जब मैं जबलपुर से मुंबई पहुँची तो मुंबई की हवाओं में कला और साहित्य का नशा था। निश्चय ही वह साहित्य का मुंबई के लिए स्वर्ण युग था। एक ओर प्रगतिशील आंदोलन, इप्टा और ट्रेड यूनियन आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था ,तो दूसरी ओर कई नामी-गिरामी लेखक फिल्मों में गीत और संवाद लिखने को विभिन्न प्रदेशों से जुट आए थे। यहाँ टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप अपने चरम पर था। जहाँ से निकलने वाली पत्रिकाएँ धर्मयुग , सारिका ,माधुरी, इलस्ट्रेटेड वीकली, पराग ,चंदामामा ,नंदन से मुंबई की एक अलग पहचान बनती थी ।पृथ्वी थियेटर ,तेजपाल थिएटर, रंगशारदा में खेले गए तुगलक हयवदन, सखाराम बाईंडर, मी नाथूराम गोडसे बोलतो जैसे नाटक शो पे शो किए जा रहे थे। मुझे इन सब के बीच अपनी जगह बनानी थी। मैं टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग में बिना किसी अपॉइंटमेंट के संपादक धर्मवीर भारती से मिलने गई। अपने नाम की स्लिप केबिन में भिजवा कर बाहर इंतजार करने लगी। ऑफिस का माहौल शांत था। मनमोहन सरल, शशि कपूर , रूमा भादुड़ी, सुमन सरीन सब अपने-अपने कामों में व्यस्त। लकड़ी के पार्टीशन से लगा माधुरी का ऑफिस ,सामने सारिका का। थोड़ा हटकर नंदन ,पराग बाल पत्रिकाओं का। ऑफिस में मुझे बैठे 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि भारती जी के केबिन से बुलावा आ गया। सिगार सुलगाती हुई भव्य आकृति ।
" आईए संतोष जी ,बैठिए ।"
"जी मैं जबलपुर से अब यहीं रहने आ गई हूँ।"
"अच्छा किसी नौकरी के सिलसिले में?"
तभी चपरासी चाय और पानी लाकर रख गया ।
"चाय लीजिए, छापा है हमने आपको।"
" जी नौकरी नहीं पत्रकारिता करने आई हूँ। "मैंने झिझकते हुए कहा।
" बड़ी कठिन राह है पत्रकारिता की। बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।"
मुझे लगा कि वह समझ रहे हैं मैं उनसे काम माँगने आई हूँ।
" जी पहले समझ तो लूँ। अभी तो पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ी पत्रकारिता की।"
वे मुस्कुराए फिर सूरज का सातवाँ घोड़ा पुस्तक मुझे भेंट की। मैंने इजाज़त चाही। वे उठकर केबिन के बाहर तक मुझे छोड़ने आए।
भारतीजी जितने अच्छे साहित्यकार थे उतने ही अच्छे संपादक भी थे। मैं यह बात निजी अनुभव से कह सकती हूँ कि उन्होंने देश भर में हजारों लेखकों को मांजा है, संवारा है, और पहचान दी है। उनके लिखे पोस्टकार्ड आज भी मेरी धरोहर है।
धीरे - धीरे मेरे दोस्तों की सूची में संपादक ,पत्रकार जुड़ते गए। मनमोहन सरल, सुमंत मिश्र, विमल मिश्र, आलोक श्रीवास्तव, आलोक भट्टाचार्य ,कैलाश सेंगर ,सुमन सरीन, रूमा भादुरी, शशि कपूर एक ऐसा समूह तैयार होता गया जिससे एक दिन भी न मिलना बड़ा शून्य रच देता।
अभिभूत थी मैं। मुम्बई अजनबी नहीं लग रही थी। कितने अपनों से भरी है मुम्बई।
