‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



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शुक्रवार, 31 मार्च 2023

विष्णु प्रभाकर, गोपालदास नीरज और मैं

सबका अभिवादन! 

यह सर्वविदित है कि एक साहित्यकार का परिचय हमें उनकी रचनाधर्मिता और कृतित्व के माध्यम से मिल पाता है। उनकी रचनाओं में उनके अंतर और बाह्य रूप के दर्शन होते हैं, पर इससे भी अधिक अंतरंग पहलू को हम तब जान पाते हैं जब हमें व्यक्तिगत अनुभव होते हैं। 

मैं आदरणीय गोपालदास नीरज जी से संबंधित एक ऐसा ही निजी अनुभव अपनी लेखनी की सामर्थ्यानुसार आप सबके समक्ष रख रही हूँ।

बात वर्ष २००२ या २००३ की है। मैं उस समय कनाडा, टोरोंटो में अपने छोटे भाई सुधीर के पास आई हुई थी। वहाँ के एक प्रसिद्ध लेखक श्याम त्रिपाठी जी मिलने आए। वे अहिंदी भाषी देश में हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'हिंदी चेतना' निकालने का सराहनीय कार्य कर रहे थे और अभी भी कर रहे हैं। वे बच्चन जी के ऊपर एक विशेषांक निकालना चाह रहे थे। इसके लिए वे बराबर बच्चन परिवार और अमिताभ बच्चन से संपर्क करने की कोशिश करते रहे, पर बड़े दुखी होकर उन्होंने बताया कि किसी ने घास नहीं डाली। बच्चन जी पर सामग्री न मिलने के कारण पत्रिका निकालना उनके लिए संभव नहीं था, अतः बड़े हताश थे। मुझसे उन्होंने बड़ी आशा के साथ इस कार्य में सहयोग देने का अनुरोध किया। मैंने हँस कर कहा, "अमिताभ बच्चन को तो आप भूल जाइए, मैं भारत पहुँच कर उनके समकालीन लेखकों (हालाँकि अधिकतर अब संसार में नहीं हैं) से संपर्क करने का प्रयास अवश्य करूँगी, यह मेरा आपसे वादा है।" त्रिपाठी जी के चेहरे पर मुस्कुराहट छा गई। 

दिल्ली पहुँच कर दो महान साहित्यकार मेरे दिमाग़ में आए, आदरणीय विष्णु प्रभाकर और आदरणीय गोपालदास नीरज। एक बाबूजी पूज्य यशपाल जी से उम्र में बड़े और एक छोटे। पहले मैंने विष्णु ताऊजी को फ़ोन मिलाया और सब बात बताई। कहने लगे, "बेटी मेरा स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं है और कोई लिखने वाला मेरे पास नहीं है, अगर तू पास होती तो तुझे लिखवा देता।" मैं समझ गई कि उनसे बच्चन जी पर संस्मरण नहीं मिल पाएगा क्योंकि उनके अस्वस्थ होने की जानकारी मुझे पहले से थी। पर चार-पाँच दिन के बाद देखती हूँ कि उनका लेख आ गया। मैंने फ़ोन किया तो कहते हैं, "बेटी तेरी बात कैसे नहीं रखता।"

इस बीच मैंने नीरज चाचाजी को अलीगढ़ फ़ोन किया और बच्चन जी पर कुछ लिखने को कहा। एकदम बोले, "अन्नदा, तू एक काम कर। मेरी एक पुस्तक डायमंड पब्लिकेशन वाले छाप रहे हैं बच्चन जी के ऊपर, 'अग्निपथ का राही'।" पुस्तक पूरी नहीं हुई है पर डमी तैयार है। तू मेरा नाम लेकर वह मँगवा ले कि मैंने परमीशन दे दी है। उसमें अनेक लेखकों के संस्मरण हैं। त्रिपाठी जी को अच्छी सामग्री मिल जाएगी उसमें से।" 

मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि पुस्तक स्वयं के हाथों में पहुँचने के पहले कोई इस तरह से किसी और को देने की  उदारता दिखा सकता है। मैंने तत्काल डायमंड प्रकाशन को फ़ोन करके डमी की दो प्रतियाँ मँगवाईं और कनाडा रवाना कर दीं। त्रिपाठी जी ने इस पुस्तक की सामग्री के आधार पर पूरा विशेषांक छाप दिया। वे बहुत प्रसन्न थे कि उनका यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ अंक बन गया था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि कैसे इन दोनों दिग्गज लेखकों के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट करें। 

मैं अभिभूत और गर्वित थी कि दोनों मूर्धन्य साहित्यकारों ने मुझ अकिंचन की छोटी-सी याचना को इतना महत्त्व दिया। संबंधों के प्रति संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता का यह अनुपम, अनुकरणीय व अविस्मरणीय उदाहरण है। दोनों महान विभूतियों को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि!

