प्रिय लेखिका से फिर मिलना
वह भी एक पत्र के बहाने!
वह भी एक पत्र के बहाने!
ममता कालिया अचानक मेरी प्रिय लेखिका नहीं बन गईं। उनका उपन्यास 'बेघर' पढ़ने के बाद एक लंबा अंतराल रहा। जब मैं हिंदी पढ़ाने विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में हंगरी के विख्यात ऐलते विश्वविद्यालय के भारत अध्ययन विभाग में पहुँची, तब मेरे कक्ष की अलमारी में ममता कालिया बहुविध बिराजी हुई थीं। मैं एक सिरे से उन्हें पढ़ती चली गई, उनके लेखकीय व्यक्तित्व से गहरे जुड़ती चली गई, इतना कि विभाग के इकलौते एम०ए० हिंदी के छात्र पीटर को सुझाया कि शोध के लिए ममता कालिया के कथा साहित्य पर विचार करो, उन्हें पढ़ने के बाद।
ठीक याद है कि 'बेघर' पढ़ने के बाद एक पत्र मैंने ममता जी को लिखा था - एक पाठक का प्रशंसा पत्र...। जो उनकी बेशुमार फैन मेल में से एक रहा होगा।
लेकिन मेरे लिए, उस पत्र का उत्तर एक अकेला ही रहा।
नहीं मालूम था कि आने वाले समय में ममता जी से साक्षात्कार होगा, कई रूपों में कई बार मिलना होगा और उनकी कृतियों से जी भरकर प्यार होगा...। इतना कि बहुतों से ललक कर कहूँ - ममता कालिया को पढ़ना! तुम्हें अच्छा लगेगा।
लेकिन मेरे लिए, उस पत्र का उत्तर एक अकेला ही रहा।
नहीं मालूम था कि आने वाले समय में ममता जी से साक्षात्कार होगा, कई रूपों में कई बार मिलना होगा और उनकी कृतियों से जी भरकर प्यार होगा...। इतना कि बहुतों से ललक कर कहूँ - ममता कालिया को पढ़ना! तुम्हें अच्छा लगेगा।
आज ममता जी का वह पत्र साझा कर रही हूँ, जिसने पुख़्ता किया कि ममता जी नहीं बदली! वही हैं, मस्त मगन अल्हड़ मुक्त और बेहतरीन स्मरण शक्ति की मालकिन!
पत्र के अंत में वे लिखती हैं कि आप पढ़ती रहें तो लिखने में क्या है हम लिखते रहेंगे!
और वे लिख रही हैं तब से अब तक ...अनवरत!
और वे लिख रही हैं तब से अब तक ...अनवरत!
शुभकामनाएँ अनंत प्रिय लेखिका!!
ममता कालिया का पत्र पाठक विजया सती को (पृ० १) |
(पृ० २) |
प्रिय विजया,
आपका पत्र कई स्तरों पर आल्हादित कर गया। इतनी जिज्ञासा कि मेरी रचनाएँ ढूँढ-ढूँढकर पढ़ी, मुझे अभिभूत कर गई। दूसरी बात, आप मेरे पुराने व प्रिय कॉलेज से जुड़ी हैं। १९६१-६३ में जब हिंदू कॉलेज में मैं एम०ए० की छात्रा थी, महिला लेक्चरर्स नहीं रखी जाती थीं। इतनी प्रगति प्राप्त की कॉलेज ने। आँखों के आगे कॉलेज के गलियारे, कैंटीन, क्लासरूम सब घूम गए। पता नहीं मेरे विभाग के प्रोफ़ेसर वहीं हैं कि बदल गए, प्रोफ़ेसर कँवर, सूद, देसाई, रैना, बहुत कुछ याद गया आपके पत्र से।
आप पढ़ती रहें तो लिखने में क्या है, हम लिखते रहेंगे।
ममता कालिया
१७-१०-७९
- विजया सती की स्मृति से।
ममता कालिया इस समृति पर कहती हैं,
"प्रिय विजया सती, इतने अरसे में पत्ते पेड़ से झड़ जाते हैं पर आपने मेरे पत्र का पन्ना संभाल कर रखा। आप नहीं जानती कि कितना जीवन सिंचन कर दिया आपने मेरे अंदर। कोई दूर बैठा हमें पढ़ रहा है, यह एक विरल, विलक्षण प्रेम अनुभूति है।"
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