‘क़िस्से साहित्यकारों के’ - ‘हिंदी से प्यार है’ समूह की परियोजना है। इस मंच पर हम  साहित्यकारों से जुड़े रोचक संस्मरण और अनुभवों को साझा करते हैं। यहाँ आप उन की तस्वीरें, ऑडियो और वीडियो लिंक भी देख सकते हैं। यह मंच किसी साहित्यकार की समीक्षा, आलोचना या रचनाओं के लिए नहीं बना है।

हमारा यह सोचना है कि यदि हम साहित्यकारों से जुड़े संस्मरण और यादों को जो इस पीढ़ी के पास मौजूद है, व्यवस्थित रूप से संजोकर अपनी आने वाली पीढ़ी को दे सकें तो यह उनके लिए अनुपम उपहार होगा।



गुरुवार, 24 अगस्त 2023

अप्रतिम प्रेम से भरा था हेमंत का जीवन

   90 के दशक में एकाएक एक सितारे की  तरह उभरे थे हेमंत। जिन्होंने अपनी तमाम कविताओं में और अपने मिज़ाज में एक संघर्षमय  काव्य-यात्रा तय की ।जो यथार्थवाद से आधुनिकतावाद तक सहज चलती चली गई। हेमंत की चर्चा छिड़ते ही याद आता है 19 वीं सदी का हंगेरियन महाकवि शांदोर पेतोकी जिसने कुल 26 वर्ष की उम्र पाई और कलम और बंदूक को अपना हमदम मानते हुए कविता के साथ-साथ बलिदान का पथ भी अपनाया। हेमंत ने बंदूक तो नहीं थामी  लेकिन कविता में एक ऐसा संवेदना का सूत्र थामा जो गरीबी लाचारी से होता हुआ राजनीति के दाँवपेच तक जाता है। हंगरी कवि फेरेंत्स युहास ने भी महज 22 साल की उम्र में अपनी कविताओं से क्रांतिकारी आशावाद के स्वरों को उभारा था ।कोलकाता के सुकांत भट्टाचार्य की कविता " रानार " हेमंत हमेशा गुनगुनाते थे ।

रानार छुटे छे ताइ झूम झूम घंटा बाजि छे राते......जिसे  हेमंत कुमार ने गाया है, लगाकर कमरे में अंधेरा करके सोफे पर बैठे सुनते थे। अंधेरे को एंजॉय करने की उनकी आदत अंत तक रही। सुकांत ने तो हेमंत से भी कम उम्र पाई। मात्र 21 साल 6 महीने। हेमंत की उम्र में यानी कि 23 वर्ष की उम्र में शहीद भगत सिंह ने फाँसी का फंदा चुना था। शहीद भगत सिंह को 23 मार्च को फाँसी हुई थी। 23 मार्च को ही पंजाब के लोकप्रिय कवि पाश अपने मानवतावादी और क्रांतिकारी विचारों के लिए शहीद हो गए। आखिर हेमंत पर इस लेख में इन सब का जिक्र क्यों ? सवाल उठ सकता है। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि हेमंत पेतोकी यूहास ,सुकांत और पाश से बेहद प्रभावित रहे हैं। हालांकि हेमंत स्वतंत्र कवि थे। उन्होंने अपने जीवन में किसी वाद को नहीं अपनाया था।

 हेमंत का जन्म 23 मई को  उज्जैन में हुआ था। उन दिनों मैं गुजरात में पढ़ाई कर रही थी और संतोष की डिलीवरी हेतु उज्जैन आई थी। जब वह पैदा हुए रिमझिम फुहारें धरती का ताप हरने आकाश से धरती पर उतर आई थीं। माँ संतोष ने मानो इसे ईश्वर का वरदान माना था। हां, हेमंत वरदान ही साबित हुए थे माँ के लिए। 10 वर्ष की आयु में उन्होंने 3 लाइन की कविता लिखकर माँ को चौंका दिया था। संतोष दी ने यह कविता मुझे दिल्ली के पते पर भेजी थी की देखो तुम्हारा लाड़ला कविताएं लिख रहा है।

और कहीं भी क्या फूलों का ,

अंबार लगा है 

या मेरा ही मन भँवरे-सा

गुंजार हुआ है। 

किशोरावस्था में लिखी उनकी कविताओं में बचपन की कविता का यह असर साफ दिखता है। उनमें गहरी ऐंद्रिकता के साथ-साथ एक ऐसी आरपार दृष्टि रखने की समझ थी जिसने एकाएक ही उन्हें सफल कवियों की श्रेणी में ला बिठाया। सफल कवितागिरी से नहीं बल्कि अपनी संवेदना को प्रकट करने की जादुई समझ से।

 प्रकृति के अलस सौंदर्य का चित्रण करते करते वे अचानक जीवन के कटु यथार्थ को  उकेरने लगते हैं ।ऐसा लगता है मानो कोई फटेहाल मालिन पंक भूमि पर कदम जमाए डाली से फूल चुन रही है। प्रकृति को उन्होंने बहुत नजदीक से समेटा है।

 उनकी कविता में प्रकृति सहचरी बन साथ साथ चलती है फिर भले ही हेमंत उसे यथार्थ की कठोर धरती तक घसीट लाएं ।उनकी कविताओं में जो काव्य अनुभवों का विशाल विस्तार दिखाई देता है उसे बिना किसी संकोच के सामयिक विश्व कविता के स्तर का माना जा सकता है । इस विस्तार में वे दृढ़ता से पैर जमाए हुए हैं....अडिग,अडोल।

 स्कूल और कॉलेज में लगातार जहां निबंध लेखन प्रतियोगिता, कहानी लेखन प्रतियोगिता, कॉलेज स्तर का कवि सम्मेलन, नाटक करते हुए प्रथम स्थान पाते रहे ,वहीं नगर स्तर पर रेखा चित्रकला प्रतियोगिता, चित्र पहेली प्रतियोगिता, अंग्रेजी स्टोरी राइटिंग प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया। प्रादेशिक स्तर पर मराठी शिक्षक संघटना द्वारा आयोजित मराठी भाषा की लिखित प्रतियोगिता में उन्हें प्रथम स्थान मिला। सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान उनके सभी प्रोजेक्ट नगर स्तर पर अवार्ड पाते रहे। क्रिकेट ,शॉटपुट ,जैवलिन थ्रो में महारत थी उन्हें। क्रिकेट उनका पसंदीदा खेल था। इतनी बहुआयामी प्रतिभा के बीच वे ग़ालिब ,फ़िराक़ और निदा फाज़ली की गज़लें तन्मय होकर पढ़ते। हेमिंग्वे, कीट्स,बायरन, शेक्सपियर के साथ-साथ कालिदास, बाणभट्ट भी पढ़ते रहे। लेकिन कबीर ने उन्हें मथ डाला था। कबीर को उन्होंने अपने जीवन का आदर्श बना लिया था। और इसका उदाहरण है उनकी कविताएँ जिनमें वह जीवन जीते हुए मृत्यु को कभी नहीं भूले ।

बेहद शौकीन थे हेमंत ।आला दर्जे के कपड़े, आला दर्जे की शान-शौकत, आला दर्जे का खाना पीना लेकिन घर पर उतना ही सादा पहनावा। अपनी पुरानी जींस, पैंट को घुटने तक काटकर वह स्वयं हाफ पेंट सी लेते और बस उसे ही पहनते। घर पर सादा दाल ,चावल ,आम का अचार ,बैंगन का भुर्ता और आलू मटर की सब्जी उनके लिए जन्नत का सुख था ।

प्रेम भी उन्होंने डूबकर किया ।उनकी प्रेमिका महाराष्ट्रीयन सावंत परिवार से थी। बेहद खूबसूरत ,नर्म मिजाज और हेमंत के प्रति समर्पित ।हेमंत उसके लिए कुछ भी करने को तैयार थे ।

यह वह समय था जब मुंबई सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी झेल रही थी ।मुंबई में एक साथ कई जगह बम विस्फोट होने के बाद उसकी तेज़ रफ्तार ज़िदगी में दहशत समा गई थी। अखबारों में वह सब नहीं छपता था जो हो रहा था। हेमंत कसमसा उठे ।उनकी भावनाओं ने उन्हें रिपोर्टर ,पत्रकार बना दिया। वे दैनिक अखबार संझा लोकस्वामी के लिए रिपोर्टिंग करने लगे। मैं उसी अखबार में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत थी।  उस दौरान हेमंत को जैसे नशा-सा चढ़ा था पत्रकारिता का ।

लेकिन इतने से भी चैन कहाँ  हेमंत को। उन की गतिविधयाँ पत्रकारिता से बढ़कर कविता के क्षेत्र में उथल-पुथल करते हुए एक तीसरे रास्ते को अपना रही थीं ।

हेमंत और मेरी ऑफिस से लौटने के बाद रात देर तक बातचीत होती।

मैं कुछ बातों को लेकर व्यथित थी और अपनी औरंगाबाद की स्थाई पत्रकारिता  की नौकरी को छोड़कर मुंबई में नौकरी की तलाश में आई थी । संतोष दी और हेमंत के साथ रहती थी।

कभी-कभी हेमंत मुझे मेरी इंग्लिश की परेशानियों से बचाते हुए मुझे अनुवाद भी करा देते।

हेमंत की इच्छा थीऔर वे उस रास्ते पर चल पड़े,

और वह रास्ता था नेत्रहीनों के कल्याण का। इसके लिए उन्होंने मिलेनियम 21 नाम से इवेंट कंपनी स्थापित की।और नेत्रहीनों के नाम अपना पहला कल्चरल प्रोग्राम संपन्न करने में जुट गए ।गायक पंकज उधास से उन्हें कार्यक्रम की तारीख भी मिल चुकी थी । वे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे।

  उनके पापा को जब ब्रेन हेमरेज   हुआ  तो  साल भर तक  केवल संतोष दी का वेतन ही घर आता था। आर्थिक तंगी हो गई थी। तब हेमंत ने छोटे- छोटे कार्यों को करके  घर में आर्थिक मदद की ।

     उस समय वह दसवीं की परीक्षा की तैयारी भी कर रहे थे। सड़क के लावारिस कुत्तों के प्रति हेमंत का विशेष लगाव था।  यह लगाव उनकी दोनों बहनों अर्थात मेरी बेटियों में भी आया है। यामिनी और दिव्या लगातार कुत्तों की सेवा, बीमारी इंजेक्शन लगवाना आदि का प्रबंध करती रहती हैं।

 बिस्किट ,दूध और चिकन के उपयोग में न आने वाले टुकड़े खिलाना  शायद उनके भाई हेमंत दादा से ही उनके भीतर आया है ।

उनकी कविताओं में कितना दर्द था......

  हेमंत ने शायद तब अपनी प्रेमिका के लिए ही लिखा होगा:

आओ /आओ मेरी प्रिये/ मुझे राँझे, पुन्नू  और महिवाल का धर्म निभाने दो/ मिट जाने दो मुझे /आओ जीवन्त करो मेरे मिटने को /उठो, और जियो/ हां मुझे जियो ।

और हेमंत मिट गए। पाकिस्तान की शायरा परवीन शाकिर भी कराची में कार दुर्घटना में खत्म हो गई थी ।उसके पहले उन्होंने ग़ज़ल लिखी थी।

जिस तरह ख्वाब मेरे हो गए/ रेज़ा रेज़ा /इस तरह से न कभी /टूट के बिखरे कोई। 

और टूट कर बिखर गया उनका जिस्म।

उसी तरह हेमंत ने लिखा था 

हां ,तब यह अजूबा ज़रूर होगा/ कि मेरी तस्वीर पर होगी चंदन की माला/ और सामने अगरबत्ती/ जो नहीं जली मेरे रहते /

इस कविता ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया। क्या हेमंत को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास था?  इसी दौरान वह इस्कॉन से भगवत गीता का अंग्रेजी अनुवाद खरीद कर लाए थे और उसे देर रात तक पढ़ते रहते थे। क्या यह भी आत्मा के रहस्य को जानने की एक पहल थी?          

         5 अगस्त की सुबह ऑफिस के साथियों के साथ माथेरान जाना और उसी दिन कार दुर्घटना में... वे चल बसे  । 

     हमारा प्यारा बेटा अनंत सपनों को लेकर चला गया था।

 हेमंत ने कबीर की वाणी सच कर दी। खुद रोते हुए आए इस दुनिया में लेकिन जाते हुए सबको रुला ही नहीं हिला भी गए। 

उस दिन पूरा घर हमारे मुंबई के साहित्यकार मित्रों से भर गया था।

      हेमंत के जाने के कुछ समय पश्चात उनकी कुछ कविताएं हमें मिली तो हम आश्चर्य  में पड़ गए कितना कुछ लिखा । मानो अपने जाने का दिन निश्चित कर लिया था।

कविताओं से यही आभास हुआ।

हमने हेमंत के बने कुछ रेखाचित्र के साथ उनकी कविताओं को पुस्तक रूप दिया। उसका दूसरा संस्करण पिछले वर्ष इंडिया नेटबुक्स के माननीय संजीव जी ने प्रकाशित किया।

२०२१ से हम लगातार देश के संभावना शील कवि की प्रथम पुस्तक को हेमंत स्मृति कविता सम्मान प्रदान करते हैं। यह कविता सम्मान ने देश में अपनी पहचान बनाई है। यह सम्मान पुरस्कार

मुझे लगता है एक मां को (संतोष श्रीवास्तव)जीवित रखने का एक संबल है ।और हेमंत की यादों के साथ उनका पूरा जीवन साहित्य को समर्पित है।

पुष्पांजलि: 5अगस्त 2000

5 अगस्त 2023

 -प्रमिला वर्मा की स्मृति से


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सोमवार, 21 अगस्त 2023

निश्छल व्यक्तित्व : हिमांशु जोशी


हिन्दी-साहित्य का आठवां दशक कई मायने में अपनी प्रासंगिकता लिए  है। यह दशक कहानी आन्दोलन के लिए विशेष चर्चित कहा जा सकता है जब कहानीकार कई खेमों में बंटकर हिन्दी कहानी के नये-नये कथ्य-शिल्प में  प्रस्तुत  कर रहे थे--सचेतन कहानी, अकहानी, समकालीन आदि। इन्हीं आन्दोलन  के एक स्तम्भकार थे हिमांशु जोशी। जोशी जी उन दिनों हिन्दुस्तान टाइम्स  की प्रमुख  पत्रिका 'हिन्दुस्तान' में सहायक सम्पादक थे।

इस पत्रिका के अतिरिक्त  अन्य पत्रिकाओं में जोशी जी कहानियां छपती थीं। आम आदमी की जिन्दगी से जुड़ी हिमांशु जोशी की कहानियां अपने अलग अक्स- अंदाज़ में विशेष रुचिकर लगती थीं।

मैं 1976 में दिल्ली आ गया था। 

हिमांशु जोशी ही 'हिन्दुस्तान'  में प्रकाशित  कहानियों कभी-कभार पढ़ता था। अचानक  एक दिन  हिन्दुस्तान टाइम्स के आफिस में गया तो वहां आदरणीय मनोहरश्याम जोशी के दर्शन हुए। वे इस पत्रिका के मुख्य  सम्पादक थे। मैंने अपनी एक कविता प्रकाशनार्थ दी तो बोले, हिमांशु को दे दो। तब मुझे लगा कि वही हिमांशु जोशी हैं। उसके बाद से अक्सर  भेंट होती रही--कभी उनके आवास मयूर विहार, दिल्ली तो कभी किसी साहित्यिक समारोह में। यद्यपि वे साहित्यिक समारोहों में ही जाते थे। आवास पर जब भी जाता, साहित्यिक चर्चाएं होती थीं। साहित्यकारों के गुटों से वे दूर ही रहते थे। उनका कहना था कि कुल गुटबाज अपनी पाठशालाएँ चला रहे हैं। कविता, कहानी कैसे लिखी जाती है, इसके बारे में लिखने का हुनर बताते हैं, किन्तु बताने से नहीं, साधना से आता है। साहित्य एक साधना है। वह बहुत मधुर स्वर  में बोलते थे। उनकी वाणी में  मिठास थी। उनमें किसी तरह की बनावट  नहीं थी। उनका इकहरा व्यक्तित्व साफ-सुथरा था। उनके व्यक्तित्व की तरह ही उनके लेखन में ईमानदारी थी। 'इस बार फिर बर्फ गिरी तो' 31-8-2001 को भेंट की।