आदरणीय नीरज चाचा जी का वह गले पर हाथ रखकर खाँसना, मधुर और मदिर कंठ का वह सुरूर जो बिना मदिरा पिए श्रोताओं पर चढ़ जाता था। शृंगार, आध्यात्म और दर्शन का अनोखा संगम उनके काव्य की प्रमुख विशेषता थी। जाते-जाते ऐसा स्थान रिक्त कर गए हैं कि उसकी पूर्ति होना तो संभव ही नहीं है, पर उनकी रचनाएँ अमर हैं और उनके स्वर की मधुर गूँज हमारे कानों में सदा गूँजती रहेंगी। 
मेरा शत शत नमन।

- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।

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गुरुवार, 30 मार्च 2023

बाबूजी श्रद्धेय यशपाल जी जैन

मैं आज सबसे पहले अपने बाबूजी श्रद्धेय पद्मश्री यशपाल जी जैन का एक संस्मरण आप सबसे साझा कर रही हूँ। जैसे मैं आज भी भावुक हो रही हूँ आशा है आप के दिल को भी छू सके।

यह प्रसंग १९५४ का है। हम दो-तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े-छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लोग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिंह नेहरू जी और विजयलक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन व एक प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं ग्यारह वर्ष की थी और छोटा भाई साढ़े आठ वर्ष का था। हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट में दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्लाकर बोलीं, "परेशान कर दिया है इन बच्चों ने। अब इन्हें कभी साथ नहीं लाऐगें।" अम्मा की यह बात मुझे चुभ गई।

अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगे तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जाऐगें। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा, पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसरे के घर में तमाशा बनते देख, अम्मा झुँझलाती हुई बाबूजी से शिकायत कर आईं। बाबूजी कमरे में आए और मेरे कंधों को दबाते हुए इतना भर बोले, "क्या बात है? चलो।" मैंने उनकी आवाज में छिपी खीज भाँप ली और मेरे बालसुलभ मन पर उस अप्रत्याशित खीज का बड़ा असर हुआ क्योंकि बाबूजी ने कभी भी हम से ऊँची आवाज़ में बात नहीं की थी।

मैं चल तो दी पर बाबूजी से रूठी रही। रास्ते भर बाबूजी ने मुझे हर तरह से हँसाने का प्रयत्न किया पर मैं जानबूझ कर अपनी उदासी जताती रही। बाद में डल झील में सैर की बात आई। दो शिकारे किए गए। यूँ मैं हमेशा बाबूजी के साथ रहती थी पर इस बार अलग शिकारे में बैठी। बाबूजी यह सब भाँप रहे थे। थोड़ी देर में बाबूजी वाला शिकारा हमारे शिकारे से सट कर चलने लगा और मैंने हैरत से बाबूजी को अपने एकदम सामने बैठा पाया। उनकी तरफ़ नज़र पड़ी तो हक्की-बक्की रह गई। वे दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर मुझसे जैसे कह रहे हों कि मुझसे ग़लती हो गई, मुझे क्षमा कर दो। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई।आज भी उस पल को यादकर मेरी आँखें भर आती हैं।

मुझे याद है जब यह संस्मरण मैंने बाबूजी की ६०वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में बड़े नेताओं और वरिष्ठ लेखकों के सामने सुनाया तो श्री जगजीवन राम जी ने मुझसे कहा, "बेटी, तूने तो हमें रुला दिया।" 

डॉ० प्रकाशवीर शास्त्री, डॉ० क्षेमचंद सुमन, डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा अन्य गणमान्य अतिथियों ने मुझे बहुत सराहा। डॉ० सिंघवी ने तो यहाँ तक कहा कि "अन्नदा, तुझे तो लेखिका होना चाहिए।" मुझे पता नहीं था कि उनकी भविष्यवाणी सच हो जाएगी। यह प्रसंग बेटी के प्रति वात्सल्य की बड़ी मिसाल है, ऐसा मैं महसूस करती हूँ। 

आश्चर्य होता है कि बाबूजी के कारण मुझे उच्च राजनयिकों का भी स्नेह मिला। महामहिम भैरोंसिंह शेखावत जी का स्नेह याद करके तो मैं आज भी अभिभूत हो उठती हूँ। बाबूजी के विचारों का संकलन जो मैंने प्रकाशित करवाया था, उसका लोकार्पण उन्होंने ही किया था। फिर तो मुझे जहाँ मिलते एकदम गले लगा लेते। दूसरे उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक जी पूरी गंगोत्री यात्रा उनके साथ की। 

- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।

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