाला ले लो लाई है मालन बड़ी दूर से गीत हो या फिर उस समय चर्चित मधुशाला के सस्वर पाठ ने सभी को उनका दीवाना-सा कर दिया। कविता प्रतियोगिता में प्रथम आने का पुरस्कार मैंने बच्चन जी से ग्रहण किया। यह डॉ० नरेन्द्र कोहली का ही प्रभाव था कि कॉलेज के वार्षिकोत्सव पर कोई राजनेता मुख्य अतिथि के रूप में नहीं बुलाया गया, अपितु रामाधरी सिंह दिनकर को इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित किया गया। 'दिनकर' ने अपनी कुछ कविताएं एवं गीत सुनाए। उस समय हमारे पाठ्यक्रम में कुरुक्षेत्र था, छात्रों को आग्रह पर उन्होंने इस खंडकाव्य के कुछ अंश सुनाए तथा परशुराम की प्रतीक्षा के भी कुछ अंश ।

सन् 1965 से सन् 1975 के समय को यदि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का स्वर्णिम समय कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी । इसे डॉ० नगेंद्र का पराभव काल भी कहूं ता भी अत्युक्ति न होगी। उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग तथा उससे संबंद्ध विभिन्न महाविद्यालयों के हिंदी विभाग में डॉ नगेंद्र विजयेंद्र स्नातक निर्मला जैन सावित्री सिन्हा मन्नु भंडारी, रामदरश मिश्र, नित्यानंद तिवारी, इंद्रनाथ चौधुरी अजित कुमार महीप सिंह नरेंद्र मोहन, नरेंद्र कोहली इंदु जैन सुरेश सिन्हा कैलाश वाजपेयी विश्वनाथ त्रिपाठी गंगा प्रसाद विमल डॉ० हरदयाल, विनय, स्नेहमयी चौधरी पुष्पा राही, विनय आदि जैसे साहित्यिक व्यक्तित्व थे। उस समय हिंदी विभाग की धरती बहुत उर्वर थी । उर्वर अब भी है पर कुछ और वस्तुओं के लिए उस समय हिंदी विभाग में युवा रचनाकारों की एक बड़ी साहित्यिक सेना थी। उन दिनों ही दिविक समीकरण जैसे सहयोगी संकलन निकले थे। यही नही तत्कालीन विभागाध्यक्षा सावित्री सिन्हा के प्रधान संपादकत्व एवं डॉ रामदरश मिश्र, सुरेश ऋतुपर्ण, रमेश शर्मा, मधु जैन के संपादक मंडल ने 1971 मुट्ठियों में बंद आकार निकला था। इसमें मेरी भी कहानी थी – डरपोक।

उस समय हिंदी आलोचना में दो ध्रुव थे डॉ० नगेंद्र और डॉ० नामवर सिंह कहा जाता है कि डॉ० नामवर सिंह को डॉ० नगेंद्र ने यथाशक्ति दिल्ली विश्वविद्यालय में घुसने न दिया पर धीरे-धीरे दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके अनेक प्रशसंक पैठ बना रहे थे। इसी कारण 1969 के आसपास डॉ० नगेंद्र के खिलाफ अनेक क्रांतिकारियों ने आंदोलन आरंभ किया परिणाम सुखद निकला, डॉ० नगेंद्र विभागाध्यक्ष से पद से मुक्त हुए परिणाम इतना सुखद निकला कि अनेक कातिकारियों को नौकरियां मिल गई।

इधर डॉ० निर्मला जैन की एक बहुत महत्वपूर्ण किताब आई है दिल्ली शहर दर शहर इस कृति में उन्होंने देश की राजधानी दिल्ली के अनेक चेहरों को साक्षात किया है। इस कृति में उन्होंने अपने समय के हिंदी विभाग के अनेक चेहरों को भी प्रत्यक्ष किया है। डॉ नगेंद्र को उन्होंने बहुत समीप से देखा और परखा है। हमारे समय में वे हम जैसे युवाओं की चहेती प्रध्यापिका थीं वे विश्वविद्यालय में अपनी जमीन तैयार करने को प्रयत्नशील हर युवा साहित्यकार की साथी थीं। उन्होंने डॉ० नगेंद्र के व्यक्तित्व का सटीक चित्रण किया है। निश्चित ही जितना डॉ० नगेंद्र को उनके सहयोगी जानते थे उतना जानने की हमारी औकात ही कहां है उनकी संगति से तो हम परिचित हो सकते थे पर उनकी विसंगति की परख तो डॉ० निर्मला जैन जैसा नजदीकी जानकार ही कर सकता है। वे लिखती हैं, डॉ. नगेन्द्र के व्यक्तित्व में जो गरिमामय आतंक दिखाई पड़ता था. वह उन्होंने बड़े जतन से अर्जित करके ओढ़ लिया था। धीरे-धीरे ये उसी को अपना स्वभाव मानने लगे। भीतर से वे शायद उतने मजबूत और सुरक्षित नहीं थे। यह बात उनके निकट के लोगों को वर्षों बाद समझ में आई। वे स्वयं अपने व्यक्तित्व की व्याख्या नारियल की उपमा देकर किया करते थे पर दिक्कत यह थी कि ऊपर का कवच टूटने न पाए. इसके बारे में वे बड़ी सावधानी बरतते रहे। रूप-रंग और सलीकेदार वेशभूषा से वे सामनेवाले को जितना सम्मोहित करते थे स्वभाव की कठोरता और रौबीली औपचारिकता से उतना ही दूर फेंकते थे। जिस दिन वे कक्षा लेते हुए हँस देते थे. विद्यार्थियों के लिए वह दुर्लभ अनुभव का क्षण होता था। उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शक्ति कर्तृर्तव्य निष्ठा और कर्मठता थी और सीमा हठाग्रह और लचीलेपन का लगभग अभाव। जीवन हो या साहित्य, औरों के लिए गुंजाइश देने या अपनी गलती को स्वीकार करने में उन्हें अपनी हेठी लगती थी किसी प्रसंग में अगर वह मन ही मन दूसरे को सही मान भी लेते थे, तो घुमा-फिराकर बात को ऐसा मोड़ देते थे कि अन्ततः पक्ष उनका ही सही उनकी इस बनावट में उनकी सामन्ती विरासत और आर्यसमाजी संस्कारों का मिला-जुला योगदान था। विचित्र बात यह थी कि सत्ता के गलियारों में उनकी विनम्रता देखते बनती थी पर उनमें सत्य निष्ठा और औचित्य-बोध कम नहीं था. जिसके बल पर उन्होंने एक बार भारत के राष्ट्रपति की सिफारिश को बड़ी विनम्रता से ठुकरा दिया था। उनके साहस के ऐसे अनेक उदाहरण है।"

एम. ए. में प्रसाद स्पेशल लेने के कारण जयशंकर प्रसाद मेरे प्रिय साहित्यकार बन रहे थे। कामायनी से अधिक मैं उनके नाटको से प्रभावित था और यहीं मुझमें व्यंग्य के प्रति रुचि भी जग रही थी। इसी रुचि के कारण मैंने अपने एम ए के लघुशोध प्रबंध का विषय प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य ' मांगा। यह विषय समिति के अध्यक्ष डॉ० नगेंद्र के लिए झटका सा था। कामायनी जैसे महाकाव्य के रचयिता गुरु गंभीर प्रसाद के साहित्य में हास्य व्यंग्य ! विषय मना कर दिया गया। डॉ० नगेंद्र बहस का अवकाश नहीं देते थे वैसे तो मुझपर दबाव डाला जा रहा था कि मैं रीतिकाल स्पेशल लूं और उसी पर लघु शोध प्रबंध लिखूं क्योंकि मेरे हितचिंतक प्राध्यापक को विश्वास था कि इस कारण मेरी प्रथम श्रेणी अवश्य आएगी पर नरेंद्र कोहली के प्रभाव में मैं आधुनिक साहित्य में रुचि ओर लेखकीय महत्त्वाकांक्षा के कारण पथ भ्रष्ट हो चुका था अतः इसस पथ भ्रष्ट जिद्दी को प्रेम चंद की कहानियों में सामाजिक परिवेश दिया गया। ये दीगर बात है कि एम फिल के लिए लघु शोध प्रबंध का विषय मुझे यही मिला। क्योंकि तब तक डॉ० नगेंद्र विश्वविद्यालय में आई कांति का शिकार हो चुके थे और विभागाध्यक्ष पद पर डा विजयेंद्र स्नातक, जो आधुनिक युग के प्रति उदार थे, आसीन हो चुके थे।

डॉ नगेंद्र को किसी विद्यार्थी ने हंसते नहीं देखा था। इस बात का जिक निर्मला जैन ने अपनी कृति में किया है। हम विद्यार्थियों के बीच उनका आतंक ऐसा था कि हंसने वालों की हंसी रुक जाती थी। 1970 में एम फाईनल के विद्यार्थियों को शुभकामना और विदाई देने के लिए आर्टस फेक्लटी में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। इस कार्यक्रम में मैंनेएक नाटक में अभिनय भी किया था। मेरे लिए एक और अविस्मरणीय विजेता वाला क्षण वह रहा जब मैंने डॉ० नगेंद्र को हंसा दिया। लोगों ने उन्हें सार्वजनिक रूप से हंसते देखा। इस कार्यक्रम में मैंने अपनी एक व्यंग्य रचना काम पीड़ित आलोचक पढ़ी। यह प्रसाद की 'कामायनी की पैरोडी थी। मुझे नहीं लगता कि कभी किसी ने किसी महाकाव्य की कथा की पैरोडी की है। उसका एक अंश देता हूं- एक बर्फ का कारखाना था, जहां काम कम और आराम अधिक होता था, क्योंकि सर्दियों के दिन थे एक दिन अचानक वहां के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी, क्योंकि दूसरे कारखाने का मालिक यह चाहता था। मज़दूरों के नेता ने अपनी मांग रखी कि उन्हें विलास के वह समस्त साधन उपलब्ध होने चाहिए जो कारखाने के मालिक को हैं। इसके साथ ही गुप्त रूप से उसने यह सलाह भी दी थी कि यदि मालिक, केवल मजदूरों के नेता को ही समस्त साधन व्यक्तिगत रूप में दे दे, तो हड़ताल नहीं होगी। (छायावाद में व्यक्तिवादी स्वर) मजदूरों का मालिक नहीं माना और और मजदूरों ने क्रान्ति आरम्भ कर दी हड़ताल हुई। पुलिस आई गोलियां चलीं और एक मजदूर को छोड़कर सारे मजदूर मारे गए। कारखाना उजड़ गया। उस बचे हुए मजदूर का नाम मनु था वह अति वीर और शक्तिशाली था।

एक अन्य नगर में एक और बर्फ का कारखाना था जिसके मालिक का नाम काम था। उसने मनु को देखा और उसे अपना मैनेजर बनाने का निश्चय किया। मनु को आकर्षिक करने के लिए उसने अपनी श्रद्धा नाम की पुत्री को भेजा श्रद्धा नीली साड़ी पहनकर मनु के सामने आयी उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे बिजली के सफेद बल्ब पर नीला कागज चढ़ा दिया गया हो। दोनों ने एक दूसरे को देखा। दोनों मन ही मन शरमाए और शरमाकर एक दूसरे से प्रेम करने लगे (छायावाद में प्रेम और सौन्दर्य) इस प्रेम से श्रद्धा गर्भवती हुई और काम को विश्वास हो गया कि अब मनु अवश्य उनके हाथ में आ जाएगा।

'इड़ा' नाम की एक नारी इड़ावृत्त देश की प्रधानमंत्री थी। वह मनु को वहां का राष्ट्रपति बनाना चाहती थी, क्योंकि वह एक मजदूर था ( छायावाद में साम्यवाद का संकेत) उसने अपने दो प्रतिनिधियों (चमचों) को मनु को लाने के लिए भेजा। उन प्रतिनिधियों के नाम आकृति और किलात थे। उन्होंने मनु को विलास के रंग में डुबोना आरम्भ किया और मनु डूब गए। इसके पश्चात् उन्होंने हड़ा का संकेत उनसे कहा। मनु ने कहा, तुम लोग चलो में आता हूँ। 

मनु श्रद्धा को रात के समय उसी प्रकार छोड़कर चले गए जिस प्रकार अंग्रेज भारत को छोड़कर चले गए थे। काम को जब यह पता लगा तो उसने मनु को फटकारा और मुकदमा करने की धमकी दी। मनु पहले घबराए फिर सोचा अब तो वह राष्ट्रपति बन जाएंगे अतः अन्तिम विजय उनकी निश्चित है' आदि आदि।

मैं डॉ निर्मला जैन के इस निष्कर्ष से सहमत हूं – 1956 से 1968 तक डॉ. नगेन्द्र ने दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों में व्यक्ति की नहीं, संस्था की भूमिका निभाई। विश्वविद्यालय में तो उनका दबदबा था ही प्रशासन में उप-कुलपति के पद के अलावा शायद ही कोई पद ऐसा रहा हो जिस पर उनकी नियुक्ति न हुई हो। दूसरे विभागाध्यक्षों के ऊपर वे बराबर भारी पड़ते थे। उनकी राय की हर उपकुलपति ने कद्र की। उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ और निष्ठा से पाठ्यक्रम बनाए। विभाग में अनुसन्धान परिषद् का गठन किया। शिक्षा मन्त्रालय की सहायता से हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय कायम किया। वर्षों दिल्ली विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग पूरे देश के लिए मॉडल बना रहा। कॉलेजों की बढ़ती संख्या के कारण उन्होंने सैकड़ों नियुक्तियों की जिनमें उनका मुख्य सरोकार विषय और कॉलेज का हित रहता था। जाति-धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से ये धुन-चुनकर योग्य व्यक्तियों को विभाग और स्थानीय कॉलेजों में लाते रहे।"

अपने समय में डॉ नगेंद्र ने स्वगीय सुख का आनंद लिया तो अपने पराभव काल में लगभग नारकीय कष्ट को भी भोगा। डॉ० नगेंद्र के जीवन के उपेक्षित समय का भी मैं साक्षी रहा हूं। वैशाली, पीतमपुरा दिल्ली में रहने वाले पड़ोसी और साहित्यकार जानते हैं कि अपने अंतिम समय में वे कितने असहाय थे। और जब उनकी मृत्यु हुई तो बहुत असम्मानजनक वातावरण था। उनके अपने ही उनसे छिटके दिख रहे थे।

प्रसाद के लहर संग्रह में एक कविता है- मधुप गुनगुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी इसी में वे कहते हैं-छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूँ? मुझे भी लगता है कि मेरे जीवन में, कुछ वर्ष के छोटे से जीवन में आए. डॉ नगेंद्र की बड़ी कथाएं कब तक और कितनी कहूं क्या अच्छा नहीं है कि औरों की सुनता अब मीन रहूं मैं? मेरे कानों में तो निरंतर डॉ० नगेंद्र की धीर गंभीर बुलंद आवाज में, दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्टस फेक्लटी के कोनों को गुंजायमान करती, राम की शक्ति पूजा की पंक्तियां गूंज रही है, जिसे क्षमा याचना सहित मैं कुछ परिवर्तन से प्रस्तुत कर रहा हूँ- रवि हुआ अस्त

ज्योति के पत्र पर लिखा

अमर रह गया अपराजेय समर

असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार



…………………………………………………………………………………………………………….