नवभारत टाइम्स में मैं लगातार लिखने लगी। पहले छिटपुट लेख फिर विश्वनाथ जी ने मुझसे मानुषी कॉलम लिखवाना शुरू किया। डेस्कवर्क मैं करना नहीं चाहती थी, मेरा मन फ्रीलांस में ही लगता था । दूसरे हेमंत भी बहुत छोटा था और उसको मैं अधिक समय तक अकेला नहीं छोड़ सकती थी।
फिर न जाने क्या सनक चढ़ी संतोष वर्मा नाम बदलकर शादी के बाद का सरनेम संतोष श्रीवास्तव लिखना शुरू किया। इस खबर को भारती जी ने धर्मयुग में छापा। शुभचिंतकों ने इस बात पर विरोध प्रकट किया" यह क्या किया सरनेम बदलने की क्या जरूरत थी? अपनी पहचान खुद मिटा रही हो।"
"पहचान बरकरार रहेगी, मैं संतोष वर्मा को मिटने नहीं दूंगी ।"
भारती जी ने धर्मयुग में कॉलम लिखने का प्रस्ताव रखा। इस कॉलम में मनोरोग से पीड़ित बच्चों की केस हिस्ट्री ,चिकित्सकों से पूछ कर उसका बाल मनोरोग व्रत और निदान भी लिखना था। तब धर्मयुग साप्ताहिक था और यह कॉलम हर पखवाड़े प्रकाशित करने की उनकी योजना थी।
इस कॉलम के लिए जानकारी जुटाना बहुत भागदौड़ से संभव हुआ। मुझे मनश्चिकित्सकों से अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था और फिर उनके संग तीन-चार घंटे बैठकर केस हिस्ट्री आदि जानने की व्यस्तता शुरू हो गई। मेहनत ज़रूर करनी पड़ी लेकिन कॉलम बहुत ज्यादा चर्चित हुआ। बच्चों का यह कॉलम दो साल तक लिखा मैंने। इस कॉलम के बाद भारती जी ने मनोरोगी औरतों के बारे में भी मुझसे अंतरंग नाम से कॉलम लिखवाया। इस कॉलम के लेखन के दौरान मैं आश्चर्यचकित कर देने वाले और मर्मान्तक अनुभवों से गुजरी। मुझे एहसास हुआ कि एक स्त्री को मनोरोगी बनाने में जितना परिवेश ज़िम्मेदार है उससे कहीं अधिक पति, पिता ,भाई, बेटा और अन्य मर्द से संबंधित रिश्ते जिम्मेवार हैं। इस पीड़ा ने भीतर तक मुझे कुरेदा और मैं नारी विषयक लेख यथा
अत्याचार को चुनौती समझें
क्यों सहती है औरत इतने अत्याचार पितृसत्ता को बदलना होगा
आदि शीर्षकों से लिखने लगी जिन्हें धर्मयुग, नवभारत टाइम्स ने तो खूब छापा ही ।
नई दिल्ली के "भारत भारती" द्वारा तथा "युगवार्ता त्रि साप्ताहिक प्रसंग लेख सेवा" द्वारा देश भर के अखबारों में भी प्रकाशित किए गए ।मानुषी और अंतरंग तथा बाल अंतरंग स्तंभों ने मुझे पत्रकार के रूप में मुंबई में प्रतिष्ठित कर दिया । और इस बात का पूरा श्रेय भारती जी को जाता है। उन्हीं ने मुझसे कहा कि एक बार विश्वनाथ सचदेव से भी मिल लो। विश्वनाथ सचदेव जी से मुलाकात अविस्मरणीय थी। बहुत सरल और भव्य उनका व्यक्तित्व था। नवभारत टाइम्स में मेरी कई कहानियाँ प्रकाशित कीं और नारी विषयक लेख उन्होंने मुझसे लिखवाए। फिर एक कॉलम दिया मानुषी जिसमें मैं हर पखवाड़े लगातार लिखती रही। यह कॉलम भी दो ढाई साल चला।
मुंबई में मुझे स्थायित्व मिल चुका था और मैं लगातार फ्रीलांस पत्रकारिता करने लगी।
भारती जी के संपादन में धर्मयुग में बहुत महत्वपूर्ण विषयों पर परिचर्चाएं आयोजित की जाती थीं। मुझे याद है एक परिचर्चा का विषय था "अब मैं बता सकती हूँ।" जो केवल महिला लेखकों के लिए था। मेरे विचार भी इस परिचर्चा में मेरी फोटो सहित प्रकाशित किए गए। मुझे लगता है इस परिचर्चा का उद्देश्य बरसों से महिलाओं की खामोशी को तोड़ना था कि वे खुलकर नहीं बता पा रही थीं कि वे किन परिस्थितियों से गुज़री हैं ।
