1969 में जब मैं हस्तिनापुर कॉलेज से दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट फैक्लटी में स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए आया तो वहाँ अनेक अध्यापकों के साथ-साथ स्नातक जी से भी शिक्षा ग्रहण की। अन्य अध्यापकों से तो मैंने भाषा विज्ञान, पाश्चात्य काव्यशास्त्र, नाटक, महाकाव्य आदि पढ़ा, पर डॉ० विजयेंद्र स्नातक और डॉ० निर्मला जैन से अलग तरह से शिक्षित हुआ। इन दोनों से पाठ्यक्रम से बाहर का बहुत कुछ सीखा। डॉ० निर्मला जैन से तो सीखने का क्रम आज तक जारी है।
इस दुखिया/सुखिया संसार में, जब भाँति-भाँति के जीव हो सकते हैं, प्रभु हो सकते हैं, तो गुरु क्यों नहीं हो सकते! मुझे भी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भाँति-भाँति के जीव प्रभु और गुरु मिले। कबीर ने "गुरु गोविंद दोउ खड़े" कहकर गुरु के पाँव लगने को कहा है, तो सावधान भी किया है कि "जाका गुरु आंधला, चेला खरा निरंध"। तब तक कबीर मेरे न केवल साहित्यिक पथ प्रदर्शक बन चुके थे, अपितु मेरा व्यंग्य चेतना से साक्षात्कार भी करवा रहे थे कुछ ऐसे गुरु मेरी प्राथमिकता भी बनने लगे। डॉ० विजयेंद्र स्नातक ऐसे ही गुरु थे। वे जब भी मिलते सहज मिलते और एक मुस्कान के साथ अन्यार्थ का अधिक प्रयोग करते। मुझे लगा कि उनसे बात करने के लिए एक अलग तरह के सुशिक्षित मस्तिष्क की आवश्यकता है। उनसे मिलकर बड़े आदमी से मिलने का भय नहीं लगता था, अपितु बड़े आदमी से कुछ सीखने की इच्छा जगती थी। जिन भी छात्रों ने उनसे पढ़ा है, वे जानते हैं कि उनका पढ़ाने का तरीका परंपरागत नहीं था। बहुत गुरु ऐसे थे जो पूरे वर्ष विभाग की राजनीति की शतरंज खेलते रहते और अंत में, दो-चार कक्षाओं में विद्यापति की पदावली समाप्त करा दिया करते। कैसे? यह पद सरल है, यह पिछली बार आ गया है, यह अश्लील है, और इसकी अंतिम दो पंक्तियाँ देख लो - जैसे पूर्ण ब्रह्म आलौकिक वाक्य छात्रों को उस अलक्ष्य की ओर धकेल देते।
डॉ० स्नातक को एम०ए० करने को विवश छात्राओं से चुटकी लेने में खूब आनंद आता था। वे व्यक्ति नहीं प्रवृत्ति पर कटाक्ष करने पर विश्वास करते थे। उन दिनों हिंदी एम०ए० में साठ छात्राएँ होती, तो बारह-तेरह छात्र होते, यानि नारी शक्ति पूर्णतः हावी थी। डॉ० स्नातक कहते- ये बैठी हैं न, माँ-बाप ने सोचा जब तक विवाह के लिए वर नहीं मिलता, एम०ए० ही करा देते हैं। डॉ० स्नातक रटंत विद्या और अंधाधुंध नोट्स बनाने की प्रक्रिया के धुर विरोधी थे। लगभग तीस प्रतिशत लड़कियाँ, एक-आध लड़के भी ऐसे थे जो स्टेनो की तरह पढ़ते थे। गुरु ने जो कहा उसे शत-प्रतिशत श्रद्धा से ग्रहण कर अपनी कॉपी में लिख लिया, मस्तिष्क में लिखने का कष्ट कौन करे। जैसे वे कहते थे जो नाटक का पात्र है न, पात्र माने जानते हो न- लोटा। ये जो सब बैठीं लिख रही हैं न, इन्होंने पात्र माने लोटा लिख लिया होगा और ऐसे ही पात्र की चर्चा वे एक अन्य स्थल पर भी करते थे। वे कहते- "संस्कृत और हिंदी साहित्य में उषाकाल के वर्णन को पढ़कर एक विदेशी के मन में आया कि वह भारत की उषा देखे। वह आ गया बनारस, सुबह उठकर उषा देखने गया तो देखा सब हाथ में लोटा लिए विर्सजन को जा रहे है।" ऐसे अनेक प्रसंग "हरि अनंत हरि कथा अनंता" से हैं। उनके समुचित गुणों का प्रसार नगेंद्र-युग में न हो सका। मुझे लगा कि वे रचनात्मक सोच के व्यक्ति थे और हिंदी विभाग की शतरंज उन्हें खेलनी नहीं आती थी, या कहूँ कि उसमें उनकी रुचि नहीं थी। जिसने उनका विशाल अध्ययन कक्ष देखा है, वह समझ सकता है कि उनकी शतरंज खेलने में रुचि क्यों नहीं थी। जब वे अध्यक्ष बने और विवशता में उन्हें शतरंज सीखनी पड़ी तब भी वे अनमने भाव से खेलते और प्रयत्न करते कि बाजी ड्रॉ हो जाए।