डॉ० प्रेम जनमेजय की स्मृति से

……………………………………………………………………………………………………………



व्हाट्सएप शेयर

शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

ज्यों-ज्यों बूड़े 'अशोक' संग ....

अशोक चक्रधर मेरे लिए एक बेहतरीन किताब हैं। वे एक ऐसी किताब जिसे मैं बार-बार पढ़ने के लिए उठा लेता हूँ। एक ऐसी किताब हैं, जो आपके अवचेतन का हिस्सा बन जाती है और जिसके पढ़े को आप बार-बार मथते रहते हैं। एक ऐसी किताब जिसे पढ़ते-पढ़ते अपनी छाती पर रखकर सो जाते हैं। एक ऐसी किताब जो अवसाद के क्षणों में आपकी साथी होती है। ऐसी किताब वही हो सकती है, जो दशकों से आपके जीवन की बुक शेल्फ में प्रमुखता से रखी गई हो। ऐसी किताब जिसे पढ़कर लगता हो कि आप भी उसके पन्नों में कहीं हैं। ऑस्कर वाइल्ड ने कभी कहा था, "अगर कोई बार-बार किताब पढ़ने का आनंद नहीं ले सकता है, तो उसे पढ़ने का कोई लाभ नहीं।" अशोक चक्रधर मेरे लिए एक लाभप्रद पुस्तक हैं। मैं अर्नेस्ट हेमिंग्वे के सुर में सुर मिलाकर कहूँगा, "एक किताब की तरह कोई वफादार दोस्त नहीं।" अशोक चक्रधर के साथ वफादारी दोस्ती का एक लंबा दौर है और शायद इसलिए ही वे मेरे लिए बेहतरीन किताब हैं।

मैं साहित्य का अभारी हूँ कि उसने मुझ अकिंचन लेखक को एक साहित्यिक परिवार दिया। एक परिवार मेरे माता-पिता ने दिया जिसे मैंने विकसित किया। इसमें कोई चुनाव नहीं चाचा-मामा, भाई-भतीजे आदि आपको रक्त संबंधों से मिलते हैं। प्रेमिका और मित्र सरे राह चलते हुए मिलते हैं। कभी पहली दृष्टि में प्रेम से आप उनसे जुड़ते हैं और कभी कुछ नाप-तौल के साथ। साहित्यिक परिवार, आपको आपके लेखक होने के कारण मिलता है, जिसमें कुछ आपके इश्क के कारण मिलते हैं, कुछ आपको इश्क पर जोर नहीं की शैली में मिलते हैं। कुछ संबंध इसलिए मिलते हैं कि आप अच्छा लिखते हैं और कुछ इसलिए मिलते हैं कि आप संपादक हैं और 'अच्छा' छापते हैं। कुछ इसलिए मिलते हैं कि आप महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और कुछ इसलिए मिलते हैं कि आप सम्मान देने वाली समिति के सम्मानित सदस्य हैं। जितने प्रकृति के रंग हैं उतने ही साहित्यिक परिवार के रंग हैं।

अशोक चक्रधर के लिए मानवीय संबंध मूल्यवान हैं इसलिए वे उन्हें बोन चाईना की क्रॉकरी की तरह संभालकर रखते हैं। अशोक चक्रधर मुझे साहित्य के शैशवकाल में लरकाई को प्रेम जैसे मिले। ऐसे समय में मिले जब संबंध किसी लालच के कारण नहीं जुड़ते हैं। एक उम्र होती है, जिसमें मिलते तो अनेक सरे राह हैं पर आपके जीवन मार्ग के सहयात्री बन जाते हैं। अशोक चक्रधर से मिलने का कारण बना दिल्ली विश्वविद्यालय। उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय की भूमि साहित्यिक दृष्टि से अति उर्वर थी। सन 1965 से सन 1975 के समय को मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का स्वर्णिम समय मानता हूँ। हम सबमें (इस सबकी सूची बहुत लंबी है) साहित्य के अंकुर फूट रहे थे। मित्र अशोक चक्रधर ने मुझ पर लिखे एक संस्मरण में, उस समय को अपनी दृष्टि और शैली में खूबसूरती से बयान किया है। मेरा मन है कि उसे ज्यों का त्यों आपके सामने रखूँ। आपको भी पता चल जाए कि जिन अशोक चक्रधर को मैं साक्षात कर रहा हूँ और उनसे अपने संबंधों का बयान कर रहा हूँ, उनकी इस संबंध में क्या सोच है। अशोक चक्रधर ने मुझ पर एक संस्मरणात्मक आलेख लिखा है, "प्रेम डियर! नायलनपूल अगेन!!" और यह संस्मरण सुधा ओम ढींगरा एवं लालित्य ललित के संपादन में मुझपर प्रकाशित पुस्तक 'व्यंग्य का सहयात्री : प्रेम जनमेजय' में प्रकाशित हुआ है।

अशोक चक्रधर ने हम दोनों के बीच लरकाई के प्रेम की मिलन स्थली, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की दीवारों में अब भी धड़कते दिलों की धड़कन को तरोताज़ा करते हुए लिखा है, 'व्यंग्य यात्रा' के संपादक और व्यंग्य सहयात्री प्रेम जनमेजय के साथ अपनी हास-परिहास की यात्रा लगभग चालीस वर्ष पुरानी है। एक साल सीनियर हुआ करते थे एम० लिट० में, लेकिन पूरी ज़िंदगी में सीनियर जूनियर हम दोनों ने कभी नहीं देखा। हम जिस भी काम में लगे रहे मस्ती के साथ और बेबाकी से एक सकर्मक चेतना से सम्पृक्त।


एक ओर हम लोग, यानी प्रगतिवादी थे, जो 'प्रगति' नाम की संस्था चलाते थे और दूसरी ओर वह लेखक वर्ग था जो वैचारिक स्वातंत्र्य की चेतना धारा के साथ अलग-अलग सा था, पर समय की धारा में सब साथ-साथ बह रहे थे। 'प्रगति' और 'एम०ए० एम०लिट० संघर्ष समिति' के बुलेटिन हम लोग स्टेंसिल काट कर साइक्लोस्टाइल कराते थे, कविता - पोस्टर बनाते थे, कंधों पर टंगा झोला प्रकाशित सामग्री से भरा रहता था। उन्हीं दिनों हिंदी विभाग के छात्रों - अध्यापकों ने 'मुट्ठियों में बंद आकार' का प्रकाशन किया जिसमें उस समय के लगभग सभी युवा रचनाकार थे। सुखबीर सिंह के संपादन में 'दिविक' निकला तो एक तरह की अखाड़ेबाजी आरंभ हो गई। अखाड़ेबाजी के इस दौर में प्रेम 'दूसरा दिविक'' में दिखाई दिए तो सुरेश ऋतुपर्ण द्वारा संपादित 'समीकरण' में भी दिखाई दिए। हमारे प्रगतिशील खेमे से अलग कृष्णदत्त पालीवाल, प्रताप सहगल, दिविक रमेश, सुरेश धींगड़ा, सुरेश किसलय, हरीश नवल, सुरेश ऋतुपर्ण, पवन माथुर, और और भी बहुत सारे साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय युवा रचनाकार थे। एक तरह की मीठी प्रतिद्वंद्विता 'प्रगति' और 'साहित्य-संगम' में रहती थी। कार्यक्रमों के लिए होता था कला संकाय का कक्ष संख्या बाइस हमें थोड़ी जद्दोजहद के साथ मिलता था, उन्हें आसानी से एक-दूसरे की गोष्ठियों में अतिथियों से प्रश्न करना और अपना ज्ञान दिखाना, ये तीरंदाजी चला करती थी। हमारी गोष्ठियों में नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, सर्वेश्वर, प्रयाग शुक्ल, भैरों प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, सव्यसाची, खगेंद्र ठाकुर, कांति मोहन, कर्ण सिंह चौहान, सुधीश पचौरी, रमेश गौड़ और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए वरिष्ठ रचनाकार आते रहते थे। इनके अलावा नए-नए साहित्यकार जैसे राज कुमार सैनी, चंचल चौहान, रमेश रंजक, महेश उपाध्याय, जोगेंद्र शर्मा, रामकुमार कृषक पुरुषोत्तम प्रतीक, बंसी लाल, कृष्ण कुरड़िया, रेखा अवस्थी आदि का जमावड़ा रहता था।


एक बार प्रेम जनमेजय ने मुझसे कहा था, "भई प्रगति के पोस्टर बहुत ही रचनात्मक और कलात्मक होते हैं।" प्रगति को एक विशेष अंदाज़ से लिखने का तरीका मैंने ही ईजाद किया था और उसका लोगो भी बनाया था। उस लोगो में एक चिंतनशील युवक ठोढ़ी पर हाथ रखे हुए है और उसके सहारे एक इंक वाला पैन है, जिसकी निब ऊर्ध्वमुखी है और समानांतर रेखाओं से चौखटे में एक संतुलन बनाया गया है। यह लोगो मेरे हाथ पर इतना सधा गया था कि मैं आँख मूंद कर भी बना सकता था। इसी तरह प्रगति भी लिखने में समस्या नहीं आती थी। मेहनत हम लोग खूब करते थे और बड़बोलेपन के शिकार रहते थे। प्रेम से जब भी चर्चाएँ हुईं, वे साहित्यकारों के बीच साहित्यिक असहिष्णुता के प्रति चिंतित दिखाई दिए। एक दूसरे से वैचारिक मतभेद हो परंतु वो खिलाड़ी भावना की तरह होना चाहिए। हम लोग उन दिनों मध्यमार्गी सोच से दूरी बना कर रखते थे। साहित्य प्राथमिक नहीं, जीवन संघर्ष प्राथमिक है, ऐसा मानते थे। कविता कहानी से ज्यादा नाटकों और नुक्कड़ नाटकों पर ध्यान देते थे। कविताएँ आंदोलनधर्मी हुआ करती थीं।


दरअसल, उस समय वैचारिक रेखाएँ इतनी तीखी और अलगाव करने वाली होती थीं कि जैसे एक परिवार में बाँट लिया जाए कि चाचा तेरा ताऊ मेरा, बुआ तेरी मौसी मेरी। इसी तरह से साहित्यकारों का बँटवारा भी कर लेते थे, उनके मन मिजाज और विचारधाराओं के रंगों के आधार पर। अपनी समन्वयवादी सोच को प्रेम ने आज तक जिंदा रखा है। उनके मित्रों के दायरे में लगभग सभी सोच के सहचर हैं। उनकी यही सोच उनके द्वारा संपादित 'व्यंग्य यात्रा' में भी दिखाई देती है। प्रेम ने 'धर्मयुग' 'सारिका' 'दिनमान' में लिखा तो प्रलेस के 'जनयुग' में भी लिखा। वे परसाई के न केवल प्रशंसक हैं, बल्कि उन्हें अपना आदर्श भी मानते हैं।


