बाहर से एकदम शांत-सा दिखता जीवन और अंतर्मन में उथल-पुथल के बवंडर चला करते थे। एक कारण यह भी रहा कि वे अपने परिवार में कई पीढ़ियों के बाद बेटी रूप में आयी थीं । उनके परिवार में दो सौ सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी, यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। उनके दादा फ़ारसी और उर्दू तथा पिता अंग्रेज़ी जानते थे। मां जबलपुर से हिन्दी सीख कर आई थीं, महादेवी वर्मा ने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। उनको एक काव्य प्रतियोगिता में 'चांदी का कटोरा' मिला था, जिसे उन्होंने गाँधीजी को दे दिया था।जब वे यशस्वी हुईं, जब जग ने उन्हें जाना, पहचाना, वह 'हिन्दी की मीरा' के सम्बोधन से मानी-जाने लगीं। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला, हालांकि बहुत विलंब से। जब मिला था, तब भी एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- 'अब इस उम्र में इस पुरस्कार को लेकर मैं क्या करूँ? पहले मिलता तो इस रकम से भाई सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का इलाज ही करवा देती। अब इस उम्र में गहने, श्रृंगार-पटार, कपड़े-लत्ते खरीदने से तो रही।' ज्ञानपीठ पुरस्कार उनकी बहुत युवावस्था में लिखी कृति 'यामा' के लिए मिला था।
हिन्दी साहित्य संसार के छायावाद युग की बेहद प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्मा को सादर नमन।
महादेवी जी रामगढ़ में 1937 से 1965 तक लगातार गर्मियों में आती रहीं। यहीं रहकर उन्होंने अतीत के चलचित्र, कविता संग्रह दीपशिखा समेत कई रचनाएं लिखी थीं। हालांकि वह ज्यादातर रक्षाबंधन इलाहाबाद में ही मनाती थीं। तब महादेवी वर्मा जी के यहां उनके मुंहबोले भाई प. बंगाल के सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी , उत्तराखंड के सुमित्रानंदन पंत जी , वाराणसी के जयशंकर प्रसाद जी समेत कई जाने-माने साहित्यकार पहुंचते थे। साहित्य जगत में वह अकेली बहन थीं, जिन्होंने भाई-बहन के रिश्तों की डोर को स्नेह से सींच कर अटूट बनाया था। महादेवी वर्मा जी के मुंहबोले भाइयों में निराला जी सबसे करीब थे। उन्हें तत्कालीन केंद्र सरकार हर महीने 100 रुपये पेंशन देती थी, लेकिन रोज किसी न किसी जरूरतमंद को पैसे बांटकर वह फक्कड़ हो जाते थे। बाद में उनके पैसे को सहेजने के लिए महादेवी जी को कोषाध्यक्ष बनाया गया। 1950-51 में रक्षा बंधन के दिन सुबह-सुबह निराला जी जब इलाहाबाद पहुंचे तो उनके पास रिक्शा वाले को देने के लिए भी पैसे नहीं थे। बहन के दरवाजे पर पहुंचते ही बोले- दीदी, जरा 12 रुपये लेकर आना। महादेवी जी रुपये ले आईं, लेकिन पूछा- ‘यह तो बताओ, आज 12 रुपये की क्या जरूरत आन पड़ी।’ निराला जी सरलता से बोले, ‘ये दुई रुपये तो इस रिक्शा वाले के लिए और दस रुपये तुम्हें देने हैं। आज राखी है ना! तुम्हें भी तो राखी बंधवाने के पैसे देने होंगे।’
महादेवी ने राखी में की स्त्री-पुरुष बराबरी की शुरुआत
जमाने के साथ-साथ रक्षा बंधन मनाने के तौर-तरीकों में भी बदलाव आया है। अब रिश्ते की प्रगाढ़ता पर कम और दिखावे पर ज्यादा जोर है। साहित्य जगत में महादेवी जी जैसी स्नेहमयी दीदी की कमी आज भी खल रही है। रक्षा बंधन पर सुमित्रा नंदन पंत जी और महादेवी वर्मा जी ने एक-दूसरे को राखी बांधकर साहित्य जगत में स्त्री-पुरुष बराबरी की नई प्रथा शुरू की थी। कवि निराला जी ने उन्हें "हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती" की उपाधि दी थी।
जब वे संस्कृत में एम ए करने का सपना लेकर बनारस गयी थीं और वहां के पंडितों ने यह कहकर लौटा दिया था कि ब्राह्मण न होने और स्त्री होने के कारण उन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। तब वे अवसाद में आ गयी थीं और उससे मुक्त होने के लिए बद्रीनाथ की पैदल यात्रा पर निकल पड़ी थी। 1935-36 में वापसी के वक्त रामगढ़ में उन्होंने अपनी प्रिय कवयित्री मीराबाई के नाम पर 'मीरा कुटीर' की नींव रखी। इस बीच उन्होंने दो क्रांतिकारी काम और किए - अपना अंतिम कविता-संग्रह 'दीपशिखा' (1936) का प्रकाशन कर कविताएं लिखना छोड़, गद्य लिखना शुरू किया और हिंदी के सबसे निर्भीक क्रांतिकारी कवि निराला को राखी बाँधी।
................अलंकार देव की स्मृतियों से
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