डॉ० स्नातक मेरे न केवल पथ प्रदर्शक रहे, अपितु सहायक भी रहे। वे भी डॉ० निर्मला जैन की तरह युवाओं को आगे बढ़ता देख न केवल प्रसन्न होते अपितु मदद भी करते, पर डॉ० निर्मला जैन की तुलना में उनकी शैली बचाव की अधिक थी। मेरी एम०ए० में प्रथम श्रेणी आई थी और मैं एकमात्र लड़का था जिसकी प्रथम श्रेणी आई थी। शेष छह लड़कियाँ थी। प्रथम श्रेणी वाले को लघु शोध प्रबंध लिखने का विकल्प दिया जाता था और इसके स्थान पर उसका एक पेपर छूट जाता था। मुझे भी यही विकल्प दिया गया। मेरे पास प्रसाद स्पेशल था और मैं जयशंकर प्रसाद के लेखन से बहुत प्रभावित था। मैंने अपने शोध प्रबंध के लिए प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य विषय की माँग की। समिति में डॉ० नगेंद्र भी थे। उनके लिए यह विषय न केवल चकित करने वाला था, अपितु मूखर्तापूर्ण अगंभीर विषय था। शायद वे हास्य व्यंग्य को और विशेषकर 'कामायनी' के लेखक प्रसाद के संदर्भ में रिक्शे तांगे वालों का विषय मानते होंगें। शायद इसी कारण उन्हें कबीर पसंद न रहे हों। ऐसे विषय को रिजेक्ट होना ही था और हुआ। मुझे विषय मिला- 'प्रेमचंद की कहानियों में समाजिक परिवेश' विषय यह भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था पर उतना शोधात्मक नहीं जितना प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य।
अधिक विस्तार में नहीं जाऊँगा क्योंकि जाऊँगा तो विषयानुकूल नहीं होगा। व्यंग्यकार पर तो वैसे भी बहकने का आरोप लगता रहता है। डॉ० नगेंद्र के बाद डॉ० सावित्री सिन्हा ने विभागाध्यक्ष का पदभार संभाला। एक वे ही थीं जो समझती थीं कि विभाग की राजनीति में न केवल आपस में चल रही है, अपितु इसमें छात्रों को घसीटकर उनका नफ़ा-नुकसान किया जाता है। उन्होंने एम०ए० के एक पेपर में मेरे आधुनिककालीन साहित्य प्रेम और साहित्यिक गतिविधियों से चिढ़े परीक्षक के द्वारा मुझ पर हुए अन्याय पर दुख प्रकट किया अपितु मेरे कैरियर पर लगे आघात की डेंटिंग पेंटिंग भी की। मैं अवसाद में न घिर जाऊँ इसलिए रामजस कॉलेज में पार्ट टाइमर प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति करवाई और मुझे सब कुछ भूलकर एम०लिट० करने का परामर्श दिया। एम०ए० में मेरी प्रथम श्रेणी नहीं आई इसलिए मुझे पी०एच०डी० में प्रवेश के लिए एम०लिट० करना ही था।
एम०लिट० में प्रवेश ने डॉ० विजयेंद्र स्नातक से मेरी नज़दीकियों के द्वार धीरे-धीरे खोलने आरंभ कर दिए। उन्हीं के कारण मुझे एम०लिट० में लघुशोध प्रबंध के लिए प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य जैसा मेरा प्रिय विषय मिल सका और उन्हीं के कारण मुझे पी०एच०डी० के लिए स्वातंत्र्योत्तर हिंदी गद्य साहित्य में व्यंग्य जैसा विषय मिला प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य जब प्रकाशित हुआ तो जहाँ तथाकिथत वरिष्ठ आलोचक हास्य-व्यंग्य को बदबूदार विषय मानकर मुँह पर रुमाल रख लेते थे, डॉ० स्नातक ने उसकी भूमिका लिखी। डॉ० विजयेंद्र स्नातक का व्यंग्य प्रेम और व्यंग्य चेतना के संबंध में चर्चा करते हुए बाद में इसकी चर्चा करूँगा ही।
अक्टूबर 1972 में मुझे दयाल सिंह कॉलेज ईवनिंग में लीच वैकेंसी पर लगाया गया तो यह कहा गया कि यहीं स्थाई भी हो जाओगे। एक क्लर्क पिता के परिवार के लिए आर्थिक मोर्चे पर यह एक बड़ी राहत थी। परिवार के लिए तो राहत थी पर कुछ दिन बाद मेरे अंदर के गोष्ठियों आदि के लालची सक्रिय लेखक को लगा कि जैसे उसे जेल में डाल दिया गया हो। जब दिन में मेरे और मित्र व्यस्त रहते, मित्रों का मारा मैं घर में मक्खियाँ मारता और जब वे शाम को 'कुछ नया करते हैं' टाईप योजना में मुझे शामिल होने को कहते तो मेरा पुराना बहाना रहता- कॉलेज जाना है.. अभी लीव वेकेंसी है। अवसाद बढ़ता गया। जुलाई 1973 में एम०लिट० के परिणाम के कारण मुझमें इस जेल से निकलने की आशा बंधी। उन दिनों डॉ० विजयेंद्र स्नातक विभागाध्यक्ष थे। मैंने एम०लिट में टॉप किया था और वे टॉपर से मिलना चाहते थे। उन्होंने अपने लिटरेरी एसिस्टेंट द्वारा मुझे मिलने का संदेशा भी भिजवाया। इधर हरीश नवल के साथ मेरी मित्रता दिन-दूनी और रात-चौगनी प्रगति कर रही थी और हरीश नवल की डॉ० विजयेंद्र स्नातक की सुपुत्री के साथ मित्रता दिनोदिन चौगुनी प्रगति कर रही थी। हरीश नवल शिवाजी कॉलेज के बाद कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज़ गोल मॉकेट में हिंदी विभागध्यक्ष थे, मेरा मित्र विभागध्यक्ष था।
