जनतंत्र जनता से नहीं, घर की जंग से शुरू होता है -----धूमिल जी पर लिखने के लिए जैसे अकाल पड़ा हुआ है। जबकि हमारे इस समूह में सौभाग्य से उनके समकालीनों के साथ उनके बाद की लगभग तीन पीढ़ियों के लोग समाहित हैं। अशोक चक्रधर जी ने बांदा सम्मेलन के उक्त समूह फोटो को देखकर लिखने को आश्वस्त भी किया है। यद्यपि धूमिल जी के बांदा सम्मेलन के संदर्भ में उनका एक संस्मरण कादम्बनी में "थेथरई मलाई" को लेकर छपा था। इसी प्रकार दूसरे लोगों ने भी लिखा। धूमिल जी के जनतंत्र की जंग मात्र जनता से नहीं बल्कि" घर की जंग"से शुरू होती है।एक बार की घटना है, घर में किसी चीज को लेकर आपस में मतभेद बहुत गहरा गया। पिता जी ने बहुत समझाया लेकिन लोग समझने/मानने को तैयार नहीं हुए।वे बहुत निराश, दुःखी होकर रुआंसा से अपनी साइकिल उठाए और अब नहीं आने की बात कहकर ड्यूटी पर चले गए। घर में पाला मारे सिवान की तरह स्यापा छा गया।दिन भर लोग कायदे से खाना नहीं खाए। जैसे कोई अनहोनी हो गई हो। दिन किसी तरह कट गया।शाम को लगभग सात बजे पिता जी पंपिंग सेट पर आ गए। मैं वहां था।सभी लोगों ने उन्हें पलग्गी की। मैंने चरण छुआ। चाचा जी ने उनकी साइकिल थाम ली। और मुझे थमा कर,घर जाने का संकेत दिया। मैं घर पहुंच कर, उनके लौटने की खुशी का समाचार सुनाया। थोड़ी ही घड़ी में सब सामान्य हो गया। लगभग दस बजे हमेशा की तरह सभी भाइयों के साथ आए और सब लोग एक साथ भोजन किए।सब कुछ सामान्य! इस प्रकार कई बार हुआ होगा।इस जंग की अनुगूंज़ हैं उनकी कविताएं। इसी लिए कहता हूं कि जो लोग जनतंत्र को मात्र जनता से नहीं बल्कि घर की संवेदनशील जंगों से समझेंगे, वहीं धूमिल जी की कविताओं को समझ पाएंगे। वहीं उनकी संसद समीक्षा,घर में वापसी, किस्सा जनतंत्र, गुफ्तगू,,लोहे का स्वाद,उस औरत की बगल में लेटकर, अकाल दर्शन, बीस साल बाद, गांव में कीर्तन,खेवली समझ पाएंगे।
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रत्नशंकर पाण्डेय की स्मृति से
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