    दरअसल  'इस कृति की कहानियों में एक ऐसी चिन्गारी है जो मन-मस्तिष्क ही नहीं, पूरे शरीर  में विद्युत-तरंग पैदा  कर देती है।कथ्य-शिल्प अलगअक्स-अंदाज़ में अपना वैशिष्ट्य लिए  है।'

इस टीप ने उन्हें इतना प्रभावित  कर दिया कि जब भी कोई  नयी प्रकाशित होकर आती थी, भेंट होने पर देते थे।

इसी तरह मेरी तरह कहानियों की प्रथम प्रति मुझे 13-3-2004 को भेंट की थी। मैं उनका बड़प्पन ही मानता हूं कि इतने महत्वपूर्ण कथाकार होकर समीक्षार्थ प्रतियां देते रहें।और मैंने यथासमय अपने मन्तव्य से उन्हें अवगत कराया रहा। इस तरह एक पारिवारिक - सा सम्बन्ध-सरोकार  बन गया था।उन्होंने कभी किसी से कहकर अपने पर कुछ नहीं लिखवाया।उनका स्वाभिमान उन्हें रोकता रहा क्योंकि मुखापेक्षी लेखन रचना का सही मूल्यांकन नहीं कहा जा सकता। इससे वे हमेशा बचते रहे। इसीलिए जब जिसने लिखा निष्पक्षता से विवेचन किया--निस्पृह, बेबाक! यही उन्हें पसन्द भी था। वे कहते भी थे, 'जब कोई स्वेच्छापूर्वक लिखता है तो उसमें सही मूल्यांकन-दृष्टि होती है।' 

वे थोड़े संकोची स्वभाव के थे। कहने लगे, 'प्रकाशक किताबों की पाण्डुलिपियां मांगकर ले जाते हैं। शौक से छापते हैं। रायल्टी की बातें करते हैं पर न एग्रीमेंट करते हैं,और देते हैं। ऐसे ही वैचारिक शोषण होता है लेखक का।' मैंने बताया, ऐसा आपके साथ ही नहीं, अन्य बड़े लेखकों के साथ भी होता है। यशपाल जैन, विष्णु प्रभाकर और कइयों ने बताया है।

 खैर! मैंने उनसे कहा, आपका लेखन राष्ट्रीय ही नहीं, अन्तरराष्ट्रीय पहचान बनाने में सफल हुआ है। आपकी भाषा-शैली में कुछ  ऐसा आकर्षण है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। जीवन्तता आपके शब्द-शब्द में बरसती है।कथा-प्रवाह कहीं अवरुद्ध नहीं होता और आप जो शब्दों में दर्ज करते हैं वो जीवन और समाज के दायित्व का अहसास  कराता है।' सुनकर मुस्कुराते हुए  चाय  की  चुस्की लेने लगे। फिर धीरे से ओठ हिलाए-- 'आपकी टिप्पणी अच्छी लगी। बधाई।'

एक बार आकाशवाणी, दिल्ली में उनकी वार्ता थी। मैं जैसे ही उनके आवास पर पहुंचा, वे जाने के लिए तैयार हो रहे थे। वे कुर्ता-पायजामा पहनते थे। बोले,'चलें रास्ते में बातें कर लेंगे।'हम टैक्सी ले चल दिए। 20-25 मिनट में हम आकाशवाणी केन्द्र पहुंच गए। रिकार्डिंग के वक्त वे बिना लिखे विचार व्यक्त  करते रहे। उनके बोलने का अंदाज  भी बड़ा सधा -सन्तुलित था। कहीं विषयान्तर नहीं हुए। प्रोड्यूसर ने बड़ी प्रशंसा की और आभार जताया।

एक अन्य घटना याद हो आई। डॉ.जीवनप्रकाश जोशी  की "एक अधूरी आत्मकथा" को लोकार्पण समारोह हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के सभा-कक्ष में रखा गया था। मैं कृष्णा सोबती को लिवाने पूर्वाशा अपार्टमेंट  में  गया था। उनके पैरों दर्द था। कहा, 'इस मौके पर मैं अवश्य आती लेकिन विवश हूं बुढ़ापे में घुटने के दर्द से। सो ये मेरा पत्र पढ़कर सुना देना।' इसके बाद पता चला कि हिमांशु जी भी बीमार होने के कारण नहीं आ रहें हैं। तो मैं उनके यहां गया। मुझे देखते हंसकर बोले, 'अब तो चलना ही पड़ेगा।'और तीसरी मंजिल से धीरे-धीरे उतर कर आयोजन  हाल  में  पहुंच  गए। उनको  देखकर उपस्थित सभी साहित्यकार प्रसन्नता से आह्लादित हो  उठे। यह थी उनकी आत्मीयता और जिजीविषा, जो उन्हें आजन्म सक्रिय बनाए हुए थी।


 प्रस्तुति : डॉ. राहुल 


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हरिशंकर परसाईं की पुण्यतिथि पर

 याद है मुझे उस दिन रक्षाबंधन था जब मेरे एक साहित्यिक मित्र ने मुझे फोन कर यह बात बताई थी कि आपके साहित्यिक गुरु नहीं रहे। अचानक ज़हन में सीता बुआ की छवि कौंध गई | रक्षाबंधन के दिन ही उन्हें उनके वे भाई हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए जिन्होंने अपनी गृहस्थी बहन की गृहस्थी के लिए नहीं बसाई।

   त्यौहार के दिन भी मन अनमना हो गया। उनकी वे सारी बातें याद आने लगीं जो अक्सर उनके घर जाने पर मैं देखती थी, समझती थी, जानती थी।
  बहुत सी यादें हैं जो साझा करना चाहती हूं। मैं एम.ए. में उनकी 'विकलांग श्रद्धा का दौर' रचना पढ़ रही थी। उसमें उन्होंने यह लिखा था कि आजकल किस तरह से श्रद्धा रद्दी की टोकरी में बिक रही है और लोग आजकल पैर क्यों पढ़ते हैं। मैंने सोच लिया था कि पैर नहीं पढ़ना है। जब भी मैं उनके घर जाती उन्हें नमस्ते करती और बैठ जाती। वे जो पूछते बता देती, और चुपचाप  आने -जाने वालों से उनके वार्तालाप को सुनती रहती थी। उस वार्तालाप के बारे में आगे लिखती हूं। पहले संस्मरण जो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे कल ही मेरे साथ हुआ हो।
  कटनी में बड़े भाई सदृश्य कवि हैं, उन्होंने मुझे पूछा - तुम जाती हो तो परसाई जी के यहां, उन्हें किस तरह से मिलती हो?
मैंने कहा - जाती हूं नमस्ते करती हूं, बैठने के लिए कहते हैं बैठ जाती हूं। तो उन्होंने पूछा - तुम जाकर उनके पैर नहीं छूती?
मैंने कहा नहीं, छूउंगी भी नहीं।
गुस्से में कहा, क्यों नहीं छुओगी?
मैंने कहा 'विकलांग श्रद्धा का दौर' पढ़ने के बाद उनके पैर छूना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
 भैया ने कहा, ज्यादा बड़ी मत बनो, अगली बार जाकर उनके पैर छूना।
 अगली बार जब मैं गई मैंने उनके चरण स्पर्श किए।
 वे अधलेटे बैठे रहते थे, क्योंकि कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। मुझे आज तक उनकी वह दृष्टि याद है, उन्होंने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा,"क्या हो गया है तुम्हें, तुमने मेरे पैर क्यों छुए?"
 मैंने कहा सर भैया ने कहा था।
 मुझे डरा देखकर उन्होंने नम्र होते हुए कहा, "किसी के कहने से खुद को मत बदलो। तुम जैसी हो वैसे ही अच्छी हो, वैसी ही रहो।"
 एक बार मैं उनके घर बैठी हुई थी | कुछ नौजवान आए। उन्होंने कहा कि वे क्रांति करना चाहते हैं, क्रांति के बारे में लिखना चाहते हैं। परसाई जी ने पूछा क्रांति के बारे में जानते कितना हो? पढ़ा कितना है? फिर पूछा कि तुम्हारे घर में कमाता कौन है?
किसी ने कहा पिता किसान है,किसी ने कहा छोटी सी दुकान है पिता की, किसी के पिता नौकरी करते थे। वे लड़के अभी तक कुछ नहीं कमा रहे थे।
 परसाई जी ने कहा पहले खुद कमाओ फिर क्रांति की बात करो। पिता के कंधे पर चढ़कर क्रांति करोगे?

इसी तरह के कुछ और संस्मरण आगे भी साझा करना चाहूंगी।
 परसाई जी शारीरिक तौर पर हमारे साथ नहीं है तो क्या कदम कदम पर लगता है कि उनका मार्गदर्शन हमारे साथ है।

अलका अग्रवाल सिगतिया की स्मृति से 

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आज के कवि.....................कुंवर नारायण

 


जिनसे मिलकर ज़िन्दगी से इश्क हो जाए वो लोग

आपने शायद न देखें हों, मगर ऐसे भी हैं !


अपने कवि कुंवर नारायण के लिए मैं यह कह सकती हूं.


आज उन्हें याद करते हुए यह भी कह सकती हूं कि उनसे पहले न मिलने का दुख मन के अंधेरे में टिमटिमाता रहता है.


बहुत लंबा समय बीता ... 

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एम ए के दो प्रश्नपत्रों के विकल्प रूप में जब मैंने कुंवर नारायण की काव्यकृति 'आत्मजयी' पर लघु शोध प्रबंध लिखना तय किया.


आत्मजयी कठोपनिषद की कथा पर आधारित काव्य कृति है.

बचपन में सुनी थी यह  कहानी ....पिता से जिद करने वाला बालक नचिकेता.... पिता का क्रोध झेल कर यमराज के द्वार पर प्रतीक्षा करने वाला नचिकेता !


शोध निर्देशक कवि-समीक्षक अजित कुमार ने आत्मजयी के हर पहलू  को भरपूर स्पष्ट किया, परिणामत: उस समय की प्रतिष्ठित मैकमिलन कंपनी ने पुस्तक को प्रकाशित किया, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने पुरस्कार योग्य भी पाया.


कवि कुंवर नारायण उस समय लखनऊ में रहते थे, उनसे कभी कोई संवाद नहीं हुआ..मिलने का तो प्रश्न ही नहीं उठा !


मैं केवल इतना जानती रही कि वे बहुत ही संकोची कवि हैं, मिलना जुलना अधिक पसंद नहीं करते.


बरस बीते...

लखनऊ से कवि का निवास बदला.

कवि हिंदी कविता के केंद्र में वरिष्ठ कवि के रूप में सम्मानित रहे, पुरस्कृत हुए, उनके कविता संग्रह, अंकन, स्मृतियां, कला और फिल्म पर चिंतन ..बहुत कुछ प्रकाशित हुआ.


वे दिल्ली के चितरंजन पार्क में परिवार के साथ व्यवस्थित हो गए ..परिवार में पत्नी भारती जी और पुत्र अपूर्व.


अन्तत: तब आया अवसर उनसे मिलने का!


यह वह समय था जब कवि की दृष्टि में अंतस्तल का समग्र आलोक केंद्रित हो गया था ..

जब उनके दिल्ली आवास पर उनसे मिले, वे स्पर्श की ऊष्मा से हमें पहचानते थे!


गर्मजोशी से उन्होंने अपने दोनों हाथों में मेरी सामान्य उपस्थिति को जिस आत्मीयता से अपनाया.. वह मेरे अनुभव संसार का बेशकीमती टुकड़ा है !


पूरा दिन उनके सानिध्य में बीता ..कविताएं, विदेशी भाषा में उनके अनुवाद, नई किताबें जिन पर काम चल रहा था और सद्यप्रकाशित ..आत्मजयी की अगली कड़ी सा काव्य .. वाजश्रवा के बहाने.

इन पर चर्चा होती रही.


उस समय नवीनतम कृति कुमारजीव भी प्रकाशित हो चुकी थी जिसे लेकर वे बहुत खुश थे और उसकी कथाभूमि बहुत तन्मय भाव से हमने सुनी.


भारती जी और अपूर्व जी बहुत डूब कर उनकी बिखरी पांडुलिपियों पर काम कर रहे थे, अब भी कर रहे हैं ..नवीनतम प्रकाशित कृति इसका प्रमाण है.


यही प्रिय कवि से अंतिम भेंट रही !

यही उनके साथ व्यतीत किए गए नितांत निर्दोष पल !


अपने परिवेश में वे बहुत सम्मान के अधिकारी हुए, अधिकतर बांगला भाषी पड़ौसियों ने पद्मश्री प्राप्त विनम्र हिंदी कवि को सिर आंखों पर बैठाया, जब वे सुबह की सैर करने पार्क में जाते, तमाम लोग आदर सहित चरण स्पर्श करते.

उन्हें गर्व होता था कि एक महत्वपूर्ण कवि उनके बीच है.


कवि के जाने के बाद भारती जी कभी नहीं मिली, अपूर्व जी से शाब्दिक भेंट अक्सर होती है !


कवि के साथ-साथ आपके लिए भी तो कहना है ...


जिनसे मिलकर ज़िन्दगी से इश्क हो जाए वो लोग

आपने शायद न देखें हों मगर ऐसे भी हैं !


डॉ. विजय सती की स्मृति से 


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बुधवार, 16 अगस्त 2023

स्नेही मैथिलीशरण गुप्त


'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग, 1937 

एम. ए. करने के बाद 'भारत' नामक, एक दैनिक पत्र में मैंने उप-संपादक का कार्य किया। तभी दद्दा, राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की पुस्तक 'यशोधरा'  का प्रकाशन हुआ था। 

मैंने पुस्तक की विस्तृत समालोचना की, जो स्थानीय 'भारत'  में प्रकाशित हुई। कुछ सप्ताह बाद दद्दा इलाहाबाद आए और मुझे पहली बार उनके साक्षात-दर्शन हुए। 

दद्दा ने नवयुवक अनजान आलोचक कवि को सस्नेह आशीर्वाद दिया और आलोचना के अवज्ञासूचक अंश का तनिक भी बुरा न माना।

आलोचना में मैंने आपत्ति की थी कि राजकुमार राहुल अपनी माता यशोधरा को 'दो थन की गइया'  नहीं कह सकता, क्योंकि वह किसी ग्वाले की गऊ का पला हुआ बालक नहीं, राजमहल में लालित-पालित राजकुमार है। उक्ति की अस्वाभाविकता मुझे खली थी। लेकिन दद्दा ने इसे मेरी खलता न माना।

'भारत' एक लीडर ग्रुप का समाचार पत्र था और लीडर के बहुत बड़े विख्यात संपादक हुए हैं सी. वाई. चिंतामणि, जो कि इलाहाबाद में, लिब्ररल नेताओं में अग्रगण माने जाते थे, गणमान्य माने जाते थे। सी. वाई. चिंतामणि का प्रभाव भी बहुत ज़्यादा था।  यह एक तरह से लिब्ररल नीति का पत्र था। अब मेरी राजनीतिक चेतना इतनी जाग चुकी थी कि लिब्ररल लोगों के साथ थोड़ी अनबन हो जाए, कभी खटपट हो जाए, यह स्वाभाविक था। ऐसा कुछ हुआ नहीं। लेकिन मुझे एक सुयोग मिला कि विद्यार्थीकाल में ही मेरा परिचय श्री जे. बी. कृपलानी जी से हो चुका था। वह इतने महान होते हुए भी, छोटों से ऐसे मिलते थे कि जैसे बराबर के हों। यह उनकी महानता थी। उस समय के राजनीतिक नेता, बड़े साहित्यिक, बड़े शिक्षक, इन सब में यह गुण था। वह ऊँच-नीच का भाव बहुत नहीं बरतते थे। कृपलानी जी से बातचीत कभी-कभी हो जाती थी और उन्होंने एक दिन कहा- यह 1937 की बात है कि, "अगर तुम उस लिबरल पत्र में बहुत ज़्यादा संतोष का अनुभव नहीं करते तो तुम यहाँ 'स्वराज भवन' में क्यों नहीं आ जाते? हमें ज़रूरत है, हिंदी का काम-काज़ देखने के लिए किसी की।" 'स्वराज भवन' यानी अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय, ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी का हेड ऑफ़िस, यह 'स्वराज भवन' किसी समय 'आनंद भवन' था, जिसका निर्माण पंडित मोतीलाल नेहरू ने कराया था और उन्होंने ही इसको दान में दे दिया था।