इकहत्तर से पिचहत्तर तक दिल्ली विश्वविद्यालय में एक जीवंत साहित्यिक वातावरण रहा। हमारी तरफ करण- सुधीश की विद्वत्ता का जलवा हुआ करता था। प्रेम जनमेजय, पवन माथुर, मुकेश गर्ग, बंसी लाल, मनीष मनोजा हम सब लोग लायब्रेरी से फैकल्टी आते हुए या फैकल्टी से लायब्रेरी जाते हुए या कभी रिसर्च फ़्लोर पर कभी सीढ़ियों पर बिन टकराए टकराया करते थे। टकराते थे हमारे विचार। लेकिन मुस्कानों के आदान-प्रदान में कभी कोई कमी नहीं आई। तल्खी नहीं आई। अपने-अपने तख्त पर बैठकर अपने-अपने विचारों की माला फेरते रहे। मालामाल होना कोई नहीं चाहता था। एक धुन थी, एक लगन थी, एक लौ थी जिसमें अपने-अपने मायने और अपने-अपने आईने लेकर बैठा करते थे। अपने आईने में उनकी सूरत दिखाते थे तो वे पलट कर अपना आइना हमारी ओर कर देते थे। इस सबमें व्यंग्य और हास्य कहाँ से फूटा ये कह पाना मेरे अपने लिए तो मुमकिन है लेकिन प्रेम के बारे में सही-सही अंदाज़ा नहीं है। हाँ, उन दिनों प्रेम के हास्य-व्यंग्य उन दिनों की प्रसिद्ध फिल्मी पत्रिका 'माधुरी' में प्रकाशित होने आरंभ हो गए थे। जिसके संपादक अरविंद कुमार थे। उन दिनों नरेंद्र कोहली धर्मयुग के बैठे-ठाले स्तंभ में विशेष चर्चित हो रहे थे। नरेंद्र कोहली प्रेम के गुरु और मार्गदर्शक हैं। प्रेम ने उनके निर्देशन में ही अपना एम०लिट० का लघु शोध प्रबंध लिखा, 'प्रसाद के नाटकों में हास्य व्यंग्य' पीएचडी भी उन्हीं के निर्देशन में की, जिसका विषय भी व्यंग्य पर ही केंद्रित था।


जैसा मैंने उपरोक्त कहा- अशोक चक्रधर के लिए मानवीय संबंध मूल्यवान हैं इसलिए वे उन्हें बोन चाईना की कॉकरी की तरह संभालकर रखते हैं, इसका उदाहरण मुझे अपने संबंधों के शैशवकाल में मिल गया था। अशोक चक्रधर एम०लिट० प्रथम वर्ष के छात्र बने थे और मैंने दूसरे वर्ष में प्रवेश लिया था। अशोक चक्रधर सुधीश पचौरी, कर्णसिंह आदि से संबंध गहरे कर रहे थे। एम०लिट० प्रथम वर्ष का परिणाम आया तो केवल मेरी प्रथम श्रेणी थी और पूरी कक्षा में किसी की नहीं थी। उस कथा में सुधीश पचौरी के अत्यधिक प्रिय मुकेश गर्ग भी थे। मुकेश गर्ग से बाद में अशोक चक्रधर के संबंध अधिक गहरे हुए सुधीश पचौरी के नेतृत्व में डॉ० नगेंद्र का किला ध्वस्त हो चुका था। सुधीश पचौरी ने हर उस चीज को, जो उनकी दृष्टि में गलत होती उसे दुरुस्त करने का बीड़ा उठा लिया था। एम०लिट० में मेरी ही प्रथम श्रेणी आई थी। सुधीश पचौरी को लगा कि विभाग ने 'केवल' प्रेम जनमेजय को प्रथम श्रेणी देकर पक्षपात किया है और अन्य विद्यार्थियों के साथ अन्याय। अब सुधीश पचौरी को अन्याय हुआ लगा तो उसका बिगुल बजना ही था। उनके सभी 'साथियों ने मुझे घेरा घारा और कला संकाय कॉफी हाउस में ले गए। वहाँ मुझ पर साम दाम दंड भेद टाइप चौतरफा आक्रमण किए गए, जिनका लक्ष्य यह था कि मैं उन्हें लिखकर दे दूँ कि मेरे प्रथम श्रेणी किसी षड्यंत्र का परिणाम हैं। चौतरफा आक्रमण चल रहे थे और मैं मौन नामक हथियार से उसका मुकाबला कर रहा था। जिस आक्रमण शैली ने डॉ० नगेंद्र का सिंहासन छीन लिया था, मेरा मुकाबला उससे था। मेरी इच्छा शक्ति दृढ़ है। उसी इच्छा शक्ति से मन दृढ़ निश्चय लिया कि चाहे कुछ हो लिखकर नहीं दूँगा । इतना विश्वास था कि चाहे कितना भी डरा-धमका लें, मुझ पर शारीरिक आक्रमण नहीं करेंगे। लिखकर कुछ नहीं दिया। बाद में तत्कालीन विभागाध्यक्ष डॉ० विजयेंद्र स्नातक को सारी घटना सूचित की, तो चिंता की पहली रेखा दिखी और उन्होंने दो शब्द कहे- "अच्छा किया"। इस घटना को साझा करने का मंतव्य केवल इतना है कि अशोक चक्रधर के उन दिनों सुधीश पचौरी से घनिष्ठ संबंध थे पर मुझसे जुड़े संबंधों की रक्षार्थ ही संभवतः वे इस 'दुर्घटना' से दूर रहे हों। यदि वे सायास दूर रहे तो यह एक बड़ा निर्णय था। मेरा विरोध किसी वैचारिक कारण से नहीं था पर जो विरोध कर रहा था वह उस समय के दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में उस विचारधारा का ध्वजावाहक था जिसके अशोक चक्रधर कार्यकर्त्ता थे। अशोक चक्रधर ने लिखा ही है, "दरअसल, उस समय वैचारिक रेखाएँ इतनी तीखी और अलगाव करने वाली होती थीं कि जैसे एक परिवार में बाँट लिया जाए कि चाचा तेरा ताऊ मेरा, बुआ तेरी मौसी मेरी।"


बात 1983 की है। अशोक चक्रधर ने एक वृत्तचित्र का निर्माण किया था और नंदन जी ने मुझे उसके प्रीमियर की रिपोर्टिंग के लिए भेजा था। तब मैंने 'दिनमान' में रिपोर्टिंग करते हुए लिखा था। मैं विशेष उत्साह के साथ नहीं गया था। परसाई की पाठशाला का शिष्य, मैं, सीता अपहरण केस नामक व्यंग्य लिख चुका था और इस मूड में 'पंगु गिरि लंबै' पढ़ते ही लगा था कि फिल्म भक्तिभाव से भरपूर होगी। जब रीगल के दरवाजे पर महिलाओं को हाल में जाने की प्रतीक्षा में बतियाते देखा तो विश्वास हो गया। जिसकी कृपा से गूँगा बोलने लगता है, अंधा देखने लगता है, बहरा सुनने लगता है और लँगड़ा पहाड़ पर चढ़ने लगता है, ऐसे ईश्वरीय चमत्कारों पर अपनी कभी भी आस्था नहीं रही है। अपन मजाक के मूड में बैठे थे। अपने समय में घोर प्रगतिशीली कार्यकर्ता रहे अशोक चकधर के भक्तिभाव को भी देख लिया जाए। पर मन सावधान भी कर रहा था कि अशोक चक्रधर को लेकर इतने पूर्वाग्रही मत हो जाओ।


वृत्तचित्र के बारे में आम दर्शकों की प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हो सकती हैं, परंतु उनका निष्कर्ष एक ही रहता है- समय और धन की बर्बादी कुछ इसे समय और सरकारी पैसे की बरबादी मानते हैं तो कुछ इसे अन्य सरकारी सूत्रों की तरह जबरदस्ती दिया गया प्रसाद मानते हैं। कुछ इसे फिल्म शुरू होने से पहले अँधेरे में आँखें सेट करने का सिलसिला कहते हैं और कुछ इसे भारतीय परंपराओं का पालन करते हुए देर से आने वाले दर्शकों के लिए वरदान कहते हैं। आम दर्शक का निष्कर्ष यही है कि वृत्तचित्र नीरस, उबाऊ आँकड़ेबाज, सरकारी ढोल पीटनेवाला तथा फिजूल होता है। 'पंगु गिरि लंबै' का निमंत्रण मिलने पर जब मैंने अपने एक दर्शक मित्र से कहा, 'चल रहा है फिल्म प्रीमियर देखने' तो मैं उसका सच्चा मित्र सिद्ध हो गया और वह मेरे अहसानों से दब गया। परंतु जब मैंने उसे बताया कि मैं उसे पंद्रह मिनट की डॉक्युमेंटरी दिखाने ले जा रहा हूँ तो उसका मुँह कड़वा हो गया और उसने अहसान का सारा बोझ मेरे कंधे पर लौटाते हुए कहा, 'तू दस रुपए साथ दे तो भी न चलूँ, समझा। मैं क्या फालतू हूँ।'


परंतु 'पंगु गिरि लंघु' ने मेरे सोचने का तरीका ही बदल दिया। ईश्वर पर तो नहीं मनुष्य की शक्ति पर आस्था बढ़ गई। अशोक चक्रधर और दुलाल साइकिया द्वारा 'गतिचित्रम्' के बैनर के अंतर्गत बने इस वृत्तचित्र में एक नए कोण और भिन्न तरीके से चीजों को देखा गया है। आदमी आदमी का भाग्य बदल सकता है। ऐसे अपंग बैसाखियाँ जिनकी जिंदगी ढो रही थीं, उन्हें अपने पैरों पर अपने सहारे खड़ा करने का अद्भुत कार्य किया है- सवाई मानसिंह अस्पताल, जयपुर के अनुसंधान एवं पुनर्वास केंद्र ने यहाँ के डॉ० पी०के० सेठी, डॉ० कासलीवाल तथा शिल्पकार मास्टर जी की अथक कल्पना और प्रयत्नों ने अपंगों को बैसाखियों के सहारे नहीं 'कृत्रिम परंतु प्राकृतिक पैर की तरह गतिवान अपने धरातल पर खड़े होने की शक्ति दी है। उन्होंने इस देश की जरूरतों के अनुसार कृत्रिम पैर बनाए हैं, इस पैर को लगाकर चलना, दौड़ना, उकड़ू बैठना, पालथी मारना, चढ़ना, कूदना, तैरना सब संभव है। अब तक हम पश्चिमी देशों के अनुरूप भूनाए गए पैरों मात्र पर ही खड़े थे। अब हम अपने अनुसार बनाए गए पैरों के द्वारा अपनी धरती पर उठ-बैठ, खा-पी सकते हैं।


अशोक चक्रधर और दुलाल साइकिया ने इस वृत्तचित्र में मात्र कृत्रिम पैर बनाने के कारखाने, आँकड़ों, डाक्टर और शिल्पकार से साक्षात्कार को ही कैमरे में कैद नहीं किया है, अपितु असंख्य रोगियों के चेहरों पर तैरती मानवीय संवेदनाओं को सेल्यूलाइड पर उतार दिया है। वर्षों से जो लोग दूसरों पर बोझ बने थे, वही अब रिक्शा चलाकर दूसरों को ढो रहे हैं। उनके चेहरे पर श्रम और आत्मविश्वास की आई चमक को अशोक और दुलाल ने दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया है।


कृत्रिम पैर लगाए एक बच्ची जब हिचकती झूले की ओर बढ़ती है, पाँव झूले पर रखती है। धीरे-धीरे झूले की पेंग बढ़ाने के साथ उसके चेहरे का आत्मविश्वास और मुस्कान बढ़ जाती है, तब दर्शक सम्मोहित हो उठता है, फिल्म समाप्त हो जाती है। पंद्रह मिनट कहाँ गए पता नहीं चलता। सामाजिक उद्देश्य और मानवीय मूल्यों को स्थापित करने वाला यह वृत्तचित्र अपनी बात रोचक ढंग से कह देता है। अशोक और दुलाल ने वृत्तचित्र की उस परंपरा को तोड़ा है कि वृत्तचित्र को मात्र एक कमेंटरी होना चाहिए। इसमें शिब्बू के छायांकन और पं० शिवप्रसाद के संगीत का विशेष योगदान है। संपादन ने फिल्म को तीव्रता दी है और अनावश्यक विस्तार से बचाया है।


फिल्म समाप्त होने से अशोक चक्रधर संतुष्ट नजर आ रहे थे। परंतु जब मैंने पूछा कि फाइनेंस की क्या और कैसे व्यवस्था की तो उनकी संतुष्टि गायब हो गई, बोले, "भई अभी तो गाँठ का पैसा लगा दिया है। कुछ युनाइटेड बैंक से कर्ज लिया है, कुछ दोस्तों की जेब हल्की की है। अस्सी हजार रुपए इस प्रोजेक्ट में लग गए। अब देखो अगर फिल्म डिवीजन वाले खरीद लें तो बात बने। कीटाणु तो बहुत देर से कुलबुला रहे थे। बहुत पहले अपनी कविता 'बूढ़े बच्चे' पर फिल्म बनाने की सोची थी। मैं केवल सूचनात्मक उबाऊ फिल्म नहीं बनाना चाहता था, उसे सामाजिक उद्देश्य और मानवीय संवेदना के साथ जोड़ना चाहता था। बस कूद पड़ा मैदान में मार्च '83 के अंत में आइडिया बना और अप्रैल में चार दिन में हमने शूटिंग कर डाली। मई से लेकर अगस्त तक के चार महीनों ने कई खिड़कियाँ मेरे सामने खोलीं। रिफ्लेक्टर उठाने से लेकर निर्देशन तक का अनुभव प्राप्त किया।"


