१९७६ की बात है। मैं नया-नया इलाहाबाद आया हुआ था। अल्लापुर में एक किराये के मकान में रहता था। वहाँ से इलाहाबाद विश्वविद्यालय और डॉ० रामकुमार वर्मा के आवास की दूरी करीब डेढ़ कि०मी० है। मैं कभी-कभी पैदल ही चला आता था आनंद भवन तक। फिर वहाँ से विश्वविद्यालय। उन दिनों डॉ० लक्ष्मीशंकर वार्ष्णेय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष थे। मैं उनसे मिला। बहुत ही नेक स्वभाव के विमल व्यक्तित्व थे। अद्भुत सहृदयता थी उनमें। उनसे पहली बार मिलकर लगा ही नहीं कि वे अपरिचित हैं। मैं उन दिनों प्रकृति विषयक लघु
कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना 'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० रामकुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाशवाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित हो उठा। वर्मा जी ने कहा, "तुम अच्छा लिखते हो। एक काम करो, मेरे मित्र अश्क जी ख़ुसरो बाग के पास रहते हैं। उनसे मिल लो। उन्हें तुम्हारे जैसे युवा लेखक की जरूरत है।"
कविताएँ लिखा करता था। एक नाट्य-रचना 'प्रतिशोध' जिसका सफल मंचन १९७४ में अपने गाँव खेवली, वाराणसी में किया था, डॉ० वार्ष्णेय जी को दिखाई तो उन्होंने कहा, ये दोनों रचनाएँ पंतजी और रामकुमार वर्मा को दिखाओ। उन्होंने ही डॉ० रामकुमार वर्मा का पता दिया। पंत जी उन दिनों आकाशवाणी इलाहाबाद में थे। एक दिन उनसे मिला और उसके तीन-चार दिन बाद डॉ० वर्मा जी से। दोनों महान साहित्यकारों के दर्शन कर मन आह्लादित हो उठा। वर्मा जी ने कहा, "तुम अच्छा लिखते हो। एक काम करो, मेरे मित्र अश्क जी ख़ुसरो बाग के पास रहते हैं। उनसे मिल लो। उन्हें तुम्हारे जैसे युवा लेखक की जरूरत है।"
मैं दूसरे दिन अश्क जी के निवास पर पहुँच गया। वर्मा जी का संदर्भ दिया। वे उन दिनों आँख का ऑपरेशन कराए हुए थे। उन्हें लिखने में परेशानी होती थी। यों भी ऑपरेशन के बाद कुछ दिनों तक लिखने-पढ़ने से डॉक्टर ने मना किया था। दरअसल उन्हें उन दिनों एक ऐसे सहायक की ज़रूरत थी जो उनके लेखन में उनकी सहायता कर
सके। कहने लगे, "मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ, चाहता हूँ तुम दो घंटे के लिए रोज़ मेरे यहाँ आ जाया करो। मैं एक उपन्यास की कथा बोलता रहूँगा, तुम उसे लिखते रहना। इस तरह उपन्यास जल्द पूरा हो जाएगा। हाँ, प्रतिदिन लिखने का मानदेय दूँगा। मैंने मानदेय से अधिक महत्त्वपूर्ण उन जैसे महान साहित्यकार के दर्शन करने का सौभाग्य समझा। मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, आदरणीय मुझे मानदेय नहीं चाहिए, मैं डॉ० वर्मा के कथन का पालन करने हेतु आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ। लेकिन उन्होंने बड़े साफ़ तौर से नकार दिया कि अगर मानदेय स्वीकार नहीं करोगे तो मैं तुमसे लेखन-कार्य नहीं कराऊँगा। ये मानदेय नहीं, मेरा आशीर्वाद है। वस्तुतः अश्क जी का उदार व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। उनमें हर किसी के प्रति बड़ी आत्मीयता और सहृदयता थी जो एक बड़े व्यक्तित्व का विशिष्ट गुण होता है। मैंने उनके कथन के साथ ही अपनी सहमति दे दी। करीब डेढ़ महीने तक मैं नियमित रूप से चार बजे शाम को आता और दो घंटे तक लेखन-कार्य करता रहा। मैंने देखा, उपन्यास की कथावस्तु जैसे स्मृति में