वहीं पर उस समय यह अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी का केंद्रीय कार्यालय था। मैं 1937 के अक्टूबर में यहाँ आ गया और उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू काँग्रेस के सभापति थे। कृपलानी जी ने कहा कि, "तुम्हारी नियुक्ति के बारे में निर्णय जवाहरलाल जी लेंगे तुम एक बार उनसे मिलो।" उनसे भेंट कराई और वह भी भेंट ऐसी थी कि आज भी स्मरणीय है। 

    वह दफ़्तर के बाहर निकले। बाग़ था वहाँ पर।  वह इधर से उधर घूमते-घूमते, साथ-साथ, कभी पचास क़दम उधर जाते पचास क़दम इधर आते कभी सौ क़दम उधर जाते सौ क़दम इधर आते। इस तरह घूमते-घूमते जब बहुत समय हो गया, लगता है हम लोगों को डेढ़ घंटे से ऊपर हो गया। शायद दो घंटे से भी ऊपर हो गया। उन्होंने इतिहास के बारे में मुझसे पूछताछ की, साहित्य के बारे में पूछताछ की, काँग्रेस के बारे में या राजनीति के बारे में कोई बातचीत नहीं हुई और दूसरे विषयों के बारे में बहुत बातचीत हुई। और जब मैंने देखा कि मैं इनका बहुत समय ले रहा हूँ। मैंने एक अवसर देख करके हाथ जोड़ कर कहा कि पंडित जी मैं आज्ञा लूँ, फिर मैंने जरा रुक करके कहा कि, "फिर मैं आप से कब मिलूँ?" "कब मिलो का क्या मतलब? बस आज से आपकी नियुक्ति हो गयी। आपके लिए टेबल अभी डलवाए दे रहे हैं और आप काम शुरू कर दीजीए। फिर कब का क्या मतलब", उस दिन से मैं वहाँ काम करने लगा। मेरे ज़िम्मे वहाँ पर हिंदी के बुलेटिन, हिंदी का पत्र व्यवहार और काँग्रेस की जो वर्किंग कमेटी थी, वह कार्यकारिणी अंतरंग सभा भी कहलाती थी, उसके जो मिनिट्स होते थे, उनकी नक़ल भी मैं एक बड़े रजिस्टर में करता था, क्योंकि मेरा लेखा थोड़ा ठीक माना जाता था। कृपलानी जी बड़े आदमी थे। बड़े आदमी थोड़ा इललेजिबल लिखते हैं यानी पढ़ने में कठिनाई होती है।  उन्होंने कहा कि मिनिट बुक में तुम्हीं लिखो। मैं उनके आधार पर लिख देता था। इस तरह से वहाँ समय बीतता गया। 

मैं अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के केंद्रीय कार्यालय 'स्वराज भवन' में हिंदी विभाग का काम-काज़ देखने लगा। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरू के हिंदी-सचिव का काम भी करता था।

- नरेंद्र शर्मा की स्मृति से (1913-1989)

प्रस्तुतकर्ता :- परितोष नरेन्द्र शर्मा। 


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आचार्य रामचन्द्र शुक्ल काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापक कैसे बने !

[अध्यापक पद के लिए प्रति- द्वंद्विता के संघर्ष से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे विद्वान को भी गुजरना पड़ा। यहाँ प्रस्तुत हैं, उनकी व्यथा उजागर करने वाला उनका ही एक पत्र]
काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना सन् १९१६ में हो चुकी थी। सर्वप्रथम हिंदू कॉलेज प्रारंभ हुआ। इसमें अन्य विषयों के साथ हिंदी विषय का अध्यापन भी आरंभ हुआ। हिंदी अध्यापक पद के लिए उस समय भी कई प्रत्याशी थे, जो मालवीयजी तथा चयन समिति के सदस्यों को अपने विषय में आकृष्ट करने का प्रयास करते थे। यह प्रतिद्वंद्वितापूर्ण प्रयास कितना संघर्षमय होता था और प्रत्याशी परस्पर किस प्रकार एक दूसरे के प्रयास को शंका की दृष्टि से देखते थे, इसकी झलक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के उस पत्र से मिलती है, जो उन्होंने स्व. रायकृष्णदासजी को लिखा था। ( मूल पत्र भारत कला भवन (का. हि. विश्वविद्यालय में सुरक्षित है) 
हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग में हिंदी अध्यापक पद पर नियुक्त होने का प्रयास आचार्य शुक्ल आरंभ से ही कर रहे थे। एक पद निकला, उसके लिए प्रयास किया किंतु उनकी नियुक्ति नहीं हो सकी, लाला भगवानदीन की नियुक्ति हो गयी। जब दूसरा पद निकला तो उसके लिए वह विशेष रूप से सक्रिय हुए और पिछली बार नियुक्ति न होने की खिन्नता तथा निराशा से कुंठित हो उन्होंने स्व. रायकृष्णदासजी को नागरी प्रचारिणी सभा से २५ जुलाई १९१९ को पत्र लिखा, जिसमें श्री गोविंददासजी (डॉ. भगवान दास जी के अग्रज) से अनुशंसा करने का अनुरोध किया गया था। पत्र इस प्रकार है-
…........................................................
नागरी प्रचारिणी सभा काशी
ता: २५ जुलाई १९१९
मान्यवर राय साहब,
अनेक आशीर्वाद। आपको स्मरण होगा कि मैंने एक बार हिंदू विश्व-विद्यालय में हिंदी अध्यापक की जगह के सम्बम्ध में आपसे चर्चा की थी। गत वर्ष मेरे साथ जो चाल चली गयी और जिस प्रकार कायस्थचक्र ने भीतर-भीतर कार्य किया, वह आपसे छिपा नहीं है।
इस वर्ष हिंदू कालेज में हिंदी अध्यापक की एक जगह और होने वाली है। मेरा प्रार्थना-पत्र इस बार भी है। पर वही गत वर्ष वाली चाल इस बार भी मेरे साथ चली जा रही है। बाबू या मुंशी जगमोहन वर्म्मा प्रकट रूप में तो पाली अध्यापक की जगह के लिए प्रयत्न कर रहे हैं, पर भीतर ही भीतर डॉक्टर गणेशप्रसाद के साथ परामर्श करके हिंदी के लिए उद्योग कर रहे हैं। डॉ. गणेशप्रसाद उनके लिए बहुत जोर लगा रहे हैं। ऐसी दशा में मुझे कहाँ तक सफलता हो सकती है, मैं नहीं कह सकता। दौड़-धूप, खुशामद आदि में कायस्थों से पार पाना सहज नहीं है। 
मालवीयजी तो मुझे अच्छी तरह जानते हैं पर Appointment Board में पाँच मेम्बर जिनमें एक बाबू गोविंददास भी हैं। मेरा उनसे परिचय नहीं। यदि आप अनुग्रह करके उनके पास पूरी व्यवस्था लिख देंगे और सब बातें समझा देंगे, तो वे कायस्थ मंडल के कहने में इस बार न आवेंगे। गत वर्ष रामदास गौड़ ने ला. भगवानदीन को उनके पास ले जाकर उन्हें अच्छी तरह अनुकूल कर लिया था, उसी से लाला साहब को सफलता हुई।
यदि मुंशी जगमोहन वर्म्मा हिंदी साहित्य (विशेषत: शुद्ध हिंदी गद्य लिखना, जिस पर Univercity का अधिक जोर है) पढ़ाने के लिए मेरी अपेक्षा अधिक योग्य हों तो मैं कुछ नहीं कह सकता। पर मैं समझता हूँ, आप ऐसा न समझते होंगे। अत: आशा है आप इस सम्बन्ध में मेरी पूरी सहायता करेंगे और एक पत्र बाबू गोविन्ददास के पास और एक मेरे पास (उनके यहाँ ले जाने के लिए) लिख देंगे। पत्र मेरे सम्बन्ध में आप, जो उचित समझिएगा, लिख दीजिएगा। और अधिक क्या लिखूँ ?
समय बहुत थोड़ा है। पत्र पाते ही यदि आप लिखने का कष्ट करेंगे, तो काम होगा। क्षमा कीजिएगा।
पाठकजी ने एक कार्ड आपके पास भेजा है और आपके पत्र का उत्तर कल भेजेंगे। बाबू गोविंददास आजकल काशी में हैं।
आपका 
रामचन्द्र शुक्ल
-१४/११ नंदन साहू, वाराणसी-१                                                                                                                          

























































-मुरारीलाल केड़िया की स्मृति से

                                  

(कादम्बिनी, दिसम्बर 1984, में प्रकाशित)
-प्रस्तुति
-डा. जगदीश व्योम
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मंगलवार, 15 अगस्त 2023

राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी (दद्दा) और मेरे पिताश्री नरेन्द्र शर्मा का कथोपकथन


" एक दिन उन्होंने (दद्दाने) मुझे (नरेन्द्र शर्मा को) एक दोहा सुनाया:-"औसर बीते, दिन गए, जाव बिप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ कौ घाव।।" दोहा सुना कर, दद्दा ने पूछा- "अच्छा बताओ यह दोहा किसने, किसके प्रति कहा होगा।" मैंने उत्तर दिया- "कहा तो गया है किसी विप्र के प्रति..." दद्दा ने बात काटी- "पर कहा किसने है?" मैं सोचने लगा। विचार आया कि शेर को मूँछ प्यारी होती है  वानर को पूँछ। रामायण में रावण की उक्ति की स्मृति ने विचार की पुष्टि की। लेकिन फिर संशय हुआ कि वानर की पूँछ का घाव आख़िर क्योंकर इतना अविस्मरणीय होगा। मैं चक्कर में पड़ गया और कुछ देर बाद मैंने हार मान ली। दद्दा ने मुझे एक लोक-कथा कह सुनाई।"

" एक ब्राह्मण देवता गाँव-आनगाँव, कथा-वार्ता कह कर, अपना गुज़ारा करते थे। एक समय ऐसा आया कि कथा कहने की उनकी शैली लोगों को बहुत घिसी-पिटी-सी लगने लगी। और अनेक कथा-वाचक मैदान में उतर चुके थे। वह दिनों-दिन अधिक लोकप्रिय होने लगे। बूढ़े ब्राह्मण देवता को कोई न पूछता। एक दिन वह सात गाँव निराहार घूम-फिर कर, घर लौट रहे थे कि उन्होंने निश्चय किया- जंगल में पेड़ के नीचे बैठ कर कथा कहते दिन बिता देना भला है, रीती झोली लिए घर लौटना ठीक नहीं। पेड़ के नीचे बैठ कर, वह कथा सुनाने लगे। सुनने वाला कोई न था। कथा-समापन कर, वह बस्ता बाँध ही रहे थे कि एक स्वर्ण-मुद्रा उनके सामने न जाने कहाँ से टपक पड़ी। उन्होंने आश्चर्य-चकित हो कर, इधर-उधर देखा। देखते क्या हैं कि एक नाग फन झुका-झुका कर उन्हें नमस्कार कर रहा है। ब्राह्मण देवता ने नाग को आशीर्वाद दिया और नाग ने उन्हें न्यौता दिया नित्य आने और कथा सुनाने का। ब्राह्मण देवता नाग को नित्य कथा सुनाने लगे। दक्षिणा में उन्हें नित्य एक स्वर्ण-मुद्रा की प्राप्ति होने लगी।स्वर्ण के साथ संपन्नता आई और संपन्नता के साथ भोग। और भोग है, तो रोग का आना भी अनिवार्य माना गया है। बरस भर भी कथा न कह पाए होंगे कि ब्राह्मण देवता रुग्ण हो गए। इस दशा में उन्होंने अपने किशोर पुत्र को सारा भेद बता दिया। पुत्र ने बड़े उत्साह से कहा- आज मैं जाऊँगा कथा कहने।"

" ब्राह्मण किशोर ने पेड़ के नीचे बैठ कर, कथा कही। नाग ने दक्षिणा दी। दक्षिणा पाते ही ब्राह्मण-पुत्र की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। उसने सोचा, क्यों न नाग को मार डालूँ? और बाँबी (सर्पबिल) को खोद कर, सारी स्वर्ण-राशि क्यों न एक ही फटके में हथिया लूँ? आशीर्वाद देने को उठे हुए हाथ में डंडा था। ब्राह्मण ने नाग पर भरपूर वार किया। साँप की पूँछ घायल हुई। घायल नाग ने पलट कर आक्रमण किया। ब्राह्मण कुमार मर गया। वृद्ध ब्राह्मण ने शोक के दिन पूरे किए। और एक दिन वह कथा सुनाने फिर पेड़ के नीचे आ बैठे। कथा सुनने के पूर्व ही नाग ने उन्हें दक्षिणा दे दी और कहा:-"औसर बीते, दिन गए, जाव विप्र घर जाव। तोहि न भूले पुत्र-दुख, मोहि पूँछ की घाव।।"

- परितोष नरेन्द्र शर्मा की स्मृति से

छविचित्र :- राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त (दद्दा) और मेरे पिताश्री नरेन्द्र शर्मा



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सोमवार, 14 अगस्त 2023

 दद्दा : राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त 

(श्रीमती सुशीला नरेंद्र शर्मा जी का संस्मरण)

“ शांत जल में किसी के पत्थर फेंकने से जैसे पानी तितर-बितर हो जाता है, वैसे ही पूज्य दद्दा के देहावसान की बात एकाएक सुन कर, मन, दुःख और शोक से हिल उठा। ऐसे कठोर और शोकपूर्ण समाचार के लिए दुख शब्द कितना तुच्छ और छोटा है!- 

       भाव और शब्द में शायद उतना ही अंतर है जितना मुझमें और पूज्य दद्दा में है। पर न जाने क्यों मन के भावों को उस पत्थर ने ऐसे झकझोर दिया है कि आज मैं कुछ कहे बिना नहीं रह सकती। 

        तब नरेन्द्र जी का दिल्ली में तबादला हुआ था। मकान मिला न था और बंबई में बच्चों की गर्मी की छुट्टियाँ हो चुकी थीं। शायद यह बात पूज्य दद्दा को किसी से ज्ञात हो गई थी कि हम सब कुछ दिनों के लिए दिल्ली आना चाहते हैं। 

     नरेन्द्र जी से पत्र लिखा कर, दद्दा ने हमें अपने घर नॉर्थ एवेन्यू में बुलवा लिया। 

     हम लोग समय से कुछ पहले ही आ गये और अशोक जी के घर ठहर गये, जहाँ नरेन्द्र जी ठहरे थे। दद्दा के चिरगाँव जाने के दिन बच्चों के साथ मैं, नॉर्थ एवेन्यू पहुँची। दद्दा भोजन की मेज़ पर बैठे थे। मुझे भी सामने वाली कुर्सी पर बिठाया और खाने के लिए कहा। लेकिन हम सब खाना खा कर निकले थे इसलिए दद्दा को अकेले ही खाना पड़ा। उनकी थाली में बासी पूरी, भुना हुआ आलू, हरी चटनी, दही और कटोरी में सत्तू परोसा गया। दद्दा से बातें करते, मैं मन ही मन तब यही सोच रही थी कि स्वस्थ और सुघड़ तन-मन के लिए मुझे भी कुछ ऐसा ही खाना चाहिये। मैंने दद्दा से पूछा:-"दद्दा! आप ताज़ी पूरी नहीं लेते क्या?" तो वह बोले:-"मुझे बासी पूरी ज़्यादा अच्छी लगती है।"