अशोक चक्रधर कुछ न कुछ नया रचने में विश्वास रखते हैं। उनके अंदर रचनात्मक ऊर्जावान एक बच्चा है जो निष्क्रिय नहीं बैठ सकता। यह बच्चा आपको भी उकसा सकता है। आप उकस गए तो ठीक अन्यथा वो तो कुछ न कुछ रचेगा ही। यह हमारे विकसित संबंधों का ही परिणाम था कि पद्य और गद्य व्यंग्य की एक जैसी पर अलग-अलग नाव के मल्लाह अक्सर एक दूसरे से साहित्य की नदी में मिलते रहते। लेखक होने के कारण मेरे कॉलेज के प्रधानाचार्य, मेरे दोस्त राजेंद्र पंवार मुझे हास्य व्यंग्य का कवि ही मानते थे। उनका विश्वास था कि सुरेंद्र शर्मा, गोविंद व्यास, अशोक चक्रधर मेरे खास दोस्त हैं और मेरे एक बार कहने पर केवल टैक्सी के भाड़े में आ जाएँगे। वैसे गोविंद व्यास और सुरेंद्र शर्मा उनके भी कम दोस्त नहीं थे। अशोक चक्रधर अनेक बार मेरे कहने पर कॉलेज आए और कभी भी अतिरिक्त माँग नहीं की। मुझे जब भी आवश्यकता हुई, अशोक चक्रधर भाई, बिना न नुकुर के हाजिर मिले और जब अशोक भाई ने कोई आग्रह किया तो मेरा भी न नुकुर तेल लेने चला गया।


चावल का एक दाना पेश है-


बात 1996 की है। 1984 में मुबई के चकल्लस कवि सम्मेलन का हिस्सा बना था। अगले दिन भारती जी से मिला और उन्होंने जो सलाह दी उसके बाद कवि सम्मेलनों का मोह छोड़ दिया था। वैसे भी मेरा परसाई शिक्षित व्यंग्यकार मन, कवि सम्मेलनीय हास्य से बिदकने लगा था। मुझे अशोक चक्रधर भाई के कलात्मक लेटर हैड पर लिखा एक पत्र मिला। यह पत्र आज भी मेरे पास सुरक्षित है। इस पत्र पर 20 नवंबर 1996 की तिथि अंकित है। लिफाफा क्या पेश करूँ, पूरा मजूमन ही लिख देता हूँ। पत्र का मजमून था--


30 नवंबर 1996

डियर प्रेम बाबू,


दिनांक 29 नवंबर से 'फुलझड़ी एकस्प्रेस' नामक एक हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन - मुशायरा धारावाहिक, डी डी -1 राष्ट्रीय प्रसारण में हर सप्ताह रात्रि 10.30 पर प्रसारित होने रहा है। चार ऐपीसोड की रिकार्डिंग संपन्न हो चुकी है।

पहली बात तो यह कि आप कृपया 'फुलझड़ी एकस्प्रेस' देखें और अपनी राय बताएँ। दूसरी यह कि हास्य-व्यंग्य, तंजो-मिजाह की जानी मानी हस्ती होने के नाते आप भी इस कार्यक्रम में भागीदारी करें- ऐसी मेरी कामना है। अगली रिकार्डिंग बहुत शीघ्र होने जा रही है।


यह कार्यक्रम सी०पी०सी० की निदेशिका श्रीमती कमलिनी दत्त की परिकल्पना है एवं इसका निर्माण सी०पी०सी० दूरदर्शन केंद्र के एक सुयोग्य प्रोड्यूसर श्री सुरेंद्र शर्मा कर रहे है। फिलहाल मुझे इस कार्यक्रम के संचालन का कार्यभार सौंपा गया है।


स्वस्थ और निर्मल हास्य की दो-तीन रचनाएँ आप मुझे तत्काल भेज दें। इससे कार्यक्रम को अच्छी तरह पेश करने में आसानी रहेगी। फुलझड़ी एक्सप्रेस के हर ऐपीसोड में संचालक समेत कुल छह कवि-शायर रहते हैं। प्रत्येक के हिस्से में लगभग चार मिनट का समय आता है। इस बात को मद्देनजर रखते हुए आप अपनी रचनाओं का चयन करें।

मुझे आपकी रचनाओं का बेकरारी से इंतजार रहेगा। अपनी कविताएँ, गज़लें, कृतांत मुक्तक, गीत अथवा निबंध आप मुझे मेरे निवास के पते पर भेजें। यदि चाहे तो 6944040 पर फैक्स द्वारा भी भेज सकते हैं। मीडिया की सीमाओं एवं शक्तियों से आप अच्छी तरह परिचित हैं, इसलिए रचनाओं को चुनते वक्त इस बात का विशेष ध्यान रखें कि आपकी रचनाओं को देश के सर्वश्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य-लेखन का उदाहरण बनना है।


मेरी भूमिका महज एक प्रस्तावक की है। मैं आशा करता हूँ कि दूरदर्शन की ओर आपको शीघ्र ही विधिवत निमंत्रित किया जाएगा।


यह पत्र मैं ज्यों का-त्यों अपने सभी सूचीबद्ध कवि और शायर साहेबान को भेज रहा हूँ। इसलिए इसकी भाषा यदि आपको थोड़ी औपचारिक लगे तो क्षमा कर दीजिएगा।


नमस्कार सहित-

अशोक चक्रधर"


समझदारों को इस पत्र द्वारा आत्मीय मित्रों के प्रति अशोक चक्रधर भाई का सहज भाव समझ आ गया होगा। अशोक भाई जितना अपने सम्मान के प्रति सजग हैं उतने ही अपने आत्मीयों के सम्मान के प्रति भी औपचारिक भी होते हैं तो उसका कारण भी रेखांकित कर देते हैं। बहुत कठिन होता है अनौपचारिकों से औपचारिक होना।

मन 'व्यंग्य यात्रा' का चौथा अंक "व्यंग्य कविता हाशिए पर क्यों" पर प्लान किया था। इसका मूल था कि मंच की हास्य व्यंग्य कविता ही व्यंग्य कविता को हाशिए पर धकेलने की दोषी है। अशोक भाई मंचीय कविता के प्रति मेरे संतुलित विरोध को जानते थे। वे यह भी जानते थे कि व्यंग्य यात्रा खुली सोच का मंच है। इसलिए मैंने जब उनसे लिखने के लिए आग्रह किया तो उन्होंने तत्काल एक आलेख 'प्रसिद्धि का प्रसाद' भेज दिया। उस पत्र में अशोक चक्रधर ने इस विषय पर अपनी मान्यता को बिना किसी लाग लपेट के बेबाक लिखा था- प्रसिद्धि का प्रसाद हर किसी को नहीं मिल पाता। जिनको मिलता है वे अचानक समझ नहीं पाते कि कैसे मिल गया। जिनको नहीं मिलता वे कुंठित हो जाते हैं कि क्यों नहीं मिला। सोचते नहीं हैं। कि कैसे नहीं मिला। अब तो इन नवोदित कवियों की संख्या गुणात्मक तरीके से बढ़ रही है। कहाँ हैं वे लोग जो इनसे संवाद करें? मंच पर जाने वाले कवियों के पास क्या इतना समय है कि मंच पर आने की कामना रखने वाले इन कवियों को मंच पदार्पणपूर्व संवाद का एक मंच प्रदान कर सकें। तथाकथित महान साहित्यकार मंच की कविता को कविता मानते ही नहीं हैं। उनसे बहस में नहीं उलझना चाहता। मंच की कविता को पूर्ण कविता मैं भी नहीं मानता, लेकिन जिसे वे पूर्ण कविता सिद्ध करना चाहते हैं वह पूर्ण कविता हो ये भी नहीं मानता। शास्त्रीय कविता सार्वकालिक होती है। हर युग में याद की जाती है। उसकी सरलता या जटिलता मायने नहीं रखती, मायने यह बात रखती है कि उसका अपने युग और जीवन से कितना सरोकार है। दूसरी बात, हंसाना कोई पाप तो नहीं। साहित्यकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो हंसाने वाले काव्यात्मक प्रयत्नों को काव्य के घेरे में घुसने ही नहीं देता। चलिए, उनसे भी कैसा शिकवा।


इस समय समस्या तो ये है कि तुकबंदी अथवा बंदतुकी के अनेक प्रकारों में स्वयं को कविता के रूप में पहचाने जाने के लिए जो फसल दिख रही है उसके लिए क्या किया जाए? खाद कहाँ से लाई जाए? पानी कहाँ से जुटाया जाए? खरपतवार कैसे निकाली जाए? कविता की वालियों को भ्रांतिमान अलंकारों के टिड्डों से कैसे बचाया जाए? बाजारवादी इस युग में उसकी पैठ कहाँ लगे? आढ़तियों के बिना गुजारा भी नहीं है, पर कविता के गल्लेबाजों से नए किसानों के हितों की रक्षा कैसे की जाए।"


किसने कहा, क्यों कहा और कब कहा मैं नहीं जानता, पर कहा ज़रूर है कि हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे। ऐसे डुबाने वाले दो तरह के होते हैं। एक इस तरह डुबाते हैं कि साँसे रुक जाती हैं और जीवन की धड़कन मुर्दा हो जाती है। दूसरी तरह के डुबाने वाले अपने में इस तरह डुबोते हैं कि आप उनके साथ तैरते हुए किसी अच्छे तैराक जैसा आनंद लेते हैं। बिहारी ने भी तो ऐसों-जैसों के लिए कुछ कहा है न- ज्यों ज्यों बूढे श्याम रंग, त्यों त्यों उजलो होई। तो अशोक चक्रधर खुद तो कर्मक्षेत्र में डूबे बिना चैन नहीं लेते हैं और न दूसरे को लेने देते हैं। न्यूयार्क में संपन्न हुए आँठवें विश्व हिंदी सम्मेलन से अशोक चक्रधर लौटे तो वहाँ हिंदी कम्प्यूटिंग में लगी हुई टीम संग उन्होंने फैसला किया कि हिंदी साहित्यकारों और हिंदी प्रेमियों के बीच आंकिक विभाजन को समाप्त करने के लिए और कंप्यूटर चेतना का विकास करने के लिए 'हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी' शीर्षक से प्रतिमास एक मासिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाए। इधर सोचा और उधर सितंबर 2007 से जयजयवंती संगोष्ठी के कार्यक्रम आरंभ हो गए। हर कार्यक्रम में कंप्यूटर से जुड़े हुए विभिन्न विषयों को लिया गया। गंभीर चर्चाओं के दौरान काव्य पाठ भी होते रहे। संचालन के दौरान अशोक चक्रधर प्रायः कहते रहे कि हमारा कार्यक्रम रोचक संप्रदाय का भी है और भौंचक संप्रदाय का भी है। कविताओं और रचनात्मक साहित्य की विविध विधाओं से हम इसे रोचक बनाते हैं और भविष्य की हिंदी के लिए कंप्यूटर की सेवाएँ देखकर भौंचक भी रह जाते है। हमारा मकसद है कंप्यूटर का अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए स्वयं को सक्षम बनाना। इस मासिक गोष्ठी में जिस वरिष्ठ साहित्यकार को 'जयजयवंती सम्मान' से सम्मानित किया जाता उसे हिंदी सॉफ्टवेयर सुविधा सज्जित एक लैपटॉप भी दिया जाता। (मेरे पास पहले से ही कंप्यूटर था और मैं बहुत कुछ कंप्यूटर योग्य था अतः मुझे इस सम्मान के योग्य नहीं समझा गया।)


अशोक चक्रधर के अंदर एक सकारात्मक सोच का वह इंसान बैठा है जो अपना क्या दूसरे का शोक पसंद नहीं करता है, शोक से उबरना/उबारना पसंद करता है। यह इंसान आपको शोक में डूबा देखकर अपना शोक भूल जाता है। उसके पास आपको दिलासा देने वाले शब्दों का कोश है। एक ऐसी ही याद जो मेरे अविस्मरणीय यादों के कोष का हिस्सा है, उसे साझा करना चाहता हूँ।


बात 2014 की है, जुलाई 24 की। केंद्रीय साहित्य अकादेमी के सौजन्य से साहित्यकारों का प्रतिनिधि मंडल, सात दिवसीय दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के लिए रवाना हुआ । इस यात्रा का उद्देश्य था - भारतीय उच्चायोग एवं हिंदी शिक्षण संघ द्वारा आयोजित हिंदी साहित्य सर्वश्री नरेश सक्सेना, अशोक समारोह में भाग लेना। इस प्रतिनिधि मंडल के सदस्य थे चक्रधर, ओम निश्चल, प्रेमशंकर शुक्ल, शिवनारायण, भगवान सिंह और मैं (इस यात्रा के साथ जुड़ी अनेक सुखद स्मृतियाँ हैं, जिनकी चर्चा करने लगूँगा तो इसीमें खो जाऊँगा और विषयांतर कष्टदायक होगा।) मुझे 26 जुलाई को आयोजित सत्र में 'इक्कीसवीं सदी के नए आयाम' सत्र में 'इक्कीसवीं सदी में व्यंग्य' पर अपनी बात कहनी थी। विदेशों में हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर मेरे अधिकांश अनुभव त्रिनिदाद के थे जो उत्साहवर्धक नहीं थे। और यहाँ तो हिंदी व्यंग्य की इक्कीसवीं सदी पर कहना था। पर मुझ आश्चर्य हुआ कि न केवल कार्यक्रम में प्रबुद्ध श्रोता थे अपितु वहाँ के निवासी शिवाजी श्रीवास्तव और विनय सिंह ने अपनी बात कही और मुझसे सवाल भी किए। दक्षिण अफ्रीका में व्यंग्य विमर्श मुझे हर्ष दे गया। दक्षिण अफ्रीका में अनेक घटनाओं ने हर्ष दिया, पर दक्षिण अफ्रीका के विदाकाल ने एक ऐसा दुखद समाचार दिया जिसने मुझे तोड़ दिया। अब भी उस समाचार को याद करता हूँ तो दक्षिण अफ्रीका की सुखद स्मृतियाँ कष्ट में परिवर्तित होने लगती हैं। जैसे समुद्र किनारे रेत से बनाई, संपूर्ण होने की दिशा में, कलाकृति को समुद्र की एक लहर दुखद अंत दे देती है।


