सबका अभिवादन!
यह सर्वविदित है कि एक साहित्यकार का परिचय हमें उनकी रचनाधर्मिता और कृतित्व के माध्यम से मिल पाता है। उनकी रचनाओं में उनके अंतर और बाह्य रूप के दर्शन होते हैं, पर इससे भी अधिक अंतरंग पहलू को हम तब जान पाते हैं जब हमें व्यक्तिगत अनुभव होते हैं।
मैं आदरणीय गोपालदास नीरज जी से संबंधित एक ऐसा ही निजी अनुभव अपनी लेखनी की सामर्थ्यानुसार आप सबके समक्ष रख रही हूँ।
बात वर्ष २००२ या २००३ की है। मैं उस समय कनाडा, टोरोंटो में अपने छोटे भाई सुधीर के पास आई हुई थी। वहाँ के एक प्रसिद्ध लेखक श्याम त्रिपाठी जी मिलने आए। वे अहिंदी भाषी देश में हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' निकालने का सराहनीय कार्य कर रहे थे और अभी भी कर रहे हैं। वे बच्चन जी के ऊपर एक विशेषांक निकालना चाह रहे थे। इसके लिए वे बराबर बच्चन परिवार और अमिताभ बच्चन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, पर बड़े दुखी होकर उन्होंने बताया कि किसी ने घास नहीं डाली। बच्चन जी पर सामग्री न मिलने के कारण पत्रिका निकालना उनके लिए संभव नहीं था, अतः बड़े हताश थे। मुझसे उन्होंने बड़ी आशा के साथ इस कार्य में सहयोग देने का अनुरोध किया। मैंने हँस कर कहा, "अमिताभ बच्चन को तो आप भूल जाइए, मैं भारत पहुँच कर उनके समकालीन लेखकों (हालाँकि अधिकतर अब संसार में नहीं हैं) से संपर्क करने का प्रयास अवश्य करूँगी, यह मेरा आपसे वादा है।" त्रिपाठी जी के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई।
दिल्ली पहुँच कर दो महान साहित्यकार मेरे दिमाग़ में आए, आदरणीय विष्णु प्रभाकर और आदरणीय गोपालदास नीरज। एक बाबूजी पूज्य यशपाल जी से उम्र में बड़े और एक छोटे। पहले मैंने विष्णु ताऊजी को फ़ोन मिलाया और सब बात बताई। कहने लगे, "बेटी मेरा स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं है और कोई लिखने वाला मेरे पास नहीं है, अगर तू पास होती तो तुझे लिखवा देता।" मैं समझ गई कि उनसे बच्चन जी पर संस्मरण नहीं मिल पाएगा क्योंकि उनके अस्वस्थ होने की जानकारी मुझे पहले से थी। पर चार-पाँच दिन के बाद देखती हूँ कि उनका लेख आ गया। मैंने फ़ोन किया तो कहते हैं, "बेटी तेरी बात कैसे नहीं रखता।"
इस बीच मैंने नीरज चाचाजी को अलीगढ़ फ़ोन किया और बच्चन जी पर कुछ लिखने को कहा। एकदम बोले, "अन्नदा, तू एक काम कर। मेरी एक पुस्तक डायमंड पब्लिकेशन वाले छाप रहे हैं बच्चन जी के ऊपर, 'अग्निपथ का राही'।" पुस्तक पूरी नहीं हुई है पर डमी तैयार है। तू मेरा नाम लेकर वह मँगवा ले कि मैंने परमीशन दे दी है। उसमें अनेक लेखकों के संस्मरण हैं। त्रिपाठी जी को अच्छी सामग्री मिल जाएगी उसमें से।"
मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि पुस्तक स्वयं के हाथों में पहुँचने के पहले कोई इस तरह से किसी और को देने की उदारता दिखा सकता है। मैंने तत्काल डायमंड प्रकाशन को फ़ोन करके डमी की दो प्रतियाँ मँगवाईं और कनाडा रवाना कर दीं। त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक की सामग्री के आधार पर पूरा विशेषांक छाप दिया। वे बहुत प्रसन्न थे कि उनका यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ अंक बन गया था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे इन दोनों दिग्गज लेखकों के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करें।
मैं अभिभूत और गर्वित थी कि दोनों मूर्धन्य साहित्यकारों ने मुझ अकिंचन की छोटी-सी याचना को इतना महत्त्व दिया। संबंधों के प्रति संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता का यह अनुपम, अनुकरणीय व अविस्मरणीय उदाहरण है। दोनों महान विभूतियों को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि!
आदरणीय नीरज चाचा जी का वह गले पर हाथ रखकर खाँसना, मधुर और मदिर कंठ का वह सुरूर जो बिना मदिरा पिए श्रोताओं पर चढ़ जाता था। शृंगार, आध्यात्म और दर्शन का अनोखा संगम उनके काव्य की प्रमुख विशेषता थी। जाते-जाते ऐसा स्थान रिक्त कर गए हैं कि उसकी पूर्ति होना तो संभव ही नहीं है, पर उनकी रचनाएँ अमर हैं और उनके स्वर की मधुर गूँज हमारे कानों में सदा गूँजती रहेंगी।
मेरा शत शत नमन।
- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।
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