फिर फिर अजित कुमार
गुरुवर अजित कुमार यत्र-तत्र-सर्वत्र ‘अजित जी’ विख्यात थे. हमारे माता-पिता के लिए भी वही हुए.
हम विश्वविद्यालय से कक्षाएं ख़त्म होने पर उनकी एम्बैसडर कार में लद लेते – वे मॉडल टाउन जाते थे और हमारा घर रास्ते में पड़ता. कभी किसी दिन बहुत आग्रह के साथ हम उन्हें अपने घर ले गए. हमारी मां के हाथ के बने भोजन का स्वाद वे फिर कभी न भूले. उन्हें हमारे डॉक्टर भाई की किताबों का संग्रह बहुत पसंद आया जिसमें डॉ जिवागो, The day of the Jackal, I am Ok you are Ok, और डेल कार्नेगी की How to win friends and influence people, How to stop worrying and start living जैसी किताबें थी.
सर कहते – मेरे संगी-साथियों में मेरी ख्याति है कि मुझे वह तो अच्छा लगता ही है जो अच्छा है, जो अच्छा नहीं है, वह भी कुछ ख़ास बुरा नहीं लगता. वे अक्सर यह भी कहते – जो हो गया सो अच्छा और जो न हुआ वह और भी अच्छा ! यह बात हमारे बूढ़े माता-पिता को खूब पसंद आती. हमारे घर में सब उनके मुरीद हो गए.
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