बात 30 जुलाई की है। दक्षिण अफ्रीका से हमारी विदाई का दिन था। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय उच्चायुक्त श्री वीरेंद्र गुप्ता ने अपने निवास पर कवि सम्मेलन संग रात्रि भोज का आयोजन किया था। जमीन से जुड़े श्री वीरेंद्र गुप्ता का आतिथ्य गजब का होता है। ऐसे समय में वे केवल मेजबान होते है और उच्चायुक्त पद से स्वयं को मुक्त कर अतिथियों की देखभाल करते हैं। उनकी पत्नी वीणू गुप्ता उनका पूरा साथ देती हैं। उनके साथ त्रिनिदाद और टोबैगो में काम करते हुए जुड़ाव की अनेक सुखद स्मृतियाँ हैं। उनके साथ हुआ जुड़ाव आज भी पारिवारिक धरातल पर प्रगाढ़ हो रहा है।


हम लोग बहुत दिनों बाद मिले थे अतः बहुत-सी बातें उनके और वीणू के साथ बाँटने की थीं। आत्मीय क्षणों से सराबोर सब सुखद चल रहा था कि दिल्ली से फोन आया। यह पहली बार नहीं थी कि मेरे दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान दिल्ली से फोन आया हो। यात्रा आरंभ करने से पूर्व मेरे बड़े बेटे ने वहाँ का सिम कार्ड मेरे फोन में डलवा दिया था। इसका प्रयोग मेरे अन्य सहयात्रियों ने भी किया। लगभग प्रतिदिन मेरा हालचाल जानने को वे फोन कर ही लिया करते थे। और फिर यह तो विदा की शाम थी। मुझे लगा कि औपचारिक-सा फोन होगा। मेरी पत्नी को पता है कि 30 की शाम वीरेंद्र गुप्ता के यहाँ होऊँगा और वीणू गुप्ता से बात करने को उसने फोन किया होगा। पर यह मेरी पत्नी का नहीं मेरी बहु अभिलाषा का फोन था। वह बहुत हिम्मतवाली है, धैर्य कम ही खोती है। अभिलाषा ने जिस तरह चुप्पी के बाद टूटती एवं दुखद आवाज के साथ फोन आरंभ किया, आशंकित मन थरथरा उठा। अभिलाषा ने सूचित किया कि पंचकूला निवासी मेरे छोटे भाई सत्य प्रकाश कुंद्रा, जिसे हम घर में कुक्कु नाम से पुकारते थे, हृदयगति रुकने से निधन हो गया है। मैं एकदम सन्न रह गया। आयोजित आयोजन अपने उच्चायोगीय रंगत में रंगा चढ़ाव पर था। मैं चुपचाप खिसकता हुआ, फोन सुनने की प्रक्रिया में बाहर निकल गया। मेरी पत्नी आशा बेटा-बहू पंचकूला के रास्ते में थे और मुझे बहुत कुछ समझा रहे थे पर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। चारों ओर जैसे एक शून्य तैर रहा था । रुदन मेरे अंदर फूट रहा था। विवशता इतने विकराल रूप में मेरे समक्ष आएगी कभी सोचा न था। मैं अनेक सवालों से जूझने भी लगा। क्या उसके अंतिम दर्शन तक न कर पाऊँगा, कैसे बीतेंगे एक-एक क्षण! कल की फ्लाइट से तो निकलना ही है पर क्या अभी कोई फलाईट लेकर उड़ूँ... पार्टी छोड़कर चला जाऊँ... और बहुत कुछ? तभी मैंने अपने कंधे पर एक हाथ महसूस किया। मुड़कर देखा तो यह हाथ अशोक चक्रधर का था।


- क्या हुआ कुछ अनिष्ट घटा है क्या?

- नहीं ... कुछ नहीं....

- कुछ नहीं, बहुत कुछ है प्रेम डियर! तुम्हारा चेहरा बता रहा है.....


जिससे चेहरा न छुपा सकें उसे सब कुछ बताना ही पड़ता है और मैंने भी बताया। अशोक भाई ने कहा- यह तुम्हारा वही भाई है न जो हरियाणा टूरिज़्म में था! इसीके बुलाने पर हम सब चंडीगढ़ कवि सम्मेलन में गए थे न! दो महीने पहले ही तो आई०आई०सी० में तुम्हारी सेवा निवृत्ति वाली पार्टी में मिला था।" अशोक चक्रधर की स्मृति अद्भुत है। दूसरे की हर भूली दास्तान उन्हें याद रहती है। सही कहा था अशोक भाई ने कि मेरा यह वही भाई था जिसने लो बजट पर कवि सम्मेलन आयोजित करने की चिंता को दूर करते हुए अपने कार्यालय में कह दिया था कि अशोक चक्रधर मेरे बड़े भाई के दोस्त हैं और इतने कम में भी आ जाएँगे। मैंने अशोक भाई को अपने भाई का यह विश्वास बताया तो उन्होंने कहा था कि तुम्हारा छोटा भाई है न प्रेम डियर तो भाई तो अपना भी छोटा भाई हुआ। मेरा यह वही भाई था जिसने दो माह पूर्व कॉलेज से मेरी सेवा निवृत्ति के आयोजन पर आए अशोक चक्रधर से अपने परिवार संग चित्र खिंचवाने के लिए कहा तो अशोक चक्रधर, किसी से की जा रही महत्त्वपूर्ण बात को बीच में छोड़कर मुस्कराते हुए आ गए थे।


अपने छोटे भाई के एक दर्दनाक कष्ट को अशोक चक्रधर भी भोग चुके थे। उस दिन अशोक भाई ने 'शो मस्ट गो ऑन टाईप से उपजा कष्ट मुझसे साझा किया। मित्र ने जो शब्द कहे वे कोरे शब्द न थे, उनसे संवेदना बरस रही थी। अशोक भाई ने बताया कि वे भी अपने छोटे भाई के भंयकर दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण मरणासन्न स्थिति के कारण किंकर्तव्यमूढ़ स्थिति झेल चुके हैं। उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मैं और किसी से कुछ न कहूँ, बस वीरेंद्र गुप्ता के साथ समाचार साझा कर दूँ और सामान्य दिखता हुआ वापस पार्टी में चलूँ। भुक्तभोगी जानते होंगे कि ऐसे सामान्य दिखना कितना कठिन है। पर जब अशोक चक्रधर जैसा साथ हो तो कठिनाई सरल हो जाती है। उस दिन भी भारी समय बहुत कुछ हल्का हुआ।


मैंने श्री वीरेंद्र गुप्ता को बताया। विदेश सेवा में रहते वे ऐसी अनेक दुर्घटनाएँ झेल चुके थे। उन्होंने न केवल गीता पढ़ी थी अपितु उसे अनेक बार व्यवहार में लाना भी पड़ा था। उन्होंने जो कहा वह ज़मीनी हकीकत से जुड़ा था। वे जानते थे कि मैं परिवार को लेकर कितना संवदेनशील हूँ। अपने पिता के एक बार कहने पर कि अब तू आ जा प्रेम, मैं 2002 में त्रिनिदाद में एक वर्ष और रुकने के 'लालच' को त्याग आया था। श्री वीरेंद्र गुप्ता ने अंतिम निर्णय मुझ पर छोड़ दिया। अशोक भाई और वीरेंद्र गुप्ता जी का ज्ञान मेरे पास था और अब कर्म मुझे करना था। मैंने उनके ज्ञान को धारण किया और जीवन की कष्टदायक यथार्थ का सामान्य होकर सामना करने लगा। मैंने दोनों से आग्रह किया कि वे किसी अन्य से इस दुखद प्रसंग की चर्चा न करें। होटल के कमरे में मेरे सहभागी रहे मेरे मित्र ने मेरी उदासी पकड़ी और आत्मीयता से कारण पूछा। इन सात दिनों में वे मेरे आत्मीय बन चुके थे। मैंने उन्हें इस कारण बता दिया कि कहीं वे बाद में शिकायत न करें कि मैंने उन्हें पराया समझा। उन्हें बताया तो उन्होंने संवेदना प्रकट की। मेरे भाई को वह जानते नहीं थे अतः और क्या प्रकट करते। मेरे लिए यही बहुत था। 


अशोक चक्रधर भाई, केवल संबोधन के भाई न होकर एक अभिभावक की तरह पूरी यात्रा मेरे साथ रहे। दक्षिण अफ्रीका से दिल्ली तक की वाया मुंबई, यात्रा बहुत लंबी थी और उस दिन तो इसे मेरे लिए अनेक गुणा लंबा होना था। अशोक भाई इस लंबे कठिन समय को अपने विशद अनुभव साझा करते हुए, छोटा करते रहे। उन्होंने इस दुखद प्रसंग को बहुत बाद में, श्री नरेश सक्सेना जी से साझा किया था। विदा होते हुए नरेश सक्सेना जी की नम आँखें और मेरे कंधे पर पड़ा हाथ बहुत कुछ कह रहा था।


उस दिन अशोक चक्रधर जी से विदा लेते हुए मैंने महसूस किया कि दूसरों को हंसाने वाले इस व्यक्ति के अंदर करुणा का कितना समृद्ध कोष है। अशोक भाई को जो सज्जन/दुर्जन बहुत समीप से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि ज़माने की तोताचश्मी ने उन्हें कितने आघात दिए हैं। फोन पर हम दोनों किसी प्रेमी प्रेमिका से बतरस का आनंद उठाते हैं। अक्सर हमारे फोन 57 मिनट 57 सेकेंड अवधि के लिए व्यस्त रहते हैं। ऐसी ही हम दो वैष्णवन की वार्ता में अशोक भाई ने अपने अंतस्थल में झांकने का मुझे अवसर प्रदान किया है। अशोक भाई के साथ अकेले में जो कुछ मुलाकातें हुई हैं वहाँ बातों-बातों में कुछ दर्द भी छलके हैं। ऐसी ही मुलाकातों में ज्ञान मिला है कि अनेक के आँसू पोंछने वाले अशोक ने स्वयं भी ऐसे शोक के दुखदायी पल बिताएँ हैं जब उसके आँसूओं को कोई देखने वाला नहीं था। निश्चित ही इस वाक्य को पढ़कर सबके अपने-अपने आँसू छलके होगें संसार ऐसा ही है कि शैली में दार्शनिक होकर कहा जा सकता है कि ऐसा कौन है जिसके दूसरे की बेदर्दी कारण आँसू न निकले हों और... और ऐसा कौन है जिसकी बेदर्दी ने दूसरे के आँसू न निकाले हों।


कड़की के दिन थे। पाँच बंडल बीड़ी लेकर उसके टोटो तक पीने वाले दिन। खाना मिला तो खाया नहीं तो कोई व्रत रखने का संतोष मनाया। कड़की के इन्हीं दिनों में पार्टी के इस कार्यकर्ता से निर्देशात्मक आग्रह किया गया कि परहित भाव जगाओ और लगने वाली अपनी नौकरी पर किसी अन्य की सिफारिश ले जाकर उसे जमाओ। हे जनता! मैदान खाली करो। कार्यकर्ता मन ने समझाया कि अग्रज हैं और नए-नए पार्टी में आए हैं, तू त्यागी बन ही जा पर त्यागी बन अपने स्थान पर जिस दूसरे को प्राध्यापक लगाने का आग्रह किया और नौकरी लगने पर जब बधाई देने घर गए तो उपेक्षा के ऐसे कोड़े बरसे कि सशक्त हृदय भी आँसुओं को न रोक सका। मिठाई तो दूर मीठे पानी की दो बूंद भी नसीब नहीं हुई। हँसी को अपनी कलम का हिस्सा बनाने वाले कवि मन की आँखों से बरबस आँसू बरस गए। ऐसे ही पाँच बंडल बीड़ी और एक समय के भोजन की व्यवस्था के लिए अपनी कलम जिस प्रकाशक को बेची उसने काम के बदले अनाज का शगुन तो क्या देना था, 'अशोक' को भिक्षुक मान, टरकाऊ शैली में कहा - फिर आना। दो सौ रुपए की अपेक्षा से गए लेखक को दो फूटी कौड़ी न मिली। ढाबे वाले से लेकर बीड़ी वाले का उधार चुकाने के संकल्प से गए मन से आँसू तो बरसने ही थे।


मेरे पास अशोक चक्रधर से जुड़ी स्मृतियों का एक समृद्ध कोष है। इस कोष में नवरस-सा रशियन क्लचरल सेंटर है, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गुजारी शामें हैबिटेट सेंटर की कर्मस्थली है, त्रिनिदाद की दोबारी यात्रा, मॉरिशस का विश्व हिंदी सम्मेलन, 'गगनाचंल' का मेरा संपादन, अशोक की पीठ पीछे किए गए मिथ्या वार हैं, हिंदी अकादमी दिल्ली और केंद्रीय हिंदी संस्थान का उनका उपाध्यक्ष पद प्यारी नेहा है, बागेश्वरी है... इन सब रसों पर एक एक अध्याय भी लिखूँ तो महा उपन्यास बन जाएगा। जिस अल्पबुद्धि लेखक ने व्यंग्य उपन्यास न लिखा हो वह महा उपन्यास क्या खाकर लिखेगा। इसलिए अभी इतना ही।