इस तरह समाहित थी जिसे धीरे-धीरे वो स्मृति-पृष्ठ को खोलकर बोलते जा रहे थे। बड़ी तारतम्यता थी कथा में। कहीं-कहीं स्मृतियों में घटनाक्रम अजीब-सी अनुभूति के रूप में प्रकट होते थे और उन्हें वे बहुत ही बारीक़ी से बोलते थे। वे बोलते क्या थे, मानो माँ सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ जाती थीं और स्वयं बोलती थीं। कितनी प्रखर थी उनकी प्रतिभा। उनकी चिंतनधारा में गंगा की जलधारा-सा प्रवाह था। वे वाक़ई अपने समय के एक महान कथाकार थे। मैंने महसूस किया कि एक महान सृजक की चिंतन-यात्रा कितनी सहज-स्वाभाविक रूप में होती है। तभी उनके सृजन का स्वरूप निखर पाता है। उनका सहज सान्निध्य पाकर मेरा लेखन और सुव्यवस्थित हो गया। मैं जब भी उनके यहाँ जाता उनकी सहधर्मिणी कौशल्या जी के दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वे भी बहुत कुशल महिला थी। उनमें भी साहित्यिक प्रतिभा झलकती थी। मैंने कभी उनसे कोई संवाद नहीं किया। सिर्फ 'प्रणाम' शब्द के साथ वे खुद ट्रे में चाय लेकर अश्क जी के पास आती थी। उनके हाथ की बनी हुई चाय में मेरे लिए मातृत्व की मिठास थी।
सके। कहने लगे, "मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ, चाहता हूँ तुम दो घंटे के लिए रोज़ मेरे यहाँ आ जाया करो। मैं एक उपन्यास की कथा बोलता रहूँगा, तुम उसे लिखते रहना। इस तरह उपन्यास जल्द पूरा हो जाएगा। हाँ, प्रतिदिन लिखने का मानदेय दूँगा। मैंने मानदेय से अधिक महत्त्वपूर्ण उन जैसे महान साहित्यकार के दर्शन करने का सौभाग्य समझा। मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, आदरणीय मुझे मानदेय नहीं चाहिए, मैं डॉ० वर्मा के कथन का पालन करने हेतु आपकी सेवा में प्रस्तुत हूँ। लेकिन उन्होंने बड़े साफ़ तौर से नकार दिया कि अगर मानदेय स्वीकार नहीं करोगे तो मैं तुमसे लेखन-कार्य नहीं कराऊँगा। ये मानदेय नहीं, मेरा आशीर्वाद है। वस्तुतः अश्क जी का उदार व्यक्तित्व बहुत ही विराट था। उनमें हर किसी के प्रति बड़ी आत्मीयता और सहृदयता थी जो एक बड़े व्यक्तित्व का विशिष्ट गुण होता है। मैंने उनके कथन के साथ ही अपनी सहमति दे दी। करीब डेढ़ महीने तक मैं नियमित रूप से चार बजे शाम को आता और दो घंटे तक लेखन-कार्य करता रहा। मैंने देखा, उपन्यास की कथावस्तु जैसे स्मृति में
इस तरह समाहित थी जिसे धीरे-धीरे वो स्मृति-पृष्ठ को खोलकर बोलते जा रहे थे। बड़ी तारतम्यता थी कथा में। कहीं-कहीं स्मृतियों में घटनाक्रम अजीब-सी अनुभूति के रूप में प्रकट होते थे और उन्हें वे बहुत ही बारीक़ी से बोलते थे। वे बोलते क्या थे, मानो माँ सरस्वती उनकी ज़ुबान पर आकर बैठ जाती थीं और स्वयं बोलती थीं। कितनी प्रखर थी उनकी प्रतिभा। उनकी चिंतनधारा में गंगा की जलधारा-सा प्रवाह था। वे वाक़ई अपने समय के एक महान कथाकार थे। मैंने महसूस किया कि एक महान सृजक की चिंतन-यात्रा कितनी सहज-स्वाभाविक रूप में होती है। तभी उनके सृजन का स्वरूप निखर पाता है। उनका सहज सान्निध्य पाकर मेरा लेखन और सुव्यवस्थित हो गया। मैं जब भी उनके यहाँ जाता उनकी सहधर्मिणी कौशल्या जी के दर्शन कर कृतार्थ हो गया। वे भी बहुत कुशल महिला थी। उनमें भी साहित्यिक प्रतिभा झलकती थी। मैंने कभी उनसे कोई संवाद नहीं किया। सिर्फ 'प्रणाम' शब्द के साथ वे खुद ट्रे में चाय लेकर अश्क जी के पास आती थी। उनके हाथ की बनी हुई चाय में मेरे लिए मातृत्व की मिठास थी।
अश्क जी का सान्निध्य पाकर मुझमें औपन्यासिक लेखन के जो शिल्प-गुण का संचार हुआ, कथान्विति की कलात्मकता आई, वह अपने वैशिष्ट्य के साथ आज भी समाहित हो गई। निश्चय ही बड़े साहित्यकारों का सहज सान्निध्य पाकर नवसर्जक का लेखन नैसर्गिक रूप में गतिशील हो उठता है।
- डॉ० राहुल की स्मृति से।
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