एक और परिचर्चा आयोजित की गई "वह क्षण जिसने जीवन को नया मोड़ दिया "इस परिचर्चा में भी मैंने भाग लिया था। और स्वीकार किया था कि एडवोकेट बनते- बनते मैं साहित्यकार बन बैठी।
"पति पत्नी और वो "इस विषय पर भी धर्मयुग में परिचर्चा आयोजित की गई थी। हर कामयाब व्यक्ति के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है। फिर चाहे वह दूसरी स्त्री ही क्यों न हो ।इस विषय पर बहुत काम हुआ। लेखकों ने कई कहानियां लिखी तथा कई साझा संकलन भी निकले।
धर्मयुग को लोकप्रिय बनाने में ऐसे विषय बहुत सहायक थे।
धर्मयुग में ही यह बात उठाई गई थी कि जब सभी क्षेत्रों में रैंकिंग होती है तो साहित्य में रैंकिंग क्यों नहीं होती और यह कार्य इन दिनों बखूबी निभा रही है राजस्थान की संस्था राही रैंकिंग। हालाँकि साहित्यिक रैंकिंग का यह कार्य भारती जी के निधन के बाद 2014 से आरंभ हुआ लेकिन अब यह खूब लोकप्रिय हो रहा है।
भारती जी के संपादन काल में मेरी 8 कहानियाँ धर्मयुग में छपी।
मेरे उपन्यास " टेम्स की सरगम" का लोकार्पण पुष्पा भारती जी के हाथों हुआ था। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि इस उपन्यास में जिस प्रेम का संतोष ने वर्णन किया है उस प्रेम से मैं भारती जी को लेकर गुजर चुकी हूँ। संतोष, कैसे लिखा तुमने यह सच्चा ,उदात्त समर्पित प्रेम। पुष्पा जी के इस पूरे वक्तव्य को समीक्षा के नाम से हंस में राजेंद्र यादव जी ने प्रकाशित किया था।
कांता भारती द्वारा लिखित रेत की मछली को पढ़कर कई लेखक भारती जी के विरोधी हो गए थे। लेकिन मैं यह कहना चाहूंगी कि उन्होंने पुष्पा भारती जी से सच्चा प्रेम किया और उसे किसी से छुपाया नहीं। इस बात के गवाह हैं वे प्रेम पत्र जो उन्होंने पुष्पा भारती के नाम "धर्मवीर भारती के पत्र पुष्पा भारती के नाम "पुस्तक में प्रकाशित कर सरेआम किए हैं।
इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ में लिखा गया है कि ये पत्र एक ऐसे कालजयी रचनाकार के अंतरंग का आलोक है जिसने भारतीय साहित्य को अभिनव आकाश प्रदान किए हैं ।ये पत्र भावना की शिखरमुखी ऊर्जा से आप्लावित हैं। इन पत्रों में प्रेम की अनेकायामिता अभिव्यक्ति का पवित्र प्रतिमान निर्मित करती है। यही कारण है कि ये पत्र दैनंदिन जीवन का व्यक्तिगत लेखा-जोखा मात्र हैं। "संबोधित "के प्रति समग्र समर्पण और उसके हित चिंतक की प्रेमिल पराकाष्ठा इनकी विशेषता है।
भारती जी न जाने कितने विशेषण से उन्हें पुकारते हैं। मेरी एकमात्र अंतरंग मित्र, मेरी कला, मेरी उपलब्धि ,मेरे जीवन का नशा, मेरी दृष्टि की गहराई -के लिए ये पत्र लिखे गए हैं। इस प्रक्रिया में जीवन , साहित्य ,दर्शन व मनोविज्ञान आदि के अनेकानेक पक्ष इस प्रकार उद्घाटित होते हैं कि पाठक का मन अलौकिक ज्ञान आनंद से भर जाता है ।विलक्षण रचनाकार धर्मवीर भारती के इन पत्रों को जिस प्रीति प्रतीति के साथ पुष्पा भारती ने संजोया है वह भी उल्लेखनीय है। यह भी कहना उचित है कि भारतीय साहित्य को समझने में इन पत्रों से एक नया झरोखा खुल सकेगा।