- प्रेम जनमेजय की स्मृति से


व्हाट्सएप शेयर

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

मौखिक व्यंग्य के आचार्य - विजयेंद्र स्नातक

1969 में जब मैं हस्तिनापुर कॉलेज से दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट फैक्लटी में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आया तो वहाँ अनेक अध्यापकों के साथ-साथ स्नातक जी से भी शिक्षा ग्रहण की। अन्य अध्यापकों से तो मैंने भाषा विज्ञान, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, नाटक, महाकाव्य आदि पढ़ा, पर डॉ० विजयेंद्र स्नातक और डॉ० निर्मला जैन से अलग तरह से शिक्षित हुआ। इन दोनों से पाठ्यक्रम से बाहर का बहुत कुछ सीखा। डॉ० निर्मला जैन से तो सीखने का क्रम आज तक जारी है।

इस दुखिया/सुखिया संसार में, जब भाँति-भाँति के जीव हो सकते हैं, प्रभु हो सकते हैं, तो गुरु क्यों नहीं हो सकते! मुझे भी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भाँति-भाँति के जीव प्रभु और गुरु मिले। कबीर ने "गुरु गोविंद दोउ खड़े" कहकर गुरु के पाँव लगने को कहा है, तो सावधान भी किया है कि "जाका गुरु आंधला, चेला खरा निरंध"। तब तक कबीर मेरे न केवल साहित्यिक पथ प्रदर्शक बन चुके थे, अपितु मेरा व्यंग्य चेतना से साक्षात्कार भी करवा रहे थे कुछ ऐसे गुरु मेरी प्राथमिकता भी बनने लगे। डॉ० विजयेंद्र स्नातक ऐसे ही गुरु थे। वे जब भी मिलते सहज मिलते और एक मुस्कान के साथ अन्यार्थ का अधिक प्रयोग करते। मुझे लगा कि उनसे बात करने के लिए एक अलग तरह के सुशिक्षित मस्तिष्क की आवश्यकता है। उनसे मिलकर बड़े आदमी से मिलने का भय नहीं लगता था, अपितु बड़े आदमी से कुछ सीखने की इच्छा जगती थी। जिन भी छात्रों ने उनसे पढ़ा है, वे जानते हैं कि उनका पढ़ाने का तरीका परंपरागत नहीं था। बहुत गुरु ऐसे थे जो पूरे वर्ष विभाग की राजनीति की शतरंज खेलते रहते और अंत में, दो-चार कक्षाओं में विद्यापति की पदावली समाप्त करा दिया करते। कैसे? यह पद सरल है, यह पिछली बार आ गया है, यह अश्लील है, और इसकी अंतिम दो पंक्तियाँ देख लो - जैसे पूर्ण ब्रह्म आलौकिक वाक्य छात्रों को उस अलक्ष्य की ओर धकेल देते।


डॉ० स्नातक को एम०ए० करने को विवश छात्राओं से चुटकी लेने में खूब आनंद आता था। वे व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति पर कटाक्ष करने पर विश्वास करते थे। उन दिनों हिंदी एम०ए० में साठ छात्राएँ होती, तो बारह-तेरह छात्र होते, यानि नारी शक्ति पूर्णतः हावी थी। डॉ० स्नातक कहते- ये बैठी हैं न, माँ-बाप ने सोचा जब तक विवाह के लिए वर नहीं मिलता, एम०ए० ही करा देते हैं। डॉ० स्नातक रटंत विद्या और अंधाधुंध नोट्स बनाने की प्रक्रिया के धुर विरोधी थे। लगभग तीस प्रतिशत लड़कियाँ, एक-आध लड़के भी ऐसे थे जो स्टेनो की तरह पढ़ते थे। गुरु ने जो कहा उसे शत-प्रतिशत श्रद्धा से ग्रहण कर अपनी कॉपी में लिख लिया, मस्तिष्क में लिखने का कष्ट कौन करे। जैसे वे कहते थे जो नाटक का पात्र है न, पात्र माने जानते हो न- लोटा। ये जो सब बैठीं लिख रही हैं न, इन्होंने पात्र माने लोटा लिख लिया होगा और ऐसे ही पात्र की चर्चा वे एक अन्य स्थल पर भी करते थे। वे कहते- "संस्कृत और हिंदी साहित्य में उषाकाल के वर्णन को पढ़कर एक विदेशी के मन में आया कि वह भारत की उषा देखे। वह आ गया बनारस, सुबह उठकर उषा देखने गया तो देखा सब हाथ में लोटा लिए विर्सजन को जा रहे है।" ऐसे अनेक प्रसंग "हरि अनंत हरि कथा अनंता" से हैं। उनके समुचित गुणों का प्रसार नगेंद्र-युग में न हो सका। मुझे लगा कि वे रचनात्मक सोच के व्यक्ति थे और हिंदी विभाग की शतरंज उन्हें खेलनी नहीं आती थी, या कहूँ कि उसमें उनकी रुचि नहीं थी। जिसने उनका विशाल अध्ययन कक्ष देखा है, वह समझ सकता है कि उनकी शतरंज खेलने में रुचि क्यों नहीं थी। जब वे अध्यक्ष बने और विवशता में उन्हें शतरंज सीखनी पड़ी तब भी वे अनमने भाव से खेलते और प्रयत्न करते कि बाजी ड्रॉ हो जाए।


डॉ० स्नातक मेरे न केवल पथ प्रदर्शक रहे, अपितु सहायक भी रहे। वे भी डॉ० निर्मला जैन की तरह युवाओं को आगे बढ़ता देख न केवल प्रसन्न होते अपितु मदद भी करते, पर डॉ० निर्मला जैन की तुलना में उनकी शैली बचाव की अधिक थी। मेरी एम०ए० में प्रथम श्रेणी आई थी और मैं एकमात्र लड़का था जिसकी प्रथम श्रेणी आई थी। शेष छह लड़कियाँ थी। प्रथम श्रेणी वाले को लघु शोध प्रबंध लिखने का विकल्प दिया जाता था और इसके स्थान पर उसका एक पेपर छूट जाता था। मुझे भी यही विकल्प दिया गया। मेरे पास प्रसाद स्पेशल था और मैं जयशंकर प्रसाद के लेखन से बहुत प्रभावित था। मैंने अपने शोध प्रबंध के लिए प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य विषय की माँग की। समिति में डॉ० नगेंद्र भी थे। उनके लिए यह विषय न केवल चकित करने वाला था, अपितु मूखर्तापूर्ण अगंभीर विषय था। शायद वे हास्य व्यंग्य को और विशेषकर 'कामायनी' के लेखक प्रसाद के संदर्भ में रिक्शे तांगे वालों का विषय मानते होंगें। शायद इसी कारण उन्हें कबीर पसंद न रहे हों। ऐसे विषय को रिजेक्ट होना ही था और हुआ। मुझे विषय मिला- 'प्रेमचंद की कहानियों में समाजिक परिवेश' विषय यह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था पर उतना शोधात्मक नहीं जितना प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य।


अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा क्योंकि जाऊँगा तो विषयानुकूल नहीं होगा। व्यंग्यकार पर तो वैसे भी बहकने का आरोप लगता रहता है। डॉ० नगेंद्र के बाद डॉ० सावित्री सिन्हा ने विभागाध्यक्ष का पदभार संभाला। एक वे ही थीं जो समझती थीं कि विभाग की राजनीति में न केवल आपस में चल रही है, अपितु इसमें छात्रों को घसीटकर उनका नफ़ा-नुकसान किया जाता है। उन्होंने एम०ए० के एक पेपर में मेरे आधुनिककालीन साहित्य प्रेम और साहित्यिक गतिविधियों से चिढ़े परीक्षक के द्वारा मुझ पर हुए अन्याय पर दुख प्रकट किया अपितु मेरे कैरियर पर लगे आघात की डेंटिंग पेंटिंग भी की। मैं अवसाद में न घिर जाऊँ इसलिए रामजस कॉलेज में पार्ट टाइमर प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति करवाई और मुझे सब कुछ भूलकर एम०लिट० करने का परामर्श दिया। एम०ए० में मेरी प्रथम श्रेणी नहीं आई इसलिए मुझे पी०एच०डी० में प्रवेश के लिए एम०लिट० करना ही था।


एम०लिट० में प्रवेश ने डॉ० विजयेंद्र स्नातक से मेरी नज़दीकियों के द्वार धीरे-धीरे खोलने आरंभ कर दिए। उन्हीं के कारण मुझे एम०लिट० में लघुशोध प्रबंध के लिए प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य जैसा मेरा प्रिय विषय मिल सका और उन्हीं के कारण मुझे पी०एच०डी० के लिए स्वातंत्र्योत्तर हिंदी गद्य साहित्य में व्यंग्य जैसा विषय मिला प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य जब प्रकाशित हुआ तो जहाँ तथाकिथत वरिष्ठ आलोचक हास्य-व्यंग्य को बदबूदार विषय मानकर मुँह पर रुमाल रख लेते थे, डॉ० स्नातक ने उसकी भूमिका लिखी। डॉ० विजयेंद्र स्नातक का व्यंग्य प्रेम और व्यंग्य चेतना के संबंध में चर्चा करते हुए बाद में इसकी चर्चा करूँगा ही।


अक्टूबर 1972 में मुझे दयाल सिंह कॉलेज ईवनिंग में लीच वैकेंसी पर लगाया गया तो यह कहा गया कि यहीं स्थाई भी हो जाओगे। एक क्लर्क पिता के परिवार के लिए आर्थिक मोर्चे पर यह एक बड़ी राहत थी। परिवार के लिए तो राहत थी पर कुछ दिन बाद मेरे अंदर के गोष्ठियों आदि के लालची सक्रिय लेखक को लगा कि जैसे उसे जेल में डाल दिया गया हो। जब दिन में मेरे और मित्र व्यस्त रहते, मित्रों का मारा मैं घर में मक्खियाँ मारता और जब वे शाम को 'कुछ नया करते हैं' टाईप योजना में मुझे शामिल होने को कहते तो मेरा पुराना बहाना रहता- कॉलेज जाना है.. अभी लीव वेकेंसी है। अवसाद बढ़ता गया। जुलाई 1973 में एम०लिट० के परिणाम के कारण मुझमें इस जेल से निकलने की आशा बंधी। उन दिनों डॉ० विजयेंद्र स्नातक विभागाध्यक्ष थे। मैंने एम०लिट में टॉप किया था और वे टॉपर से मिलना चाहते थे। उन्होंने अपने लिटरेरी एसिस्टेंट द्वारा मुझे मिलने का संदेशा भी भिजवाया। इधर हरीश नवल के साथ मेरी मित्रता दिन-दूनी और रात-चौगनी प्रगति कर रही थी और हरीश नवल की डॉ० विजयेंद्र स्नातक की सुपुत्री के साथ मित्रता दिनोदिन चौगुनी प्रगति कर रही थी। हरीश नवल शिवाजी कॉलेज के बाद कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज़ गोल मॉकेट में हिंदी विभागध्यक्ष थे, मेरा मित्र विभागध्यक्ष था।


मैं डॉ० स्नातक से मिलने आर्टस फेकेल्टी की प्रथम मंजिल में स्थित उनके कार्यालय में मिलने गया। कमरे में प्रवेश किया। डॉ० स्नातक ने एक मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया और फिर अपने चिर-परिचित अंदाज़, ठुड्डी पर अँगुली रखकर, "हूँ तो यह तुम हो प्रथम आने वाले"। फिर मुस्कराए। पूछा "दयालसिंह कैसा चल रहा है?" मुझे विश्वास नहीं था कि मुझे अपनी पीड़ा वर्णन का समय इतना शीघ्र मिल जाएगा। मैंने अपनी पीड़ा उड़ेल दी। वे मुस्कुराए और बोले कि "ठीक है"। उनका मुस्कुराना और ठीक शब्द मेरे गलत के ठीक होने का संकेत था।


कुछ दिन बाद हरीश नवल ने मुझसे संपर्क किया। हरीश नवल ने पूछा, "क्या तुम वोकेशनल कॉलेज में आना चाहोगे?"


दयालसिंह कॉलेज इंवनिंग से मैं इतना त्रस्त था कि मैं कहीं भी जाना चाह रहा था। दूसरे मेरी दिल्ली विश्वविद्यालय में जाने के पहले द्वार किसी कैंपस कॉलेज में नौकरी पाने के लिए आकाश-पाताल एक करने की कतई इच्छा नहीं थी। मुझे तो बस पाताल से निकलना था। लेखन मेरी प्राथमिकता बन चुका था मुझे आजीविका एवं परिवार की आर्थिक दशा सुधारने के लिए स्थाई नौकरी चाहिए थी। इसलिए मैंने हरीश से एकदम कहा- क्यों नहीं मुझे ईवनिंग कॉलेज से छुटकारा चाहिए। तुम तो जानते ही हो कि सांध्य साहित्यिक गतिविधियों के अवरोधक हैं।

-

पर प्रेम इस कॉलेज में कभी हिंदी ऑनर्स नहीं आएगा। जिंदगी भर केवल पास कोर्स पढ़ाना होगा।' कोई नहीं बॉस!...और तुम भी तो हो वहाँ...