मैंने कहा कि, "शाम को मैं दही अजवायन वाली नमकीन पूड़ियाँ आपको खिलाऊँगी।" 

“शाम को क्यों, अभी बनाओ" - दद्दा बोले। गिरिधारी की सहायता से मैंने तुरंत पूड़ियाँ बना दीं और दद्दा ने जिस चाव से, बखान करते हुए पूड़ियाँ खाईं, उससे मुझे अपने पाक-शास्त्र पर नाज़-सा हो गया और यह भी सुख हुआ कि अब की बात शाम पर न टली। 

सत्तू का नाम सुना ज़रूर था। लेकिन गुजरात में सत्तू खाया नहीं जाता, इसलिए मैंने पूछा:-"दद्दा! सत्तू खाना क्या स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है?" दद्दा ने आग्रह करके मुझे सत्तू घुलवा कर खिलाया। बड़ों की ममता में जो मिठास होती है, वही कुछ-कुछ सत्तू के स्वाद में थी। फिर दद्दा ने मुझे उस घर की एक-एक वस्तु से परिचित कराना चाहा। प्रथम वह मुझे किताबों की अलमारी के पास ले गये। कहा:-"बहू, देखो आज रात को मैं चिरगाँव चला जाऊँगा। तो मैं तुम्हें चीज़-बस्त बतलाये देता हूँ। यहाँ सब किताबें हैं, यदि दोपहरी में पढ़ना चाहो और यह हैं कोरे काग़ज़। यह हैं लिफ़ाफ़े, इनलैंड, पोस्टकार्ड, इंक, पेन्सिल। यह है टेलिफ़ोन। तुम दिन में पाँच बार फ़ोन कर सकती हो। मैं एक नंबर पर पंखा चलाता हूँ, तुम चाहो जिस नंबर पर चला सकती हो।" फिर कुछ विनोद-भरे स्वर में बोले:-"पर हाँ, नरेन्द्र जी को तो एक नंबर पर ही चलाने देना। यह है तुम्हारी जिया का बक्सा। कपड़े-लत्ते की आवश्यकता पड़े तो ले सकती हो।"

और अब रसोई घर की बारी आई। पीतल और स्टील के बर्तन, इलेक्ट्रिक केतली, जिसकी दद्दा ने सिफ़ारिश की, कि उसमें चाय जल्दी बन जाती है और फिर दद्दा ने मुझे स्टोर से परिचित कराया, "देखो, यह है सरोता- पूरे सौ साल का है। इसे बहुत जतन से रखना। मैं ध्यान से सुन रही थी। बहू, यह रहे पापड़ और यह हैं तुम्हारी जिआ के हाथ की मँगौड़ियाँ। यह मसाले, यह घी, साबुन।" स्टोर भरापूरा था। आभार और संकोच मेरी आँखों में देख कर दद्दा बोले:-"यह सब ख़ास तुम्हारे लिए छोड़े जा रहा हूँ। उपयोग में ज़रूर लाना। मैं साँझ तक का तुम्हारा मेहमान हूँ।" मैं 'जी' के सिवा कुछ कह न पाई।

   बरामदे में धूप आ गई थी। आँखों को खल रही थी। दद्दा ने कहा:-"दोपहरी में चिक इस तरह नीचे डाल लेना" और दद्दा स्वयम् ही एक के बाद एक, चिकें गिराने लगे। मैं भी मदद करने के इरादा से साथ खड़ी हो गई। तभी एक परदा, फिरकी में रस्सी उलझ जाने से अटक गया। मैंने कुर्सी सरकाई और चाहा कि ऊपर चढ़ कर उसे ठीक कर दूँ। पर दद्दा ने मुझे अवसर न दे कर वह काम भी स्वयम् ही किया। उनकी सतर्कता और फुरती देखते ही बनती थी।

   मैं अपने काम में लग गई और दद्दा सोफ़ा पर बैठ कर परितोष के साथ ताश खेलने लगे। खेल ख़त्म हुआ तो ताश परितोष को सौंप दिये गये। दद्दा परितोष से बतियाने लगे। कुछ पहाड़े पूछे और हिंदी में कुछ पंक्तियाँ लिखाईं। नन्हे परितोष को यह तो भान न था कि वह किसके सामने बैठा है, अपनी बाल-सुलभ चतुराइयाँ दिखलाये जा रहा था। दद्दा ने उसके अक्षरों की भी तारीफ़ की। तब वह हेकड़ी भर कर यह भी कहने लगा कि, "मैं तो और भी अच्छे अक्षर लिख सकता हूँ, आराम से लिखूँ तो।" दद्दा का इस बात पर मुस्कराना मुझे आज भी ठीक-ठीक याद है। दो महीने सुख-सुविधा से रह कर जब मैंने बंबई प्रस्थान किया, तो मुझे मन ही मन यह भय सताने लगा कि मेरी वानर-सेना ने दद्दा के व्यवस्थित घर में कहीं कुछ त्रुटियाँ न छोड़ दी हों। पर जब दद्दा से एक वर्ष बाद फिर मिली तो यह भय भी चला गया। दद्दा के सौम्य और उदार व्यक्तित्व ने मुझे आश्वस्त कर दिया, यह कह कर कि घर दुबारा खोलने पर ज़्यादा स्वच्छ और व्यवस्थित था। 

  मुझे वह एक दिन, जो मैंने दद्दा की छत्र-छाया में बिताया था, सदा याद रहेगा। आज रह-रह कर यही विचार आता है कि एक दिन में उन्होंने मुझे कितना ममत्व दिया, जो भुलाये नहीं भूलता। तो उनसे अनेक दिनों का जिनका साथ रहा होगा- वह दद्दा को कैसे भुला सकते हैं? साकेत के कर्ता ने मुझे तो इस कलियुग में भी रामराज्य के प्रत्यक्ष-दर्शन करवा दिये।” 

परितोष नरेन्द्र शर्मा की प्रस्तुति


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 आज मैथिलीशरण गुप्त जयन्ती पर पूरा देश उन्हें याद कर रहा है।

     रजनी गुप्त का उपन्यास 'कि याद जो करें सभी'  राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जीवनीपरक उपन्यास है जो वर्ष 2021 में वाणी प्रकाशन से आया है। इस उपन्यास के पृष्ठ 230 पर एक घटना का ज़िक्र है जो इस प्रकार है :

    26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के लाल किले में एक साथ दो सम्मेलन आयोजित किए गए - अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और उर्दू मुशायरे का आयोजन जश्न-ए-जम्हूरियत। कुछ हिन्दी साहित्यसेवियों और साहित्यप्रेमियों के मन में इच्छा जगी कि प्रधानमंत्री पंडित नेहरू इस कार्यक्रम का उद्घाटन करें। वे सब मिलकर नेहरू जी के पास गए और अपनी इच्छा जाहिर की। नेहरू जी ने पलटकर जवाब दिया - "इस कार्यक्रम की अध्यक्षता तो मैथिलीशरण गुप्त कर रहे हैं। उसी दिन शाम को चंडीगढ़ के किसी समारोह में मुझे मुख्य अतिथि के रूप में जाना है। बड़ी समस्या है, क्या किया जाए?"

    थोड़ी देर बाद पंडित जी दूसरे कमरे से आकर बोले - "जो भी हो, हम उसी दिन शाम को चंडीगढ़ से दिल्ली आठ बजे तक लौट सकते हैं। कपूर, तुम्हें ध्यान नहीं है, उस कवि सम्मेलन की अध्यक्षता मैथिलीशरण गुप्त कर रहे हैं। यह कैसे मुमकिन है कि हम स्वीकार करके भी उसमें न जायें।"

     उस कवि सम्मेलन में देश के प्रधानमंत्री ख़ुद शरीक हुए और इस अवसर पर उन्होंने अपना ऐतिहासिक भाषण दिया। इस समय मैथिलीशरण ने अपने बटुए से नेहरू जी के सम्मानार्थ पान पेश किया तो वह इनकार नहीं कर सके जबकि नेहरू जी पान खाते नहीं थे। दोनों के बीच आपस में अत्यधिक सम्मान और एक दूसरे के प्रति गहरी आत्मीयता थी जिसे हिन्दुस्तान के इतिहास में अक्सर याद किया जाता है। दोनों भद्रजनों की आपसी मित्रता बेहद पारदर्शी थी और वे एक दूसरे की दिलोजान से इज़्ज़त करते थे।

रघुवंश की प्रस्तुति, द्वारा अनूप श्रीवास्तव


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 आफ द रिकॉर्ड  (नौ )

    पत्रकारिता के खतरे


राष्ट्रकवि और उपराष्ट्रकवि !


       महात्मा !नेताजी !और राष्ट्रकवि ! जैसी उपाधियां कभी किसी संस्था या जन समारोह में नहीं दी गयी थी लेकिन प्रचलन में ये उपाधियां आम लोगों की जबान पर थीं. मोहन दास करमचंद गांधी को लोग महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र को नेता जी का सम्बोधन देने लगे थे. उसी तरह से मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि की उपाधि  इतनी भायी कि उन्होंने इसे अपने नाम के साथ चस्पा कर ली थी.यहां तक कि पत्रव्यवहार और परिचय वाचन में भी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त लिखा और बोला जाने लगा.  

      कालान्तरण में जय प्रकाश नारायण को भी 'लोकनायक' सम्बोधित किया गया, लेकिन जय प्रकाश जी को जे पी कहलाना ज्यादा पसंद था इसलिए उनके नाम के साथ लोकनायक का सम्बोधन ज्यादा समय नहीं चला.

       मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि कहे जाने पर कवियों के एक समुदाय ने इस सम्बोधन को हाथों हाथ लिया।सच भी यही है कि किसी ने भौं तक नहीं टेढ़ी की. लेकिन जब रामधारी सिंह 'दिनकर' के नाम के आगे राष्ट्रकवि का सम्बोधन लगाया जाने लगा तो कुछ हंसोड़ साहित्यकारों ने दबी जबान से चुस्की लेना शुरू किया। यही नही,  जब एक ही मंच पर दोनों वरिष्ठ कवि मंचासीन होते तो वे चुटकी लेने से बाज़ नहीं आते-आज हमारे मंच पर दो-दो राष्ट्रकवि मंचस्थ हैं. यह देखकर दिनकर जी मंद-मंद मुस्कराते दिखते लेकिन मैथिलीशरण गुप्त जी का अनमनापन छिपाए नहीं छिपता.  पीठ पीछे हास परिहास चलता रहता. लोग बाग मजे लेते.

            मैथिलीशरण गुप्त जी को सभी दद्दा कहते थे. धीर गम्भीर होते हुए भी हम लोगों की चुहलबाजी पर उनकी निगाह बनी रहती थी.और राष्ट्र कवि के मुद्दे पर अंदर ही अंदर बेहद टची रहते थे.उन्हें छेड़ने के लिए हम लोगो ने एक बार कहा कि दद्दा !आप को सभी राष्ट्रकवि मानते है पर दिनकर जी को भी राष्ट्र कवि कहा जाए,  हमें यह स्वीकार नही है.

        सुनकर  गिरदे पर टिके हुए राष्ट्रकवि की मुद्रा थोड़ी चौकन्नी हुई उनका स्वर सुनाई दिया - हूँ ! इस बारे में दिनकर जी से बात हुई तो उन्होंने भी जवाब दिया कि मै तो किसी को राष्ट्रकवि बोलने को कहता नहीं.

दद्दा की आंखों में सवालिया निशान उभरा.

लेकिन एक रास्ता है अगर आप अनुमति दें तो?

क्या ?

- "यह  कि दद्दा आप  को राष्ट्रकवि और दिनकर जी को उपराष्ट्रकवि घोषित कर दिया जाए."

               मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी आंखे बंद कर लीं और हमारी चुहलबाजी को वहीं पर ब्रेक लगाना पड़ा.

लेकिन हम सबने  बार बार दुहराकर इस प्रस्ताव की गम्भीरता बनाये रखी और अन्य वरेण्य साहित्यकार भी रुचि लेने लगे तो मैथिलीशरण जी को भी एक दिन बोलना पड़ा - ठीक है,आगे दिनकर भी चाहते हैं तो उनको उपराष्ट्रकवि घोषित करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है.

लेकिन दद्दा! तीन चार उपाधियां और भी फाइनल कर दें तो और बेहतर हो जाये.

वह क्या?

जैसे-बच्चन जी को "परराष्ट्रकवि", प्रभाकर माचवे जी को महाराष्ट्र कवि" और--

और ?

जी और...

गोपाल प्रसाद व्यास जी को "धृतराष्ट्रकवि"!

     अब दद्दा से न रहा गया,उन्होंने गिरदा खींच कर हम लोगों पर फेंका. और हम अदबदा कर भागे. पेट पकड़े . ठहाके पर ठहाके लगाते हुए.

       बाद में सोहन लाल द्विवेदी जी के  नाम में भी राष्ट्रकवि लगाया जाने लगा। कानपुर के श्री देवी प्रसाद राही भी यदा कदा राष्ट्रकवि से सम्बोधित किये जाते दिखे पश्चात वीर रस के कवियों में भी राष्ट्रकवि कहलाने की होड़ लग गयी.  लेकिन असली राष्ट्रकवि कहलाने वाले मैथिलीशरण गुप्त जी ही थे.

       मैथिलीशरण गुप्त जी का व्यक्तित्व प्रभावी और भव्य था. चूड़ीदार पैजामा, शेरवानी और सिर पर टोपी, हाथ मे छड़ी. हमेशा उनके साथ मुंशी अजमेरी झोले में गुप्त जी के लिखने के लिए स्लेट और पेंसिल लेकर चलते थे.  बाद में उसे कलमबद्ध करने की जिम्मेदारी मुंशी अजमेरी की हुआ करती थी. लेकिन रामधारी सिंह दिनकर  का व्यक्तित्व बेहद दबंग था. कवि सम्मेलनों के वे सिरमौर थे. दिनकर जी नेहरू जी के अत्यंत प्रिय थे. हमेशा लोकसभा से साथ साथ निकलते थे. एक बार सांसद की सीढ़ियों से उतरते समय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के कदम लड़खड़ा गए, दिनकर जी ने बढ़कर नेहरू जी को संभाल लिया. इसपर नेहरू जी ने दिनकर जी को धन्यवाद दिया.

      दिनकर जी ने तत्क्षण आभार प्रदर्शन पर उन्हें बरजते हुए चुटकी ली-"नेहरू भाई इसकी जरूरत नही है,राजनीति जब भी लड़खड़ाती है साहित्य हमेशा बढ़कर उसे सम्भाल लेता है । यह हमारा दायित्व है", नेहरू जी सुनकर मुस्करा दिए.

         दिनकर जी की कविताएं राष्ट्रीयता से ओतप्रेत होती थी। वीर रस के अद्भुत कवि थे दिनकर जी. जब मंच पर काव्यपाठ के लिए खड़े होते . तालियों की गड़गड़ाहट होती थी और जनता की निगाहों में सिर्फ दिनकर जी होते थे.उनके बाद काव्य पाठ करने की बड़े बड़ों की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन वे कितने बड़े रस मर्मज्ञ थे? कितने मंजे हुए गीतकार थे, बिहार के एक कवि सम्मेलन के बाद एक ऐसी घटना घटी जिसका चश्मदीद गवाह मैं भी बना.

      हुआ यह कि सासाराम के कवि सम्मेलन के बाद एक भव्य प्रसाद के भवन में पांच कवियों के रुकने की व्यवस्था थी - दिनकर जी, व्यास जी,नागार्जुन जी ,ठाकुर प्रसाद सिंह और उनके साथ सबसे युवा वय का मैं. अचानक आधी रात को दिनकर जी उठ खड़े हुए और उन्होंने पलंग को उलट दिया. सभी की आंख खुल गयी. पलंग पर खटमल बिछे पड़े थे. सभी ने अपनी-अपनी खाट खड़ी की और बरामदे में लगी कुर्सियों पर बैठ गए. पता चला कुर्सियों में भी खटमल भरे पड़े थे. दिनकर जी ने कहांज्ञज्ञज्ञज्ञ - उधर देखो, पलँगों से उतर कर खटमलों की कतार हमारी तरफ आ रही थी.

