मैं आज सबसे पहले अपने बाबूजी श्रद्धेय पद्मश्री यशपाल जी जैन का एक संस्मरण आप सबसे साझा कर रही हूँ। जैसे मैं आज भी भावुक हो रही हूँ आशा है आप के दिल को भी छू सके।
यह प्रसंग १९५४ का है। हम दो-तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े-छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लोग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिंह नेहरू जी और विजयलक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन व एक प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं ग्यारह वर्ष की थी और छोटा भाई साढ़े आठ वर्ष का था। हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट में दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्लाकर बोलीं, "परेशान कर दिया है इन बच्चों ने। अब इन्हें कभी साथ नहीं लाऐगें।" अम्मा की यह बात मुझे चुभ गई।
अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगे तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जाऐगें। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा, पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसरे के घर में तमाशा बनते देख, अम्मा झुँझलाती हुई बाबूजी से शिकायत कर आईं। बाबूजी कमरे में आए और मेरे कंधों को दबाते हुए इतना भर बोले, "क्या बात है? चलो।" मैंने उनकी आवाज में छिपी खीज भाँप ली और मेरे बालसुलभ मन पर उस अप्रत्याशित खीज का बड़ा असर हुआ क्योंकि बाबूजी ने कभी भी हम से ऊँची आवाज़ में बात नहीं की थी।
मैं चल तो दी पर बाबूजी से रूठी रही। रास्ते भर बाबूजी ने मुझे हर तरह से हँसाने का प्रयत्न किया पर मैं जानबूझ कर अपनी उदासी जताती रही। बाद में डल झील में सैर की बात आई। दो शिकारे किए गए। यूँ मैं हमेशा बाबूजी के साथ रहती थी पर इस बार अलग शिकारे में बैठी। बाबूजी यह सब भाँप रहे थे। थोड़ी देर में बाबूजी वाला शिकारा हमारे शिकारे से सट कर चलने लगा और मैंने हैरत से बाबूजी को अपने एकदम सामने बैठा पाया। उनकी तरफ़ नज़र पड़ी तो हक्की-बक्की रह गई। वे दोनों हाथों से अपने कान पकड़कर मुझसे जैसे कह रहे हों कि मुझसे ग़लती हो गई, मुझे क्षमा कर दो। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई।आज भी उस पल को यादकर मेरी आँखें भर आती हैं।
मुझे याद है जब यह संस्मरण मैंने बाबूजी की ६०वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में बड़े नेताओं और वरिष्ठ लेखकों के सामने सुनाया तो श्री जगजीवन राम जी ने मुझसे कहा, "बेटी, तूने तो हमें रुला दिया।"
डॉ० प्रकाशवीर शास्त्री, डॉ० क्षेमचंद सुमन, डॉ० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा अन्य गणमान्य अतिथियों ने मुझे बहुत सराहा। डॉ० सिंघवी ने तो यहाँ तक कहा कि "अन्नदा, तुझे तो लेखिका होना चाहिए।" मुझे पता नहीं था कि उनकी भविष्यवाणी सच हो जाएगी। यह प्रसंग बेटी के प्रति वात्सल्य की बड़ी मिसाल है, ऐसा मैं महसूस करती हूँ।
आश्चर्य होता है कि बाबूजी के कारण मुझे उच्च राजनयिकों का भी स्नेह मिला। महामहिम भैरोंसिंह शेखावत जी का स्नेह याद करके तो मैं आज भी अभिभूत हो उठती हूँ। बाबूजी के विचारों का संकलन जो मैंने प्रकाशित करवाया था, उसका लोकार्पण उन्होंने ही किया था। फिर तो मुझे जहाँ मिलते एकदम गले लगा लेते। दूसरे उपराष्ट्रपति गोपाल स्वरूप पाठक जी पूरी गंगोत्री यात्रा उनके साथ की।
- अन्नदा पाटनी की स्मृति से।
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