मैं डॉ० स्नातक से मिलने आर्टस फेकेल्टी की प्रथम मंजिल में स्थित उनके कार्यालय में मिलने गया। कमरे में प्रवेश किया। डॉ० स्नातक ने एक मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया और फिर अपने चिर-परिचित अंदाज़, ठुड्डी पर अँगुली रखकर, "हूँ तो यह तुम हो प्रथम आने वाले"। फिर मुस्कराए। पूछा "दयालसिंह कैसा चल रहा है?" मुझे विश्वास नहीं था कि मुझे अपनी पीड़ा वर्णन का समय इतना शीघ्र मिल जाएगा। मैंने अपनी पीड़ा उड़ेल दी। वे मुस्कुराए और बोले कि "ठीक है"। उनका मुस्कुराना और ठीक शब्द मेरे गलत के ठीक होने का संकेत था।
कुछ दिन बाद हरीश नवल ने मुझसे संपर्क किया। हरीश नवल ने पूछा, "क्या तुम वोकेशनल कॉलेज में आना चाहोगे?"
दयालसिंह कॉलेज इंवनिंग से मैं इतना त्रस्त था कि मैं कहीं भी जाना चाह रहा था। दूसरे मेरी दिल्ली विश्वविद्यालय में जाने के पहले द्वार किसी कैंपस कॉलेज में नौकरी पाने के लिए आकाश-पाताल एक करने की कतई इच्छा नहीं थी। मुझे तो बस पाताल से निकलना था। लेखन मेरी प्राथमिकता बन चुका था मुझे आजीविका एवं परिवार की आर्थिक दशा सुधारने के लिए स्थाई नौकरी चाहिए थी। इसलिए मैंने हरीश से एकदम कहा- क्यों नहीं मुझे ईवनिंग कॉलेज से छुटकारा चाहिए। तुम तो जानते ही हो कि सांध्य साहित्यिक गतिविधियों के अवरोधक हैं।
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पर प्रेम इस कॉलेज में कभी हिंदी ऑनर्स नहीं आएगा। जिंदगी भर केवल पास कोर्स पढ़ाना होगा।' कोई नहीं बॉस!...और तुम भी तो हो वहाँ...
यह दीगर बात है कि हरीश नवल अधिक बरस वहाँ नहीं रहे और कॉलेज से मेरी सेवा निवृत्ति के बाद वहाँ हिंदी ऑनर्स का पाठ्यक्रम आ गया।
कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज, 7 डॉक्टर्स लेन गोल मॉर्केट के प्रिंसपिल रूम में साक्षात्कार का दिन। साक्षात्कार देने वालो में रमेश उपाध्याय भी थे। तीन वेकेंसी थीं। मेरी बारी कुछ देर से आई।
मैं कमरे में घुसा तो चाय-पानी आरंभ हुआ था। व्यंग्यकार मन ने कहा कि चल बच गया, यहाँ चाय-पानी की पहले से व्यवस्था है, नौकरी पाने के लिए तुझे नहीं करनी होगी। कुर्सी की ओर संकेत करके आदेश हुआ बैठिए।
हरीश नवल इस समय विभागाध्यक्ष की मुद्रा में थे और पूरा प्रयत्न कर रहे थे कि कहीं मित्रता न छलक जाए। हरीश नवल के अतिरिक्त छोटे से कमरे में प्रिंसिपल डॉ० पी० एल० मल्होत्रा, डॉ० विजयेंद्र स्नातक, शायद कॉलेज प्रबंधक समिति के चेयरमैन वी० वी० जॉन थे, डॉ० मलहोत्रा ने समोसे की प्लेट डॉ० स्नातक की ओर बढ़ाई तो वे बोले प्रेम आ गया है न... ये खा लेगा... सब खा लेगा.." डॉ० मल्होत्रा जोर से हंसे। फिर डॉ० स्नातक बोले- ये कवि भी हैं... व्यंग्य कविता लिखते हैं।
डॉ० मल्होत्रा साहित्यिक अभिरुचि के थे। उनकी इसी अभिरुचि के कारण मैं और हरीश नवल छोटे से कॉलेज में अनेक बड़े साहित्यिक आयोजन कर पाए। व्यंग्य विधा है कि नहीं जैसे प्रश्न पर पहली गोष्ठी हमने इसी कॉलेज में की थी। डॉ० मल्होत्रा समोसा प्रकरण के कारण जोर से हंस ही चुके थे इसलिए व्यंग्य कविता का नाम आते ही, उसी मूड में बोले- अपनी कविता सुनाईए।