      एक मेज पर स्टोव रखा था और कई बाल्टियां पानी  भरी थी. स्टोव जलाकर एक बाल्टी का पानी गर्म करने का आदेश मिला. लोटे से पलँगों और कुर्सियों पर गर्म पानी डाला गया.फिर सारी रात कुर्सियों पर जगते बीती, बतकही के अलावा कोई चारा नहीं था. दिनकर जी के संकेत पर ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने वंशी और मादल के कई नव गीत गाकर सुनाए.नागार्जुन जी को मंत्रमुग्ध होकर हम सबने सुना. बगल के हाल में ठहरे कवियों का भी यही हाल था . वे भी आ गए.सबसे अंत मे खटमली-रात रतजगे में बदल गयी. दिनकर जी ने  एक नहीं, अनेक श्रैंगारिक गीतों का सस्वर पाठ किया. कंठस्थ श्लोकों का वाचन किया, अपभ्रंश के घोर श्रैंगारिक छंदों, दोहों को सव्याख्या सुनाया. अद्भुत रात्रि गीत थे उनके. चमत्कृत थे हम उन्हें सुनकर. दिनकर जी के पास श्रैंगारिक गीतों का अद्भुत जखीरा था .

    इसी तरह पटना में  हिंदी प्रचार सभा के राष्ट्रीय अधिवेशन में एक अलग खेल हो गया. अधिवेशन में मुख्य अतिथि के रूप में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने भी स्वीकृति दे दी थी. देश भर से दिग्गज साहित्यकारों का जमावड़ा लगने का अनुमान था. महाधिवेशन के लिए प्राप्त राष्ट्रपति के भाषण, विशिष्ट अतिथियों के लिखित वक्तव्यों, अधिवेशन में पारित किए जाने वाले प्रस्तावों आदि की प्रतियां भी अखबारों को देने के लिए तैयार कर ली गयी थी.

   उस समय  बनारस से छपने वाले एक प्रमुख अखबार का बिहार में भी दबदबा था. जिस दिन अखबार नही पहुंचता था,लोग कहते थे-आज बनारस का 'अखबार' नहीं आया! उस अखबार ने महाधिवेशन की विशेष कवरेज के लिए अपने सांस्कृतिक संवाददाता को पटना भेज रखा था.

    अखबार के संवाददाता ने बेढब जी से मिलकर प्रेस नोट की तैयार सामग्री पहले ही हथिया ली थी और फटाफट लीड, बॉक्स आइटम, साक्षात्कार, महाधिवेशन की झलकियां बना कर अखबार को भेज दी और साथ मे नोट लगा दिया - 'मेरा फोन  पहुचते ही लगा दें'. संवाददाता ने फोन कब भेजा,पता नही, पर बनारस के उस अखबार में पटना महाधिवेशन की शानदार कवरेज थी.लेकिन बाकी अखबारों में वरेण्य साहित्यकार के निधन के चलते महाधिवेशन के स्थगित किये जाने की मात्र एक "सिंगल" कालम में खबर छपी थी.

अनूप श्रीवास्तव की प्रस्तुति


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शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!

 ऑफ द रिकॉर्ड !   (पांच)

मैथलीशरण और निराला भी स्लेट पर लिखते थे!


वेदव्यास ने क्या कहा या बोला

 था?हमें पता नहीं.हम तो केवल उतना ही जानते है जिसे गणेश जी ने लिखा था. दुनिया जानती ही नही मानती भी है कि वेदव्यास ने ही महाभारत लिखा था. 


महर्षि वेदव्यास वाचिक परम्परा के शीर्ष थे. जब महाभारत के कथानक को कालपात्र की तरह भविष्य के लिए अक्षुण्य रखने का निर्णय हुआ और उसका दायित्व वेदव्यास पर सौंपा गया तो भोज पत्र पर उसे लिपिबद्ध करने के लिए गणेश जी की तलाश हुई फिर,महाभारत ही नहीं ,चारो वेद,पुराण,संहिताओं को भी भोज पत्रों पर लिपिबद्ध किया गया.और इस तरह से लिखने पढ़ने का भोजपत्र पहला आधार परिपत्र बना.और इसके लिये एक मजबूत गणेश परम्परा बनी जो आज तक कायम है. सबके पास अबअपने अपने गणेश हैं.


भगवान बुद्ध ने भी अंतिम समय मे कहा था कि मेरे द्वारा दिये गए उपदेशों को भंते आनंद से पुष्टि कराने के बाद ही माना जाये. 


महाकवि निराला  ही नही राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त भी स्लेट पर लिखते थे. बाद में मुंशी अजमेरी उसे स्लेट से उतार कर,संवार कर कागज़ पर लिपिबद्ध करते थे. दद्दा (मैथिली शरण गुप्त )अक्सर मुंशी अजमेरी को आइये हमारे गणेश जी! का सम्बोधन  देते थे.

जो भी दद्दा के दर्शन करने उनके घर जाता था,उसे एक कोने में तर ऊपर करीने से रखी बीस। पच्चीस स्लेट  नजर आती थी और दो तीन स्लेट दद्दा के घुटनो के पास रखी दिखती थीं.

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी भी स्लेट पर लिखते रहते थे ,बिगाड़ते रहते थे.


एक बार मुझे राम विलास शर्मा जी निराला जी के यहां दारागंज लेकर गए.  कुछ  और लोग भी पहले से बैठे थे. निराला जी ने  उन्हें जाने का संकेत किया. मैने देखा -निराला जी बार बार एक स्लेट पर संस्कृत के एक श्लोक को लिखते थे और कपड़े से पोंछ कर बिगाड़ देते थे। मुझे मुस्कराता देख कर निराला जी उखड़ गए. बोले-

 क्यों खीसे बा रहे हो. तुम्हारे पास स्लेट नही है? 

जी है!

तो फिर,लिखते नही हो उसपर?

-लिखता हूँ स्लेट पर आप की तरह नहीं!

क्या मतलब?,निराला जी गुर्राए.

-लिख रहे हैं,बिगाड़ रहे हैं,फिर लिख रहे है और फिर बिगाड़ रहे हैं! और क्या कर रहे हैं?

हम्मम!जानना चाहते हो,क्या कर रहा हूं?इसे खा रहा हूँ,कहकर निराला जी ने अपनी स्लेट रख दी.औरराम विलास जी ने प्यार भरी चपत लगाकर मुझे चुप करा दिया। सालों बाद मैंने निराला जी की एक कविता पढ़ी ,तब मुझे उनके द्वारा स्लेट पर लिखे श्लोक का स्मरण हो आया. निराला जी उस श्लोक को सिर्फ खा ही नहीं रहे थे ,उसे पचा भी रहे थे.


मेरे पिता चौधरी कृष्ण कुमार श्रीवास्तव लखनऊ राम विलास शर्मा के घर में ऊपर के हिस्से  में रहते थे. वे राम विलास शर्मा जी के प्रिय छात्र थे.किराए का घर उन्होंने ही दिलवाया था .पापा के सारे पत्र रामविलास शर्मा जी के पते पर ही आते थे.मेरे बाबा जब भी लखनऊ आते थे।हमेशा उनके लिए गांव से कुछ न कुछ भेंट करने के लिए लेकर आते थे। निराला जी भी जब तब  आकर राम विलास शर्मा जी के घर की कुंडी खटखटाते थे,उनकी भारी आवाज से पूरा मोहल्ला गूंज जाता था। सुनते ही मै भी भाग कर नीचे दौड़ जाता था। निराला जी को बच्चों से बेहद लगाव था। देखते ही गोद मे बिठा लेते थे.मेरी मां शांति श्रीवास्तव को 'प्रभा'उपनाम उन्होंने  ही दिया था.


माँ कहानियां लिखती थीं. मां की लिखी कहानियों को किस पत्रिका में जानी हैं इसे रामविलास शर्मा जी ही बताते थे। उनकी कुछ कहानियों के पहले या आखरी पन्ने पर मैने उनके निर्देश  भी कहीं कहीं पढ़े थे। मां की एक कहानी पर जब  सरकार की भौं टेढ़ी हुई और मेरी ननिहाल में इसकी जानकारी पहुंची तो रोना धोना मच गया.  मेरी ननिहाल हरदोई की सबसे बड़ी तहसील शाहाबाद में थी.नाना राय साहब जंग बहादुर के होश उड़े हुए थे. कहानी में  शांता श्रीवास्तव प्रभा 'राय निवास'शाहाबाद ,जिला हरदोई लिखा था. पता नही,कैसे राय निवास में बैठ कर अंग्रेज जिलाधिकारी क्रिमानी ने मामला दाखिल दफ्तर कर दिया। बाद में पता चला कहानी भेजते समय शर्मा जी ने लिफाफे पर मेरी मां का नाम शांति के बजाय शांता लिख दिया था।


सालों बाद जब हिंदी संस्थान के समारोह में राम विलास शर्मा जी को अतिथि गृह पहुचाने के बाद जब मैने उनके चरण स्पर्श किये तो उन्होंने मुझे गौर से देखा. मैने बताया कि उन्हें बचपन से जानता हूं. कैसे?मेरे पिता आपके स्टूडेंट थे .अरे जाने कितनों को पढ़ाया है,खैर, उनका नाम क्या था?

जी,कृष्ण कुमार .

अरे !तुम शांता के बेटे  अनूप हो.

बहुत शैतान थे.सिर चढ़े भी.मेरे दाढ़ी बनाने का सामान तुमने खिड़की से नीचे फेंक दिया था.

तुम्हारी माँ कैसी हैं?

नहीं रही,चली गयी बहुत दूर जब मै पांच साल का था .ओह! होती तो बड़ी कहानीकार बनती। पहले भी उसकी कहानियां चर्चा में थीं.और वे पुरानी स्मृतियों में खो गए.


मैने बताया कि पापा लखनऊ से सीतापुर  आ गए थे  वकालत करने.उन्होंने सिर हिलाया ,पता है,एक बार गांव तक भी गया था।

साथ मे थे कृष्ण कुमार ,काला कोट पहने,पुश्तैनी काम संभालना भी जरूरी होता है कभी कभी..

   

निराला जी की स्मृति चर्चा एक बार फिर लौटी जब मेरी बेटी का नामकरण गीतकार नीरज जी ने शिल्पा नाम देकर कहा कि कभी सबसे कहोगे कि तुम्हारी बेटी का नाम .. शिल्पा नीरज जी ने रखा था।

मैंने उन्हें बताया कि इसकी दादी का उपनाम "प्रभा"भी निराला जी ने रखा था। कहानीकार थीं ,मेरी माँ.

आज सोचता हूँ ,उनकी स्मृति ही मेरी पूंजी है और लेखन का संस्कार भी. 


राशन का जमाना था.राशन में कपड़ा और खाद्य सामग्री तो मिलती थी पर कागज़ के टोटा था. बच्चों का विद्यारम्भ तख्ती छुलाकर आरम्भ होता था। शाम होते ही लालटेन की कालिख निकाल कर तख्ती पोती जाती थी,फिर बोतल से घोंटकर चमकाई जाती थी।मदरसे मे तख्ती लिखकर होम वर्क दिखाने ले जाते थे . बड़ी कक्षा में पहुचने पर स्लेट मिलती थी.उस महंगाई में कागज़ पर कचहरी में ही काम काज होता था।


 बड़े से बड़ा लेखक भी पहले स्लेट पर अपने हाथ आजमाता था. निराला जी,जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत,महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त तक स्लेट का इस्तेमाल करते थे. बाद में उनके लिखे को सजा संवार कर कागज पर उतारने की जिम्मेदारी उनके 'गणेश' पर होती थी. 


कागज़ का एक ताव (पन्ना) एक आने का मिलता था . उतने में सवा किलो गेहूं ,या दस किलो आलू  बाजार में खुले आम मिलता था.इतने मंहगे कागज़ एक तरफ लिखने की ऐयाशी बड़े से बड़ा आदमी करने की हिम्मत नहीं कर पाता था।

मिश्र बन्धु पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ नवल बिहारी मिश्र,जे पी श्रीवास्तव, दिनकर जी, यशपाल जी,नागर जी को मैंने कागज़ के दोनों ओर लिखते देखा है. बाद में पिछले साल के कैलेंडर की तारीखों वाले कागजो को क्लिप या पिन लगाकर बंच बनाकर  कविता, कहानी,लेख  बहुतायत से अखबारों ,पत्रिकाओं को प्रेषित करने की रवायत बहुत दिनों तक रही .


मैथिली शरण गुप्त जी ने एक बार क्रोधाष्टक शीर्षक से क्रोध पर आठ छन्द महावीर प्रसाद द्विवेदी को सरस्वती में छपने के लिए भेजे। द्विवेदी जी ने उसको छापने के बाद गुप्त जी को पत्र लिखा-आपने तो आठ  छंदों को  आठ मिनट में लिख लिया होगा लेकिन मुझे उसे ठीक करने में आठ दिन लग गए.

मैने जब दद्दा से इसकी पुष्टि चाही तो उन्होंने कहा-दरअसल उसे मुंशी को भेजना था,जल्दबाजी में द्विवेदी जी को सीधे भेज दिया था.


 श्री मनोहर श्याम जोशी को पहला अट्टहास  शिखर सम्मान दिये जाने के बाद जब दिल्ली में  मिलने गया तो उन्होंने मुझे "हमलोग" धारावाहिक की स्क्रिप्ट वर्कशॉप का पता देते हुए फोन पर कहा  वहीं आ जाइये.


वहां पहुंच कर मैंने देखा-एक बड़े हाल में बीस पच्चीस युवा स्क्रिप्ट राइटर दत्त चित्त होकर स्क्रिप्ट पर काम कर रहे है और मनोहर श्याम जोशी एक बड़ी मेज पर उनके द्वारा तैयार पर्चियों पर ओके या क्रॉस के निशान लगा रहे हैं। मेरी समझ मे आगया कि जोशी जी ही वेदव्यास हैं और सारे स्क्रिप्ट राइटर गणेश की भूमिका में हैं.


