‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

एक मीठी याद, महादेवी जी के साथ

मैंने महीयसी महादेवी वर्मा जी के साथ यात्रा की थी। हमारा परिवार लखनऊ में रहता था। मैं तब वहाँ के प्रसिद्ध महिला डिग्री कॉलेज में ही बी०ए० की छात्रा थी। सन १९५३ दिसंबर में प्रयाग में महाकुंभ का आयोजन था। मेरे जीजाजी पी०ए०सी० में कमांडर थे। उनकी भी कुंभ में ड्यूटी लगी थी। हमारे परिवार ने भी कुंभ में जाने का प्रोग्राम बनाया। मेरे पिताजी ने बताया कि एक चार बर्थ वाले फ़र्स्ट क्लास में हमारे पास तीन बर्थ हैं। चौथी बर्थ पर एक एम०एल०ए० महादेव वर्मा हैं। हमें बड़ी जिज्ञासा हुई कि पता नहीं कौन और कैसा ये आदमी होगा? थोड़ी ही देर में डिब्बे में महादेवी जी पधारीं तो हमें ये पता चला कि रिज़र्वेशन लिस्ट में असावधानी से 'महादेवी' के स्थान पर 'महादेव' लिख गया है। हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। मैंने पुरस्कार में मिली शचीरानी गुर्टू की पुस्तक 'महीयसी महादेवी' पढ़ी हुई थी। महादेवी जी की 'स्मृति की रेखाएँ' और 'अतीत के चलचित्र' आदि भी पढ़ ली थीं। उनके साथ रात को सोने के पूर्व बहुत बातें कीं, 'गिल्लू' और 'चीनी यात्री' की भी चर्चा हुई। वे बड़े ही शांत भाव से मुस्कुराते हुए उत्तर देती रहीं थी। वार्ताएँ बड़ी ज्ञानवर्धक और सरस हुईं। उन्होंने प्रयाग महिलाविद्यापीठ आने का निमंत्रण भी हमें दिया था। ये भी ज्ञात हुआ कि निराला जी रक्षाबंधन पर उनसे राखी बँधवाने रिक्शे पर आते थे तो उनसे ही दो रुपये माँगते थे। पूछने पर कहते थे कि एक रुपया रिक्शे वाले को दूँगा और दूसरा रुपया राखी बाँधने पर तुमको दूँगा। ये सुनकर हमें बहुत हँसी आई थी। मेरी ये यात्रा अविस्मरणीय रहेगी।

महादेवी जी की जिन उँगलियों ने तूलिका से 'दीपशिखा' में कविता के सामने मनमोहक चित्रों की पेंटिंग की थी, मैं देर तक उनको निहारती रही थी, तब मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में एम०ए० कर रही थी। तभी १९५६ में उनका वैदुष्यपूर्ण भाषण सुनकर भी मैं अभिभूत हो गई थी। तब मैंने उनके गीत "ये मंदिर का दीप, इसे नीरव जलने दो।" को भी  स्वरबद्ध करके गाया था। वे प्रसन्न हुई थीं।

प्रो० शकुंतला बहादुर की स्मृति से।

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