भारती जी की उनकी पहली पत्नी का नाम कांता था और उनसे उनके एक बेटी भी थी
लेकिन उनके संबंध अच्छे नहीं थे। भारती जी से अपने संबंधों का हवाला देते हुए कांता भारती ने एक किताब लिखी थी " रेत की मछली" जिसे उनकी आत्मकथा भी कहा जाता है।
“रेत की मछली” पढकर मैं अपने प्रिय रचनाकार को कटघरे में पाती हूं। इतनी प्रेमिल भावनाओं के भारती जी ने कांता भारती के संग क्यों ऐसा व्यवहार किया? क्यों उन्हें टॉर्चर किया ? वे चाहते तो उन्हें तलाक देकर मुक्त हो सकते थे। और कांता जी को भी मुक्त कर सकते थे। पर........
मैंने धर्मयुग में उनका एक संस्मरण पढ़ा था जो उन्होंने लोहिया जी पर लिखा था। इस संस्मरण में उन्होंने लिखा था कि पुष्पा जी से अपने दूसरे विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने लगभग समस्त परिचितों और आदरणीयों से सलाह चाही थी किंतु किसी ने भी खुल कर उनका समर्थन नहीं किया था। किंतु जब उन्होंने लोहिया जी से इस विषय में
सलाह मांगी तब उनकी सहमति ने उन्हें बल दिया था और वे पुष्पा जी से विवाह के लिए तैयार हो गए थे।
कहा जाता है कि ‘कनुप्रिया’ रचने की प्रेरणा भारती जी को अपने निजी जीवन में उठे द्वन्द और उसे हल करने के प्रयासों से प्राप्त जीवन अनुभवों से मिली। मुम्बई आने से पहले वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे और पुष्पा भारती उनकी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़कियों में से एक थीं। पूर्व विवाहित भारती जी को उनके रूप और इस आकर्षण को मिले प्रतिदान ने द्वन्द में डाल दिया था।
पुष्पा भारती से विवाह करने के विचार पर नैतिकतावादी भारती गहरे द्वन्द से घिरे रहे पर अंततः उनका प्रेम जीता और उन्होंने अपनी छात्रा पुष्पा जी से विवाह कर लिया।
उनसे प्रथम मुलाक़ात में मुझे जो अपना उपन्यास सूरज का सातवाँ घोड़ा भेंट किया था उसे कहानी कहने का अनुपम प्रयोग माना जाता है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम की फिल्म बनायी। अंधायुग उनका प्रसिद्ध नाटक है। इब्राहीम अलकाजी, राम गोपाल बजाज, अरविन्द गौड़, रतन थियम, एम के रैना, मोहन महर्षि और कई अन्य भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने इसका मंचन किया है।
कनुप्रिया और अंधायुग उनकी कालजयी कृतियां हैं जिन्हें भारती जी के जाने के बाद उनके जन्मदिन पर मुम्बई के नाट्यकर्मी पुष्पा भारती जी के निर्देशन में हर वर्ष 25 दिसंबर को मंचित करते हैं।
कनुप्रिया की मेरी सबसे पसंदीदा पंक्तियां हैं
मेरे हर बावलेपन पर
कभी खिन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँस कर
तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर
बेसुध कर देते हो
उस सुख को मैं छोड़ूँ क्यों?
करूँगी!