मैं साक्षात्कार के लिए कई तरह की तैयारियाँ करके गया था पर कविता सुनाने जैसी नहीं पर साक्षात्कार में मुझे विचलित नहीं दिखना था, अतः मुस्काराया, कवि मुद्रा बनाने के समय लिया और कुछ दिन पूर्व की कविता को मन में याद किया और सुना दिया कविता थी-
"न पढ़ते हैं, न पढ़ाते हैं
न लिखते हैं, न लिखाते हैं।
कवि सम्मेलन की शोभा बढ़ाते हैं।
ये कवि पुत्र ना जाने
किस चक्की का खाते हैं।"
वाह वाह के बीच मैंने देखा डॉ० स्नातक के चेहरे पर व्यंग्य मुस्कान खेल गई थी। उन्होंने कविपुत्र की पहचान कर ली थी।
इसके बाद नौकरी के लिए लिए जाने वाले साक्षात्कार को गंभीर मोड़ देने के लिए हरीश नवल ने कुछ गंभीर सवाल किए। 'हम आपको जल्दी बता देंगे' टाईप उत्तर मैंने सुना और बाहर की राह ली। मेरा सेलेक्शन होना था हुआ। जिन तीन- मुझ कंपाउडर, डॉ० रमेश उपाध्याय और गीता गोयल को चुना गया। मुझे पैनल में प्रथम रखा गया। बाद में हरीश नवल ने बताया था कि वे कॉलेज के साहित्यिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किसी एक के स्थान पर अचला शर्मा को रखना चाह रहे थे।
डॉ० विजयेंद्र स्नातक न केवल मौखिक व्यंग्य के आचार्य थे अपितु व्यंग्य की गहरी समझ रखते थे। चाहे उन्होंने 'राधावल्लभ संप्रदायः सिद्धांत और साहित्य' पर शोध किया था पर वे आधुनिक चेतना संपन्न आलोचक थे। डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनके शोध को 'न भूतो न भविष्यति' कहा था उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। जैसा मैंने उपरोक्त लिखा है कि सन 1972 में हिंदी विभाग का परिदृश्य बदल गया था। इससे पूर्व मैंने जब प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य विषय की मांग की तो मुझे इस दृष्टि से देखा गया कि जैसे मैं विदूषक हूँ। प्रकांड पंडितों को लगा कि एक अच्छा प्रबुद्ध विद्यार्थी आधुनिकता के मोह में भटक रहा है। मुझे साम दंड भेद आदि द्वारा समझाया गया। मैं स्पष्टतः देख रहा था कि यह वही सोच है जो डॉ० सतीश बहादुर शर्मा जैसे प्रसाद साहित्य के आलोचकों की है। मैं डॉ० सतीश बहादुर शर्मा के लिखे को पढ़ चुका था। उन्होंने अपने ग्रंथ में स्पष्टतः लिखा था- प्रसाद जैसे गंभीर व्यक्ति के नाटकों में हास्य-व्यंग्य के उदाहरण खोजना मूर्खता का काम है। मैंने डॉ० विजयेंद्र स्नातक की शरण ली थी। उन्होंने मेरी तर्कपूर्ण बातों को समझा और इस विषय को दिलाने में मेरी सहायता की। मेरे एक और आग्रह को उन्होंने मनवाया कि मैं यह कार्य डॉ० नरेंद्र कोहली के निर्देशन में कर सकूँ। उन दिनों निर्देशन का दायित्व हिंदी विभाग में कार्यरत प्राध्यापकों अथवा विभिन्न कालेजों से अतिथि के रूप में पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को ही मिलता था। नरेंद्र कोहली हस्तिनापुर कॉलेज में पढ़ाते थे। मैं एक तरह से डॉ० स्नातक का ऋणी हो गया। डॉ० स्नातक व्यंग्य की गहरी समझ रखने वाले आधुनिक सोच के आचार्य थे। यही कारण है कि मैंने जब शोध कर लिया तो उन्हें दिखाया और जब 1977 में इसके प्रकाशन की योजना बनी तो मेरे आग्रह पर उन्होंने इसकी एक बड़ी भूमिका लिखी। यह भूमिका हास्य व्यंग्य के बारे में उनकी गहरी समझ को रेखांकित करती है। उनकी इस भूमिका के कारण मेरी इस कृति की गुणवत्ता बढ़ गई। उनकी इस भूमिका के माध्यम से उनकी व्यंग्य की गहरी समझ को समझा जा सकता है। इस भूमिका का शीर्षक उन्होंने दिया था - उपेक्षित प्रसाद।
