डॉक्टर कुँअर बेचैन को पूरी दुनिया एक गीतकार के रूप में जानती है, पर मुझे उन्हें एक ऐसे प्राध्यापक के रूप में देखने का अवसर मिला, जो विद्यार्थी को इस तरह से मार्गदर्शन देता है कि विद्यार्थी को प्रतीत होता है कि उसका शिक्षक प्रत्येक समय उसके साथ है। वे स्वयं कहते थे कि हमें थर्ड डिविजन वाले विद्यार्थी को फर्स्ट डिविजन वाला बनाना होता है। अपने कविकर्म में अत्यधिक व्यस्त रहने के बावजूद भी वे कक्षा में पढ़ाने का समय अवश्य निकाल लेते थे। परीक्षा में अव्वल कैसे आना है?, किस प्रश्नपत्र की तैयारी कैसे करनी है?, यदि कॉलिज में एक विद्यार्थी के एक प्रश्नपत्र में अंक 70 से अधिक आए हैं तो अन्य प्रश्नपत्रों में सभी विद्यार्थियों के अंक कैसे बढ़ाए जाएं ? प्रत्येक प्रकार की रणनीति वे समझाते थे, तभी तो उनके कॉलिज के छात्र विश्वविद्यालय की मेरिट सूचि में शीर्ष स्थानों पर अपना नाम दर्ज करवा देते थे।
वे कुम्हार का उदाहरण देते थे कि घड़े को गढ़ते समय जैसे कुम्हार भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर छड़ी से ठोक-ठोककर जैसे गीली मिट्टी को सुन्दर घड़े में परिवर्तित कर देता है, यही काम शिक्षक का भी है। उन्होंने मुझे लोक-साहित्य और आधुनिक साहित्य आदि कई विषय पढ़ाए, इन विषयों में उनके पढ़ाने के ढंग से ही मुझमें रुचि जागी, जो आज दिनांक तक है। एक सफल कवि को क्या आवश्यकता थी कि वह विद्यार्थियों पर इतना ध्यान दे, परीक्षा में अधिकतम अंक लाने की रणनीति बनवाए, उसी के अनुसार परीक्षा की तैयारी के लिए प्रेरित करे। यदि वे ऐसा नहीं भी करते और पूरा समय अपने कविकर्म में ही देते तो उन्हें क्या फर्क पड़ता? पर उन्होंने तो अपना कर्त्तव्य बहुत अच्छी तरह से निभाया। उस समय लैंडलाइन फोन हुआ करते थे, कुछ समझ नहीं आने पर आप गुरु जी को फोन लगा सकते थे, ये सुविधा उन्होंने हमें आज से पच्चीस वर्ष पूर्व भी दे रखी थी, जब उन्हें समय मिलता वह पूरा विषय बहुत कम और आसान शब्दों में आपको फोन पर ही सहजता और सरलता से समझा देते और आवश्यकता पड़ने पर आप उनके घर जा सकते थे, वहॉं उनकी धर्मपत्नी का व्यवहार जिन्हें हम ‘ऑंटी जी‘ कहते, अत्यंत आत्मीयतापूर्ण होता। अब एहसास होता है कि वे कितने बड़े कवि थे और हम विद्यार्थियों के लिए कितनी सहजता से उपलब्ध प्राध्यापक, जो कठिन विषयों को भी सरलता से आत्मसात करवा देते थे। लेखन के लिए भी प्रेरित करते और उचित मार्गदर्शन देते, साथ ही साथ प्रतियोगी परीक्षाओं आदि के लिए भी उचित मार्गदर्शन उपलब्ध करवाते। तभी तो उनके कई विद्यार्थियों का नाम बड़े रचनाकारों में शामिल है।
विवाह पश्चात् मैं इंदौर आ गई और यहीं की हो गई, पर गुरु जी को याद रहा मेरी एक विद्यार्थी इंदौर में भी है। एक बार ऑंटीजी के साथ इंदौर आए थे, बड़वानी जाने के लिए, तब मुझे उनके आतिथ्य करने का सुअवसर मिला था। मेरे पति का मोबाइल नंबर उनके पास था, कभी-कभार उस पर उनके आर्शीवाद रूप में शुभकामना संदेश प्राप्त होते थे। काफी समय बीत गया, उनसे मेरा संपर्क नहीं रहा, शायद मेरे जैसा विद्यार्थी जब गुरु से कोई काम पड़ता है तब ही उन्हें याद करता है, मन में उनकी कही पंक्तियॉं ‘लोगों ने मारे मुझ पर पत्थर और मैं पानी की तरह और ऊँचा और ऊँचा उठता गया‘ कठिन जीवन पथ पर प्रत्येक समय मनोबल बढ़ाती रही और मैं घर-गृहस्थी और नौकरी में ही संघर्षरत रही। तभी अचानक एक दिन नवंबर 15, 2019 को गुरु जी का फोन आया, संध्या मैं इंदौर आया हूँ, कवि सम्मेलन में, तुम मुझसे मिलने आओ। वहॉं पहुंची तो गुरु जी की शिष्या होने का मुझे जो सम्मान मिला, उसे मैं आजीवन नहीं भूल पाऊँगी। उन्होंने मुझे प्रत्येक से बहुत अपनेपन से मिलवाया। तब लगा मेरे शिक्षक कितने महान हैं और बड़े व्यक्ति हैं। मैं तो लेखन करना छोड़ ही बैठी थी, पुनः उन्होंने प्रेरित किया, संध्या लिखो, आज मैं पुनः, लेखन से उनकी वजह से ही जुड़ पाई हूँ।
गाजियाबाद पहुँचने पर उन्होंने ऑंटी जी से और चेतन आनन्द जी से मेरी बात करवाई। तब चेतन जी बोले गुरु जी तुच्छ चीजों को भी बड़ा बना देते हैं, यही अपने गुरु जी की विशेषता है। गुरु जी पारस थे, तभी तो अपने स्पर्श से तुच्छ धातुओं को भी उन्होंने सोना बना दिया। व्यक्तिगत समस्याओं के लिए भी उचित परामर्श देते, टूटते और कमजोर होते मनोबल के लिए आपकी शक्ति से आपको परिचित करवाते और आगे बढ़ने और मजबूत होने हेतु प्रेरित करते। आज वे इस संसार में नहीं है, परन्तु उनकी स्मृतियॉं सदैव हमें प्रेरणा देती रहेंगी। उनका रचना कर्म सदा उन्हें अमर रखेगा। श्रेष्ठ प्राध्यापक, यथार्थ को सुन्दर शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त करने वाला कवि, एक सहजता और आत्मीयता से भरा व्यक्तित्व ये सब जहॉं मिलते हैं, वह कुँअर बेचैन हैं। उनकी निम्न पंक्तियॉं सदा मेरे लिए प्रेरणा बनी रहेंगी-
'गमों की आंच पर आंसू उबालकर देखो, बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो,
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी, किसी के पांव का कांटा निकालकर देखो।'
डॉ. संध्या सिलावट की स्मृति से
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