अनूप श्रीवास्तव की स्मृति से



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मेरे प्रिय व्यंग्य लेखक परसाई जी


बात उन दिनों की है जब मैं जबलपुर में होम साइंस कॉलेज में पढ़ती थी।

हिंदी के महान व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी मॉडल हाई स्कूल में  विजय भाई को पढ़ाते थे बाद में एक ही विधा में होने की वजह से गुरु शिष्य का रिश्ता मित्रता में बदल गया हालांकि परसाई जी व्यंग्य लेखक थे, विजय भाई नाटक, कहानी ,कविता हर विधा में लिखते थे ।अक्सर मैं अपने होम साइंस कॉलेज से लौटते हुए उनके घर चली जाती। 

अपनी रचनाएं उन्हें पढ़कर सुनाती। न वे तारीफ करते न खामियाँ निकालते। मैं असंतुष्टि का भाव लिए घर लौटती।

एक दिन विजय भाई मुझे रोटरी क्लब ले गए साहित्य कार्यक्रम था और परसाई जी मुख्य अतिथि थे अधिकतर लोग अंग्रेजी ही बोल रहे थे। सभी परसाई जी से हाथ मिला रहे थे ।डिनर के दौरान सलाद की प्लेट लिए एक सज्जन परसाई जी के करीब आए

" सर आप क्या महसूस करते हैं यह देश विनाश की ओर जा रहा है और हम सब पतित पथभ्रष्ट इसे रसातल पहुंचाकर ही दम लेंगे।" परसाई जी तपाक से बोले

" यह मुझे नहीं मालूम था कि सलाद के साथ देश की दुर्दशा इतनी स्वादिष्ट लगती है ।"

यह सुनकर काले कोट और नीली टाई वाले सज्जन इतनी जोर से ठहाका मारकर हंसे कि उनके कप का सूप छलक पड़ा।

परसाई जी हमें टैक्सी से घर तक छोड़ने आए ।रास्ते में विजय भाई ने मेरी रचनाओं पर चर्चा छेड़ी। उन्होंने कहा -"संतोष के अंदर छुपा लेखन का बीज अंकुरित हो चुका है। तुम्हें अपनी हर एक रचना के कई कई ड्राफ्ट बनाने होंगे सन्तोष,फिर देखना निखार।"

उस दिन मैंने उन्हें पहली बार निकटता से जाना। उनकी सादगी से मैं अभिभूत थी ।एक दिन अपनी कहानी" शंख और सीपियां "उन्हें सुनाने ले गई। अपने तईं मैंने इस कहानी पर खूब मेहनत की थी। वे अपने घर पलंग पर आराम से बैठे मेरी कहानी सुन रहे थे कि तभी खटर- पटर की आवाज सुन उन्होंने मुझे पढ़ने से रोका। अंदर गए और कटोरदान में रखी रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर दिए। तभी एक चूहा अलमारी के नीचे से निकला और सारे टुकड़े एक-एक कर उठा ले गया। "यह भी तो घर का सदस्य है। रोटी खाकर शांत हो जाएगा वरना तुम्हें कहानी नहीं सुनाने देगा ।"

सच में थोड़ी देर में शांति थी। मैं कहानी पढ़ने लगी। मेरी कहानी जब पूरी हुई तो वे बोले "अब वक्त आ गया है छपने का ।"

मेरी खुशी की इंतिहा न थी। दो महीने बाद धर्मयुग से डॉक्टर धर्मवीर भारती जी ने स्वयं मुझे पत्र लिखा --"आपकी कहानी "शंख और सीपियां "धर्मयुग में प्रकाशनार्थ स्वीकृत है।"

 मैंने उसी दिन परसाई जी के घर जाकर भारती जी का स्वीकृति पत्र दिखाया ।

"जाओ बिस्कुट खरीद लाओ। चूहे को खिलाना है। आखिर वह भी तो तुम्हारी कहानी सुनने में भागीदार था।"

अब परसाई जी नहीं रहे ।उन्होंने जीवन की अनंत पीड़ा सही। उनका जीवन घोर दुखों से गुजरा ।उस दुख ने उन्हें लेखनी थमा दी और खंगालने वाली वह दृष्टि प्रदान की जो आज व्यंग्य साहित्य की धरोहर है ।वे कहते थे "जो चेतनावान होता है वह दुनिया की हालत पर रोता है ।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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गुरुवार, 3 अगस्त 2023

अधूरे ख्वाब की शहादत - सुरेंद्र प्रताप सिंह की पुण्यतिथि पर(27 जून)

जब भी मैं टेलीविजन पर समाचार चैनल “आज तक “देखती हूँ, कान खबरें सुनने से इंकार कर देती हैं , मन भर आता है?  एक ज़िद्द सी माहौल में कि उस आवाज को ढूंढ लाऊँ जिससे बिछड़े बरसों बीत गए लेकिन जो अब भी मेरे कानों में गूंजती है।सुरेन्द्र प्रताप सिंह यानी सबके एस पी और मेरे सुरेंद्र भाई। क्रूर काल ने यह छल क्यों किया हमारे साथ? वैसे सुना है अच्छे इंसानों की ईश्वर को भी ज़रूरत होती है। शायद इसीलिए वे अल्प आयु में ही चले गए।

विरले ही होते हैं जो किवदंती बन जाते हैं। जैसे कि एस पी ।इन दो अक्षरों में एक ऐसे शख्स का अनुभव कराता है जिनका नाम पत्रकारिता के दुर्लभ व्यक्तित्व में आसानी से शुमार किया जा सकता है। सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी धर्मयुग के उपसंपादक, रविवार के संपादक ,नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक से टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक और उसके बाद समाचार चैनल आज तक के प्रस्तोता एस पी यानी खांटी ग्रामीण परिवेश को अपने भीतर संजो कर रखे हुए एक जेंटलमैन। जिनकी खिचड़ी होती दाढ़ी में जैसे जीवन के विविध अनुभव अपना रंग दिखा रहे हो ।गोल चश्मे के भीतर आंखे इतनी सजग चौकन्नी कि खबरों के प्रस्तुतीकरण में बोलती महसूस हो। जमाने की आंखों में पूरी तरह हंसती हुई ।मुंबई की पत्रकार बिरादरी के लोग ,शायर ,साहित्यकार उन्हें इसी रुप में जानते हैं और उन्हें भरपूर याद करते हैं

मन पहुंच जाता है उस दिन को टकोरने जब मैं पहली बार जबलपुर से मुंबई आई थी और सुरेंद्र भाई विजय भाई(मेरे बड़े भाई विजय वर्मा) के साथ स्टेशन मुझे लेने आए थे।।यूँ खतों से मैं सुरेंद्र भाई के व्यक्तित्व से परिचित थी लेकिन देखा उन्हें पहली बार। बेहद सौम्य व्यक्तित्व ,मिलनसार ।टैक्सी चल पड़ी मुंबई स्वप्न नगरी की राहों पर ।सुरेंद्र भाई ने बताया "ये विजय दो महीने से चप्पलें घिसता रहा तुम्हारे लिए मकान तलाशने में ,क्योंकि यह तो रमता जोगी है जहां शाम वही बसेरा।"

हम हंस पड़े थे। विजय भाई ने अंधेरी में वन रूम किचन का फ्लैट किराए पर लिया था। सुरेंद्र भाई अक्सर वहां आते विजय भाई के सभी पत्रकार ,साहित्यकार और आवाज की दुनिया से जुड़े दोस्त भी आते ।विजय भाई जबलपुर के नवभारत में समाचार संपादक थे और बेहद अच्छे कवि, कथाकार थे। और अपने दोस्त ज्ञानरंजन के साथ जनवादी आंदोलन के दौरान चर्चित हुए थे ।लेकिन जबलपुर उन्हें रास नहीं आया। सुरेंद्र भाई की जिद थी कि विजय भाई मुंबई आ जाएं और अपने टैलेंट को यहां प्रकाशित करें ।मैं भी प्रकाशित होना चाहती थी अपनी रचनाओं के द्वारा। लेखन का नशा चढ़ा था मुझ पर ।धर्मयुग में बदस्तूर रचनाएं छप रही थी मेरी ।मेरी हर कहानी की कमियों को सुरेंद्र भाई बताते थे मैं बुझती जाती तो कहते "यह तो सुनना ही पड़ेगा तुम्हें। मैं तुम्हारा पाठक हूं कहने का हक है मुझे ।"

बेशक मेरे लेखन के निखार से सुरेंद्र भाई कहीं ना कहीं गहरे जुड़े हैं।

सुरेंद्र भाई को मैं अक्सर उचाट सा पाती ।वे पत्रकारिता के लिए बेहद चिंतित थे सारी व्यवस्थाओं में अव्यवस्था नजर आती उन्हें। हमेशा नई राहों की तलाश थी जिन्हें वे आने वाली पीढ़ी के लिए बनाना चाहते थे। धर्मयुग कार्यालय से लौट कर हम प्रायः मिला करते। उस रात लगभग 3:00 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोलते ही देखा सुरेंद्र भाई विजय भाई को कंधों का सहारा दिए ला रहे हैं। विजय भाई की जींस घुटने पर से फट चुकी थी और खून के काले पड़ चुके धब्बे थे वहां। माथे पर भी चोट के निशान थे।" क्या हुआ" घबरा गई मैं ।सुरेंद्र भाई ने उन्हें बिस्तर पर लेटाया। "घबराने की जरूरत नहीं संतोष, बस मै घंटे दो घंटे में पैसों का इंतजाम करके लौटता हूं तब तक तुम कॉफी बना कर पिलाओ विजय को।' सुरेंद्र भाई तेजी से चले गए सारा शहर रात के सन्नाटे में डूबा था लेकिन सुरेंद्र भाई दौड़ रहे थे अपने घायल दोस्त की खातिर उन सूनी सड़कों का सन्नाटा चीरते। किंग सर्कल में सड़क पर डिवाइडर पर कमर तक ऊंची दीवार सी है। ये लोग ट्रेन पकड़ने की जल्दी में दीवार फलांग रहे थे कि विजय भाई गिर पड़े। उनका घुटना पत्थर से जा टकराया और घुटने की केप चूर चूर हो गई ।

पैर सूजकर डबल हो गया। विजय भाई फ्री लांसर थे। जेब हमेशा मुंह बाए रहती ।मैं भी बेरोजगार थी। सो इस बात से चिंतित थी कि अब क्या होगा ।सिर्फ सुरेंद्र भाई पर भरोसा था ।एक फरिश्ते की तरह उन्होंने हमें संभाला। उनके आते ही हम सब नानावती अस्पताल गए। जहां विजय भाई का 3 घंटों का लंबा ऑपरेशन हुआ। सुरेंद्र भाई लगातार 3 घंटे बेचैनी से अस्पताल के गलियारे में टहलते रहे ।ऑपरेशन के बाद विजय भाई को पलंग पर सुला दिया गया और सुरेंद्र भाई फिर दौड़े ।लौटे तो हाथ में दोसे का पार्सल और थरमस में चाय थी ।मेरे हाथों पर कुछ नोट रखकर उन्होंने मुट्ठी बंद कर दी ।

"बिल्कुल परेशान मत होना। तुमने सुबह से कुछ खाया नहीं है ।पहले दोसा खा लो फिर घर जाकर थोड़ा आराम कर लेना।यहां सब मैं देख लूंगा ।"

मेरे सब्र का बांध टूट गया मैं उनसे लिपटकर रो पड़ी ।इतनी बड़ी मुंबई में कोई भी तो सगा संबंधी नहीं था। लेकिन सुरेंद्र भाई थे सगे-संबंधियों से बढ़कर।

' मैं हूं ना संतोष ,पगली... मुझ पर विश्वास नहीं।" मेरी रुलाई ने सारे बाँध तोड़ डाले ।विजय भाई के घुटने से तलवे तक प्लास्टर बंधा था। अचेतन अवस्था में अपने उस प्रिय दोस्त को देख और मुझे रोता देख सुरेंद्र भाई की आंखे भर आई। विजय भाई की दुर्घटना के बाद कितनी बार इस लौह पुरुष की आंखों में मैंने पनीली परते तैरती देखी थी ।विजय भाई के घुटने को सहलाते उनका हाथ कितनी बार काँपा था ।

'यार विजय, तुम बिना नी कैप के चलोगे कैसे? चांदी का कैप कहां से जुटाया जाए। हजारों का खर्चा है ।"

"हम आदत डाल लेंगे सुरेंद्र, बिना नी कैप के चलने की।"

विजय भाई ने जितनी वीरता से यह बात कही शायद उतनी ही हार सुरेंद्र भाई को महसूस हुई। मैंने उस दिन से पहले कभी सुरेंद्र भाई को रोते या हारते नहीं देखा था। मेरी नजरों में वे पूर्ण पुरुष थे। उनका फक्कड़ी मस्तमौलापन ,काम का लबादा ओढे ज़िंदगी की राहे नापना। पत्रकारिता की कठिन राहों को सुगम करने का प्रयास और गहरी जिजीविषा ।सुरेंद्र भाई भरपूर व्यक्तित्व के धनी थे ।ताउम्र वे पत्रकारिता के लिए जूझते रहे ।वही उनका लक्ष्य था और वहीं तक उन्हें पहुंचना था।

मैं पूर्णतया मुंबई में सैटल हो चुकी थी ।तब सुरेंद्र भाई मुंबई में नहीं थे। मैं उन्हें पत्रों से सारी सूचनाएं देती रहती। सुरेंद्र भाई और विजय भाई की दोस्ती के दसियों वर्ष की गवाह हूँ मैं। वे विजय भाई के दोस्त ही नहीं सलाहकार, सहकर्मी और साथ साथ एक दूसरे के दुखों से पीड़ित होने वाले दोस्त भी थे ।उनके अंदर संवेदनाओ का गहरा सागर था ।मैं उनसे जिरह करती प्रकाशकों के रवैये की, बरसो बरस छप कर भी बिना रूपये के किताब छापने को कोई तैयार नहीं।एक पैसे की रॉयल्टी नहीं।साहित्य में राजनीति की घुसपैठ है। पूंजीवाद की घुसपैठ है। लेखक आवाज उठाता है पूंजीवाद के खिलाफ लेकिन स्वयं चाकरी करता है पूंजी पतियों की। अपनी किताब के प्रकाशन की । लोकार्पण के लिए वह मुंह जोहता है उनका। साहित्य का क ख ग भी नहीं जानने वाले पूंजीपति आज पूजे जा रहे हैं साहित्य में। सुरेंद्र भाई ......ये कैसे पत्रकार है जो रिश्वतखोरी के खिलाफ कलम तो उठाते हैं परंतु चाहते हैं मुफ्त इलाज, मुफ्त दवाएं, मुफ्त रेलयात्रा, मुफ्त किताबें ,और मुफ्त विज्ञापन का माल ।शराब की दुर्गति पर लिखने वाला पत्रकार शराब की एवज लेख छापता है ।यह कैसी पत्रकारिता है ? वे समझाते "यह तो तूफान के पूर्व की स्थिति है ।तूफान गुजर जाए फिर सब ठीक हो जाएगा।' सुरेंद्र भाई ने मेरी कहानी "इंतसाब" रविवार में छापी। लिखा "तुमने बेमिसाल लिखा है ।अब तुम्हारी रचनाएं प्रौढ हो गई ।अब तुम पूर्ण कथाकार बन गई ।"

वे महान शिल्पी थे ।न जाने कितनों को बना गए। विजय भाई से कहते थे ....."मेरे मन में पत्रकारिता को लेकर एक सागर उफ़नता रहता है ।"

हां उनके अंदर एक सागर उफनता रहता था । यह सागर उस दिन छलक पड़ा था जब विजय भाई मात्र 44 वर्ष की अवस्था में हार्टफेल हो जाने से चल बसे थे।

सुरेंद्र भाई अंदर ही अंदर रोए होंगे ।टूटे होंगे ।लेकिन हमें तसल्ली दी ।फोन आया.... "हौसला रखो ,हम मुंबई पहुंच रहे हैं।"

 वे आए और आते ही रोती बिलखती अम्मा के आंसू पोंछ भर्राये गले से बोले...." मैं हूं ना ,विजय की प्रतिकृति....।" लेकिन क्रूर काल ने यह प्रतिकृति भी हमसे छीन ली। उपहार थिएटर में आग लगने की दुर्घटना के बाद उनके दिमाग की नसें फट गई और फट गया सागर का विस्तार, उफ़न आये ज्वालामुखी, आंसुओं के सोते ।उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर सुन मैंने दिल्ली जाने की तैयारी कर ली। पर उन्होंने मौका ही नहीं दिया। चंद घंटों में ही चल बसे। मैं थर्रा उठी हूं और थर्रा उठे है वे दिन, वे यादें ,.....क्या भूलूं.... किसे याद करूं..... कलकत्ते के सुरेंद्र भाई को जिन्होंने रविवार में मेरी रचनाएं छापकर मुझे प्रौढ़ लेखिका का दर्जा दिया या मुंबई के सुरेंद्र भाई को जो व्हील चेयर से टैक्सी तक विजय भाई को लाते हुए चिंतित थे कि विजय बिना नी कैप के चलेगा कैसे ? या दिल्ली के सुरेंद्र भाई को जो भीष्म पितामह की तरह पत्रकारिता के हस्तिनापुर को बचाने के लिए कटिबद्ध थे।समाचार चैनल "आज तक "का आकर्षक कार्यक्रम देखने को रोज की हमारी प्रतीक्षा..... फोन पर हमारी शिकायत ....."सुरेन्द्र भाई आप भाभी को लेकर एक बार भी यहां नहीं आए "और उनका वादा "आएंगे संतोष जल्दी ही आएंगे"

