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गुरुवार, 30 मार्च 2023

पंडित नरेंद्र शर्मा को याद करते हुए

प्रयाग विश्वविद्यालय के एक कवि-सम्मेलन में मेरी भेंट उन से हुई। 

उस समय वे अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के कार्यालय में काम कर रहे थे और अँग्रेज़ी में एम०ए० कर चुके थे। मंच पर कविवर सुमित्रानंदन पंत, डॉक्टर रामकुमार वर्मा और 'बच्चन' जी विराजमान थे। पंत जी का व्यक्तित्व उस समय बहुत ही मनमोहक था। उनका केश-वेश-विन्यास अनन्य था और अब भी है, परंतु उन्हीं की बग़ल में एक सुकुमार युवक पर सबकी आँखें अटक-अटक जाती थीं। सुंदर तो वे अब भी हैं, पर यौवन की बात ही और होती  है। गौरवर्ण आभा, सुंदर तराशी हुई नासिका, सुघर कपोल, सफ़ेद कॉलरदार कमीज़ और चुनटदार धोती, सुनहले फ्रेम का चश्मा, जो कपोलों की लाली को विशेष आकर्षक बना देता था, बग़ल में माँग काढ़कर एक ओर बालों की आधी चौड़ी पट्टी; जिन्हें उस मनोरम आकृति को आत्मसात करने की  जिज्ञासा हो, वे भारती भंडार लीडर प्रेस में प्रकाशित 'प्रवासी के गीत' के १९३९ के संस्करण में उसकी झलक पा सकते हैं।

जब उनका नाम पुकारा गया तो कुछ ऐसी भावना हुई कि कोई नौसिखिया किशोर मंच पर प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुत हो रहा है। परंतु जैसे ही अपनी वेदना विह्वल वाणी से उन्होंने 'सुमुखि तुमको भूल जाना तो असंभव है, असंभव' - की रागिनी छेड़ी कि सारा हॉल नयन-श्रवणमय हो गया। फिर तो श्रोता ऐसे भाव-विह्वल हो उठे कि कवि को मंच से हटने ही नहीं देते थे। एक के बाद एक सात रचनाएँ नरेंद्रजी ने पढ़ीं और बाद में जब पूर्णाहुति के रूप में 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की मंद-मधुर स्वर-लहरीं झंकृत हो उठी, तो श्रोता पगला-से उठे और एक-एक पंक्ति की तीन-तीन बार आवृत्ति करने के लिए कवि को विवश करने लगे। एक युग था, जब यह रचना युवकों और युवतियों का कंठहार बन गई थी। विश्वविद्यालय के युवक-युवतियाँ उनके गीतों को ऐसे गुनगुनाते फिरते थे, जैसे किसी मधुवन में मदमस्त भौंरों की गंजन डाल-डाल और पात-पात में मुखरित हो उठी हों। उनके लोकप्रिय गीत 'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे' की प्रतिध्वनि तो सभाओं, छात्रावासों और कॉफी  हाउसों में आए दिन सुनी जा सकती थी। जैसा उनका सलोना, सुकुमार, सौम्य स्वरूप था, वैसी ही उनकी रचना भी मधुर और मर्मस्पर्शी थी। 'बच्चन' जी की 'मधुशाला' एक ओर और नरेंद्रजी की यह कविता एक ओर! इसके बाद तो जमने के लिए 'बच्चन' जी को भी कुछ प्रयत्न करना पड़ा था और जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने 'वह पगध्वनि मेरी पहचानी' बड़े मस्ताने तरन्नुम में सुनाई थी। 

उस संगोष्ठी में नरेंद्रजी कुछ ऐसे छा गए थे कि छायावादी नवोन्मेष के विदग्ध कवि डॉक्टर रामकुमार वर्मा और मधुशाला के मदमस्त गायक 'बच्चन' जी भी कुछ क्षणों के लिए हफ़्त दिखाई पड़े थे। मेरे जैसे नौसिखिए की तो औक़ात ही क्या थी! संगोष्ठी की समाप्ति पर तत्कालीन काव्यमर्मज्ञ डॉक्टर अमरनाथ झा ने अपनी माला नरेंद्रजी को पहना कर बड़े ममत्व से उन्हें झंझोर लिया था। उस समय का प्रयाग का वातावरण ही कुछ और था। एक ओर तो परम सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत की लाक्षणिक प्रकृति, प्रेरक रचनाओं का सम्मोहन था, तो दूसरी ओर महादेवी की वेदना-व्यंजक रचनाओं का स्पंदन! 'निराला' का बहुआयामी व्यक्तित्व अभी कलकत्ता और लखनऊ के परिवेश को ही चमत्कृत कर रहा था, यद्यपि काशी और प्रयाग में भी उसकी विद्युत तरंगें चकाचौंध की छटा यदा-कदा बिखेर जाती थी। प्रयाग में तो 'बच्चन' जी की मधुशाला की मादकता, नरेंद्रजी के 'प्रवासी के गीतों' की भावोच्छलता और भगवती बाबू की 'चित्रलेखा' उफनते यौवन के ज्वार की अलमस्ती छाई हुई थी। उस समय मैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एम०ए० हिंदी का छात्र था। इस कवि-सम्मेलन में मेरी अच्छी ख़ासी दुर्गत हुई थी। ऐसे उदात्त आत्म विह्वल वातावरण में मैंने बड़ी हौंस-हुमस के साथ, 

"हम ले कर हृदय अधीर, प्राण में पीर, नयन में नीर  चले" 

नामक रचना प्रारंभ की, तो दूसरी पंक्ति पर ही श्रोताओं ने ठहाका लगा दिया। दूसरी आवृत्ति मैंने और जोश से की, तो उससे भी बड़ा ठहाका लगा। मैं समझ न पाया कि क्या बात है? किसी तरह बेशर्मी से पूरी कविता पढ़ गया और बीच-बीच में कहकहे लगते रहे। बाद में किसी ने बताया कि कविता पढ़ने के पहले मंच पर ही एक चाँदी के वर्क़ का पान खा लिया था और उसकी वर्क़ मेरे ऊपरी अधर पर चिपकी हुई थी, जो कविता पढ़ते  समय चमक-चमक जाती थी। तब से मैंने कवि-सम्मेलनों में पान खाना ही छोड़ दिया। ग़नीमत थी कि दूसरे दिन पत्रों में प्रशंसित कविताओं में उसका भी नाम गिनाया गया था और उक्त विद्रूपता को नज़रअंदाज़ कर दिया गया था।

- डॉक्टर शिवमंगल सिंह 'सुमन' (लावण्या शाह द्वारा प्रेषित)। 

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