जयशंकर प्रसाद की पंरपरागत साहित्यिक छवि और उनकी व्यंग्य चेतना के पारिस्परिक विरोध को लेकर स्नातक जी कहते हैं- "प्रसाद को हिंदी साहित्य में गंभीर, मनीषी, विचारक और दार्शनिक कवि के रूप में अंकित किया जाता है। उनकी यह मनीषी की मुद्रा देखकर पाठक संभवतः उनकी रचनाओं में हास्य-व्यंग्य को सहज ही स्वीकार न करेगा, किंतु तथ्य यह है कि प्रसाद ने नाटकों में हास्य-व्यंग्य का जैसा समीचीन, सटीक और सार्थक प्रयोग किया है, वैसा बहुत कम नाटककार कर पाते हैं। सामान्य पाठक की दृष्टि उनके हास्य-व्यंग्य के प्रयोगों पर अनायास नहीं जाती, किंतु ज्यों ही संदर्भ के साथ जुड़कर हम उनके हास्य-व्यंग्य प्रकरण को पढ़ते या मंच पर देखते हैं, सारा वातावरण केवल स्पष्ट ही नहीं होता, कभी हास्य से तो कभी व्यंग्य से झंकृत हो उठता है। प्रसाद का हास्य प्रयोग व्यंग्य-संवलित है। व्यंग्य गूढार्थ संपृक्त होता है, इसलिए बौद्धिक विमर्श की माँग भी इसमें रहती है। प्रसाद ने इन तत्त्वों को अपने नाटकों में बहुत सोच-विचार के साथ समाविष्ट किया है। अतः प्रसाद का हास्य-व्यंग्य साधारण हँसी- दिल्लगी न होकर संवेदनशील एवं वैचारिक स्पंदन से युक्त होता है।"
जयशंकर प्रसाद के नाटकों में हास्य-व्यंग्य की उपस्थिति के विश्लेषण तक ही स्नातक जी सीमित नहीं रहते हैं अपितु व्यंग्य की पृष्ठभूमि, उसके स्वरूप, हास्य और व्यंग्य के एक साथी व्यक्तित्त्व आदि पर भी अपने मौलिक विचार व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं- हास्य-व्यंग्य मानव को प्रकृति की नैसर्गिक देन है। पशु को प्रकृति ने हास्यहीन बनाकर अभिव्यक्ति की सबसे तीव्र एवं प्रखर शैली से वंचित कर दिया है। जो मनुष्य विद्रूपता पर व्यंग्य नहीं करता, उल्लास और आमोद के क्षणों में नहीं हँसता, दंभ और पाखंड पर कशाघात नहीं करता, सामाजिक विडंबनाओं पर करारी चोट नहीं करता, वह 'साक्षात पशुः पुच्छविषाणहीनः ' ही कहा जाएगा। वस्तु संप्रेषण के लिए साहित्य विधाओं में हास्य-व्यंग्य कभी सहोदर की भाँति और कभी सौतेले भाई की तरह प्रयुक्त होते हैं। जब सहोदर बनकर आते हैं, पाठक या दर्शक की चित्तवृत्ति उल्लास से विस्तारित होती है, चारुत्व तब इनका सहायक तत्त्व होता है। जब हास्य-व्यंग्य का प्रयोग दो भिन्न स्तरों पर किया जाता है, तब हास्य फुलझड़ी की भाँति चित्त को चमत्कृत करके समाप्त हो जाता है, किंतु व्यंग्य अपनी कटुतिक्त अनुभूति से दर्शक को कचोटता है। दर्शक के भीतर एक ऐसी चेतना उदबुद्ध करता है, जो उसके भीतर गहरी लकीर की तरह खिंच जाती है। व्यंग्य सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों के पाखंड, दंभ और विडंबनाओं का पारदर्शी चित्र है। इस चित्र फलक में दर्शक वह सब देख सकता है, जो स्थूलतः समाज में घटित हो रहा है। व्यंग्य को समीक्षकों ने पैनी और दुधारु तलवार की संज्ञा दी है। दुधारु तलवार समाज के पाखंड को तो काटती ही है, प्रयोक्ता को भी अछूता नहीं छोड़ती। व्यंग्य को झेलना मूर्खों के लिए सहज होता है, क्योंकि उन्हें जगत की गति व्यापती नहीं, व्यंग्य को समझने की समझ न होना ही मूर्खों को ईश्वर का वरदान है। शायद इसीलिए व्यंग्य मूर्खों की गली नहीं जाता। अरसिकों में कवित्त-निवेदन और मूर्खो में व्यंग्य-वार्ता कलाकार की मर्मांतक पीड़ा है, विधाता से उसकी यही प्रार्थना है कि इनके बीच जाने का अवसर न दे। प्रसाद ने नाटकों में हास्य-व्यंग्य का प्रयोग मूर्ख समाज के लिए नहीं किया, उनका विदूषक भी विद्वान और विनोदी है। पारसी कंपनियों के भौंडे हास्य-विनोद प्रसाद ने कहीं स्वीकार नहीं किए।"
डॉ० विजयेंद्र स्नातक को जब भी अवसर मिला उन्होंने हिंदी व्यंग्य को महत्त्वपूर्ण पहचान दिलाने में अपनी सहभागिता से कभी इंकार नहीं किया। वे हिंदी व्यंग्य के शुभचिंतक एवं प्रबल समर्थक थे। एक वरिष्ठ आलोचक के रूप में वे जानते थे कि हिंदी साहित्य में आलोचकों ने किस तरह व्यंग्य को केवल उपहास मान तिरस्कृत किया है यही कारण है कि जब-जब व्यंग्य की ग्लानि हुई और व्यंग्य की रक्षार्थ उनके जैसे वरिष्ठ आलोचक की आवश्यकता हुई, उन्होंने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इधर मेरी और हरीश नवल की मित्रता घनिष्ठ हो रही थी और उधर व्यंग्य के शुभचिंतक आलोचक से भी धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ रही थी। विद्यार्थी काल में उनके राणा प्रताप बाग स्थित पाँच सौ गज के विशाल आवास में प्रवेश करने में जहाँ भय और संकोच होता था, वह धीरे-धीरे सहज होता जा रहा था। इस सहजता का मुख्य कारण हरीश नवल का डॉ० विजयेंद्र स्नातक की पुत्री से विवाह भी था। कुछ दिन हरीश और सुधा स्नातक जी के आवास में पीछे वाले भाग में भी रहे। उन दिनों आना-जाना अधिक हुआ। धीरे-धीरे मेरे और हरीश नवल के परिवार भी निकट और बहुत निकट आ रहे थे। उस पारिवारिक निकटता का वर्णन मैं उनपर लिखे संस्मरण में कर चुका हूँ।