बार-बार नादानी करूँगी
तुम्हारी मुँहलगी, जिद्दी, नादान मित्र भी तो हूँ न!
1971 में बांग्ला देश में भारत पाकिस्तान युद्ध की रोमांचक एवं लोमहर्षक दास्तान भारती जी की कलम से रिपोर्ताज के रूप में लिखी गई जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित की गई। ऐसा माना जाता है कि युद्ध का आँखों देखा वर्णन रिपोर्ताज के रूप में विश्व साहित्य में पहली बार भारती जी ने लिखा। इस किताब का नाम है युद्ध यात्रा (बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और भारत पाक युद्ध की आंखों देखी रिपोर्ट)
युद्ध के मैदान में वीर सैनिकों तथा सैनिक अफसरों के साथ स्वयं भारती जी उपस्थित रहे हैं। भारती जी जब बांग्लादेश से मुम्बई लौटे तो मैं उनसे मिलने उनके घर गई। इच्छुक थी उनसे आंखों देखा हाल सुनने। उनकी खूबसूरत साज सज्जा वाली बैठक में पुष्पा भारती जी के सान्निध्य में युद्ध का वर्णन सुनकर मैं विचलित हो गई थी बड़ी देर तक हम बांग्लादेश के बारे में बात करते रहे। फिर भारती जी ने मुझे बांग्लादेश की स्पेशल चाय पिलाई। बांग्लादेश एक महत्वपूर्ण चाय उत्पादक देश है। आज यह दुनिया का 10 वां सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है ।
वह शाम मेरी यादों में अक्स है।
उन दिनों मैं मुम्बई के सांध्य दैनिक संझा लोकस्वामी में साहित्य संपादक थी। 4 सितंबर की सुबह अखबार के संपादक रजनी कांत वर्मा जी का फोन आया कि भारती जी का निधन हो गया है और मैं उन्हें भारती जी के विषय में संपादकीय लिखकर तुरन्त भेजूँ। वैसे तो वे लंबे समय से बीमार थे लेकिन इस तरह दुनिया से रुखसत हो जाएंगे सोचा न था। मैं काफी अपसेट हो गई। लेकिन फिर अखबार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए मैंने लिखा-
कलम के सिपाही का भौतिक संसार से परलोक गमन
हिंदी साहित्य के प्रतिभाशाली कवि, कथाकार व नाटककार डॉ० धर्मवीर भारती अब हमारे बीच नहीं रहे। वे लंबे समय से बीमार थे। उनके जाने से एक बड़ा शून्य साहित्य जगत में उत्पन्न हो गया है। लेकिन वे अपनी कविताओं अपनी रचनाओं से हमारे बीच हमेशा जिंदा रहेंगे। भारती जी की कविताओं में रागतत्व की रमणीयता के साथ बौद्धिक उत्कर्ष की आभा दर्शनीय है। कहानियों और उपन्यासों में इन्होंने सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को उठाते हुए बड़े ही जीवन्त चरित्र प्रस्तुत किए हैं| साथ ही हमारे समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करने की विलक्षण क्षमता भारती जी में रही। कहानी, निबन्ध, उपन्यास, एकांकी, नाटक, आलोचना, सम्पादन व काव्य-सृजन के क्षेत्र में इन्होंने अपनी विलक्षण सृजन प्रतिभा का परिचय दिया। वस्तुतः साहित्य की जिस विधा का भी भारती जी ने स्पर्श किया, वही विधा इनका स्पर्श पाकर धन्य हो उठी। 'गुनाहों का देवता' जैसा सशक्त उपन्यास लिखकर भारती जी अमर हो गये। इस उपन्यास पर बनी फिल्म भारतीय दर्शकों में अत्यन्त लोकप्रिय हुई|
ऐसे प्रतिभाशाली साहित्यकार का निधन साहित्य की एक बड़ी क्षति है।
4 सितंबर 1997 का वह दिन जब भारती जी हमसे विदा हुए......
......….संतोष श्रीवास्तव जी की कलम से
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