यह दीगर बात है कि हरीश नवल अधिक बरस वहाँ नहीं रहे और कॉलेज से मेरी सेवा निवृत्ति के बाद वहाँ हिंदी ऑनर्स का पाठ्यक्रम आ गया।


कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज, 7 डॉक्टर्स लेन गोल मॉर्केट के प्रिंसपिल रूम में साक्षात्कार का दिन। साक्षात्कार देने वालो में रमेश उपाध्याय भी थे। तीन वेकेंसी थीं। मेरी बारी कुछ देर से आई।


मैं कमरे में घुसा तो चाय-पानी आरंभ हुआ था। व्यंग्यकार मन ने कहा कि चल बच गया, यहाँ चाय-पानी की पहले से व्यवस्था है, नौकरी पाने के लिए तुझे नहीं करनी होगी। कुर्सी की ओर संकेत करके आदेश हुआ बैठिए।


हरीश नवल इस समय विभागाध्यक्ष की मुद्रा में थे और पूरा प्रयत्न कर रहे थे कि कहीं मित्रता न छलक जाए। हरीश नवल के अतिरिक्त छोटे से कमरे में प्रिंसिपल डॉ० पी० एल० मल्होत्रा, डॉ० विजयेंद्र स्नातक, शायद कॉलेज प्रबंधक समिति के चेयरमैन वी० वी० जॉन थे, डॉ० मलहोत्रा ने समोसे की प्लेट डॉ० स्नातक की ओर बढ़ाई तो वे बोले प्रेम आ गया है न... ये खा लेगा... सब खा लेगा.." डॉ० मल्होत्रा जोर से हंसे। फिर डॉ० स्नातक बोले- ये कवि भी हैं... व्यंग्य कविता लिखते हैं।


डॉ० मल्होत्रा साहित्यिक अभिरुचि के थे। उनकी इसी अभिरुचि के कारण मैं और हरीश नवल छोटे से कॉलेज में अनेक बड़े साहित्यिक आयोजन कर पाए। व्यंग्य विधा है कि नहीं जैसे प्रश्न पर पहली गोष्ठी हमने इसी कॉलेज में की थी। डॉ० मल्होत्रा समोसा प्रकरण के कारण जोर से हंस ही चुके थे इसलिए व्यंग्य कविता का नाम आते ही, उसी मूड में बोले- अपनी कविता सुनाईए।


मैं साक्षात्कार के लिए कई तरह की तैयारियाँ करके गया था पर कविता सुनाने जैसी नहीं पर साक्षात्कार में मुझे विचलित नहीं दिखना था, अतः मुस्काराया, कवि मुद्रा बनाने के समय लिया और कुछ दिन पूर्व की कविता को मन में याद किया और सुना दिया कविता थी-

"न पढ़ते हैं, न पढ़ाते हैं

न लिखते हैं, न लिखाते हैं।

कवि सम्मेलन की शोभा बढ़ाते हैं।

ये कवि पुत्र ना जाने

किस चक्की का खाते हैं।"


वाह वाह के बीच मैंने देखा डॉ० स्नातक के चेहरे पर व्यंग्य मुस्कान खेल गई थी। उन्होंने कविपुत्र की पहचान कर ली थी।


इसके बाद नौकरी के लिए लिए जाने वाले साक्षात्कार को गंभीर मोड़ देने के लिए हरीश नवल ने कुछ गंभीर सवाल किए। 'हम आपको जल्दी बता देंगे' टाईप उत्तर मैंने सुना और बाहर की राह ली। मेरा सेलेक्शन होना था हुआ। जिन तीन- मुझ कंपाउडर, डॉ० रमेश उपाध्याय और गीता गोयल को चुना गया। मुझे पैनल में प्रथम रखा गया। बाद में हरीश नवल ने बताया था कि वे कॉलेज के साहित्यिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी एक के स्थान पर अचला शर्मा को रखना चाह रहे थे।


डॉ० विजयेंद्र स्नातक न केवल मौखिक व्यंग्य के आचार्य थे अपितु व्यंग्य की गहरी समझ रखते थे। चाहे उन्होंने 'राधावल्लभ संप्रदायः सिद्धांत और साहित्य' पर शोध किया था पर वे आधुनिक चेतना संपन्न आलोचक थे। डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनके शोध को 'न भूतो न भविष्यति' कहा था उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। जैसा मैंने उपरोक्त लिखा है कि सन 1972 में हिंदी विभाग का परिदृश्य बदल गया था। इससे पूर्व मैंने जब प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य विषय की मांग की तो मुझे इस दृष्टि से देखा गया कि जैसे मैं विदूषक हूँ। प्रकांड पंडितों को लगा कि एक अच्छा प्रबुद्ध विद्यार्थी आधुनिकता के मोह में भटक रहा है। मुझे साम दंड भेद आदि द्वारा समझाया गया। मैं स्पष्टतः देख रहा था कि यह वही सोच है जो डॉ० सतीश बहादुर शर्मा जैसे प्रसाद साहित्य के आलोचकों की है। मैं डॉ० सतीश बहादुर शर्मा के लिखे को पढ़ चुका था। उन्होंने अपने ग्रंथ में स्पष्टतः लिखा था- प्रसाद जैसे गंभीर व्यक्ति के नाटकों में हास्य-व्यंग्य के उदाहरण खोजना मूर्खता का काम है। मैंने डॉ० विजयेंद्र स्नातक की शरण ली थी। उन्होंने मेरी तर्कपूर्ण बातों को समझा और इस विषय को दिलाने में मेरी सहायता की। मेरे एक और आग्रह को उन्होंने मनवाया कि मैं यह कार्य डॉ० नरेंद्र कोहली के निर्देशन में कर सकूँ। उन दिनों निर्देशन का दायित्व हिंदी विभाग में कार्यरत प्राध्यापकों अथवा विभिन्न कालेजों से अतिथि के रूप में पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को ही मिलता था। नरेंद्र कोहली हस्तिनापुर कॉलेज में पढ़ाते थे। मैं एक तरह से डॉ० स्नातक का ऋणी हो गया। डॉ० स्नातक व्यंग्य की गहरी समझ रखने वाले आधुनिक सोच के आचार्य थे। यही कारण है कि मैंने जब शोध कर लिया तो उन्हें दिखाया और जब 1977 में इसके प्रकाशन की योजना बनी तो मेरे आग्रह पर उन्होंने इसकी एक बड़ी भूमिका लिखी। यह भूमिका हास्य व्यंग्य के बारे में उनकी गहरी समझ को रेखांकित करती है। उनकी इस भूमिका के कारण मेरी इस कृति की गुणवत्ता बढ़ गई। उनकी इस भूमिका के माध्यम से उनकी व्यंग्य की गहरी समझ को समझा जा सकता है। इस भूमिका का शीर्षक उन्होंने दिया था - उपेक्षित प्रसाद।


जयशंकर प्रसाद की पंरपरागत साहित्यिक छवि और उनकी व्यंग्य चेतना के पारिस्परिक विरोध को लेकर स्नातक जी कहते हैं- "प्रसाद को हिंदी साहित्य में गंभीर, मनीषी, विचारक और दार्शनिक कवि के रूप में अंकित किया जाता है। उनकी यह मनीषी की मुद्रा देखकर पाठक संभवतः उनकी रचनाओं में हास्य-व्यंग्य को सहज ही स्वीकार न करेगा, किंतु तथ्य यह है कि प्रसाद ने नाटकों में हास्य-व्यंग्य का जैसा समीचीन, सटीक और सार्थक प्रयोग किया है, वैसा बहुत कम नाटककार कर पाते हैं। सामान्य पाठक की दृष्टि उनके हास्य-व्यंग्य के प्रयोगों पर अनायास नहीं जाती, किंतु ज्यों ही संदर्भ के साथ जुड़कर हम उनके हास्य-व्यंग्य प्रकरण को पढ़ते या मंच पर देखते हैं, सारा वातावरण केवल स्पष्ट ही नहीं होता, कभी हास्य से तो कभी व्यंग्य से झंकृत हो उठता है। प्रसाद का हास्य प्रयोग व्यंग्य-संवलित है। व्यंग्य गूढार्थ संपृक्त होता है, इसलिए बौद्धिक विमर्श की माँग भी इसमें रहती है। प्रसाद ने इन तत्त्वों को अपने नाटकों में बहुत सोच-विचार के साथ समाविष्ट किया है। अतः प्रसाद का हास्य-व्यंग्य साधारण हँसी- दिल्लगी न होकर संवेदनशील एवं वैचारिक स्पंदन से युक्त होता है।"


जयशंकर प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति के विश्लेषण तक ही स्नातक जी सीमित नहीं रहते हैं अपितु व्यंग्य की पृष्ठभूमि, उसके स्वरूप, हास्य और व्यंग्य के एक साथी व्यक्तित्त्व आदि पर भी अपने मौलिक विचार व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं- हास्य-व्यंग्य मानव को प्रकृति की नैसर्गिक देन है। पशु को प्रकृति ने हास्यहीन बनाकर अभिव्यक्ति की सबसे तीव्र एवं प्रखर शैली से वंचित कर दिया है। जो मनुष्य विद्रूपता पर व्यंग्य नहीं करता, उल्लास और आमोद के क्षणों में नहीं हँसता, दंभ और पाखंड पर कशाघात नहीं करता, सामाजिक विडंबनाओं पर करारी चोट नहीं करता, वह 'साक्षात पशुः पुच्छविषाणहीनः ' ही कहा जाएगा। वस्तु संप्रेषण के लिए साहित्य विधाओं में हास्य-व्यंग्य कभी सहोदर की भाँति और कभी सौतेले भाई की तरह प्रयुक्त होते हैं। जब सहोदर बनकर आते हैं, पाठक या दर्शक की चित्तवृत्ति उल्लास से विस्तारित होती है, चारुत्व तब इनका सहायक तत्त्व होता है। जब हास्य-व्यंग्य का प्रयोग दो भिन्न स्तरों पर किया जाता है, तब हास्य फुलझड़ी की भाँति चित्त को चमत्कृत करके समाप्त हो जाता है, किंतु व्यंग्य अपनी कटुतिक्त अनुभूति से दर्शक को कचोटता है। दर्शक के भीतर एक ऐसी चेतना उदबुद्ध करता है, जो उसके भीतर गहरी लकीर की तरह खिंच जाती है। व्यंग्य सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों के पाखंड, दंभ और विडंबनाओं का पारदर्शी चित्र है। इस चित्र फलक में दर्शक वह सब देख सकता है, जो स्थूलतः समाज में घटित हो रहा है। व्यंग्य को समीक्षकों ने पैनी और दुधारु तलवार की संज्ञा दी है। दुधारु तलवार समाज के पाखंड को तो काटती ही है, प्रयोक्ता को भी अछूता नहीं छोड़ती। व्यंग्य को झेलना मूर्खों के लिए सहज होता है, क्योंकि उन्हें जगत की गति व्यापती नहीं, व्यंग्य को समझने की समझ न होना ही मूर्खों को ईश्वर का वरदान है। शायद इसीलिए व्यंग्य मूर्खों की गली नहीं जाता। अरसिकों में कवित्त-निवेदन और मूर्खो में व्यंग्य-वार्ता कलाकार की मर्मांतक पीड़ा है, विधाता से उसकी यही प्रार्थना है कि इनके बीच जाने का अवसर न दे। प्रसाद ने नाटकों में हास्य-व्यंग्य का प्रयोग मूर्ख समाज के लिए नहीं किया, उनका विदूषक भी विद्वान और विनोदी है। पारसी कंपनियों के भौंडे हास्य-विनोद प्रसाद ने कहीं स्वीकार नहीं किए।"


डॉ० विजयेंद्र स्नातक को जब भी अवसर मिला उन्होंने हिंदी व्यंग्य को महत्त्वपूर्ण पहचान दिलाने में अपनी सहभागिता से कभी इंकार नहीं किया। वे हिंदी व्यंग्य के शुभचिंतक एवं प्रबल समर्थक थे। एक वरिष्ठ आलोचक के रूप में वे जानते थे कि हिंदी साहित्य में आलोचकों ने किस तरह व्यंग्य को केवल उपहास मान तिरस्कृत किया है यही कारण है कि जब-जब व्यंग्य की ग्लानि हुई और व्यंग्य की रक्षार्थ उनके जैसे वरिष्ठ आलोचक की आवश्यकता हुई, उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।


इधर मेरी और हरीश नवल की मित्रता घनिष्ठ हो रही थी और उधर व्यंग्य के शुभचिंतक आलोचक से भी धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ रही थी। विद्यार्थी काल में उनके राणा प्रताप बाग स्थित पाँच सौ गज के विशाल आवास में प्रवेश करने में जहाँ भय और संकोच होता था, वह धीरे-धीरे सहज होता जा रहा था। इस सहजता का मुख्य कारण हरीश नवल का डॉ० विजयेंद्र स्नातक की पुत्री से विवाह भी था। कुछ दिन हरीश और सुधा स्नातक जी के आवास में पीछे वाले भाग में भी रहे। उन दिनों आना-जाना अधिक हुआ। धीरे-धीरे मेरे और हरीश नवल के परिवार भी निकट और बहुत निकट आ रहे थे। उस पारिवारिक निकटता का वर्णन मैं उनपर लिखे संस्मरण में कर चुका हूँ।


व्यंग्य के कर्मठ सिपाही के रूप मे मुझे और हरीश को देखकर स्नातक जी प्रसन्न ही होते। हमारी यात्रा में उनकी शुभकामनाएँ और साथ दोनों थे। मुझे याद है कि मार्च 1984 में अवध नारायण मुद्गल ने 'आमने-सामने' स्तंभ के लिए एक संवाद आयोजित करने के लिए कहा था। इसके लिए मैं हरीश के मार्फत स्नातक जी के पास गया तो उन्होंने हां कह दी। यह संवाद मेरे और हरीश नवल के समक्ष विजयेंद्र स्नातक, नरेंद्र कोहली और शेरजंग गर्ग थे। व्यंग्य विमर्श की दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक चर्चा थी। यह सारिका के 16-31 मार्च 1984 अंक में प्रकाशित हुई थी। डॉ० विजयेंद्र स्नातक की व्यंग्य के प्रति गहरी समझ और सोच को रेखांकित करने के लिए इस संवाद के कुछ अंश साझा कर रहा हूँ,