व्यंग्य के कर्मठ सिपाही के रूप मे मुझे और हरीश को देखकर स्नातक जी प्रसन्न ही होते। हमारी यात्रा में उनकी शुभकामनाएँ और साथ दोनों थे। मुझे याद है कि मार्च 1984 में अवध नारायण मुद्गल ने 'आमने-सामने' स्तंभ के लिए एक संवाद आयोजित करने के लिए कहा था। इसके लिए मैं हरीश के मार्फत स्नातक जी के पास गया तो उन्होंने हां कह दी। यह संवाद मेरे और हरीश नवल के समक्ष विजयेंद्र स्नातक, नरेंद्र कोहली और शेरजंग गर्ग थे। व्यंग्य विमर्श की दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक चर्चा थी। यह सारिका के 16-31 मार्च 1984 अंक में प्रकाशित हुई थी। डॉ० विजयेंद्र स्नातक की व्यंग्य के प्रति गहरी समझ और सोच को रेखांकित करने के लिए इस संवाद के कुछ अंश साझा कर रहा हूँ,
नरेंद्र कोहली : व्यंग्यात्मक कथाओं को छोड़ो। शुद्ध व्यंग्य-कथा को ही लो। प्रेमचंद व्यंग्यकार नहीं थे। पर बालमुकुंद गुप्त बाकायदा व्यंग्कार थे।
विजयेंद्र स्नातक : भारतेंदु युग तथा द्विवेदी युग के पचास-साठ वर्षों में जितना भी व्यंग्य लिखा गया, उसके दो ही मुद्दे थे। अशिक्षा-अंधविश्वास रूढ़ियाँ तथा विदेशी शासन एक तो उनके पास कोई तीसरा मुद्दा ही नहीं था। दूसरे शासन के विरोध में बोलने की अधिक सुविधा नहीं थी, तीसरे उनमें सूक्ष्म व्यंग्य करने की क्षमता नहीं थी। इसीलिए व्यंग्य के अच्छे पाठक भी पैदा नहीं हुए। स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक विरोध की सुविधा मिली। इसलिए व्यंग्य के विषयों का क्रम भी बदल गया। आज व्यंग्य का लक्ष्य सबसे पहले राजनीति है और अंत में धर्म।
विजयेंद्र स्नातक : विषय तो किसी भी विधा के लिए न निर्धारित हैं, न सीमित। इसलिए मात्र राजनीति ही व्यंग्य का विषय नहीं है। अभी एक शब्द आया था विसंगति उसका मूल मुद्दा भ्रष्टाचार है। सूक्ष्मदर्शी व्यंग्यकार को वह हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। विषय का टोटा नहीं हैं।
प्रेम जनमेजय : राजनीति भी तो पहले से व्यापक हो गई है।
विजयेंद्र स्नातक : तुम लोग कहते हो कि पहले विषय अधिक थे फिर भी पहले व्यंग्य अधिक नहीं लिखे गए, क्यों? पहले व्यंग्य को कला की दृष्टि से उच्च स्थान प्राप्त नहीं था।
प्रेम जनमेजय : आलोचकों के कारण।
विजयेंद्र स्नातक : हाँ, आलोचकों ने व्यंग्यकार को सही सम्मान नहीं दिया।
प्रेम जनमेजय : क्या उसका कारण यह नहीं कि व्यंग्य के साथ हास्य भी मिला हुआ था?
विजयेंद्र स्नातक : हास्य से मिला हुआ था…और हास्य भी उच्च कोटि को नहीं था। इसलिए उस समय उच्चकोटि का व्यंग्य पैदा नहीं हुआ। भारतेंदु ने 'अंधेर नगरी' लिखी, उसमें व्यंग्य भी है। पर उसका व्यंग्य बहुत सपाट है। आज का व्यंग्यकार उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और सटल लिखता है।
हरीश नवल : अभी तो उस पर बाहरी हमले ही बहुत हैं। बहुत सारे लोग तो उसको विधा ही नहीं मान रहे। परसाईजी ने खुद भी कहा है कि यह एक शैली है।
विजयेंद्र स्नातक : ठीक है। शैली तो है शैली ही विधा के रूप में परणित होती है। शेरजंग गर्ग मगर अब तो समस्या यह हो गई कि 'राग दरबारी को व्यंग्य मानें या उपन्यास या व्यंग्य - उपन्यास अभी यह स्पष्ट नहीं है।
प्रेम जनमेजय : विधा के रूप में तो हम इसे स्थापित कर चुके हैं...