कब आएंगे सुरेंद्र भाई आप? आप तो उस राह चल पड़े जहां से वापसी असंभव है।......... जाइए मेरे प्यारे सुरेंद्र भाई आप को विदा दे रहे हैं वे तमाम पत्रकार जिन्हें आपने राह सुझाई ,रोती सिसकती मै ,भरभरा कर टूटी भाभी और दूरदर्शन की वो पूरी टीम जो आज तक से लोकप्रिय हुई। अलविदा ....सुरेंद्र भाई..... अलविदा ।

संतोष श्रीवास्तव की स्मृति से


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ऐसे थे हमारे भाई साहब कमलेश्वर

 (  सुरेन्द्र लाओ बीड़ी पिलाओ  )


बात उन दिनों की है जब मैं एल-एल . बी प्रथम वर्ष में था तभी से मुझे सारिका मासिक पत्रिका का नियमित पाठक हो गया था मुझे सारिका की कहानियाँ बेहद पसंद आती थीं उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी जो सारिका के सम्पदक थे ने कहानी का एक आंदोलन चलाया था " समांतर कहानी " और कहानीकारों का एक संघ बनाया था नाम था " समांतर लेखक संघ " सारिका की कहानियाँ पढ़ते पढ़ते मुझे ऐसा लगता था कि मैं भी ऐसी कहानियाँ लिख सकता हूँ और एक दिन मैं कागज़ क़लम लेकर बैठ गया और एक ही सिटिंग में एक कहानी लिख दी शीर्षक रखा  "अगिहाने " और बिना कुछ सोचे समझे सारिका में भेज दी कुछ समय बाद कमलेश्वर जी का हस्तलिखित पत्र मिला " प्रिय भाई 

कहानी मिली पसंद आई इसे हम सारिका के नवलेखन अंक 9 में प्रकाशित करेंगे तुम अति शीघ्र अपना फोटो और संक्षिप्त परिचय भेज दो 

कमलेश्वर " 

मैं तो मारे खुशी के उछल ही पड़ा पत्र लेकर अपने मित्र ओम प्रकाश के पास कासगंज गया उसे पत्र दिखाया मेरे लिए यह बहुत ही बड़ी उपलब्धि थी कि कमलेश्वर जी का हस्तलिखित पत्र उसने पत्र पढ़ा और फाड़ दिया मैं हतप्रभ रह गया बहुत ही गुस्सा हुआ पर ओम प्रकाश बोला ये क्या खुशी की बात है खुशी की बात तो तब होगी जब लोग तुम्हारे पत्र को ऐसे ही दिखाएं 

बहरहाल मैं घर वापस आ गया सन 1975 में सारिका के नवलेखन अंक में  "अगिहाने " प्रकाशित हुई उसकी बहुत ही चर्चा हुई विशेष रूप से बिहार में कई भाषाओं में उसके अनुवाद के लिए पत्र आए मेरी तो प्रसन्नता की सीमा ही नहीं थी 

कुछ दिनों बाद कमलेश्वर जी का फिर एक पत्र मिला कि उक्त तारीखों में बिहार में राजगीर में समांतर लेखक संघ की त्रिदिवसीय गोष्ठी है तुम आ सकते हो तो आ जाओ मैं तो फूला न समाया 

उक्त समय पर राजगीरि पहुंच गया राजगीरि के एक गेस्टहाउस के सामने लॉन पर लेखक लोग बैठे हुए थे जैसे ही मैं पास पहुंचा कमलेश्वर जी ने सुदीप से पूछा कि बताओ ये कौन हैं सुदीप जी ने कहा कि ये " अगिहाने " के लेखक सुरेन्द्र सुकुमार हैं मैं तो दंग रह गया पर शीघ्र ही समझ में आ गया कि मेरे काले लंबे घुँघराले बालों के कारण मुझे पहचान लिया है ख़ैर मैं भी गोष्ठी में शामिल हो गया उन दिनों मैं नया नया साम्यवादी हुआ था सो बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहा था गोष्ठी में कमलेश्वर जी बार बार कहानियों में शोषक को नँगा करने और शोषित को संगठित होकर शोषक के विरुद्ध लड़ने की बात कर रहे थे मुझे भी बहुत अच्छा लगा गोष्ठी के बाद सब लोग एक दूसरे से मिलने लगे 

बिहार से आए एक पाठक के के सिंह जो पी डब्ल्यू डी में बड़े ठेकेदार थे ने मुझे एक एम्बेसडर कार एक ड्राइवर और डिग्गी में रखा शराब का एक कार्टून मेरे हवाले किया और खुद वापस पटना चले गए अब तो मेरे मज़े ही मज़े थे उस सम्मेलन में मेरे दो घनिष्ठ मित्र बन गए थे ह्रदय लानी और अंजनी चौहान अंजनी डॉक्टर थे वो मेरे एक रिश्ते के भांजे के मित्र थे इसलिए वो मुझसे मामा श्री कहने लगे हम लोगों के शौक भी समान थे सो खूब मज़े आ रहे थे तीन दिन लगातार गोष्ठी में गर्मागर्म बहस होती रहीं कमलेश्वर जी के बोलने का अंदाज ही निराला था " सवाल यह नहीं है कि शोषण कौन कर रहा है सवाल यह भी नहीं है कि शोषित कौन है सवाल यह है कि हमें शोषित वर्ग को जाग्रत कैसे करना है आदि आदि " मेरे आस पास तो पीने वाले मित्रों का तांता लगा रहता था तीन दिन बहुत ही मज़े आए 

फिर मैं वापस घर लौट आए घर आते ही मुझे कमलेश्वर जी का पत्र मिला कि किन्हीं ज़िमीदार ने मानहानि का मुक़दमा किया है उसमें पार्टी मुझे सम्पदक होने के नाते कमलेश्वर जी और मुद्रक प्रकाशक श्री कृष्ण गोविंद जोशी को बनाया है उक्त तारीख़ को तुम्हें एटा कोर्ट में हाज़िर होना है तुम्हें भी सम्मन मिला होगा इन बातों में पड़ना ठीक नहीं है तुम जल्दी से जल्दी कोई रास्ता निकाल कर समझौता करने की कोशिश करो मैं तुम्हें मेरे मित्र बलवीर सिंह रंग का पता दे रहा हूँ उनसे मिल कर केस को रफ़ा दफ़ा करो "

मेरे पास कोई सम्मन नहीं आया था उन्होंने रुकवा दिया था रंग जी को मैं अच्छी तरह से जानता था मैं उनसे मिला भी वो बोले " कमलेश्वर का मेरे पास भी पत्र आया है 

ठाकुरों की यह हिम्मत कि एक साहित्यकार पर मुक़दमा करें तुम चिंता मत करो मैं उक्त तारीख पर कोर्ट में पहुंच जाऊंगा मैंने पता लगाया तो पता चला कि इस मुक़दमे में हमारे ख़िलाफ़ 18 एडवोकेट जिले के डीएम और एस एस पी भी गवाह थे हमारा मुक़दमा कोई लेने को तैयार ही नहीं था एक सीनियर एडवोकेट अश्वनी कुमार ने हमारा केस लिया केस श्री एस के सक्सेना की कोर्ट में था 

मैं उक्त तारीख को कोर्ट पहुंचा तो देखा कि वाररूम में रंग जी वकीलों से घिरे बैठे थे और कह रहे थे कि कल के लड़के की इतनी हिम्मत कि ठाकुरों से टक्कर ले 

रंग जी भी ठाकुर थे आज उनका ठाकुर जग गया था मैं उल्टे पाँव लौट आया 

मैं हर तारीख पर जाता रहा रात को अश्वनी भाई साहब के घर पर ही रुकता था 

एक दिन मैं नहर पर पड़ाव पर बैठा था मेरे साथ बल्लू भी था हम लोग शराब पी रहे थे कि बल्लू इलाके का अपराधी था क़त्ल किडनैपिंग उसका पेशा था मैं उन दिनों एल एल बी के अंतिम वर्ष का छात्र था इसलिए इलाके के लोग मुझे वकील साहब कहने लगे थे 

अचानक बल्लू बोला कि वकील साहब जे डॉक्टर को छोरा कौन है मैंने पूछा क्यों क्या हुआ तो बोला कि कुँवर साहब ने 5000 ₹ दिए हैं बाके क़त्ल के लै बाकी 20000 हजार बाद में देंगे " मैंने कहा कि "ठीक है डॉक्टर को छोरा तो मैं ही हूँ मार डालो तो बोला " का कई ? " मैंने कहा  "हाँ " तो बोला  "अच्छा सारो मोई से मेरे यार कूँ मरवाय रहो है " अब देखत हूँ हरामजादे को " और उठ कर कुँवर साहब की हवेली के दरवाज़े पर जाकर सैकड़ों गालियाँ सुनाईं उस समय रात के 10 बजे थे

हर तारीख पर कोर्ट में सैकड़ों लोग जमा होते थे कुछ समय बाद एस के सक्सेना ने केस छावड़ा साहब के कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया क्योंकि एस के सक्सेना धर्मवीर भारती के मौसेरे भाई थे उन्होंने सोचा कि कमलेश्वर और भारती मित्र हैं तो क्यों इस झंझट में पड़ा जाए

तारीख पर तारीख पड़ती रहीं और हम हर तारीख पर जाते रहे एक वर्ष बाद सारिका के एक अंक में सम्पादक और प्रकाशक की ओर से खेद प्रकाशन किया गया कि अगिहाने कहानी के प्रकाशन से यदि किसी की भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो हमें खेद है और कमलेश्वर जी और श्री कृष्णगोविंद जोशी मुक़दमे से अलग हो गए अब रह गया मैं अकेला मैं लड़ता रहा 

अगिहाने के प्रकाशित होने के कुछ समय पश्चात मेरी कहानी " अपने जैसे लोग " धर्मयुग में स्वीकृत हुई पर उसके साथ एक फॉर्म आया उसमें लिखा था कि इस कहानी का संपादक प्रकाशक कोई लेना देना नहीं है यह परंपरा तभी से शुरू हुई 

अब यह मुक़दमा छावड़ा साहब अदालत में चलने लगा मैं भी बहुत थक चुका था जब उस मुक़दमे की आखिरी हियरिंग थी उस दिन मुझसे पूछा गया कि आप कहते हैं कि कहानी काल्पनिक है तो इन्होंने आपके ऊपर मुक़दमा क्यों दायर किया मैंने कहा कि इनकी बहन से मेरा अनैतिक सम्बंध है एक दिन इन्होंने मुझे रंगे हाथ पकड़ लिया इसलिए क्षुब्ध होकर इन्होंने मुझ पर मुक़दमा दायर कर दिया अब क्या था कोर्ट में तो सन्नटा खिंच गया छावड़ा साहब ने उनकी बहन के नाम सम्मन जारी किया कि वो कोर्ट में आकर बताएं कि सच्चाई क्या है 

लौटते समय कुँवर साहब ने मुझसे कहा कि तुमने ऐसा क्यों कहा मैंने कहा कि जब आपने बल्लू को मुझे मारने के लिए रुपये दिए थे तब आपने बहुत अच्छा किया था 

उनकी बहन यदि कोर्ट में पेश होती तो बहुत ही बदनामी होती इसलिए उन्होंने बहन को कोर्ट में पेश नहीं किया कोर्ट का दवाब पड़ने लगा हार कर उन्होंने मुक़दमा वापस ले लिया उस दिन छावड़ा साहब ने हमें डिनर पर बुलाया जब हम यानिकि मैं और अश्विनी भाई साहब खाने पर उन्होंने कहा कि हम तो बहुत पहले ही यह मुक़दमा खारिज़ कर देते फर्स्ट ऑफेंडर की धारा में इसमें यह होता है कि यदि किसी ऐसे व्यक्ति पर कोई केस चलता है जिसका भविष्य उज्जवल हो और उसका पहला केस हो तो उसे वार्निंग देकर छोड़ दिया जाता है

पर हम तो कमलेश्वर को देखना चाहते थे

अगिहाने कहानी से हमसे बहुत से पाठक जुड़ गए थे उनमें एक था मुंबई का मेहरू गोविंद वो चित्रकार भी था उसके लगातार पत्र मेरे पास आते थे एक दिन उसका पत्र आया कि अमुक तारीख को उसकी शादी है और तुम्हें ज़रूर आना है यदि तुम नहीं आए तो मैं शादी नहीं करूंगा इसे तुम मज़ाक़ मत समझना ये चेतावनी है मजबूरी में मुझे जाना पड़ा मैं पहली बार मुंबई जा रहा था वो मुझे दादर स्टेशन पर मिल गया वो चेम्बूर में सिंधी कैंप में रहता था उसने एक फ्लैट मेरे लिए खाली करबा लिया था मैं उस में रुक गया ढेर सारी बातें होती रहीं 

उन दिनों केवल दूरदर्शन ही था और दूरदर्शन पर कमलेश्वर जी का एक कार्यक्रम बहुत ही पॉपुलर था नाम था " परिक्रमा " सो कमलेश्वर जी को लोग नाम से ही नहीं शक़्ल से भी पहचानते थे मुझे कमलेश्वर जी से मिलने जाना ही था तो मेहरू मुझसे बोला मैं भी चलूंगा और शादी का कार्ड दूँगा वो अगर आ जाएंगे तो मज़ा आ जाएगा हम दोनों सारिका के कार्यक्रम में गए वो भी बहुत प्रसन्न हुए मेहरू ने कॉर्ड दिया भाई साहब ( कमलेश्वर ) ने वायदा किया कि आऊंगा और वो आए भी शादी में तो चार चांद लग गए सब भाई साहब के प्रति आकर्षित थे ऑटोग्राफ ले रहे थे

वो भी बहुत सहजता से सबसे मिल रहे थे

उस समय पहली बार मुंबई मुझे मेहरू ने घुमाया उसके बाद तो असंख्य बार मुंबई जाना हुआ पर जो मुंबई उस बार देखना हुआ वो तब ही हुआ 

दिन बीतते गए कुछ समय बाद दूसरा 

समांतर लेखक सम्मेलन गुजरात के अंजार में हुआ मैं भी शामिल हुआ तबतक तो मेरी बहुत कहानियाँ सारिका और धर्मयुग में प्रकाशित हो चुकी थीं और मेरा नाम काफी चर्चित हो चुका था अंजार में भी बहुत लेखक शामिल हुए थे उनमें कुछ हमारे पुराने मित्र भी थे जैसे कि अंजनी चौहान वहाँ भी जोरदार बहसें होती रहीं एक दिन शाम को पीने खाने के बाद हम लोग काठ की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे कि मेरा पैर लड़खड़ाया पीछे से किसी ने कहा कि देखो यू पी गिर रहा है कोई संभालो नीचे खड़े भाई साहब ने कहा कि कोई बात नहीं मैं यू पी से हूँ मैं संभाल लूंगा मेरे पीछे हिमांशु जोशी थे फिर वो लड़खड़ाए मैंने कहा कि मेरे ऊपर तो पहाड़ गिर रहा है अब कौन संभालेगा नीचे खड़े डॉक्टर विनय ने कहा कि यहाँ समांतर सम्मेलन के लिए आए हैं या प्रांत वाद के लिए हम लोगों का नशा पल भर में उतर गया 

उस सम्मेलन में मराठी भाषा के कुछ बड़े दलितसाहित्य के लेखक भी शामिल हुए थे जैसे 

दया पंवार , बाबूराव बागुल , आदि और दाउदी बोहरा समाज के विद्रोही नेता असगर अली इंजीनियर उस बार हम सब लोग कच्छ का रन देखने भी गए बहुत ही मज़ा आया

उसके बाद हम जब भी मुंबई जाते भारती जी और कमलेश्वर जी से अवश्य मिलते थे दोनों को मैं भाई साहब ही कहा करता था 

उन दिनों धर्मयुग और सारिका में मेरी कहानियाँ निरंतर प्रकाशित हो रही थीं 

उसके बाद कमलेश्वर जी दिल्ली दूरदर्शन में एडिशनल डायरेक्टर जनरल के पद पर आ गए 

कासगंज के मेरे घनिष्ठ मित्र दिनेश अवस्थी जो उन दिनों डिग्री कॉलेज में इकनॉमिक्स के लेक्चरर थे जो अब अहमदाबाद में एक यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं बहुत बार कहते थे कि हमें कमलेश्वर जी से मिलवा दो उनके बार बार कहने पर हम दिल्ली दूरदर्शन उनके कार्यालय में गए वहाँ बहुत से लोग उनसे मिलने के लिए बैठे थे हमने भी अपनी पर्ची भिजवा दी हमने सोचा था कि पर्ची देखते ही वो हमें बुलवा लेंगे पर हुआ उल्टा वो दो दो लोगों को एक साथ बुलवा रहे थे पर सब लोग जाते रहे हमारा नम्बर ही नहीं आया मैं बहुत ही झुंझला रहा था अंत में हमारा नम्बर आया तबतक सब लोग जा चुके थे हमने देखा कि भाई साहब पाइप पी रहे थे मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला अरे वाह भाई साहब बीड़ी से सिगरेट सिगरेट से सिगार और सिगार से अब पाइप आपने तो बहुत ही तरक्की कर ली है " तो वो बोले " इसीलिए तो हमने तुम्हें सबसे बाद में बुलाया है तुम्हारे मुंह में जो आता है बक देते हो कहो कैसे आना हुआ ? " मैंने कहा बस मिलने के लिए ये मेरे मित्र हैं दिनेश अवस्थी ये आपसे मिलने के बहुत इच्छुक थे फिर उन्होंने चाय आदि मंगवाई हम लोग मिल कर चले आए मुलाक़ात बहुत अच्छी रही 

उसके बाद वो जब भी अलीगढ़ किसी गोष्ठी में आते तो गोष्ठी के बाद में मेरे पास आते और आते ही सुरेन्द्र लाओ बीड़ी पिलाओ जरूर कहते और मैं दो बीड़ी सुलगाता एक अपने लिए एक उनके लिए और यह सिलसिला उनके जाने तक चलता रहा

ऐसे थे हमारे भाई साहब कमलेश्वर जी


-सुरेंद्र सुकुमार की स्मृति से


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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

 फिर फिर अजित कुमार


गुरुवर अजित कुमार यत्र-तत्र-सर्वत्र ‘अजित जी’ विख्यात थे. हमारे माता-पिता के लिए भी वही हुए. 