नरेंद्र कोहली : व्यंग्यात्मक कथाओं को छोड़ो। शुद्ध व्यंग्य-कथा को ही लो। प्रेमचंद व्यंग्यकार नहीं थे। पर बालमुकुंद गुप्त बाकायदा व्यंग्कार थे।


विजयेंद्र स्नातक : भारतेंदु युग तथा द्विवेदी युग के पचास-साठ वर्षों में जितना भी व्यंग्य लिखा गया, उसके दो ही मुद्दे थे। अशिक्षा-अंधविश्वास रूढ़ियाँ तथा विदेशी शासन एक तो उनके पास कोई तीसरा मुद्दा ही नहीं था। दूसरे शासन के विरोध में बोलने की अधिक सुविधा नहीं थी, तीसरे उनमें सूक्ष्म व्यंग्य करने की क्षमता नहीं थी। इसीलिए व्यंग्य के अच्छे पाठक भी पैदा नहीं हुए। स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक विरोध की सुविधा मिली। इसलिए व्यंग्य के विषयों का क्रम भी बदल गया। आज व्यंग्य का लक्ष्य सबसे पहले राजनीति है और अंत में धर्म।


विजयेंद्र स्नातक : विषय तो किसी भी विधा के लिए न निर्धारित हैं, न सीमित। इसलिए मात्र राजनीति ही व्यंग्य का विषय नहीं है। अभी एक शब्द आया था विसंगति उसका मूल मुद्दा भ्रष्टाचार है। सूक्ष्मदर्शी व्यंग्यकार को वह हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। विषय का टोटा नहीं हैं।


प्रेम जनमेजय : राजनीति भी तो पहले से व्यापक हो गई है।


विजयेंद्र स्नातक : तुम लोग कहते हो कि पहले विषय अधिक थे फिर भी पहले व्यंग्य अधिक नहीं लिखे गए, क्यों? पहले व्यंग्य को कला की दृष्टि से उच्च स्थान प्राप्त नहीं था।


प्रेम जनमेजय : आलोचकों के कारण।


विजयेंद्र स्नातक : हाँ, आलोचकों ने व्यंग्यकार को सही सम्मान नहीं दिया।


प्रेम जनमेजय : क्या उसका कारण यह नहीं कि व्यंग्य के साथ हास्य भी मिला हुआ था?


विजयेंद्र स्नातक : हास्य से मिला हुआ था…और हास्य भी उच्च कोटि को नहीं था। इसलिए उस समय उच्चकोटि का व्यंग्य पैदा नहीं हुआ। भारतेंदु ने 'अंधेर नगरी' लिखी, उसमें व्यंग्य भी है। पर उसका व्यंग्य बहुत सपाट है। आज का व्यंग्यकार उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और सटल लिखता है।


हरीश नवल : अभी तो उस पर बाहरी हमले ही बहुत हैं। बहुत सारे लोग तो उसको विधा ही नहीं मान रहे। परसाईजी ने खुद भी कहा है कि यह एक शैली है।


विजयेंद्र स्नातक : ठीक है। शैली तो है शैली ही विधा के रूप में परणित होती है। शेरजंग गर्ग मगर अब तो समस्या यह हो गई कि 'राग दरबारी को व्यंग्य मानें या उपन्यास या व्यंग्य - उपन्यास अभी यह स्पष्ट नहीं है।


प्रेम जनमेजय : विधा के रूप में तो हम इसे स्थापित कर चुके हैं...


विजयेंद्र स्नातक : विधा को अभी छोड़ो। मैं पहले पीढ़ियों की बात निबटाना चाहता हूँ। आज के सारे व्यंग्यकारों की एक पीढ़ी है। पहले व्यंग्य को साहित्य में सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं था, इसलिए जो लोग व्यंग्य लिख भी सकते थे, उन्होंने भी नहीं लिखा, इस स्थिति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। हास्य कवि फूहड़ हास्य आज के हास्य कवियों में भी कुछ लोग व्यंग्य लिख सकते थे, पर उन लोगों ने अशिक्षित लोगों में अपनी लोकप्रियता को अधिक वरेण्य माना। चांदनी चौक के सारे लालाओं का मंडल इकट्ठा हो जाए तो क्या वह आपका व्यंग्य समझेगा? नहीं समझेगा। वे काका हाथरसी को सुनेंगे, क्योंकि उसमें हास्य हैं। हास्य उस बात में होता है जिसको आप पहले से जानते हैं। शास्त्र का नियम है कि पहले से ज्ञात को पुनः कहने से लोकप्रियता मिलती है पर व्यंग्य लोकप्रियता तक ही रुकना नहीं चाहता। वह उससे गहरे जाता है।

हैं।


हरीश नवल : पर साहित्य के इतिहास के लेखक अभी व्यंग्य को निम्न श्रेणी का साहित्य ही मान रहे।


हरीश नवल का अंतिम वाक्य कालांतर में कुछ असत्य-सा सिद्ध हुआ। उसे असत्य सिद्ध करने वाले डॉ० विजयेंद्र स्नातक ही थे। डॉ० विजयेद्र स्नातक ने साहित्य अकादमी के आग्रह पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा था और इस इतिहास में उन्होंने हिंदी व्यंग्य को समुचित स्थान दिया था।


हिंदी व्यंग्य आलोचना को समृद्ध करने के लिए हिंदी आलोचना का एक बहुत बड़ा चेहरा मुझे व्यंग्य समर्थक रूप में मिल गया था। मेरी आरंभ से ही धारणा रही है कि हिंदी व्यंग्य साहित्य में रचनाएँ अत्यधिक लिखी गई पर उन रचनाओं पर आलोचनात्मक साहित्य कम लिखा गया। हिंदी व्यंग्य साहित्य को, व्यंग्य साहित्य से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद का मंच बनाने के लिए ही मैंने 2004 में व्यंग्य यात्रा का प्रकाशन आरंभ किया था। व्यंग्य पर विभिन्न मंचों पर संवाद तो बहुतायत में होने लगा था पर उसे पत्रिका का आवश्यक मंच नहीं मिल रहा था। इस दिशा में व्यंग्य विविधा के माध्यम से डॉ० मधुसूदन पाटिल श्रमशील थे। इसी कम में कुछ आयोजन चंडीगढ़ में अपनी संस्था और पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के माध्यम से डॉ० जगमोहन चोपड़ा अत्यधिक सक्रिय थे। चंडीगढ़ में आयोजित होने वाले साहित्यिक आयोजनों के एक के बाद आयोजन ने सुरेश सेठ ने उन्हें गोष्ठी सम्राट की संज्ञा दे डाली थी। इन्हीं जगमोहन चोपड़ा ने मुझसे और हरीश नवल से अनुरोध किया था कि हम अभिव्यक्ति का व्यंग्य विशेषांक संपादित करें। हम दोनों ने सहर्ष स्वीकार किया पर यह हर्ष लंबा खिंचा और इतना कि योजना खटाई में पड़ गई। इस अंक के लिए अनेक रचनाओं के साथ हमे डॉ० विजयेंद्र स्नातक ने व्यंग्य के शास्त्रीय पक्ष पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख दिया था। इस आलेख को बाद में मैंने व्यंग्य यात्रा के अंक 13 में प्रकाशित किया था।


अपने इस महत्त्वपूर्ण आलेख में डॉ० विजयेंद्र स्नातक ने रेखांकित कर दिया था कि व्यंग्य एक विधा है और व्यंग्यकारों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने लिखा था - "साहित्यिक विधाओं में हास्य-व्यंग्य को स्वतंत्र विधा का स्थान नहीं मिला है। यह कथन की शैली के रूप में ही साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में अंतर्मुक्त रहकर अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली एक प्रखर शैली के रूप में स्थान पा रही हैं। हास्य-व्यंग्य शैली का प्रयोग करने वाले साहित्यकार इसे स्वतंत्र विधा मानने का आग्रह व्यक्त करते हैं और उनके पास ऐसे तर्क और दलील हैं जो इस शैली को स्वतंत्र विधा की श्रेणी में स्थान दिलाने में एक सीमा तक समर्थ हैं। किंतु साहित्यालोचकों के यहाँ अभी यह प्रश्न विचाराधीन ही बना हुआ है। अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा है जो व्यंग्य लेखकों द्वारा ही शायद तय होगा। व्यंग्य का शास्त्रीय व्याकरण बन जाने पर और समर्थ हास्य-व्यंग्यकारों की विपुलमात्रा में समृद्ध रचनाएँ प्रकाश में आने पर व्यंग्य-विधा के पैर पूरी शक्ति के साथ साहित्य शास्त्र की ज़मीन पर स्थिर हो सकेंगे। सृदृढ़ भूमि पर अवस्थित हास्य-व्यंग्य का साहित्य जब जन चेतना को उद्धृत करने का प्रमाण प्रस्तुत करेगा तब कौन इसे स्वतंत्र विधा मानने से इंकार कर सकेगा। हास्य-व्यंग्य की लोकप्रियता ही इसकी दलील और वकील होंगे। आलोचकों की उपेक्षा से परेशान होने की जरूरत नहीं।"


इस आलेख में भी उन्होंने हास्य और व्यंग्य के अंतर का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया था। वे लिखते हैं- "हास्य और व्यंग्य का संबंध बड़ा विचित्र है। व्यंग्य अपने को सूक्ष्म, गंभीर और मर्मस्पर्शी मानता है। हास्य को वह स्थूल, उथला और मनोरंजक मानकर अपना सगा सहोदर नहीं मानता, हाँ, सौतेला भाई मानकर संग साथ रखने में संकोच नहीं करता। जब गंभीर व्यंग्य के साथ हास्य सहोदर के रूप में प्रयुक्त होता है तब दोनों मिलकर पाठक या दर्शक की चित्त रत्ति को उल्लास से विस्फारित करते हैं। चारुत्व तब हास्य-व्यंग्य का सहायक तत्व होता है जब हास्य का प्रयोग स्वतंत्र रूप से किसी भाव, विचार, घटना, वस्तु, दृश्य या व्यक्ति विकृत रूप को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है, तब वह हास्य चित्त को क्षणभर के लिए गुदगुदा कर और उल्लासित कर समाप्त हो जाता है। उसका सहृदय की चेतना पर कोई स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए केवल हास्य रचना को जो मनोरंजन से अधिक कुछ और नहीं करती, साहित्य शास्त्र में उत्कृष्ट कोटि की रचना नहीं माना जाता। आधुनिक समय के हास्यरस के कवि सम्मेलनों में इस तरह के लतीफे, चुटकले आदि इसी कोटि की रचनाएँ होती हैं जिनमें न तो काव्यत्व होता है और न सामाजिक की चेतना को जागृत एवं चमत्कृत करने की शक्ति होती है। व्यंग्य एक संघटक कला है जो जीवन और साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से पाई जाती है। वाणी - व्यापार की कोई इयत्ती नहीं तो व्यंग्य की इयता का निर्धारण कौन कर सकेगा।"


डॉ० विजयेंद्र स्नातक का यह आलेख न केवल दोनों हास्य और व्यंग्य के शास्त्रीय पक्ष को विश्लेषित करता है अपितु हिंदी व्यंग्य के तत्कालीन व्यंग्य परिदृश्य को रेखांकित करता है। कुछ का मैंने इसलिए उल्लेख कर दिया कि आप चावल के दाने की इस खुशबू का आनंद लें और समृद्ध हों। व्यंग्य के समाकलीन परिदृश्य पर वे लिखते हैं- "व्यंग्य लेखकों का हिंदी में अच्छा-खासा जमाव पड़ा है। पत्र-पत्रिकाओं में एक-दो व्यंग्य लेख प्रायः मिल ही जाते हैं, जिनके नाम व्यंग्य उपन्यास लेखकों में स्थापित हो चुके हैं उनसे आप सब भली-भांति परिचित हैं। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, राधाकृष्ण, सुरेंद्र वर्मा, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, श्रीकांत चौधरी, निशिकांत, सूर्यबाला, अजातशत्रु, लक्ष्मीकांत वैष्णव, शंकर पुणतांबेकर, प्रेम जनमेजय, के० पी० सक्सेना, हरीश नवल, सुरेश कांत आदि प्रमुख लेखक हैं। छुटपुट लिखने वाले तो तीन-चार दर्जन लेखक होंगे।"


आरंभ में मौखिक व्यंग्य के आचार्य विजयेंद्र स्नातक अंत में हिंदी व्यंग्य को लिखित पहचान दिलाने वाले आचार्य बन गए। ऐसे दो-तीन विजयेंद्र स्नातक हिंदी व्यंग्य साहित्य को मिल जाते तो न केवल उसे समुचित पहचान मिलती अपितु उसकी दशा और दिशा भी सुधरती। मुझे नहीं लगता कि विजयेंद्र स्नातक की इस आलोचनात्मक शक्ति से व्यंग्य जगत तो क्या पूरा साहित्य भी परिचित होगा हिंदी व्यंग्य साहित्य को अपनी आलोचनात्मक प्रतिभा से समृद्ध करने वाले इस महत्वपूर्ण साहित्य सेवी को मेरा प्रणाम।


- प्रेम जनमेजय की स्मृति से।




व्हाट्सएप शेयर