विजयेंद्र स्नातक : विधा को अभी छोड़ो। मैं पहले पीढ़ियों की बात निबटाना चाहता हूँ। आज के सारे व्यंग्यकारों की एक पीढ़ी है। पहले व्यंग्य को साहित्य में सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं था, इसलिए जो लोग व्यंग्य लिख भी सकते थे, उन्होंने भी नहीं लिखा, इस स्थिति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। हास्य कवि फूहड़ हास्य आज के हास्य कवियों में भी कुछ लोग व्यंग्य लिख सकते थे, पर उन लोगों ने अशिक्षित लोगों में अपनी लोकप्रियता को अधिक वरेण्य माना। चांदनी चौक के सारे लालाओं का मंडल इकट्ठा हो जाए तो क्या वह आपका व्यंग्य समझेगा? नहीं समझेगा। वे काका हाथरसी को सुनेंगे, क्योंकि उसमें हास्य हैं। हास्य उस बात में होता है जिसको आप पहले से जानते हैं। शास्त्र का नियम है कि पहले से ज्ञात को पुनः कहने से लोकप्रियता मिलती है पर व्यंग्य लोकप्रियता तक ही रुकना नहीं चाहता। वह उससे गहरे जाता है।
हैं।
हरीश नवल : पर साहित्य के इतिहास के लेखक अभी व्यंग्य को निम्न श्रेणी का साहित्य ही मान रहे।
हरीश नवल का अंतिम वाक्य कालांतर में कुछ असत्य-सा सिद्ध हुआ। उसे असत्य सिद्ध करने वाले डॉ० विजयेंद्र स्नातक ही थे। डॉ० विजयेद्र स्नातक ने साहित्य अकादमी के आग्रह पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा था और इस इतिहास में उन्होंने हिंदी व्यंग्य को समुचित स्थान दिया था।
हिंदी व्यंग्य आलोचना को समृद्ध करने के लिए हिंदी आलोचना का एक बहुत बड़ा चेहरा मुझे व्यंग्य समर्थक रूप में मिल गया था। मेरी आरंभ से ही धारणा रही है कि हिंदी व्यंग्य साहित्य में रचनाएँ अत्यधिक लिखी गई पर उन रचनाओं पर आलोचनात्मक साहित्य कम लिखा गया। हिंदी व्यंग्य साहित्य को, व्यंग्य साहित्य से जुड़े महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर संवाद का मंच बनाने के लिए ही मैंने 2004 में व्यंग्य यात्रा का प्रकाशन आरंभ किया था। व्यंग्य पर विभिन्न मंचों पर संवाद तो बहुतायत में होने लगा था पर उसे पत्रिका का आवश्यक मंच नहीं मिल रहा था। इस दिशा में व्यंग्य विविधा के माध्यम से डॉ० मधुसूदन पाटिल श्रमशील थे। इसी कम में कुछ आयोजन चंडीगढ़ में अपनी संस्था और पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के माध्यम से डॉ० जगमोहन चोपड़ा अत्यधिक सक्रिय थे। चंडीगढ़ में आयोजित होने वाले साहित्यिक आयोजनों के एक के बाद आयोजन ने सुरेश सेठ ने उन्हें गोष्ठी सम्राट की संज्ञा दे डाली थी। इन्हीं जगमोहन चोपड़ा ने मुझसे और हरीश नवल से अनुरोध किया था कि हम अभिव्यक्ति का व्यंग्य विशेषांक संपादित करें। हम दोनों ने सहर्ष स्वीकार किया पर यह हर्ष लंबा खिंचा और इतना कि योजना खटाई में पड़ गई। इस अंक के लिए अनेक रचनाओं के साथ हमे डॉ० विजयेंद्र स्नातक ने व्यंग्य के शास्त्रीय पक्ष पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख दिया था। इस आलेख को बाद में मैंने व्यंग्य यात्रा के अंक 13 में प्रकाशित किया था।
अपने इस महत्त्वपूर्ण आलेख में डॉ० विजयेंद्र स्नातक ने रेखांकित कर दिया था कि व्यंग्य एक विधा है और व्यंग्यकारों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं हैं। उन्होंने लिखा था - "साहित्यिक विधाओं में हास्य-व्यंग्य को स्वतंत्र विधा का स्थान नहीं मिला है। यह कथन की शैली के रूप में ही साहित्य की सभी प्रमुख विधाओं में अंतर्मुक्त रहकर अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली एक प्रखर शैली के रूप में स्थान पा रही हैं। हास्य-व्यंग्य शैली का प्रयोग करने वाले साहित्यकार इसे स्वतंत्र विधा मानने का आग्रह व्यक्त करते हैं और उनके पास ऐसे तर्क और दलील हैं जो इस शैली को स्वतंत्र विधा की श्रेणी में स्थान दिलाने में एक सीमा तक समर्थ हैं। किंतु साहित्यालोचकों के यहाँ अभी यह प्रश्न विचाराधीन