हम विश्वविद्यालय से कक्षाएं ख़त्म होने पर उनकी एम्बैसडर कार में लद लेते – वे मॉडल टाउन जाते थे और हमारा घर रास्ते में पड़ता. कभी किसी दिन बहुत आग्रह के साथ हम उन्हें अपने घर ले गए. हमारी मां के हाथ के बने भोजन का स्वाद वे फिर कभी न भूले. उन्हें हमारे डॉक्टर भाई की किताबों का संग्रह बहुत पसंद आया जिसमें डॉ जिवागो, The day of the Jackal, I am Ok you are Ok, और डेल कार्नेगी की How to win friends and influence people, How to stop worrying and start living जैसी किताबें थी. 

सर कहते –  मेरे संगी-साथियों में मेरी ख्याति है कि मुझे वह तो अच्छा लगता ही है जो अच्छा है, जो अच्छा नहीं है, वह भी कुछ ख़ास बुरा नहीं लगता. वे अक्सर यह भी कहते – जो हो गया सो अच्छा और जो न हुआ वह और भी अच्छा ! यह बात हमारे बूढ़े माता-पिता को खूब पसंद आती. हमारे घर में सब उनके मुरीद हो गए.

ऐसे थे गुरुवर, ऐसा था उनका साथ …

हरि अनंत हरि कथा अनंता ! 
कहहिं सुनहिं बहुविधि सब संता !!

प्रस्तुति - विजया सती

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 गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा

हिन्दू कॉलेज में हरी-भरी घास हमेशा रंग-बिरंगे फूलों के साथ मुस्कुराती मिलती. कॉलेज के पिछले हिस्से में खेल का विशाल मैदान, कैंटीन के समोसों की खुशबू से हाथ मिलाता. उसके बाद पड़ती एक संकरी गली जो सीधे किरोड़ीमल कॉलेज पहुंचा देती – वहां पढ़ाते थे मेरे गुरुवर अजित कुमार !

गुरुवर अजित कुमार …कवयित्री सुमित्रा कुमारी सिन्हा के पुत्र, सप्तक कवयित्री कीर्ति चौधरी के बड़े भाई, बीबीसी फेम ओंकारनाथ श्रीवास्तव के सखा, सहपाठी और अनन्तर संबंधी. विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हमें समकालीन हिन्दी साहित्य के विकल्प प्रश्न पत्र में अज्ञेय की कविता ‘असाध्य वीणा’ पढ़ाने आए.

इस कविता के सहज, गहन, संवेदनशील व्याख्याता के रूप में सबके मन को भा गए... आ गए प्रियंवद केश कम्बली गुफागेह ..अपने स्वर और मुद्राओं से कविता के पात्रों को साकार कर देने वाले कविवर !

इनके मार्गदर्शन में ही मैंने कुंवर नारायण के आत्मजयी पर एम.ए का लघु शोध-प्रबंध लिखा और कवि भवानी प्रसाद मिश्र पर पीएचडी का शोध प्रस्तुत किया. दोनों कवियों पर काम करते हुए, सर से हिंदी कविता की जो समझ पाई, उसे शब्दों में कहना मुश्किल.

छात्र जीवन से अध्यापन तक - समय के एक लम्बे अंतराल में सर से भरपूर संवाद करने का अवसर मिला. उनके सानिध्य में कितनी ही चर्चाएं सहज ही आ जुड़ती - साहित्यिक गतिविधियां, चर्चित पुस्तकें, अच्छी फिल्में, सामयिक सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दे या फिर किसी अच्छे शे'र, अच्छी कविता का पाठ. ‘सन्नाटा’ और ‘घर की याद’ कविता पहले-पहल सर के भावपूर्ण स्वर में सुनकर ही तो भवानी प्रसाद मिश्र से मन जा जुड़ा था.

धीरे-धीरे सर मेरे फ्रेंड, फिलोसॉफर और गाइड हुए और इस भूमिका में अनवरत राह दिखाते रहे. सर हमेशा रचनात्मक लेखन के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहते- 'हमारे गुरुवर बच्चन जी कहते थे कि पहले सौ पन्ने पढ़ो तब एक पन्ना लिखो.' यह बात मैंने गांठ बांध ली. मेरी टूटी-फूटी कविताओं के पहले पाठक सर ही बने !

एक दिन सर ने अंग्रेजी की पुस्तक पढ़ने को दी - पोएम्स दैट टच द हार्ट. सुनहरे शब्दों से जड़ी खलील जिब्रान डायरी भी. उस डायरी के कितने ही पन्ने मर्मस्पर्शी कविताओं से रंगे हुए, आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं.

उमर खैय्याम, फिटज़रेल्ड, सार्त्र, कामू, एज़रा पाउंड, इलियट और भी कितने ही नाम हैं, इन सभी से परिचय का सूत्र सर से ही मिला. 'हमारे गुरुवर बच्चन जी कहते थे' - लगभग हर बातचीत में उनका यह प्रिय वाक्य उभर आता और तकिया कलाम था- 'ये है कि'. हर वाक्य इसी से शुरू होता. ....भई ये है कि तुम लोग फ़िराक को पढ़ो, गालिब को जानो….. हमें गुल-ए-नग्मा से परिचित कराते हुए सर ने यह पंक्तियां सुनाई –

ग़ज़ल के साज उठाओ, बड़ी उदास है रात
सुखन की शमा जलाओ, बड़ी उदास है रात
कोई कहे ये ख्यालों से और ख्वाबों से
दिलों से दूर न जाओ बड़ी उदास है रात !

और इस तरह फ़िराक हमारे प्रिय शायर हुए.
अपनी जीवन दृष्टि को सर अक्सर यूं व्यक्त करते –

फुगां कि मुझ गरीब को हयात का ये हुक्म है
समझ हरेक राज़ को मगर फरेब खाए जा !

और हंसते हुए कहते – देखो मेरे लिए जीवन का यही आदेश है कि सभी रहस्यों को जानूं लेकिन धोखा खाता रहूँ !

कितनी ही कविताएं, कितना गद्य, भवानी प्रसाद मिश्र और कुंवर नारायण, नई कविता, सप्तक काव्य, हिन्दी कविता की पृष्ठभूमि पर कितनी  बातें, कितने प्रसंग, कितने चुटकुले-मुहावरे सर के मुख से सुनकर, वह दुनिया हमारी जानी पहचानी हो गई. सर ने मुझे कविता के गहन अर्थों की खोज करना सिखाया. वे कहते – कविता की दो लिखित पंक्तियों के बीच एक अलिखित पंक्ति होती है – उसी में कविता का अर्थ निहित होता है. Between the lines कविता क्या कह रही है, उसे समझने की कोशिश करो.

तमाम व्यस्तताओं से घिरा सर का स्वर बदलता रहता - 'अरे भई बहुत खिट-खिट है जीवन में'- सर का बार-बार यह कहना याद आता है. लेकिन हम देखते रहे कि यह खिट-खिट दरअसल सर की प्रिय व्यस्तता का ही दूसरा नाम है !

लन्दन में बहन कीर्ति के यहां वे आकस्मिक रूप से अस्वस्थ हुए, लम्बे इलाज के बाद अपने मनोबल और जीवनेच्छा से उबरे और भारत लौटे.

रोग के झटकों से उबरना और अपने प्रिय कामों में जुटे रहना - यही तो था सर का जीवन क्रम !

सर ने जीवन को स्थिरता-शांति प्रदान करने वाले तत्वों की खोज अपने तईं की और उनके अनुरूप जिए. बहन कीर्ति चौधरी के अप्रकाशित लेखन का प्रकाशन सर के जीवन का ऐसा ही एक मिशन था. जब कीर्ति चौधरी की समग्र कविताएं आई और फिर समग्र कहानियां – सर आंतरिक प्रसन्नता से सराबोर हुए.

ओंकारनाथ श्रीवास्तव जी की पुस्तक 'दुनिया रंग बिरंगी' के प्रकाशन ने सर को कितनी संतुष्टि दी ! स्नेहमयी चौधरी के कविता संकलनों की न केवल साज-संवार, बल्कि उनसे निरंतर आग्रह-मनुहार कि स्नेह ! अब संग्रह आना चाहिए, इतनी कविताएं हो गई हैं !.. सर के जीवन के सहज सत्य रहे.

पांडुलिपियां असंख्य थी, सर डूबे रहते ..संचयन-सम्पादन, प्रतिलिपियां, प्रकाशक !

आज सर की अत्यधिक प्रिय कविता पंक्तियां याद आ रही हैं....खैय्याम, फिटज़रेल्ड, बच्चन तीनों के प्रसंग में सार्थक पंक्तियां -
Ah Love ! could you and I with him conspire

To grasp this sorry scheme of things entire

Would not we shatter it to bits and then

Remould it nearer to the heart's desire !

यह सर का जीवन स्वप्न ही था .. इस बेढ़ब दुनिया को तोड़-मरोड़ कर अपने अनुरूप कर लूं.

बतरस और गप्पाष्टक भी सर के प्रिय शब्द रहे. इन्हीं के तहत कभी-कभी सर अपने बचपन में पहुँच जाते.. ‘मां मधुर स्वर में गाती और गीत लिखती थी, पिता चौधरी राजेन्द्र शंकर युग मंदिर, उन्नाव के प्रकाशन कार्यों में व्यस्त रहते, निराला जी उन्नाव आकर घर ठहरते. पिता के नाम से ही हम भी अजित शंकर चौधरी हुए, कीर्ति प्रिय बहन बिन्नो थी, उनके पति ओंकार नाथ श्रीवास्तव, सहपाठी और मित्र ...सिर्फ ओंकार. छोटे भाइयों अभय और अमरेन्द्र, पूनम और साधना के प्रति आपकी सहज प्रीति शब्दों में छलकती.  

हम सर के घर में हरीश चन्द्र सनवाल जी की उपस्थिति को नहीं भूल सकते. वे पारिवारिक सदस्य की तरह सर को समझाते, डांटते, घर की व्यवस्था करते और रूठते भी.

बेटू.. पवन कुमार चौधरी, पुत्रवधू सुचित्रा, अगली पीढ़ी में चिंटू-मिंटू, सेतु-मीतू सर के जीवन के आधार स्तम्भ रहे..शब्दों से नहीं, अनुभव से जाना.
 
बचपन कई-कई छवियों के साथ सर की स्मृति में आता .. मेले से एक ख़ास खिलौना खरीदने का किस्सा ..लगभग सर के शब्दों में याद आता है – ‘उन्नाव और आसपास मेले में मेरा प्रिय खिलौना था – उलूक पाठा यानी उल्लू का पट्ठा. यह गोल पेंदी वाला एक ऐसा बबुआ होता जिसे सब ओर से चपत लगा कर गिराया जा सकता था, पर वह हरबार सही मुद्रा में खड़ा हो जाता. मैं भी वही हूँ, जिन्दगी के थपेड़े गिराते हैं, मैं बार-बार उठ खड़ा होता हूं !’

सर की कही यह बात मेरे मन से कभी न उतरी.. हँसते हुए सर ने कहा था - ‘यह तो मैं अपनी जिन्दगी में कभी करने-कहने वाला नहीं कि  ...मैंने पानी पी लिया, मेरी घोड़ी ने पानी पी लिया, ऐ कुंए तू ढह जा’.

कानपुर के डीएवी कॉलेज से अध्यापन आरम्भ करने वाले सर, दिल्ली के विदेश  मंत्रालय में बच्चन जी के सहयोगी होते हुए, दिल्ली विश्वविद्यालय में आए. सर के मेल-मिलाप के दायरे से बच्चन जी, डॉक्टर नगेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, मैडम निर्मला जैन, मन्नू भंडारी, भारत भूषण अग्रवाल-बिंदु अग्रवाल, केजी और अर्चना वर्मा, शैल कुमारी मैडम .. और भी कितने-कितने साहित्यिक परिचयों को जाना .

सर ! आपका जीवन था कि जादूगर की पिटारी ! आपके जीवन की पुटलिया से जादूगर के पिटारे की तरह अभी कितना कुछ आना शेष था, आपने क्यों कह दिया...

व्यस्त नहीं अस्त हूं मैं
बस समझो कि नष्ट हूं मैं !

आपके बहुत से विद्यार्थी देश-दुनिया में बिखरे हुए हैं. सबके मन में आपकी बहुत सी स्मृतियां और छवियां होंगी, मेरे मन की भी यह एक.. इस कविता में छिपी .. आपकी स्मृति को ये पंक्तियां समर्पित करते हुए आप ही का कहा याद आ रहा है – 'मन की बात कहने से आदमी छोटा नहीं होता'. कविता है – भवानी प्रसाद मिश्र की, शीर्षक ‘कमल के फूल’...

फूल लाया हूं कमल के
क्या करूं इनका ?
पसारें आप आंचल
छोड़ दूं
हो जाए जी हल्का !
....................

और अंत में कविता कहती है ..

ये कमल के फूल
लेकिन मानसर के हैं
इन्हें हूं बीच से लाया
न समझो तीर पर के हैं !

सर ! आप ने ही समझाया था इस कविता का अर्थ कि हृदय की गहराई से निकले अछूते संवेदन कितने मूल्यवान होते हैं  !

आपकी बदौलत मैंने जीवन भर ऐसे संवेदनों को संजोया और उल्लास का अनुभव किया. मेरे जीवन में आपकी यह अनूठी देन है. मेरे विद्यार्थी जीवन को छोटी-छोटी अनगिनत खुशियों से भर देने के लिए, केवल हार्दिक आभार भर कह कर कैसे थम जाऊं गुरु जी !

प्रस्तुति - विजया सती

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'असाध्य वीणा' अज्ञेय के स्वर में




'आँगन के पार द्वार' में संकलित 'असाध्य वीणा' नामक यह लम्बी कविता अज्ञेय जी रचनाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है | प्रस्तुत है स्वयं अज्ञेय जी की गुरु गंभीर वाणी में इस कविता का पाठ-







स्रोत - अज्ञात, प्रेषक - डॉ. अशोक प्रियदर्शी

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