ही बना हुआ है। अंतिम निर्णय की प्रतीक्षा है जो व्यंग्य लेखकों द्वारा ही शायद तय होगा। व्यंग्य का शास्त्रीय व्याकरण बन जाने पर और समर्थ हास्य-व्यंग्यकारों की विपुलमात्रा में समृद्ध रचनाएँ प्रकाश में आने पर व्यंग्य-विधा के पैर पूरी शक्ति के साथ साहित्य शास्त्र की ज़मीन पर स्थिर हो सकेंगे। सृदृढ़ भूमि पर अवस्थित हास्य-व्यंग्य का साहित्य जब जन चेतना को उद्धृत करने का प्रमाण प्रस्तुत करेगा तब कौन इसे स्वतंत्र विधा मानने से इंकार कर सकेगा। हास्य-व्यंग्य की लोकप्रियता ही इसकी दलील और वकील होंगे। आलोचकों की उपेक्षा से परेशान होने की जरूरत नहीं।"
इस आलेख में भी उन्होंने हास्य और व्यंग्य के अंतर का बहुत बारीकी से विश्लेषण किया था। वे लिखते हैं- "हास्य और व्यंग्य का संबंध बड़ा विचित्र है। व्यंग्य अपने को सूक्ष्म, गंभीर और मर्मस्पर्शी मानता है। हास्य को वह स्थूल, उथला और मनोरंजक मानकर अपना सगा सहोदर नहीं मानता, हाँ, सौतेला भाई मानकर संग साथ रखने में संकोच नहीं करता। जब गंभीर व्यंग्य के साथ हास्य सहोदर के रूप में प्रयुक्त होता है तब दोनों मिलकर पाठक या दर्शक की चित्त रत्ति को उल्लास से विस्फारित करते हैं। चारुत्व तब हास्य-व्यंग्य का सहायक तत्व होता है जब हास्य का प्रयोग स्वतंत्र रूप से किसी भाव, विचार, घटना, वस्तु, दृश्य या व्यक्ति विकृत रूप को प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है, तब वह हास्य चित्त को क्षणभर के लिए गुदगुदा कर और उल्लासित कर समाप्त हो जाता है। उसका सहृदय की चेतना पर कोई स्थाई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए केवल हास्य रचना को जो मनोरंजन से अधिक कुछ और नहीं करती, साहित्य शास्त्र में उत्कृष्ट कोटि की रचना नहीं माना जाता। आधुनिक समय के हास्यरस के कवि सम्मेलनों में इस तरह के लतीफे, चुटकले आदि इसी कोटि की रचनाएँ होती हैं जिनमें न तो काव्यत्व होता है और न सामाजिक की चेतना को जागृत एवं चमत्कृत करने की शक्ति होती है। व्यंग्य एक संघटक कला है जो जीवन और साहित्य दोनों क्षेत्रों में समान रूप से पाई जाती है। वाणी - व्यापार की कोई इयत्ती नहीं तो व्यंग्य की इयता का निर्धारण कौन कर सकेगा।"
डॉ० विजयेंद्र स्नातक का यह आलेख न केवल दोनों हास्य और व्यंग्य के शास्त्रीय पक्ष को विश्लेषित करता है अपितु हिंदी व्यंग्य के तत्कालीन व्यंग्य परिदृश्य को रेखांकित करता है। कुछ का मैंने इसलिए उल्लेख कर दिया कि आप चावल के दाने की इस खुशबू का आनंद लें और समृद्ध हों। व्यंग्य के समाकलीन परिदृश्य पर वे लिखते हैं- "व्यंग्य लेखकों का हिंदी में अच्छा-खासा जमाव पड़ा है। पत्र-पत्रिकाओं में एक-दो व्यंग्य लेख प्रायः मिल ही जाते हैं, जिनके नाम व्यंग्य उपन्यास लेखकों में स्थापित हो चुके हैं उनसे आप सब भली-भांति परिचित हैं। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, राधाकृष्ण, सुरेंद्र वर्मा, नरेंद्र कोहली, गोपाल चतुर्वेदी, श्रीकांत चौधरी, निशिकांत, सूर्यबाला, अजातशत्रु, लक्ष्मीकांत वैष्णव, शंकर पुणतांबेकर, प्रेम जनमेजय, के० पी० सक्सेना, हरीश नवल, सुरेश कांत आदि प्रमुख लेखक हैं। छुटपुट लिखने वाले तो तीन-चार दर्जन लेखक होंगे।"
आरंभ में मौखिक व्यंग्य के आचार्य विजयेंद्र स्नातक अंत में हिंदी व्यंग्य को लिखित पहचान दिलाने वाले आचार्य बन गए। ऐसे दो-तीन विजयेंद्र स्नातक हिंदी व्यंग्य साहित्य को मिल जाते तो न केवल उसे समुचित पहचान मिलती अपितु उसकी दशा और दिशा भी सुधरती। मुझे नहीं लगता कि विजयेंद्र स्नातक की इस आलोचनात्मक शक्ति से व्यंग्य जगत तो क्या पूरा साहित्य भी परिचित होगा हिंदी व्यंग्य साहित्य को अपनी आलोचनात्मक प्रतिभा से समृद्ध करने वाले इस महत्वपूर्ण साहित्य सेवी को मेरा प्रणाम।
- प्रेम जनमेजय की स्मृति से।
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